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अध्याय 84

यीशु का चेला होना एक बड़ी ज़िम्मेदारी है

यीशु का चेला होना एक बड़ी ज़िम्मेदारी है

लूका 14:25-35

  • यीशु का चेला बनने के लिए कई त्याग करने होंगे

यीशु ने एक फरीसी के घर पर कई अच्छी बातें सिखायीं। अब वह यरूशलेम की तरफ चल पड़ा है। उसके साथ लोगों की एक भीड़ भी जा रही है। वे उसके पीछे-पीछे क्यों जा रहे हैं? क्या वे सच में उसकी बतायी राह पर चलना चाहते हैं, फिर चाहे उन्हें जो भी त्याग करने पड़े?

रास्ते में यीशु एक ऐसी बात कहता है जिसे सुनकर कुछ लोग चौंक गए होंगे: “अगर कोई मेरे पास आता है और अपने पिता, माँ, पत्नी, बच्चों, भाइयों और बहनों, यहाँ तक कि अपनी जान से नफरत नहीं करता, तो वह मेरा चेला नहीं बन सकता।”​—लूका 14:26.

यीशु यह नहीं कह रहा है कि जो भी उसके चेले बनेंगे, उन्हें अपने रिश्‍तेदारों से नफरत करनी है। मगर उन्हें यीशु से ज़्यादा रिश्‍तेदारों से प्यार नहीं करना है। उन्हें उस आदमी की तरह नहीं होना है जिसने शादी करने की वजह से एक बड़ी दावत का न्यौता ठुकरा दिया।​—लूका 14:20.

‘अपनी जान से नफरत करने’ का मतलब क्या है? यही कि जो यीशु के चेले बनते हैं, उन्हें अपनी जान से ज़्यादा उससे प्यार करना चाहिए। ज़रूरत पड़े तो उसकी खातिर अपनी जान भी देनी है। तो यीशु का चेला होना एक गंभीर ज़िम्मेदारी है। इसे हलके में नहीं लेना है। यह फैसला उन्हें सोच-समझकर करना है।

यीशु का चेला बनने से एक इंसान को कुछ मुश्‍किलें और ज़ुल्म भी सहने पड़ सकते हैं। वह कहता है, “जो अपना यातना का काठ नहीं उठाता और मेरे पीछे नहीं चलता, वह मेरा चेला नहीं बन सकता।” (लूका 14:27) चेलों को बदनामी भी सहने के लिए तैयार रहना है। यीशु खुद बदनामी सह रहा है और वह बहुत जल्द दुश्‍मनों के हाथों मारा जाएगा।

यीशु एक मिसाल बताता है, “तुममें ऐसा कौन है जो एक मीनार बनाना चाहता हो और बैठकर पहले इसमें लगनेवाले खर्च का हिसाब न लगाए ताकि देखे कि उसे पूरा करने के लिए उसके पास काफी पैसा है या नहीं? नहीं तो ऐसा होगा कि वह उसकी नींव तो डालेगा, मगर मीनार बनाने का काम पूरा नहीं कर पाएगा।” (लूका 14:28, 29) जो लोग यीशु के साथ-साथ चल रहे हैं, उन्हें उसके चेले बनने से पहले अच्छी तरह सोचना है कि क्या वे यह ज़िम्मेदारी उठाने के लिए और त्याग करने के लिए तैयार हैं। यीशु एक और मिसाल बताता है:

“कौन-सा राजा ऐसा है जो युद्ध में जाने से पहले बैठकर सलाह न करे कि वह अपनी 10,000 की फौज से उस दुश्‍मन राजा का मुकाबला कर पाएगा या नहीं, जो 20,000 की फौज लेकर लड़ने आ रहा है? अगर वह मुकाबला नहीं कर सकता, तो दूसरे राजा के दूर रहते ही वह अपने राजदूतों का दल भेजकर उससे सुलह करने की कोशिश करेगा। इसी तरह, यकीन मानो कि तुममें से जो कोई अपनी सारी संपत्ति को अलविदा नहीं कहता वह मेरा चेला नहीं बन सकता।”​—लूका 14:31-33.

यीशु ये बातें सिर्फ उनसे नहीं कह रहा है जो उसके साथ चल रहे हैं। बाद में जो लोग यीशु के बारे में जानेंगे, उन्हें भी यह सब करने के लिए तैयार रहना है। उसके चेले बनने के लिए उन्हें अपना सबकुछ त्याग करने को तैयार रहना है, यहाँ तक कि अपनी जान भी। यह एक गंभीर बात है। उन्हें इस बारे में काफी सोचना चाहिए और प्रार्थना करनी चाहिए।

अब यीशु एक ऐसी बात कहता है जो उसने पहाड़ी उपदेश में भी कही थी। उसके चेले “पृथ्वी के नमक” हैं। (मत्ती 5:13) शायद इसका यह मतलब है कि जैसे नमक चीज़ों को सड़ने से बचाता है, वैसे ही चेलों का संदेश लोगों को कई तरीकों से बचाता है। वे परमेश्‍वर के साथ अपना रिश्‍ता बनाए रख पाते हैं और गलत काम करने से बचे रहते हैं। उनका संदेश लोगों की जान बचाता है। यीशु यह भी कहता है, “नमक बढ़िया होता है। लेकिन अगर नमक अपना स्वाद खो दे, तो उसे किस चीज़ से दोबारा नमकीन किया जा सकता है?” (लूका 14:34) यीशु के ज़माने में कुछ तरह के नमक में मिट्टी और घास-फूस मिला होता था और वह किसी काम का नहीं होता था।

जो लोग काफी समय से यीशु के चेले हैं, उन्हें भी ध्यान रखना है कि उसके पीछे चलने का उनका इरादा कमज़ोर न पड़ जाए। वरना वे उस नमक की तरह बेकार हो जाएँगे जिसका स्वाद बिगड़ गया है। दुनिया के लोग उनका मज़ाक उड़ाएँगे और परमेश्‍वर उन्हें आशीष नहीं देगा। उनकी वजह से परमेश्‍वर का नाम बदनाम भी होगा। यीशु बताता है कि ऐसे अंजाम से बचने के लिए क्या करना है: “कान लगाकर सुनो कि मैं क्या कह रहा हूँ।”​—लूका 14:35.