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भेदभाव के कई चेहरे

भेदभाव के कई चेहरे

भेदभाव के कई चेहरे

“भेदभाव को मिटाना आसान नहीं, एक दरवाज़ा बंद करो तो वह दूसरे दरवाज़े से घुस आएगा।”—प्रशा के महाराज, फ्रेडरिक द ग्रेट।

राजेश, भारत के पालीयाड़ गाँव का रहनेवाला है। वह एक अछूत है और बाकी अछूतों की तरह उसे भी पानी के लिए अपने घर से 15 मिनट पैदल चलना पड़ता है। वह कहता है: “गाँव के नल से पानी भरना हमारे लिए मना है, वहाँ से सिर्फ ऊँची जात के लोग ही पानी ले सकते हैं।” जब राजेश स्कूल में था, तो उसे और उसके साथियों को वह फुटबॉल तक छूना मना था जिससे दूसरे बच्चे खेलते थे। वह कहता है: “फुटबॉल के बजाय हम पत्थरों से खेलते थे।”

एशिया से आकर यूरोप में बसनेवाली एक किशोरी, क्रिस्टीना का कहना है: “मैं जानती हूँ कि लोग मुझसे नफरत करते हैं, पर क्यों यह मुझे पता नहीं। और इसी बात से मुझे बहुत चिढ़ आती है। इसलिए मैं अकसर दूसरों से कटी-कटी रहती हूँ, मगर इससे मेरा दर्द कम नहीं होता।”

पश्‍चिम अफ्रीका का स्टैनली कहता है: “नफरत और भेदभाव होता क्या है, यह मैंने तब जाना जब मैं 16 साल का था। राह चलते अजनबी आकर मुझे शहर से दफा हो जाने के लिए कहते। मेरे कबीले के कुछ लोगों के घरों को जलाकर खाक कर दिया गया। बैंक में जमा मेरे पापा के खाते को ज़ब्त कर लिया गया। इन सारी बातों की वजह से मैं उस जाति से नफरत करने लगा जो हमारे साथ ऐसी ज़्यादती कर रही थी।”

राजेश, क्रिस्टीना और स्टैनली नफरत और भेदभाव के शिकार हैं, मगर ये सिर्फ उनकी कहानी नहीं है। संयुक्‍त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) के डाइरेक्टर जेनरल, कोईचीरो माटसूऊरा समझाते हैं: “आज करोड़ों लोग जाति-भेद, ऊँच-नीच, विदेशी होने की वजह से नफरत और समाज से दुतकारे जाने की मार सह रहे हैं। और-तो-और, सच्चाई से अनजान रहना और किसी के बारे में पहले से गलत धारणाएँ कायम करना आग में घी का काम करता है। ऐसे घिनौने और वहशी कामों की वजह से कई देशों में लड़ाई-झगड़ों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ है जिनसे लोगों पर न जाने कितनी दुःख-तकलीफें आयी हैं।”

अगर आप कभी नफरत और भेदभाव का शिकार नहीं हुए हैं, तो आप इससे होनेवाले दर्द को शायद ही समझ पाएँ। किताब, भेदभाव से रू-ब-रू (अँग्रेज़ी) कहती है: “कुछ लोग इस ज़ख्म को अपने सीने में दबाए हुए जीते हैं। और दूसरे ईंट का जवाब पत्थर से देते हैं।” किन तरीकों से भेदभाव का लोगों की ज़िंदगी पर बुरा असर पड़ता है?

अगर आप किसी छोटे समूह से हैं, तो आप शायद पाएँ कि लोग आपसे दूर-दूर रहते हैं, आपको नफरत-भरी निगाहों से देखते हैं, या आपकी संस्कृति के बारे में बुरा-भला कहते हैं। नौकरी मिलना मुश्‍किल हो और इस वजह से शायद आपको मजबूरन ऐसा काम करना पड़े जो लोगों की नज़र में छोटे दर्जे का हो। सिर छिपाने के लिए छत मिलना मुश्‍किल हो। अगर आपके बच्चे हैं, तो क्लास के बाकी बच्चे शायद उनके साथ बैठना या खेलना पसंद न करें, इस वजह से वे खुद को एकदम अकेला महसूस करें।

नफरत और भेदभाव का इससे भी भयानक रूप यह होता है कि लोग हिंसा पर उतर आते हैं, यहाँ तक कि कत्ल करने से पीछे नहीं हटते। दरअसल इतिहास के पन्‍ने, ऐसी मिसालों से भरे पड़े हैं जिनसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ये मिसालें बयान करती हैं कि भेदभाव की वजह से कैसे खून की नदियाँ बहायी जाती हैं। कुछ मिसालें हैं: अंधाधुंध कत्लेआम, जातिसंहार और किसी जाति, राजनैतिक या सांस्कृतिक समूह को मिटा देना जिसे जातीय सफाई कहा जाता है।

भेदभाव का सिलसिला—सदियों पुराना

एक वक्‍त ऐसा था जब मसीही, नफरत और भेदभाव का खास निशाना थे। उदाहरण के लिए, यीशु की मौत को बीते कुछ ही दिन हुए थे कि मसीहियों को एक-के-बाद-एक ज़ुल्मों की आँधी झेलनी पड़ी। (प्रेरितों 8:3; 9:1, 2; 26:10, 11) इसके 200 साल बाद, खुद को मसीही कहलानेवाले लोगों का भी वही हाल हुआ। उन्हें लगभग हर बुरे हादसे के लिए बदनाम किया जाता था। तीसरी सदी के लेखक, टर्टालियन ने लिखा: “अगर कोई महामारी फैल जाए, तो तुरंत यही सुनायी पड़ता है, ‘डाल दो मसीहियों को शेरों के आगे!’”

लेकिन, ग्यारहवीं सदी में ईसाइयों के धर्मयुद्ध शुरू होने के साथ-साथ, यूरोप में यहूदी लोग नफरत के शिकार बने। जब पूरे यूरोप में ब्यूबौनिक प्लेग फैला तो कुछ ही सालों के अंदर इस प्लेग ने एक-चौथाई आबादी को अपनी चपेट में ले लिया। इस महामारी के लिए फौरन यहूदियों पर इलज़ाम लगाया गया, क्योंकि यूरोप की ज़्यादातर आबादी पहले से उनसे नफरत करती थी। जैनेट फैरल ने अपनी किताब, अदृश्‍य दुश्‍मन (अँग्रेज़ी) में कहा: “इस प्लेग से लोगों को अपने अंदर दबी नफरत को बाहर निकालने का बहाना मिल गया और प्लेग के खौफ में जी रहे लोगों ने यहूदियों को इस मुसीबत की जड़ माना।”

फ्रांस के दक्षिणी इलाके में रहनेवाले एक यहूदी को इस कदर सताया गया कि आखिरकार उसने “इकबाल” किया कि यहूदियों ने ही कुओं में ज़हर मिलाकर यह महामारी फैलायी थी। हालाँकि यह सरासर झूठ था, मगर उसकी बात को सच बताकर फैलाया गया। देखते-ही-देखते स्पेन, फ्रांस और जर्मनी में पूरी-की-पूरी यहूदी बिरादरी को मिटा दिया गया। ऐसा लगता है कि किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि इस महामारी के असली गुनहगार चूहे थे। और किसी ने यह भी नहीं देखा कि औरों की तरह यहूदी भी इस प्लेग से मर रहे थे!

एक बार जब नफरत और भेदभाव की चिंगारी भड़कायी जाती है, तो यह सदियों तक सुलगती रहती है। यहूदियों के मामले में भी यही बात सच साबित हुई। बीसवीं सदी के बीच में अडॉल्फ हिटलर ने पहले विश्‍वयुद्ध में जर्मनी की हार के लिए यहूदियों को दोषी ठहराया और इस तरह उनके खिलाफ नफरत की चिंगारी को फिर से हवा दी। ऑशविट्‌ज़ यातना शिविर के नात्ज़ी कमांडर, रूडॉल्फ हॉस ने दूसरे विश्‍वयुद्ध के खत्म होने के बाद यह कबूल किया: “फौजी ट्रेनिंग और नात्ज़ियों की विचारधारा और सिद्धांत ने हमारे दिलो-दिमाग में यही बात बिठायी कि हमें जर्मनी को यहूदियों के हाथों से बचाना है।” ‘जर्मनी को बचाने’ के लिए, हॉस की निगरानी में कुछ 20,00,000 लोगों को मौत के घाट उतारा गया जिनमें ज़्यादातर यहूदी थे।

दुःख की बात है कि जैसे-जैसे साल बीतते गए इस तरह के वहशी काम बढ़ते गए। मसलन, सन्‌ 1994 में पूर्वी अफ्रीका में टूट्‌सी और हूटू जाति के बीच भड़की नफरत की वजह से तकरीबन पाँच लाख लोग मारे गए। टाइम पत्रिका ने रिपोर्ट की: “लोगों के पास पनाह लेने के लिए कोई जगह नहीं थी। जिन गिरजों में कइयों ने पनाह ली, वहीं पर उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। . . . लोग जिस तरह एक-दूसरे के खून के प्यासे थे और अपने हाथों से मार-काट कर रहे थे उसे बयान नहीं किया जा सकता। यह हत्याकांड इतना भयानक था कि जो लोग बचे, उन्हें भी गहरा सदमा पहुँचा और वे ज़िंदा लाश की तरह हो गए थे।” इस दिल दहलानेवाले खून-खराबे ने बच्चों को भी नहीं बख्शा। वहाँ के रहनेवाले एक आदमी ने कहा: “दुनिया के नक्शे पर रुवाण्डा एक छोटी-सी जगह है, मगर इस छोटी-सी जगह में दुनिया-जहान की नफरत समायी हुई है।”

भूतपूर्व युगोस्लाविया जब टूटकर बिखर गया, तब उससे होनेवाली रंजिश में 2,00,000 से ज़्यादा लोगों की जानें गयीं। बरसों से अमन-चैन से रहनेवाले पड़ोसी एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन बन गए। हज़ारों औरतों की आबरू लूटी गयी। और जातीय सफाई के नाम पर किए गए ज़ुल्म की वजह से लाखों लोगों को मजबूरन अपना घर-बार छोड़ना पड़ा।

यह सच है कि ज़्यादातर मामलों में भेदभाव की वजह से लोगों का कत्ल नहीं किया जाता है, मगर इससे लोगों में फूट पड़ती और मन में बैर ज़रूर पनपता है। दुनिया ने आज इतनी तरक्की कर ली है कि देश-देश के लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और आपसी संबंध बढ़ रहे हैं, फिर भी UNESCO की हाल की रिपोर्ट कहती है कि जात-पात को लेकर ऊँच-नीच की भावना, “दुनिया के कई हिस्सों में ज़ोर पकड़ रही है।”

भेदभाव को मिटाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है? जवाब पाने के लिए सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि हमारे दिलो-दिमाग में भेदभाव की भावना कैसे जड़ पकड़ती है। (g04 9/8)

[पेज 5 पर बक्स]

भेदभाव कैसे ज़ाहिर होता है

अपनी किताब, भेदभाव की खास निशानी (अँग्रेज़ी) में गॉर्डन डब्ल्यू. ऑलपॉर्ट ऐसे पाँच तरीके बताता है जिनसे एक इंसान अपने व्यवहार से दिखाता है कि उसमें भेदभाव की भावना है। ऐसा इंसान आम तौर पर, इनमें से एक या उससे ज़्यादा तरीकों से भेदभाव ज़ाहिर करता है।

1. दिल को ठेस पहुँचानेवाली बातें कहना। एक इंसान जिस समूह को नापसंद करता है, उसके बारे में बुरा-भला कहता है।

2. दूर-दूर रहना। वह उस समूह के हरेक जन से दूर रहता है।

3. तरफदारी करना। वह उस समूह के लोगों को कुछ किस्म की नौकरी, रहने की जगह और बाकी सहूलियतें नहीं देता जो वह दूसरों को देता है।

4. हमला करना। वह जिन लोगों से नफरत करता है, उन्हें डराने-धमकाने की गरज़ से औरों के साथ मिलकर उन पर हमला करता है।

5. जान लेना। वह बिना कानूनी कार्यवाही के लोगों को मारने या अंधाधुंध कत्लेआम करने में शरीक होता है, या फिर ऐसे अभियानों में हिस्सा लेता है जिनका मकसद किसी खास समूह को मिटाना है।

[पेज 4 पर तसवीर]

तंज़ानिया में बेनाको शरणार्थी शिविर, मई 11, 1994

एक औरत अपने पानी के कैन के पास बैठी है। यहाँ तंज़ानिया में 3,00,000 से अधिक शरणार्थियों ने पनाह ली है और उनमें से ज़्यादातर रुवाण्डा से आए हूटू जाति के लोग हैं

[चित्र का श्रेय]

Photo by Paula Bronstein/Liaison