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एक मकसद-भरी ज़िंदगी जीना मुमकिन है!

एक मकसद-भरी ज़िंदगी जीना मुमकिन है!

एक मकसद-भरी ज़िंदगी जीना मुमकिन है!

आज कई लोगों के लिए दौलत कमाना और उससे तरह-तरह की चीज़ें खरीदना, ज़िंदगी का सबसे बड़ा मकसद बन गया है। कुछ ऐसे हैं जो दुनिया में अपना नाम रोशन करना चाहते हैं। और कुछ अपनी कला में पूरी तरह से महारत हासिल करना चाहते हैं। इनके अलावा, कुछ ऐसे भी लोग हैं जो दूसरों की मदद करने में अपनी ज़िंदगी लगा देते हैं। मगर ज़्यादातर लोग यह नहीं जानते कि वे किस लिए जी रहे हैं या उनकी ज़िंदगी का मकसद क्या है।

आपके बारे में क्या? क्या आपने कभी इस बारे में गंभीरता से सोचा है कि आपकी ज़िंदगी का मकसद क्या है? आइए पहले हम कुछ ऐसे लक्ष्यों पर गौर करें, जिन्हें ज़्यादातर लोग पाने की कोशिश करते हैं। फिर हम देखेंगे कि उन लक्ष्यों को पा लेने से क्या वाकई एक इंसान को कामयाबी का एहसास होता है और खुशी मिलती है। क्या बात एक मकसद-भरी ज़िंदगी जीना मुमकिन बना सकती है?

पैसा होना और मौज करना अच्छी बात है, मगर यही सबकुछ नहीं

सभोपदेशक 7:12 में बाइबल कहती है: “बुद्धि की आड़ रुपये की आड़ का काम देता है; परन्तु ज्ञान की श्रेष्ठता यह है कि बुद्धि से उसके रखनेवालों के प्राण की रक्षा होती है।” जी हाँ, पैसा ज़रूरी है। इसके बगैर गुज़ारा नहीं हो सकता। और आपको पैसे की खासकर तब ज़रूरत होती है, जब आप पर घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी हो।—1 तीमुथियुस 5:8.

पैसों से खरीदी जानेवाली कुछ चीज़ों का लुत्फ भला कौन नहीं उठाता? मसीही धर्म की शुरूआत करनेवाले यीशु मसीह को ही लीजिए। हालाँकि उसने कबूल किया कि उसके पास सिर धरने की जगह नहीं थी, मगर कुछ मौकों पर उसने लज़ीज़ खाने और दाखमधु का लुत्फ ज़रूर उठाया था। और-तो-और, उसे कीमती पोशाक पहनने से भी परहेज़ नहीं था।—मत्ती 8:20; यूहन्‍ना 2:1-11; 19:23, 24.

मगर हाँ, यीशु का खास मकसद ज़िंदगी का पूरा-पूरा मज़ा लूटना नहीं था। उसने अपनी ज़िंदगी में ज़रूरी बातों को पहली जगह दी। उसने कहा: “किसी का जीवन उस की संपत्ति की बहुतायत से नहीं होता।” फिर उसने एक धनवान आदमी का दृष्टांत दिया। जब उस धनवान के खेत में भरपूर फसल उगी, तब वह मन-ही-मन सोचने लगा: “मैं क्या करूं, क्योंकि मेरे यहां जगह नहीं, जहां अपनी उपज इत्यादि रखूं। . . . मैं अपनी बखारियां तोड़ कर उन से बड़ी बनाऊंगा; और वहां अपना सब अन्‍न और संपत्ति रखूंगा: और अपने प्राण से कहूंगा, कि प्राण, तेरे पास बहुत वर्षों के लिये बहुत संपत्ति रखी है; चैन कर, खा, पी, सुख से रह।” इस आदमी की सोच क्यों गलत थी? दृष्टांत आगे बताता है: “परमेश्‍वर ने उस से कहा; हे मूर्ख, इसी रात तेरा प्राण तुझ से ले लिया जाएगा: तब जो कुछ तू ने इकट्ठा किया है, वह किस का होगा?” भले ही इस आदमी ने अपनी फसल इकट्ठी कर रखी थी, मगर उसकी मौत पर यह सब उसके कोई काम नहीं आया। दृष्टांत के आखिर में यीशु ने अपने सुननेवालों को यह सबक दिया: “ऐसा ही वह मनुष्य भी है जो अपने लिये धन बटोरता है, परन्तु परमेश्‍वर की दृष्टि में धनी नहीं।”—लूका 12:13-21.

माना कि हमें पैसों की ज़रूरत पड़ती है और कुछ हद तक ज़िंदगी का मज़ा लेना गलत नहीं। मगर इनमें से कोई भी चीज़ हमारी ज़िंदगी में पहली जगह नहीं लेनी चाहिए। इसके बजाय, परमेश्‍वर की नज़र में धनी बनना यानी उसकी मंज़ूरी पाना ही हमारी ज़िंदगी का मकसद होना चाहिए।

क्या दुनिया में नाम कमाना मायने रखता है?

दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिनकी ज़िंदगी का बस एक ही मकसद है: नाम और शोहरत हासिल करना। एक अच्छा नाम कमाने की ख्वाहिश होना गलत नहीं। बाइबल कहती है: “अच्छा नाम अनमोल इत्र से और मृत्यु का दिन जन्म के दिन से उत्तम है।”—सभोपदेशक 7:1.

जन्म के दिन एक इंसान की ज़िंदगी कोरे कागज़ की तरह होती है। लेकिन मौत के दिन उसके किए सारे काम मानो उस कागज़ पर लिख दिए गए होते हैं। अगर उसने जीते-जी नेक काम किए हैं, तो कहा जा सकता है कि उसकी मृत्यु का दिन, उसके जन्म के दिन से उत्तम है।

बाइबल की सभोपदेशक किताब का लेखक राजा सुलैमान था। उसका सौतेला बड़ा भाई अबशालोम बहुत बड़ा नाम कमाना चाहता था। मगर ऐसा मालूम होता है कि उसके तीन बेटे, जिनके ज़रिए वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपना नाम कायम रख सकता था, जवानी में ही मर गए। ऐसे में अबशालोम ने क्या किया? बाइबल कहती है: “अबशालोम ने . . . एक स्तम्भ खड़ा कराया था जो राजा की तराई में है, क्योंकि उसने सोचा था, ‘मेरे नाम की यादगार कराने के लिए कोई पुत्र नहीं है।’ अत: उसने उस स्तम्भ का नाम अपने ही नाम पर रखा।” (2 शमूएल 14:27; 18:18, NHT) इस स्तंभ के अवशेष आज तक नहीं पाए गए हैं। और जहाँ तक अबशालोम की बात है, तो बाइबल के विद्यार्थी उसे आज सिर्फ इस बात के लिए याद करते हैं कि वह एक बागी था, जिसने अपने पिता, दाऊद की राजगद्दी हथियाने के लिए घिनौनी साज़िश रची थी।

आज कई लोग चाहते हैं कि उनके कामों के लिए दूसरे उन्हें याद रखें। वे ऐसे लोगों की नज़रों में छाने के लिए खूब मेहनत करते हैं, जिनकी पसंद मौसम की तरह बदलती रहती है। मगर ऐसी शोहरत के बारे में क्या कहा जा सकता है? किताब अपनी प्रशंसा आप करनेवाला समाज (अँग्रेज़ी) में क्रिस्टफर लॉश लिखते हैं: “आज हमारे समय में जब तक एक इंसान के पास जवानी, खूबसूरती और कुछ नया कर दिखाने की काबिलीयत होती है, तब तक वह कामयाब रहता है। ऐसे में, यह नाम और शोहरत बस चार दिन की चाँदनी होती है। और जिस किसी को यह मिलती है, उसे हर पल यही चिंता सताती रहती है कि कहीं वह उसे खो न दे।” इस चिंता को दूर करने के लिए बहुत-सी जानी-मानी हस्तियाँ शराब और ड्रग्स का सहारा लेती हैं, जो उन्हें बेवक्‍त मौत के मुँह में धकेल देते हैं। वाकई, शोहरत के पीछे भागना व्यर्थ है।

तो फिर हमें किसकी नज़रों में अच्छा नाम कमाना चाहिए? यहोवा परमेश्‍वर ने अपनी व्यवस्था का पालन करनेवाले कुछ लोगों के बारे में बात करते वक्‍त यशायाह नबी के ज़रिए कहा: ‘मैं उन्हें अपने भवन और अपनी शहरपनाह में एक स्मारक, और एक नाम दूंगा, मैं उनको सदा का एक ऐसा नाम दूंगा जो मिटाया न जाएगा।’ (यशायाह 56:4, 5, NHT) जो परमेश्‍वर की आज्ञा मानेंगे, उन पर उसकी मंज़ूरी होगी और वह उन्हें ‘एक स्मारक और एक नाम देगा।’ जी हाँ, परमेश्‍वर “सदा” तक उनका नाम याद रखेगा, ताकि वे कभी मिटाए न जाएँ। बाइबल हमें अपने सिरजनहार यहोवा की नज़रों में ऐसा ही अच्छा नाम कमाने का बढ़ावा देती है।

यशायाह दरअसल उस समय की भविष्यवाणी कर रहा था, जब परमेश्‍वर के वफादार लोगों को धरती पर फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी। उस फिरदौस में मिलनेवाली “हमेशा की ज़िन्दगी” ही “सच्ची ज़िन्दगी” है। यह एक ऐसी ज़िंदगी है जो परमेश्‍वर ने शुरू में इंसानों के लिए चाही थी। (1 तीमुथियुस 6:12, 19, हिन्दुस्तानी बाइबल) तो फिर क्या हमें पल-भर की और दुःख से भरी ज़िंदगी के बजाय हमेशा की ज़िंदगी का पीछा नहीं करना चाहिए?

चित्रकारी या समाज सेवा से सच्ची खुशी नहीं मिलती

कई चित्रकार अपने काम को बेहतर बनाना चाहते हैं, ताकि वे उस मुकाम तक पहुँच सकें जहाँ वे अपनी कला में पूरी तरह महारत हासिल कर लेंगे। मगर हकीकत तो यह है कि इस लक्ष्य को पाने के लिए हमारी आज की ज़िंदगी काफी नहीं है। हीडेओ की मिसाल पर गौर कीजिए जिसका ज़िक्र पहले लेख में किया गया था। जब उसकी उम्र 90 से ऊपर थी, तब उसने चित्रकारी में अपना हुनर बढ़ाने के लिए खूब मेहनत की। एक चित्रकार भले ही उस मुकाम तक क्यों न पहुँच जाए जहाँ वह अपने काम से खुश होता है, मगर तब वह शायद उतने चित्र न बना पाए जितने वह जवानी में बना सकता था, जब उसमें दमखम था। लेकिन अगर उसे हमेशा की ज़िंदगी मिले तो? सोचिए तब वह अपनी कला में किस हद तक महारत हासिल कर पाएगा!

समाज-सेवा के बारे में क्या? गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करने में अपना वक्‍त, पैसा और साधन लगाना वाकई काबिले-तारीफ है। बाइबल कहती है: “लेने से देने में अधिक सुख है।” (प्रेरितों 20:35, ईज़ी-टू-रीड वर्शन) इसमें कोई शक नहीं कि दूसरों की खातिर भलाई के काम करने से खुशी मिल सकती है। लेकिन ज़रा सोचिए, एक इंसान अगर अपनी पूरी ज़िंदगी भी इस काम में लगा दे, फिर भी वह गरीबी को मिटाने में कहाँ तक कामयाब होगा? लोगों की तकलीफें दूर करने में हम सिर्फ कुछ हद तक कामयाब हो सकते हैं। हम चाहे कितने ही बड़े-बड़े दान क्यों न करें, मगर उससे लोगों की एक बुनियादी ज़रूरत पूरी नहीं होती। यह ऐसी ज़रूरत है जिसे ज़्यादातर लोग नज़रअंदाज़ करते हैं और उसे कभी पूरा नहीं करते। वह ज़रूरत क्या है?

एक पैदाइशी ज़रूरत पूरी करना निहायत ज़रूरी है

यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में इंसान की एक पैदाइशी और बुनियादी ज़रूरत का ज़िक्र किया, जब उसने कहा: “खुश हैं वे, जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” (मत्ती 5:3, NW) तो फिर बाइबल के मुताबिक, सच्ची खुशी धन-दौलत, नामो-शोहरत, चित्रकारी या समाज-सेवा से नहीं मिलती। इसके बजाय, सच्ची खुशी मिलती है अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत, यानी परमेश्‍वर की उपासना करने की अपनी ज़रूरत पूरी करने से।

प्रेरित पौलुस ने उन लोगों को अपने सिरजनहार को ढूँढ़ने के लिए उकसाया जो उसे नहीं जानते थे। उसने कहा: “[परमेश्‍वर] ने एक ही मूल से मनुष्यों की सब जातियां सारी पृथ्वी पर रहने के लिये बनाई हैं; और उन के ठहराए हुए समय, और निवास के सिवानों को इसलिये बान्धा है। कि वे परमेश्‍वर को ढूंढ़ें, कदाचित उसे टटोलकर पा जाएं तौभी वह हम में से किसी से दूर नहीं! क्योंकि हम उसी में जीवित रहते, और चलते-फिरते, और स्थिर रहते हैं।”—प्रेरितों 17:26-28.

सच्चे परमेश्‍वर की उपासना करने की अपनी ज़रूरत पूरी करने से ही हमें ज़िंदगी में सच्ची खुशी मिल सकती है। इसके अलावा, ऐसा करने से हमें “सच्ची ज़िन्दगी” जीने की आशा भी मिल सकती है। टरीसा की मिसाल पर गौर कीजिए। वह अपने देश की ऐसी पहली अफ्रीकी-अमरीकी अभिनेत्री थी जिसने छोटे परदे पर एक घंटे तक चलनेवाले सीरियल में मुख्य किरदार निभाया था। मगर जल्द ही उसने यह सब छोड़ दिया। आखिर क्यों? क्योंकि उसने कहा: “मुझे यकीन हो गया है कि परमेश्‍वर के वचन में दी सलाहों को मानना ही जीने का सबसे बेहतरीन तरीका है।” टरीसा, ऐसे टी.वी. सीरियल में काम करके परमेश्‍वर के साथ अपने रिश्‍ते को खतरे में नहीं डालना चाहती थी, जिसमें सेक्स और खून-खराबा बढ़-चढ़कर दिखाया जाता था। सितारों की दुनिया से तो वह बाहर आ गयी, मगर उसने एक ऐसी दुनिया में कदम रखा, जहाँ सही मायनों में उसकी ज़िंदगी खुशियों से भर गयी। वह कैसे? वह परमेश्‍वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने के लिए पूरे समय की प्रचारक बनी और उसने दूसरों को परमेश्‍वर के साथ एक अच्छा रिश्‍ता कायम करने में मदद दी।

टरीसा ने ऐक्टिंग छोड़ने का जो फैसला किया, उसके बारे में उसके एक पुराने साथी ने कहा: “कामयाबी उसके कदम चूम रही थी। इसलिए जब मुझे पता चला कि उसने वह सब ठुकरा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा। लेकिन उसे ज़रूर कोई ऐसी चीज़ मिली होगी जो ज़्यादा अहमियत रखती है और जिससे उसे ज़्यादा खुशी मिली है।” जब बाद में टरीसा की मौत हो गयी, तब उसके इसी साथी ने कहा: “वह खुश थी। एक इंसान को ज़िंदगी में इसके अलावा भला और क्या चाहिए? हममें से ऐसे कितने हैं जो कह सकते हैं कि हम खुश हैं?” जिन लोगों ने परमेश्‍वर के साथ अपने रिश्‍ते को ज़िंदगी में पहली जगह दी है, मगर जो आज मौत की नींद सो रहे हैं, उनके लिए परमेश्‍वर के राज्य में एक बेहतरीन आशा है। वह यह कि उन्हें दोबारा ज़िंदा किया जाएगा।—यूहन्‍ना 5:28, 29.

सिरजनहार ने इस धरती और इंसानों को एक मकसद से बनाया है। वह चाहता है कि आप उस मकसद के बारे में जानें और धरती पर फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी का लुत्फ उठाएँ। (भजन 37:10, 11, 29) यही वक्‍त है कि आप आकाश और पृथ्वी के सिरजनहार, यहोवा और उस मकसद के बारे में जानने की कोशिश करें, जो उसने आपके लिए ठहराया है। इस मामले में यहोवा के साक्षियों को आपकी मदद करने में बेहद खुशी होगी। कृपया अपने इलाके में रहनेवाले साक्षियों से या इस पत्रिका के प्रकाशकों से संपर्क करें। (w07 11/15)

[पेज 5 पर तसवीर]

यीशु के दृष्टांत में बताए धनवान आदमी की सोच क्यों गलत थी?

[पेज 7 पर तसवीर]

क्या आप धरती पर फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी का लुत्फ उठाना चाहेंगे?