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नदी-नहरों का जाल केरल

नदी-नहरों का जाल केरल

नदी-नहरों का जाल केरल

भारत में सजग होइए! लेखक द्वारा

मान लीजिए कि आप एक बहुत ही शानदार हाउस-बोट पर सवार हैं, जिसमें सुख-सुविधा की सारी चीज़ें मौजूद हैं। यह हाउस-बोट आहिस्ता-आहिस्ता 44 नदियों के मुहाने से गुज़रता है। क्या ऐसा सिर्फ सपने में ही हो सकता है? जी नहीं। आप हकीकत में इस सैर का लुत्फ उठा सकते हैं, बशर्ते आप भारत के दक्षिण-पश्‍चिमी राज्य, केरल के बैकवाटर में हों। यह बैकवाटर टेढ़ी-मेढ़ी बहनेवाली नदी-नहरों का एक बड़ा जाल है, जो 900 किलोमीटर की लंबाई में फैला हुआ है। नदी-नहरों के दोनों तरफ नारियल के ऊँचे-ऊँचे पेड़ और दूर-दूर तक फैले हरे-हरे धान के खेत एक अलग ही नज़ारा पेश करते हैं। यही नहीं, तालाबों और इंसान के बनाए नालों, दोनों की खूबसूरती तो देखते ही बनती है! इन दिलकश नज़ारों को देखकर आपको ऐसा लगेगा मानो कुदरत ने आपको अपनी गोद में समा लिया हो। ज़ाहिर है कि इसी बैकवाटर की वजह से नैशनल जियोग्राफिक ट्रैवलर ने केरल को “उन 50 जगहों” में शामिल किया है, जहाँ लोगों को “ज़िंदगी में एक बार ज़रूर जाना चाहिए।”

केरल का बैकवाटर ही नहीं बल्कि उसके किनारों पर रहनेवाले लोग भी बड़े दिलचस्प हैं। वे बताते हैं कि एक वक्‍त था जब उनके आस-पास ना तो पाँच सितारे होटल हुआ करते थे और ना ही सैलानी। मगर आज वहाँ नए-नए होटलों और सैलानियों, दोनों की भरमार है। हालाँकि कुछ लोग उन होटलों में या पर्यटन से जुड़े दूसरे कारोबार में काम करते हैं, लेकिन ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है। उनकी संस्कृति और रोज़मर्रा के काम आज भी पहले जैसे ही हैं। वे धान की खेती करते हैं और अपने नारियल के बागों की देखभाल करते हैं। इसके अलावा, वे अपने खाने और बेचने के लिए मछली भी पकड़ते हैं।

बैकवाटर में मछली पकड़ना

मछली पकड़ना, यहाँ के लोगों की ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा है। एक नज़ारा जो आपको दुनिया में और कहीं देखने को नहीं मिलेगा, वह है कि यहाँ की औरतें कैसे अपने हाथों से करीमीन नाम की मछली पकड़ती हैं। करीमीन एक खास किस्म की मछली है, जो सिर्फ केरल के बैकवाटर में ही पायी जाती है। इस मछली के स्वाद के दीवाने सिर्फ भारत के ही लोग नहीं, बल्कि विदेशी लोग भी हैं। इसे पकड़ने के लिए औरतें गगरा लेकर पानी में उतरती हैं। जैसे ही मछलियाँ इन औरतों को अपनी तरफ आते देखती हैं, वे झट-से पानी के नीचे चली जाती हैं और तल की मिट्टी में अपना सिर घुसेड़ लेती हैं। लेकिन ये औरतें इन मछलियों से एक कदम आगे होती हैं। वे अपने पैरों से तल में टटोलकर पता लगाती हैं कि मछली कहाँ है। और अगले ही पल वे पानी के अंदर डुबकी लगाकर मछली को अपने हाथों से पकड़ लेती हैं। फिर वे छटपटाती हुई मछली को अपने गगरे में डाल देती हैं। काफी मछलियाँ पकड़ लेने के बाद जब वे किनारे पर आती हैं, तो वहाँ खरीदार पहले से ही मौजूद होते हैं। बड़ी-बड़ी मछलियाँ ज़्यादा महँगी होती हैं, इसलिए उन्हें पाँच सितारा होटलवाले खरीद लेते हैं। और वे उन्हें अमीर लोगों को परोसते हैं, जो उन्हें चटकारे ले-लेकर खाते हैं। जबकि छोटी-छोटी मछलियों का मज़ा आम लोग लेते हैं।

चीनी जाल

बैकवाटर के कुछ तटों पर मछली पकड़ने के चीनी जाल देखने को मिलते हैं। इन खूबसूरत जालों को देखने के लिए भी सैलानी खिंचे चले आते हैं।

माना जाता है कि सन्‌ 1400 से भी पहले, कुब्ले खाँ के दरबार के कुछ व्यापारी इन जालों को पहली बार कोचीन (जिसे आज कोच्चि के नाम से जाना जाता है) लाए थे। इन जालों का इस्तेमाल पहले, भारत में आए चीनी लोगों ने और बाद में पुर्तगाली लोगों ने किया। इन जालों को भारत में लाए 600 से भी ज़्यादा साल बीत चुके हैं। मगर इनकी बदौलत आज भी कई मछुवारों की रोज़ी-रोटी चल रही है और बेशुमार लोगों को खाने के लिए मछलियाँ मिल रही हैं। और जानते हैं, ताज्जुब की बात क्या है? एक जाल से जितनी मछलियाँ पकड़ी जाती हैं, उससे पूरे गाँव को खिलाया जा सकता है! कई सैलानियों को डूबते सूरज की रोशनी में इन जालों को देखना बड़ा रोमानी लगता है। इसलिए वे इस नज़ारे को अपने कैमरे में कैद करना नहीं भूलते।

लेकिन सिर्फ इन चीनी जालों की वजह से ही सैलानी यहाँ नहीं खिंचे चले आते। हर साल हज़ारों सैलानी सर्पनौका दौड़ देखने के लिए आते हैं, जो यहाँ मुद्दतों से हो रही है।

सर्पनौका दौड़

सर्पनौका लंबी और पतली नाव होती है। इसके पीछे का हिस्सा नाग के फण जैसा दिखता है, इसलिए इसका नाम सर्पनौका पड़ा। पुराने ज़माने में, यहाँ के इलाकों के राजा फसलों की कटाई के बाद के युद्धों में इन नावों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन आखिरकार जब ये युद्ध हमेशा के लिए खत्म हो गए, तो इन नावों की ज़रूरत भी कम हो गयी। तब से इनका इस्तेमाल सिर्फ मंदिर से जुड़े उत्सवों में किया जाने लगा। उस दौरान इन्हें खूब सजाया जाता था और बाजे-गाजे के साथ निकाला जाता था। ये विशाल नावें यहाँ की संस्कृति की पहचान बन गयी थीं। उत्सव के दौरान, जो बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आती थीं उनके सम्मान में नौका दौड़ भी रखी जाती थी। यह हज़ार साल पुरानी परंपरा आज भी ज़ोर-शोर से मनायी जाती है।

नौका दौड़ में लगभग 20 सर्पनौकाएँ होड़ लगाती हैं। हर सर्पनौका में करीब 150 आदमी सवार होते हैं। 100 से भी ज़्यादा आदमी छोटे-छोटे चप्पू लेकर नाव की लंबाई में दो कतार बनाकर बैठते हैं। और चार आदमी लंबे-लंबे चप्पू लेकर इसके पिछले हिस्से में खड़े होते हैं और इसे सही दिशा में खेते हैं। दो आदमी नाव के बीचों-बीच खड़े होकर ढोल बजाते हैं और सारे मल्लाह ढोल के ताल पर चप्पू चलाते हैं। इनके अलावा नाव में सवार कम-से-कम आधा दर्जन लोग ताली बजाकर, चिल्लाकर, सीटी बजाकर और नाविकों के गीत गाकर मल्लाहों में रफ्तार बनाए रखने का जोश भरते हैं। लेकिन जैसे-जैसे ढोल तेज़ी से बजने लगता है, वैसे-वैसे मल्लाह चप्पू चलाने की अपनी रफ्तार बढ़ा देते हैं। इस तरह वे अंतिम रेखा को पार करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। और यही दौड़ का सबसे रोमांचक भाग होता है, जिसे देखकर लोगों में सनसनी दौड़ जाती है।

सन्‌ 1952 में भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू, बैकवाटर के एक खास शहर आलप्पी आए। यहाँ की नौका दौड़ देखकर वे इतने रोमांचित हो उठे कि अपने सुरक्षा इंतज़ाम को भूलकर, जीतनेवाली नाव में कूद गए और मल्लाहों के संग ताली बजाने और गाना गाने लगे। दिल्ली वापस जाकर, उन्होंने वहाँ से एक तोहफा भेजा। वह तोहफा था, चाँदी की एक छोटी-सी सर्पनौका, जिस पर उनके दस्तखत थे और लिखा था: ‘केरल समाज की खासियत, नौका दौड़ के विजेताओं के लिए।’ यह चाँदी की नाव अब इनाम के तौर पर साल में एक बार होनेवाली ‘नेहरू ट्रॉफी रेस’ के विजेताओं को दी जाती है। हर साल इस तरह की दौड़ों को देखने के लिए हज़ारों लोग बैकवाटर आते हैं। उस समय बैकवाटर में, जहाँ आम तौर पर सबकुछ शांत होता है और ज़िंदगी धीमी रफ्तार से चलती है, अचानक फुरती आ जाती है और चारों तरफ हलचल मच जाती है।

पानी पर तैरते आलीशान होटल

सर्पनौकाओं के अलावा एक और किस्म की नावें हैं, जो सैलानियों को बैकवाटर में खींच लाती हैं। वे हैं पुराने ज़माने की बड़ी-बड़ी नावें, जिन्हें अब आलीशान हाउस-बोटों में तबदील कर दिया गया है।

हालाँकि ज़्यादातर हाउस-बोट नयी हैं, मगर कुछ ऐसी भी हैं जो सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी हैं और जिन्हें पर्यटन के लिए नया रूप दिया गया है। इन नावों को पहले केट्टूवल्लम के नाम से जाना जाता था, जिसका मतलब है “गाँठों से बनी नाव।” यह नाव जंगली कटहल (जैकवुड) की लकड़ी से बनायी जाती थी। इसमें एक भी कील का इस्तेमाल नहीं किया जाता था, बल्कि लकड़ी की पट्टियों को नारियल की जटा की रस्सी से बाँधा जाता था। इन नावों का इस्तेमाल चावल और दूसरे माल-असबाब को एक गाँव से दूसरे गाँव तक ले जाने और मसालों को दूर-दराज़ के इलाकों तक पहुँचाने में किया जाता था। लेकिन जब से गाड़ियों, हवाई जहाज़ों वगैरह की शुरूआत हुई है, तब से इन नावों का इस्तेमाल लगभग बंद हो गया। मगर फिर एक अकलमंद बिज़नेसमैन को यह बात सूझी कि क्यों न इन नावों को हाउस-बोट में तबदील करके पर्यटन के लिए इस्तेमाल किया जाए। अगर इनमें बरामदे, आरामदायक सोने के कमरे, गुसलखाना और बहुत ही खूबसूरत बैठक के कमरे बनाए जाएँ, तो इन्हें पानी पर तैरते होटल कहा जा सकता है। इस सुझाव के बाद से इन नावों का रूप ही बदल दिया गया। आज, हर हाउस-बोट पर मेहमानों की खिदमत के लिए कई कर्मचारी मौजूद होते हैं। मेहमान जहाँ जाना चाहते हैं, कर्मचारी हाउस-बोट को वहीं ले जाते हैं। साथ ही, खाने के मामले में भी वे मेहमानों की फरमाइश पूरी करते हैं।

शाम ढलने पर हाउस-बोट को या तो किनारे पर लगा दिया जाता है या अगर मेहमानों को ज़्यादा शांति पसंद है और वे एकांत में रहना चाहते हैं, तो हाउस-बोट का लंगर तालाब के बीच में ही डाल दिया जाता है। वहाँ की खामोशी का एक अलग ही मज़ा है, जिसमें मेहमान पूरी तरह खो जाते हैं। हाँ, बस कभी-कभार अठखेलियाँ करती किसी मछली के छप से वह खामोशी टूट जाती है।

लेकिन बैकवाटर में सभी लोग इस तरह आराम नहीं फरमाते। कुछ लोग, जो ‘मनुष्यों के पकड़नेवाले’ हैं, जाग रहे हैं और बड़े जोश के साथ अपने काम में लगे हुए हैं।

बैकवाटर में ‘मनुष्यों को पकड़ना’

आखिर ये ‘मनुष्यों के पकड़नेवाले’ कौन हैं? दरअसल इन शब्दों का ज़िक्र यीशु ने किया था। उसने उन मछुवारों से बात करते वक्‍त, जो उसके चेले बन गए थे, कहा: “मेरे पीछे चले आओ, तो मैं तुम को मनुष्यों के पकड़नेवाले बनाऊंगा।” यीशु यहाँ उस काम की ओर इशारा कर रहा था, जिसके ज़रिए लोगों को उसका चेला बनने में मदद मिलती। (मत्ती 4:18, 19; 28:19, 20) आज यह काम यहोवा के साक्षी दुनिया-भर में कर रहे हैं, वे भी जो बैकवाटर के इलाके में रहते हैं।

केरल राज्य में यहोवा के साक्षियों की कुल 132 कलीसियाएँ हैं। उनमें से 13 कलीसियाएँ, यहाँ बैकवाटर के इलाके में हैं। इन कलीसियाओं के कई सदस्य पेशे से मछुवारे हैं। इन्हीं में से एक ने अपने साथी मछुवारे से परमेश्‍वर के राज्य के बारे में बात की। जल्द ही वह आदमी समझ गया कि उसकी चर्च की शिक्षाओं और बाइबल की शिक्षाओं में कितना बड़ा फर्क है। उसकी पत्नी और चार बच्चों को भी साक्षियों का संदेश अच्छा लगा। इसलिए पूरे परिवार ने साक्षियों के साथ बाइबल अध्ययन शुरू कर दिया। देखते-ही-देखते वे आध्यात्मिक बातों में तरक्की करने लगे। आज, उस परिवार के चार सदस्यों का बपतिस्मा हो चुका है। यानी वह आदमी, उसकी पत्नी और उनके दो बच्चे। और बाकी दो बच्चों ने भी आगे चलकर बपतिस्मा लेने का लक्ष्य रखा है।

एक बार एक कलीसिया के कुछ सदस्य प्रचार करने के लिए एक छोटे द्वीप पर गए। उस द्वीप तक आने-जाने के लिए नाव कभी मिलती है तो कभी नहीं। इसलिए वहाँ के लोग उस द्वीप को कडमाकूड़ी कहते हैं, जिसका मतलब है “एक बार अंदर गए तो फँस जाओगे।” उस द्वीप पर साक्षियों की मुलाकात जॉनी और उसकी पत्नी, रानी से हुई। हालाँकि वे जन्म से कैथोलिक थे, पर वे एक ध्यान केंद्र जाते थे और वहाँ काफी दान भी देते थे। जॉनी ने बाइबल के संदेश में काफी दिलचस्पी दिखायी और उसके साथ एक बाइबल अध्ययन शुरू किया गया। वह जो बातें सीखता था, दूसरों को भी बताता था। बाइबल की सच्चाई सीखने की वजह से वह सिगरेट पीने और ज़्यादा शराब पीने की अपनी बुरी आदत छोड़ पाया।

उस वक्‍त जॉनी जो काम कर रहा था, वह बाइबल के मुताबिक सही नहीं था। इसलिए उसने वह काम छोड़ दिया। इससे शुरू-शुरू में परिवार को काफी तंगी झेलनी पड़ी। मगर कुछ ही समय बाद जॉनी ने एक नया काम शुरू किया। वह केकड़े पकड़कर बेचने लगा। इससे जो आमदनी होती थी, उससे उसके परिवार का खर्च चलने लगा। सितंबर 2006 में जॉनी ने बपतिस्मा लिया और इसके एक साल बाद, उसकी पत्नी और दो बच्चों ने भी बपतिस्मा ले लिया। जॉनी और उसके परिवार का ज़िंदगी की तरफ नज़रिया इसलिए बदल गया, क्योंकि उन्होंने धरती पर फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी पाने की आशा के बारे में सीखा।—भजन 97:1; 1 यूहन्‍ना 2:17.

केरल के बैकवाटर की सैर करने में तो वाकई मज़ा आ गया, है ना? चीनी जालों, सर्पनौकाओं और हाउस-बोटों को देखकर दिल खुश हो गया। और ‘मनुष्यों के पकड़नेवालों’ यानी यहोवा के वफादार साक्षियों से मुलाकात करके तो हमारी खुशी दुगुनी हो गयी। (g 4/08)

[पेज 11 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

भारत

केरल

[पेज 11 पर तसवीर]

मछली पकड़ना, केरल के लोगों की ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा है

[चित्र का श्रेय]

ऊपर का फोटो: Salim Pushpanath

[पेज 11 पर तसवीर]

औरतें अपने हाथों से मछली पकड़ रही हैं

[पेज 12 पर तसवीर]

सर्पनौका दौड़

[पेज 12 पर तसवीर]

“केट्टूवल्लम”

[पेज 12, 13 पर तसवीर]

हाउस-बोट

[पेज 12, 13 पर तसवीर]

जॉनी और उसकी पत्नी, रानी

[पेज 12 पर चित्र का श्रेय]

Salim Pushpanath