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एक पुल जिसे कई बार बनाया गया

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एक पुल जिसे कई बार बनाया गया

बल्गेरिया में सजग होइए! लेखक द्वारा

उत्तर-मध्य बल्गेरिया के ऑसुम नदी के ऊपर एक छतदार पुल बना है, जिसे ‘लोवेच का पुल’ कहा जाता है। इस आलीशान ढाँचे की दास्तान उतनी ही दिलचस्प है, जितनी कि इस पर आने-जानेवाले लोगों की।

इस पुल की तरफ ध्यान खींचनेवाले सबसे पहले शख्स थे, ऑस्ट्रिया के भूवैज्ञानिक एमी ब्वे। उन्होंने सन्‌ 1830 के दशक में, लोवेच नगर का दौरा किया था। उन्होंने अपनी किताब में “एक पुल” के बारे में लिखा, जो ‘छोटी-छोटी दुकानों से सजा था।’ जी हाँ, यह अनोखा पुल ऑसुम नदी के दोनों तरफ बसे लोवेच नगर को जोड़ता था, लोगों की आवाजाही के लिए रास्ता था, साथ ही यह अपने आप में एक बाज़ार भी था! यही वजह थी कि इस पुल को लोवेच की बिरादरी की शान माना जाता था।

शुरू-शुरू में लोवेच का यह छतदार पुल पत्थर का नहीं, बल्कि लकड़ी का बना था। लेकिन सालों के दौरान, कई बार बाढ़ आने की वजह से इस पुल को काफी नुकसान पहुँचा और इसलिए कई बार इसकी मरम्मत करनी पड़ी। आखिरकार, सन्‌ 1872 में आयी बाढ़ की वजह से यह पुल पूरी तरह नष्ट हो गया और इस तरह, लोगों की आवाजाही का यह अहम रास्ता उनसे छिन गया।

पुल को नए सिरे से बनाना कोई आसान काम नहीं था। इसलिए एक नए और मज़बूत पुल का नमूना बनाकर उसका निर्माण करने के लिए, बल्गेरिया के मशहूर शिल्पकार, कोल्यो फीचेटो को बुलाया गया।

एक निराली डिज़ाइन

फीचेटो ने नए पुल को पुराने पुल की तरह बनाने का फैसला किया। उसने छतदार पुल और उसमें छोटी-छोटी दुकानों का नमूना बनाया। उसने 275 फुट लंबे और 33 फुट चौड़े पुल को सहारा देने के लिए अंडाकार पाये जोड़े। हर पाये की ऊँचाई 15 फुट थी और जिस दिशा में नदी बहती थी, उस दिशा में अंडाकार पाये के पतले किनारे थे। इन पायों में एक निराली डिज़ाइन थी। उनके एकदम बीच से लेकर लगभग ऊपर तक लंबी दरारें बनायी गयी थीं, जिनसे बाढ़ का पानी गुज़र सके। फीचेटो ने पायों के ऊपर बाँज की टिकाऊ लकड़ी के शहतीर और तख्ते बिछाए। पुल का बाकी हिस्सा और रास्ते के दोनों तरफ कतार में बनी 64 दुकानें, बीच पेड़ की लकड़ी से बनी थीं। यही नहीं, छत भी इसी लकड़ी से बनायी गयी थी और उसके ऊपर लोहे की चादरें बिछायी गयी थीं।

फीचेटो के बने पुल की एक और दिलचस्प खासियत थी। उसने इस पुल को सहारा देनेवाले शहतीरों को जोड़ने के लिए लोहे के जुड़नारों और गढ़े हुए कीलों का बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं किया। इसके बजाय, उसने लकड़ी की गुल्लियाँ ठोंककर और लकड़ी के जोड़ों का इस्तेमाल करके यह पुल बनाया। इस तरह, पुल की सड़क का निचला भाग लकड़ी का बना था। उसके ऊपर पत्थर डाले गए और पत्थर के ऊपर, कंकड़। दिन में रास्ते के दोनों तरफ बने छोटे-छोटे झरोखों और छत पर बने छेदों से रोशनी छनकर अंदर आती थी। और शाम होने पर गैस की लालटेनें जलायी जाती थीं। नए पुल का नमूना तैयार करने और उसे पूरी तरह बनाने में लगभग तीन साल लग गए [1]।

पुल पर चहल-पहल

पुल पर कैसी चहल-पहल रहती थी? आइए एक चश्‍मदीद गवाह की ज़बानी सुनें: “पुल पर गाड़ी, बग्गी, या बोझ से लदे गधे कम, मगर लोग ज़्यादा नज़र आते थे। एक तरफ बिक्रीवालों, आवाजाही करनेवालों और देखनेवालों का हल्ला सुनायी देता था। वहीं दूसरी तरफ, टिन के डिब्बे बनाने की दुकानों से झन्‍नाहट . . . और फेरीवालों की आवाज़ें सुनायी देती थीं, जो अपना माल बेचने के लिए ज़ोर-ज़ोर से हाँक लगाते थे। वाकई, पुल का नज़ारा अपने आप में बड़ा निराला था। कई छोटी-छोटी रंग-बिरंगी दुकानों की अपनी ही रौनक थी, जो परंपराओं के मुताबिक ऊनी कशीदाकारी, मनकों और तरह-तरह के दूसरे माल-मत्तों से भरी थीं।”

लोग दरअसल, छतदार पुल पर सिर्फ खरीदारी करने के लिए ही नहीं, बल्कि मन बहलाव के लिए भी आते थे। क्योंकि कई दुकानदार अपने धंधे के अलावा गाना-बजाना भी कर लिया करते थे। ऊपर बताए आदमी ने आगे कहा: “एक नाई की दुकान में पाँच-छः हज्जाम काम करते थे, जो हजामत बनाने और बाल काटने के अलावा, अच्छा संगीत भी बजाते थे। वे खासकर वायलिन, सेलो, गिटार और लूट जैसे साज़ बजाते थे। हज्जामों को अकसर काम के दौरान साज़ बजाने की फुरसत मिल ही जाती थी और ग्राहक भी खुशी-खुशी उनके संगीत खत्म होने तक रुकते थे।” पहले विश्‍वयुद्ध के बाद, ऐसे ही कुछ हज्जामों ने मिलकर ‘हज्जामों के ऑर्केस्ट्रा’ (बार्बर्स्‌ ऑर्केस्ट्रा) की शुरूआत की।

आफत का कहर

सैलाब आए, युद्ध हुए और दूसरी कई आफतें आयीं, मगर करीब 50 साल तक फीचेटो का छतदार पुल अपनी जगह पर टिका रहा। लेकिन सन्‌ 1925 के 2 से 3 अगस्त की रात को इस मनोरम पुल में अचानक आग लग गयी और यह पूरी तरह जलकर राख हो गया। जब यह पुल जल रहा था, तब लोवेच के चारों तरफ से आग की लपटें आसमान को छूती नज़र आ रही थीं। आखिर यह आग लगी कैसे? आज तक कोई भी यह पता नहीं लगा पाया है कि यह आग लापरवाही की वजह से लगी थी या फिर किसी ने जानबूझकर लगायी थी। आग चाहे जैसे भी लगी हो, मगर हकीकत तो यह थी कि लोवेच एक बार फिर बिन पुल का रह गया था।

सन्‌ 1931 में एक नया छतदार पुल बनकर तैयार हुआ। इसकी सड़क की दोनों तरफ भी छोटी-छोटी दुकानें और छोटे-छोटे कारखाने कतार से लगे हुए थे [2]। लेकिन नए शिल्पकार ने इस पुल को बनाने के लिए लकड़ी-पत्थर का नहीं, बल्कि स्टील और कंक्रीट का इस्तेमाल किया। मोटे तौर पर पुल की बनावट फीचेटो के पुल से काफी अलग थी। छत, काँच का बना था और बीच के हिस्से में कोई दीवार नहीं थी। मगर सन्‌ 1981 से 1982 में, इस पुल को दोबारा कोल्यो फीचेटो के नमूने के मुताबिक बनाया गया [3]।

यह छतदार पुल, लोवेच नगर का प्रतीक है और हुनरमंद शिल्पकार की कमाल की कारीगरी का सबूत भी। आज भी जब यहाँ के रहनेवाले लोग और बाहर से आनेवाले सैलानी, दुकानों से सजे पुल पर चहल-कदमी करते हैं, तो उनकी आँखें चुंधियाँ जाती हैं। (g 1/08)

[पेज 22 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

बल्गेरिया

सोफिया

लोवेच

[पेज 23 पर चित्र का श्रेय]

तसवीर 2: From the book Lovech and the Area of Lovech