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आपको चुनाव का अधिकार है

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हाल ही के एक चिकित्सीय उपगमन (जोखिम/लाभ विशलेषण, नामक) से डॉक्टरों और मरीज़ों को रक्‍त उपचार से बचे रहने के लिये सहयोग में आसानी हो रही है। किसी विशेष औषध या शल्यचिकित्सा के जोखिमों तथा संभवतः लाभों जैसे कारकों के पक्ष-विपक्ष पर डॉक्टर विचार करते हैं। मरीज़ भी ऐसे विशलेक्षण में भाग ले सकते है।

आइये एक उदाहरण का प्रयोग करें जो बहुत से देशों के लोगों से सम्बन्धित है—क्रोनिक टॉन्सिलाइटिस (पुराना टॉन्सिलों का शोथ)। यदि आपको यह समस्या है तो आप डॉक्टर के पास अवश्‍य जाएँगे। सम्भव है कि आप दो की सलाह लेंगे क्योंकि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बहुधा दूसरी राय लेने को कहते हैं। संभवतः एक चिकित्सक शल्यचिकित्सा के लिये कहे। वह उसके अर्थ की रूपरेखा देगा: अस्पताल मे रहने की अवधि, पीडा का परिमाण, तथा लागत मूल्य। जहाँ तक जोखिमों की बात है, वह कहेगा कि अधिक रक्‍तस्राव होना बहुत विरल है और ऐसे ऑपरेशन से मृत्यु सामान्य नहीं है। लेकिन दूसरी राय देने वाला चिकित्सक आपको (प्रतिजैविकी) ऐन्टिबाइओटिक चिकित्सा लेने का आग्रह करेगा। वह औषध का प्रकार, सफलता का संभावना, और खर्च समझाएगा। जोखिमों के बारे में वह कहता है कि बहुत कम मरीज़ों को उस औषध से प्राणघातक प्रतिक्रियाएँ होती है।

संभवतः प्रत्येक सक्षम चिकित्सक ने लाभ और जोखिमों पर विचार किया होगा, परन्तु अब आप को जोखिमों तथा संभावित लाभों और अन्य कारकों पर विचार करना है जिसे आप बेहतर जानते हैं। (अपनी भावनात्मक या आत्मिक शक्‍ति, परिवार की आर्थिक स्थिति, आपके परिवार पर प्रभाव, और आपकी अपनी आचार नीतियों जैसे अनेक पहलुओं पर ध्यान देने के लिये आप ही सबसे बेहतर स्थिति में है।) फिर आप एक चुनाव करते हैं। संभव हैं, आप एक उपचार के लिये सूचित स्वीकृति दे दें और दूसरे के लिये मना कर दें।

यदि पुराना टॉन्सिलों का शोथ आपके बच्चे को हो तो भी ऐसा हो सकता है। स्नेही माता-पिता होने के नाते आपको इसका सीधे रूप से सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा और आप इसके परिणामों का सामना करने के उत्तरदायी होंगे, आपको जोखिमों, लाभों एवं उपचारों की रूपरेखा दे दी जाएगी। हरेक पक्ष पर विचार करने के बाद, आप अपने बच्चे के स्वास्थ्य और उसके जीवन के विषय में भी एक सूचित चुनाव करेंगे। शायद आप जोखिमों सहित शल्यचिकित्सा की स्वीकृति दे दें। दूसरे माता-पिता शायद ऐन्टिबाइओटिक औषध के लिये, जोखिमों सहित स्वीकृति दे देगें। जिस तरह से चिकित्सकों की सलाह भिन्‍ना हो सकती है वैसी ही मरीज़ या माता-पिता भी अपनी अपनी पसन्द में विभिन्‍नाता रखते हैं। सूचित (जोखिम/लाभ) चुनावों की यह एक मान्यता प्राप्त विशेषता है।

लहू के प्रयोग के विषय में क्या? कोई भी ऐसा नहीं जो तथ्यों को सावधानी से जाँचकर और यह इन्कार कर सके कि रक्‍त-आधानों में बहुत से जोखिम शामिल है। विशाल मैसाचुसेट्‌स हॉस्पिटल के रक्‍त-आधान सेवा के निर्देषक डॉ. चार्ल्स हगिन्स ने इसे बिलकुल स्पष्ट किया: “लहू कभी भी सुरक्षित नहीं था। परन्तु उसे अनिवार्य असुरक्षित समझना चाहिये। औषध विज्ञान में उपयोग किया जाने वाला यह सबसे खतरनाक पदार्थ है।”—द बॉस्टन ग्लोब मैग्ज़ीन, फरवरी ४, १९९०.

अच्छे कारणों से, चिकित्सक कर्मचारियों को सलाह दी गई है: “रक्‍त-आधान के लिये लाभ/जोखिम सम्बन्ध के जोखिम भाग को भी पुनःमुल्यांकन करने की आवश्‍यकता है और विकल्प दूढ़ने की भी आवश्‍यकता है। (तिरछा ताइप हमारे.)—पेरीऑप्रेटिव रेड सेल ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न, राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थानों की सम्मेलन, जून २७-२९, १९८८.

लहू उपयोग के लाभ या जोखिम के विषय में चिकित्सक असहमत हो सकते हैं। एक चिकित्सक बहुत से रक्‍त-आधान दे सकता है और यह स्वीकार करता होगा कि खतरे के योग्य है। दूसरा यह सोच सकता है कि खतरे न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि उसे अरक्‍तीय उपचार से अच्छे परिणाम मिले है। आखिरकार, आप, जो मरीज़ है या मरीज़ के माता-पिता, को निर्णय करना है। आप क्यों? क्योंकि इसमें आपका (अथवा आपके बच्चे का) शरीर, जीवन, आचारनीति, और अत्याधिक महत्त्वपूर्ण परमेश्‍वर से सम्बन्ध सम्मिलित है।

आपका अधिकार पहचान लिया गया

आज बहूत से स्थानों में, मरीज़ के पास एक अनुल्लंघनीय अधिकार है जिससे वह निर्णय कर सकता है कि कौनसे उपचार को स्वीकार करें। “सूचित स्वीकृति का नियम दो आदिखण्ड पर आधारित है: पहला, एक मरीज़ को अधिकार है कि उसे पर्याप्त सूचनाएँ दी जाए जिससे वह परामर्श दिए गए उपचार के विषय में एक सूचित चुनाव कर सके; और दूसरा, मरीज़ चिकित्सक के परामर्श को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है . . . जब तक मरीज़ों को हाँ या ना, और हाँ भी कुछ शर्तों के साथ, कहने का अधिकार नहीं दिया जाता, तब तक सूचित स्वीकृति के लिए मूलाधार का अधिकांश भाग वाप्पित हो जाता है।”—इनफॉर्म्ड कनसेंट—लीगल थीअरि एण्ड क्लिनिकल प्रौक्टिस, १९८७. *

कुछ मरीज़ों ने जब अपने इस अधिकार का प्रयोग करना चाहा तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। यह एक ऐसे मित्र द्वारा हुआ होगा, जो टॉन्सिल के ऑपरेशन या ऐन्टिबाइओटिक के विषय में प्रबल भावनाएँ रखता है। या एक चिकित्सक जो अपने ही सुझाव का सही होने में विश्‍वस्त हो। अस्पताल के किसी अधिकारी ने भी शायद कानूनी या आर्थिक हितों पर आधारित असहमती प्रकट की हो।

डॉ. कार्ल एल. नेल्सन कहते हैं: “बहुत से चिकलांग-विज्ञान चिकित्सक (गवाह) मरीज़ों पर ऑपरेशन नहीं करना चाहते हैं। हम यह विश्‍वास करते हैं कि मरीज़ को किसी भी प्रकार के औषध उपचार को अस्वीकार करने का अधिकार है। यदि रक्‍त-आधान जैसे एक विशेष उपचार के बिना, तकनीकी रूप से सफल ऑपरेशन करना सम्भव हो, तो यह एक विकल्प के रूप में होना चाहिये।”—द जर्नल ऑफ बोन एण्ड जॉइन्ट सर्जरी, मार्च १९८६.

एक विचारशील मरीज़ ऐसे उपचार करने का दबाव नहीं डालेगा जिसमें डॉक्टर अप्रशिक्षित हो। जैसे डॉ. नेल्सन ने ध्यान दिया, बहुत से समर्पित डॉक्टर मरीज़ के विश्‍वासों के अनुकूल कार्य कर सकते है। एक जर्मन अधिकारी ने सलाह दी: “एक चिकित्सक सहायता करने के लिये मना नहीं कर सकता है . . . ऐसा तर्क करते हुए कि यहोवा के गवाह पर उपचार के लिये सभी चिकित्सीय विकल्प उसकी अपनी इच्छानुसार नहीं है। फिर भी उसका कर्तव्य है कि वह उपाय कम हो जाने पर भी सहायता करें।” (डेर फ्राउनार्ज़ट, मई-जून १९८३) इसी तरह से अस्पताल केवल धन कमाने के लिये नहीं होते, परन्तु बिना भेदभाव के हरेक मनुष्य की सेवा के लिये होते हैं। कैथोलिक धर्मशास्त्री रिर्चड जे. डीवाइन ने कहा: “हालाँकि अस्पताल को मरीज़ का जीवन एवं स्वास्थ्य बचाने के लिये सभी चिकित्सीय प्रयास करना चाहिये, परन्तु यह निश्‍चय करना चाहिये कि उस चिकित्सीय देखरेख से [उसके] विवेक का उल्लंघन नहीं होता है। इसके अतिरिक्‍त, उसे हर प्रकार के बल प्रयोग से दूर रहना चाहिये, मरीज़ को फुसलाने से बलपूर्वक रक्‍त-आधान देने के लिये न्यायालय से आज्ञा लेने तक।”— हैल्थ प्रग्रस, जून १९८९.

न्यायालयों की अपेक्षा

बहुत से लोग इस बात से सहमत हैं कि न्यायालय व्यक्‍तिगत चिकित्सीय मसलों का स्थान नहीं है। यदि आप ने ऐन्टिबाइओटिक उपचार को चुना परन्तु कोई न्यायालय द्वारा आप पर बलपूर्वक टॉन्सिल का ऑपरेशन करने की कोशिश करें तो आपको कैसा लगेगा? शायद एक डॉक्टर अपनी समझ से सबसे अच्छी देखरेख देना चाहे, लेकिन उसका यह कर्तव्य नहीं है कि वह आपके मूल अधिकारों को कुचलने के लिये कानूनी समर्थन की खोज करें। और क्योंकि बाइबल लहू से परे रहने को उसी नैतिक स्तर पर रखती है जो व्यभिचार से परे रहना है तो एक मसीही को बलपूर्वक लहू देना बलकृत सेक्स—बलात्कार के तुल्य होगा।—प्रेरितों के काम १५:२८,२९.

फिर भी, इनफ़ॉर्म्ड कन्सेंट फॉर ब्लड ट्रान्सफ्यूशन (१९८९) ने रिपोर्ट दी कि जब कोई मरीज़ अपने धार्मिक अधिकारों के कारण किसी एक प्रकार का जोखिम उठाने को तैयार हो जाता है तो कुछ न्यायालय इतने अधिक व्यथित हो जाते हैं “कि वे कुछ कानूनी अपवाद बनाते हैं—कानूनी कल्पितार्थ, अगर आप चाहे—ताकि रक्‍त-आधान दिया जा सके।” वे ऐसे बहाने बना सकते हैं कि एक गर्भ इसमें सम्मिलित है या बच्चों का पालन-पोषण किया जाना है। पुस्तक बताती है कि “वे कानूनी कल्पितार्थ है। सक्षम वयस्क उपचार का इन्कार करने का अधिकार रखते हैं।”

कुछ लोग जो लहू देने का आग्रह करतें है इस तथ्य की उपेक्षा करते है कि गवाह सभी प्रकार के उपचारों के लिये मना नहीं करते हैं। केवल एक ही उपचार को अस्वीकार करते हैं, जिसको विशेषज्ञ भी संकटपूर्ण बताते है। प्रायः एक चिकित्सीय समस्या विभिन्‍ना दंगों से सँभाली जाती है। किसी में यह जोखिम है, किसी में दूसरा जोखिम है। क्या एक न्यायालय या एक चिकित्सक पैतृकवादी रूप से जान सकते है कि कौन सा जोखिम “आपके लिये सबसे उचित होगा?” इसका निर्णय आप को करना है। यहोवा के गवाह इस बात में दृढ़ है कि उन्हें निर्णय करने के लिये किसी और की आवश्‍यकता नहीं है; यह उनका परमेश्‍वर के प्रति व्यक्‍तिगत उत्तरदायित्व है।

यदि एक न्यायालय आपको बलपूर्वक घृणित उपचार देता है तो इससे आपके विवेक और आपके जीवित रहने की इच्छा के अनिवार्य तत्व पर क्या प्रभाव पड़ेगा? डॉ. कॉन्रैड ड्रीबिंगर ने लिखा: “वास्तव में चिकित्सीय महत्त्वाकांक्षा का यह एक पथभ्रष्ठ रूप होगा जिसमें एक व्यक्‍ति किसी मरीज़ को निर्धारित उपचार देने के लिये बल का प्रयोग करें, उसके विवेक को रद्द करके जिससे वह शारीरिक रूप से तो उपचार करता प्रतीत हो, परन्तु उसके मन पर एक घातक प्रहार जैसा होगा।”—डेर प्रेकटिश आर्ज़ट, जुलाई १९७८.

बच्चों के लिये प्रेममय देखभाल

लहू से सम्बन्धित अदालत के मामलों में अधिकतर बच्चे सम्मिलित होते हैं। जब प्रेममय माता-पिता ने आदरपूर्वक अरक्‍तीय चिकित्सा की माँग की, तो कुछ चिकित्सीय कार्मिकों ने लहू देने के लिये न्यायालय का सहारा लेने का प्रयास किया। यह सही है कि मसीही ऐसे नियम या न्यायिक कार्य से सहमत है जो बच्चों के साथ दुर्व्यवहार या लापरवाही को रोकने के लिये होते हैं। शायद आपने ऐसी घटनाओं के विषय में पढ़ा होगा जहाँ किसी पिता या माता ने बच्चे के साथ क्रूरता से व्यवहार किया हो या उसे सभी प्रकार की औषधीय उपचार के लिये मना किया हो। कितना दुःखद! स्पष्टतः, प्रशासन एक उपेक्षित शिशु की सुरक्षा के लिये कदम उठा सकता है और उसे उठाना भी चाहिये। फिर यह समझना सरल है कि जब चिन्ता करने वाले पिता या माता उच्च कोटि की अरक्‍तीय औषधिक उपचार की माँग करते हैं तो यह उससे कितना भिन्‍ना है।

ऐसे न्यायिक मामले अकसर एक बच्चे का अस्पताल में होने पर ध्यान देते हैं। वह बच्चा वहाँ कैसे पहुँचा, और क्यों? अधिकतर ऐसा होता है कि चिन्ता करने वाले माता-पिता ही अपने बच्चे को वहाँ अच्छी देखरेख के लिये ही लाते हैं। जैसे यीशु बच्चों में रूचि रखता था, मसीही माता-पिता अपने बच्चों की चिन्ता करते हैं। बाइबल बताती है एक ‘माता अपने बालकों का पालन-पोषण करती है’। यहोवा के गवाह भी अपने बच्चों के प्रति ऐसा गहरा प्रेम रखते हैं।—१ थिसल्लुनिकियों २:७; मत्ती ७:११; १९:१३-१५.

स्वाभाविक रूप से, प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों की सुरक्षा और जीवन पर प्रभाव डालने वाले निर्णय करते है: घर को गर्म रखने के लिये क्या परिवार गैस का या तेल का प्रयोग करेगा? क्या वे अपने बच्चे को गाड़ी में बहुत दूर की सैर कराएँगे? क्या वह तैरने जा सकता है? ऐसे मामलों में संकट सम्मिलित है, जीवन-मृत्यु सम्बन्धित है। लेकिन समाज, माता-पिता की सूझ बूझ को स्वीकार करता है, इसलिये उनके बच्चों पर प्रभाव डालने वाले लगभग प्रत्येक निर्णय में माता-पिता को मुख्य राय का अधिकार दिया गया है।

१९७९ में अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने स्पष्टतः कहा: “परिवार के लिये कानून की धारणा इस प्रकल्पना पर निर्भर करती है कि एक बच्चे में परिपक्वता, अनुभव और जीवन के कठिन फैसले करने की सम्मति की क्षमता की जो भी कमी है, वह माता-पिता के पास है . . . केवल इसलिये कि एक माता-पिता के निर्णय [एक चिकित्सीय मामले] में जोखिम शामिल करता है, तो इससे माता-पिता की निर्णय करने की शक्‍ति स्वतः किसी एजेन्सी या शासन अधिकारी के हाथ में नहीं आ जाती है।”—पैरहम विरुद्ध जे.आर.

उसी वर्ष में न्यू यॉर्क कोर्ट ऑफ अपील्स ने निर्णीत किया: “यह निश्‍चित करने के लिये कि क्या एक बच्चे को पर्याप्त चिकित्सीय देखरेख से वंचित रखा जा रहा हैं, सबसे महत्त्वपूर्ण कारक . . . यह है कि क्या माता-पिता ने आसपास की समस्त परिस्थितियों के प्रकाश में अपने बच्चे के लिये एक स्वीकारयोग्य औषधीय उपचार का प्रबन्ध कराया है या नहीं। इस जाँच को इन विशेष शब्दों से प्रस्तुत नहीं करना चाहिये कि क्या माता-पिता ने ‘सही’ या ‘गलत’ फैसला किया है, क्योंकि वैद्यक कार्यप्रणाली की आधुनिक स्थिति, अपनी विशाल उन्‍नातियों के होते हुए भी ऐसे निश्‍चयात्मक परिणामों को बहुत कम अनुमति देती है। ना ही कोई अदालत एक प्रतिनियुक्‍त माता-पिता की भूमिका को ग्रहण कर सकती है।”—इन रे हॉफबाउर

उस उदाहरण पर फिर से ध्यान दे जहाँ माता-पिता ऑपरेशन या ऐन्टिबाइओटिक में चुनाव करते है। प्रत्येक उपचार के अपने जोखिम होंगे। प्रेममय माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि जोखिमों, लाभों तथा अन्य कारकों को पहले जाँचकर फिर एक चुनाव करें। इस सम्बन्ध में, डॉ. जॉन सॅमुएल्स (एनेस्थीज़िऑलॅजी न्यूज़, अक्‍तूबर १९८९) ने गाइड्‌स टू द जज्ज़ मेडिकल ऑडर्स अफेक्टिंग चिल्ड्रन (बच्चों पर प्रभावित डॉक्टरी आदेशों में न्यायाधीश का मार्गदर्शक) लेख का पुनःअवलोकन की सलाह दी जिसने यह स्थिति ली थी:

“चिकित्सा जानकारी ने पर्याप्त उन्‍नाति नहीं की है कि चिकित्सक तर्कानुसार निश्‍चितता से पूर्व सूचना दे सके कि उसका मरीज़ जीवित रहेगा अथवा मर जाएगा . . . यदि प्रक्रियाओं में चुनाव किया जा सकता है—उदाहरण के लिये, यदि चिकित्सक ऐसी प्रकिया की सलाह देता है जिसमें ८० प्रतिशत सफलता के अवसर है, लेकिन माता-पिता इसके लिये असहमत है और उनको एक ऐसी प्रकिया के लिये कोई एतराज़ नहीं है जिसमें केवल ४० प्रतिशत सफलता के अवसर है—डाँक्टर को चिकित्सीय रूप से अधिक जोखिम वाला परन्तु माता-पिता का समर्थन प्राप्त मार्ग को अपनाना चाहिये।”

लहू के औषधीय प्रयोग से जो बहुत से प्राणघातक खतरे सामने आए हैं और क्योंकि बहुत से प्रभावशाली उपचार-विकल्प है, तो लहू से दूर रहना निम्न जोखिम नहीं हो सकती है?

स्वभाविक रूप से, यदि उनके बच्चे को शल्यचिकित्सा की आवश्‍यकता है तो मसीही बहुत सी बातों पर सोच विचार करेंगे। चाहे लहू का प्रयोग किया गया हो या नहीं हर ऑपरेशन में जोखिम है। कौनसा शल्यचिकित्सक गारंटी देता है? माता-पिता यह जानते होंगे कि गवाह बच्चों पर बिना लहू के ऑपरेशन करने से निपुण चिकित्सकों को अच्छी सफलता मिली है। तो अगर एक चिकित्सक या अस्पताल के अधिकारी की कोई और पसन्द हो तो भी एक तनावपूर्ण समय बरबाद करने वाले कानूनी झगड़े को पैदा करने के बजाय, क्या यह तर्कसंगत नहीं कि वे स्नेही माता-पिता के साथ मिलकर काम करें? या फिर माता-पिता अपने बच्चे को किसी दूसरे अस्पताल में ले जा सकते है, जहाँ के कर्मचारी ऐसे मामलों की देख रेख करने में अनुभवी हो और इसके लिये तैयार हों। वास्तव में, अरक्‍तीय उपचार अधिक उच्च कोटीय देखरेख होगी, क्योंकि जैसा हमने पहले देखा था इससे परिवार को “विधिसंगत चिकित्सीय तथा गैर-चिकित्सीय लक्ष्यों को प्रप्त करने में” सहायता मिल सकती है।

[फुटनोट]

^ परिशिष्ट के ३०-१ के पृष्ठों में पुनःछापी गयी चिकित्सीय लेख, “लहू: किसका चुनाव और किसका विवेक?” को देखिए।

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कानूनी चिन्ताओं से मुक्‍त करना

आप शायद सोचेंगे, ‘कुछ डॉक्टर और अस्पताल लहू देने के लिये तुरन्त न्यायालय का आदेश पत्र क्यों लेते हैं?’ कुछ स्थानों पर एक मुख्य कारण है दायित्व का भय।

जब यहोवा के गवाह अरक्‍तीय उपचार की माँग करते हैं तो ऐसी चिन्ता निराधार है। अमेरिका के आल्बर्ट आइनस्टाइन कॉलेज ऑफ मेड्‌सिन के एक चिकित्सक लिखते हैं: “अधिकतर [गवाह] अमेरिकन मेडिकल ऐसोसिएशन फॉर्म पर शीघ्र हस्ताक्षर करते हैं जो चिकित्सकों तथा अस्पतालों को दायित्व से मुक्‍त कर देते हैं, और बहुत से गवाह एक मेडिकल अलर्ट [कार्ड] अपने पास रखते हैं। सही हस्ताक्षर एवं तिथि वाला ‘लहू पदार्थों को स्वीकार करने की असहमति’ फॉर्म संविदागत समझौता है और कानूनी रूप से बाध्यकारी है।”—एनेस्थीज़ियॉलजी न्यूज़, अक्‍तूबर १९८९.

जी हाँ, यहोवा के गवाह सहयोग से यह आश्‍वासन देते हैं कि अनुरोध किए गए अरक्‍तीय उपचार का प्रबन्ध कराने से एक चिकित्सक या अस्पताल पर कोई दायित्व नहीं आएगा। चिकित्सीय विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार, हर एक गवाह एक मेडिकल डॉक्यूमेंट कार्ड (चिकित्सीय दस्तावेज़) अपने पास रखता है। प्रति वर्ष इसका नवीनीकरण होता है, और उस व्यक्‍ति और साक्षीयों, अधिकतर उसके निकटतम सम्बन्धी द्वारा हस्ताक्षर किए जाते हैं।

मार्च १९९० में, ऑन्टेरिओ, कॅन्‌डा के उच्चतम न्यायालय ने एक निर्णय स्थापित किया जिसमें यह दस्तावेज़ का अनूमोदन किया गया: “यह कार्ड एक ऐसी मान्य स्थिति की लिखित घोषणा है जिसे कार्ड-धारक न्यायसंगत रूप से चिकित्सक के साथ अनुबंध पर एक लिखित प्रतिबंध लगा सकता है।” मेड्‌सिनस्क इटिक (१९८५) में प्रोफेसर डॅनियल ऐन्डरसन ने लिखा: “यदि मरीज़ के पास एक सुस्पष्ट लिखित बयान है जिसमें लिखा है कि वह यहोवा के गवाहों में से एक है और किसी भी परिस्थिति में लहू नहीं लेना चाहता, तो मरीज़ की स्वायत्तता के आदर की यह माँग है, और इस इच्छा का उसी प्रकार सम्मान किया जाए जैसे कि वह मौखिक रूप से अभिव्यक्‍त की गई हो।”

गवाह अस्पताल के स्वीकृति पत्र पर भी हस्ताक्षर करते हैं। फ्रीबर्ग, जर्मनी, के एक अस्पताल में इस्तेमाल किया जाने वाले स्वीकृति-पत्र में एक रिक्‍त स्थान होता है, जहाँ पर चिकित्सक ने मरीज़ को उपचार के बारे में जो सूचनाएँ दी है, उनका वर्णन किया जा सकता है। फिर, इस फॉर्म में चिकित्सक और मरीज़ के हस्ताक्षर के ऊपर लिखा है: “यहोवा के गवाहों के धार्मिक समुदाय का एक सदस्य होने के नाते, मैं अपने शल्यचिकित्सा के दौरान बाह्‍य लहू या लहू अवयवों के प्रयोग के लिये स्पष्ट मना करता हूँ। मैं इस बात से अवगत हूँ कि इस नियोजित तथा आवश्‍यक प्रक्रिया से रक्‍तस्राव समस्याओं का जोखिम बढ़ सकता है। पूरी तरह से स्पष्टीकरण पा लेने के बाद, विशेष रूप से इस बात का मैं निवेदन करता हूँ कि आवश्‍यक शल्यक्रिया, बाह्‍य लहू या लहू अवयवों के बिना की जाए।”—हर्ज़ क्रिसलॉफ, अगस्त १९८७.

वास्तव में अरक्‍तीय उपचार का जोखिम कम ही होगा। लेकिन यहाँ पर बात यह है कि गवाह मरीज़, खुशी से किसी भी अनावश्‍यक चिन्ताओं से मुक्‍त करा देता हैं कि चिकित्सीय कर्मचारी जिस बात के लिये वचनबद्ध है, उसे पूरा कर सके, अर्थात लोगों को स्वस्थ होने के लिये सहायता करना। इस सहयोग से हरेक को लाभ होता है, जैसे डॉ. ऐंजिलॉस ए. कम्बूरिस ने, “यहोवा के गवाहों पर बड़ा उदरीय ऑपरेशन” में दर्शाया।

“शल्यचिकित्सक को ऑपरेशन के पूर्व समझौते को बाध्यक समझना चाहिये और उससे जुड़े रहना चाहिये चाहे ऑपरेशन के दौरान या बाद में कोई भी परिस्थिति क्यों ने उत्पन्‍ना हो। [इससे] मरीज़ अपने ऑपरेशन की ओर सकारात्मक रूप से अनुकूल बन सकता है, और शल्यचिकित्सक का ध्यान कानूनी एवं तात्विक विषयों से अलग हटकर शल्यक एवं तकनीकी विषयों पर आकर्षित होता है, जिससे वह अति उत्तम दंग से अपना काम कर सके और मरीज़ के हित के लिये कार्य करे।”—द अमेरिकन सर्जन, जून १९८७.

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“वर्तमान स्वास्थ्य देख रेख के खर्चों में वृद्धि का एक मुख्य कारण है, चिकित्सीय शिल्पविज्ञान का अत्याधिक प्रयोग . . . इसके खर्च और अति संभावित जोखिमों के कारण रक्‍त-आधान विशेष महत्त्व रखते हैं। इसी कारण से, अस्पतालों के प्रत्यायन पर अमेरिकी कमीशन ने इसका वर्गीकरण ऐसे किया है, ‘अधिक राशि, अधिक जोखिम तथा भूल प्रवृत।’”—“ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न,” जुलाई-अगस्त १९८९.

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अमेरिका: “मरीज़ की स्वीकृति की आवश्‍यकता इस व्यक्‍तिगत स्वायत्तता की नैतिक धारणा पर आधारित है कि व्यक्‍ति के अपने भाग्य का निर्णय उसने स्वयं करना है। स्वीकृति लेने का कानूनी आधार है कि मरीज़ की अस्वीकृति से की गई चिकित्सीय क्रिया, अन्यायी आक्रमण के तुल्य है।”—“इनफॉर्म्ड कनसेंट फॉर ब्लड ट्रैन्स्‌फ्यूश्‍ज़न,” १९८९.

जर्मनी: “सहायता देने एवं जीवन की रक्षा करने के सिद्धांत को मरीज़ का आत्मनिर्धारण का अधिकार रद्द कर देता है। परिणामस्वरूप: मरीज़ की इच्छा के विरूद्ध रक्‍त-आधान नहीं देना चाहिये।”—“हर्ज़ क्रीसलॉफ,” अगस्त १९८७.

जापान: “औषधीय संसार में कुछ भी ‘अप्रतिबद्ध’ नहीं है। चिकित्सक विश्‍वास करते हैं कि आधुनिक औषध का चलन सबसे उत्तम है और उसी के अनुसार चलते है, परन्तु उन्होंने इसके छोटे से छोटे भाग को ‘अप्रतिबद्ध’ समझकर मरीज़ों पर थोपना नहीं चाहिये। मरीज़ों को भी चुनाव करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये।”—“मिनामी निहोन शिमबुन,” जून २८, १९८५.

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“मैंने (यहोवा के गवाहों के) परिवारों को आपस में जुडे हूए और प्रेममय पाया है,” ऐसा डॉ. लॉरेन्स एस. फ्रैंकेल ने कहा। “बच्चे शिक्षित, चिन्ता करने वाले और श्रद्धालु हैं . . . ऐसा भी लगता है कि चिकित्सीय निर्देशों का कड़ा अनुपालन किया जाता है जिससे शायद इस प्रयास का प्रदर्शन होता है कि वे चिकित्सीय हस्तक्षेप को उस हद तक स्वीकार करते हैं जहाँ तक उनके विश्‍वास अनुमति देते हैं।”—डिपार्टमेंट ऑफ पीडिएट्‌रिक्स, एम. डी. एन्डरसन हॉस्पिटल एण्ड ट्यूमर इंस्टीट्यूट, ह्‍यूस्टन, यू.एस.ए., १९८५.

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डॉ.जेम्स एल. फ्लेचर, जुनियर. ने कहा, “मुझे भय है कि यह असामान्य नहीं है कि विवेकपूर्ण चिकित्सीय निर्णय का स्थान पेशेवर घमण्ड ले लेता है। ऐसे उपचार जो ‘आजकल सबसे उत्तम’ समझे जाते हैं कल वो बदले या निकाले जाते है। कौन अधिक खतरनाक है, एक ‘धार्मिक माता-पिता’ या एक घमण्डी चिकित्सक जो इस बात से विश्‍वस्त है कि उसका उपचार पूर्णतः अनिवार्य है?”—“पीडिऐट्‌रिक्स”, अक्टूबर १९८८.