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जानलेवा बीमारी से जूझनेवाले अपनों को दिलासा देना

जानलेवा बीमारी से जूझनेवाले अपनों को दिलासा देना

जानलेवा बीमारी से जूझनेवाले अपनों को दिलासा देना

“जब मैंने सुना कि मेरी माँ को एक जानलेवा बीमारी है, तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरी प्यारी माँ मुझसे जुदा होनेवाली है।”—ग्रेस, कनाडा।

जब किसी शख्स को कोई जानलेवा बीमारी हो जाती है, तो यह सुनकर उसके परिवारवालों और दोस्तों पर दुःखों का कहर टूट पड़ता है। साथ ही, उन्हें समझ में नहीं आता कि उन्हें कैसे पेश आना चाहिए। कुछ इस कशमकश में पड़ जाते हैं कि उन्हें मरीज़ को उसकी हालत के बारे में सच-सच बताना चाहिए या नहीं। जबकि दूसरों को लगता है कि बीमारी के शिकार अपने किसी अज़ीज़ को दर्द से तड़पता और अपना आत्म-सम्मान खोता देखना, उनसे सहन नहीं होगा। कई ऐसे भी हैं जिन्हें फिक्र होने लगती है कि मरीज़ के आखिरी लमहों में न जाने वे उससे क्या कहेंगे या उसके साथ कैसे पेश आएँगे।

इस तरह की बुरी खबर सुनकर आप कैसे पेश आ सकते हैं, इस बारे में आपको क्या जानने की ज़रूरत है? इस नाज़ुक घड़ी में, आप कैसे एक ‘सच्चे मित्र’ बनकर उसे दिलासा दे सकते हैं और उसकी मदद कर सकते हैं?—नीतिवचन 17:17, नयी हिन्दी बाइबिल।

हमारा दुःखी होना लाज़िमी है

हम जिसे बेहद प्यार करते हैं, उसे जब कोई बड़ी बीमारी हो जाती है, तो ऐसे में हमारा दुःखी होना लाज़िमी है। यहाँ तक कि डॉक्टर भी, जो आए दिन लोगों को मरते हुए देखते हैं, खुद को उस वक्‍त लाचार महसूस करते हैं, जब उन्हें जानलेवा बीमारी से लड़नेवाले मरीज़ों को शारीरिक और जज़्बाती तौर पर मदद देनी पड़ती है।

जब आप किसी अपने को तकलीफ में देखते हैं, तो शायद आप भी खुद की भावनाओं को रोक न पाएँ। ब्राज़ील की रहनेवाली होज़ा, जिसकी छोटी बहन को जानलेवा बीमारी थी, कहती है: “अपने किसी अज़ीज़ को तिल-तिलकर मरता देख, कलेजा मुँह को आ जाता है।” पुराने ज़माने में परमेश्‍वर के एक वफादार सेवक मूसा की बहन को जब कोढ़ हो गया, तब मूसा को भी ऐसी भावनाओं से गुज़रना पड़ा था। इसलिए उसने परमेश्‍वर से गिड़गिड़ाकर बिनती की: “हे ईश्‍वर, कृपा कर, और उसको चंगा कर”!—गिनती 12:12, 13.

जब बीमारी की वजह से हमारे किसी अपने का हाल-बेहाल हो जाता है, तो यह देखकर हम क्यों तड़प उठते हैं? क्योंकि हमें करुणामयी परमेश्‍वर यहोवा के स्वरूप में बनाया गया है। (उत्पत्ति 1:27; यशायाह 63:9) आखिर यहोवा, इंसानों को तकलीफ में देखकर कैसा महसूस करता है? यह जानने के लिए, हमें उसके बेटे यीशु पर ध्यान देना होगा जिसने अपने पिता की शख्सियत को बहुत ही उम्दा तरीके से ज़ाहिर किया था। (यूहन्‍ना 14:9) जब उसने बीमार लोगों को देखा, तो उसे उन पर “तरस” आया। (मत्ती 20:29-34; मरकुस 1:40, 41) और जैसे कि पिछले लेख में बताया गया, जब यीशु के दोस्त लाजर की मौत हुई और यीशु ने देखा कि उसके घरवाले और दोस्त कैसे मातम मना रहे हैं, तो उसका दिल भर आया और वह “रो पड़ा।” (यूहन्‍ना 11:32-35, NHT) इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं कि बाइबल, मौत को हमारा दुश्‍मन कहती है। मगर वह यह भी वादा करती है कि बहुत जल्द बीमारी और मौत को मिटा दिया जाएगा।—1 कुरिन्थियों 15:26; प्रकाशितवाक्य 21:3, 4.

जब आपको पता चलता है कि आपके किसी अज़ीज़ को जानलेवा बीमारी हो गयी है, तो हो सकता है आपका मन करे कि इसके लिए किसी-न-किसी को कसूरवार ठहराएँ। ऐसा महसूस करना लाज़िमी है। फिर भी, डॉ. मारटा ओर्टीस, जिन्होंने जानलेवा बीमारी के शिकार लोगों की देखभाल करने के बारे में काफी कुछ लिखा, कहती हैं: “मरीज़ की हालत के लिए डॉक्टरों, नर्सों या खुद को दोषी मत ठहराइए। वरना, दूसरों के साथ आपके रिश्‍ते में तनाव पैदा हो सकता है और आप जानलेवा बीमारी के शिकार मरीज़ की देखभाल करने के सबसे ज़रूरी काम पर पूरा ध्यान नहीं दे पाएँगे।” आप अपने अज़ीज़ की कारगर तरीके से मदद कैसे कर सकते हैं, ताकि वह अपनी बीमारी का सामना कर सके और आनेवाली मौत के लिए तैयार रह सके?

बीमारी से ज़्यादा, बीमार इंसान पर ध्यान दीजिए

कई बार बीमारी की वजह से मरीज़ एकदम सूखकर काँटा हो जाता है या उसकी सूरत बिगड़ जाती है। इसलिए अगर आप उसे अपनी बीमारी का सामना करने में मदद देना चाहते हैं, तो सबसे पहले उसके हुलिए पर ध्यान देने के बजाय उसमें दिलचस्पी लीजिए। वह कैसे? सारा नाम की एक नर्स कहती है: “मैं वक्‍त निकालकर मरीज़ के उन दिनों की तसवीरें देखती हूँ, जब उसमें काफी जोश और दमखम था। और जब वह मुझे अपने बीते कल के बारे में कुछ बताता है, तो मैं ध्यान से सुनती हूँ। इससे मुझे उसकी ज़िंदगी और उसकी आप-बीती को याद रखने में मदद मिलती है और मेरा ध्यान सिर्फ उसकी बीमारी पर ही नहीं जाता।”

एक और नर्स, एन-कैतरीन कहती है: “मैं मरीज़ की आँखों में देखती हूँ और इस बात पर ध्यान देती हूँ कि मैं उसकी हालत को बेहतर बनाने के लिए और क्या कर सकती हूँ।” मरनेवालों की ज़रूरतें—ज़िंदगी के आखिरी लमहों को आशा, दिलासा और प्यार से भर देने के निर्देशन (अँग्रेज़ी) किताब कहती है: “जब बीमारी या दुर्घटना की वजह से हमारे किसी अज़ीज़ की शक्ल-सूरत बिगड़ जाती है, तो ज़ाहिर है कि उसे देखकर हमें अपनी भावनाओं पर काबू पाना मुश्‍किल लगे। इसलिए ऐसे में अच्छा होगा कि हम उसकी बीमारी पर ध्यान देने के बजाय, याद रखें कि वह किस तरह का इंसान है।”

माना कि ऐसा करना हरगिज़ आसान नहीं, लेकिन अगर हम खुद पर काबू रखें और अपना इरादा मज़बूत रखें, तो हम ऐसा ज़रूर कर सकते हैं। एक मसीही अध्यक्ष ज़ॉर्ज़, जो बाकायदा जानलेवा बीमारी के शिकार दोस्तों से मिलने जाता है, कहता है: “जानलेवा बीमारी के शिकार अपने साथियों के लिए हमारा प्यार मज़बूत होना चाहिए, तभी हम उनकी मदद करने से पीछे नहीं हटेंगे, फिर चाहे हम उनकी बीमारी को लेकर कितने भी दुःखी क्यों न हो।” अगर आप बीमारी के बजाय बीमार इंसान पर ध्यान दें, तो इससे आपको और आपके अज़ीज़ दोनों को फायदा होगा। कैंसर से पीड़ित बच्चों की देखभाल करनेवाली ईवोन कहती है: “जब आपको एहसास होता है कि आप मरीज़ों को उनका आत्म-सम्मान बनाए रखने में मदद दे सकते हैं, तब उनकी बिगड़ती हालत देखकर आपको इतना खराब नहीं लगेगा।”

सुनने के लिए तैयार रहिए

कई बार लोग उस इंसान से मिलने से कतराते हैं, जो चंद दिनों का मेहमान होता है, फिर चाहे वे उससे कितना ही प्यार क्यों न करते हों। क्यों? क्योंकि उन्हें यह समझ में नहीं आता कि वे बीमार इंसान से मिलने पर उससे क्या कहेंगे। मगर एन-कैतरीन, जिसने हाल ही में जानलेवा बीमारी के शिकार अपने एक दोस्त की देखभाल की, बताती है कि हमारी खामोशी भी बहुत कुछ कह सकती है। वह कहती है: “हम सिर्फ अपनी बातों से ही नहीं बल्कि अपने व्यवहार से भी दूसरों को तसल्ली दे सकते हैं। जैसे, कुर्सी खींचकर मरीज़ के पास बैठना, उसके करीब आकर उसका हाथ थामना और जब वह अपने दिल का हाल सुनाता है, तो अपने आँसुओं को न रोकना। ये सारी बातें दिखाती हैं कि हमें उसकी बहुत परवाह है।”

आपके अज़ीज़ के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी भावनाएँ खुलकर ज़ाहिर करे। मगर अकसर वे अपने परिवारवालों और दोस्तों की चिंता भाँप लेते है, जिस वजह से वे अपने दिल की बात दिल में ही रखते हैं। दूसरी तरफ, परिवारवाले और दोस्त शायद मरीज़ से उन मसलों के बारे में बात न करें जिनके बारे में जानना मरीज़ के लिए ज़रूरी है। यहाँ तक कि वे उसकी सेहत से जुड़ी ज़रूरी जानकारी भी उससे छिपा सकते हैं। हालाँकि ऐसा करने का उनका इरादा नेक है, फिर भी इससे क्या नुकसान हो सकता है? एक डॉक्टर, जो जानलेवा बीमारी के शिकार मरीज़ों का इलाज करती है, कहती है कि मरीज़ से सच्चाई छिपाने से हम उससे, बीमारी का सामना करने और बीमारी के बारे में दूसरों के साथ खुलकर बात करने का मौका छीन रहे होते हैं। वह यह भी कहती है कि मरीज़ के परिवारवालों और दोस्तों को जो ताकत उसकी मदद करने में लगाना चाहिए, वे उसे मरीज़ से सच्चाई छिपाने में खर्च कर देते हैं। इसलिए अगर बीमार जन अपनी हालत या मौत के बारे में खुलकर बात करना चाहता है, तो उसे ऐसा करने दीजिए।

प्राचीन समय में, जब परमेश्‍वर के कई सेवकों ने अपनी मौत को करीब आते देखा, तो उन्हें बहुत डर लगा। उन्होंने बेझिझक यहोवा परमेश्‍वर के सामने अपना यह डर बयान किया। मिसाल के लिए, 39 साल के राजा हिजकिय्याह को जब पता चला कि उसकी मौत नज़दीक है, तो उसने दिल खोलकर परमेश्‍वर को अपने डर और चिंता के बारे में बताया। (यशायाह 38:9-12, 18-20) जो लोग जानलेवा बीमारी के शिकार हैं, वे जानते हैं कि उनके दिन बस गिनती के रह गए हैं। इसलिए उन्हें अपना दुःख ज़ाहिर करने देना चाहिए। वे शायद इस बात से निराश हों कि उनके सारे अरमानों पर पानी फिर गया है। जैसे, दुनिया घूम आना, अपना एक परिवार होना, पोते-पोतियों का मुँह देखना, या परमेश्‍वर की सेवा में ज़्यादा-से-ज़्यादा करना। हो सकता है उन्हें यह डर सताए कि उनके परिवारवाले और दोस्त अब उनसे दूरी बना लेंगे, क्योंकि उन्हें नहीं पता कि मरीज़ के साथ कैसे पेश आएँ। (अय्यूब 19:16-18) इसके अलावा, मरीज़ों को दर्द सहने, शरीर के अंगों पर काबू खोने या तनहाई में अपना दम तोड़ने का डर भी सता सकता है।

एन-कैतरीन कहती है: “आपको अपने साथी को उसकी भावनाएँ ज़ाहिर करने देना चाहिए। जब वह ऐसा करता है, तो उसे बीच में मत टोकिए, उसके बारे में गलत राय मत कायम कीजिए और ना ही उससे यह कहिए कि डरने की कोई बात नहीं। इस तरह, अपनी बात कहने देने से ही आप उसकी भावनाओं, ख्वाहिशों, डर और उम्मीदों के बारे में अच्छी तरह जान पाएँगे।”

मरीज़ की बुनियादी ज़रूरतें समझिए

अगर आपके बीमार साथी को इलाज के किसी खास तरीके से बार-बार गुज़रना पड़े और उसके असर से उसकी हालत दिन-ब-दिन खराब होती जाए, तो उसकी यह दुर्दशा देखना शायद आपके लिए आसान न हो। ऐसे में आप शायद परेशान हो जाएँ और उसकी एक खास ज़रूरत पहचानने से चूक जाएँ। वह ज़रूरत क्या है? वह है कि मरीज़ अपने फैसले खुद करना चाहता है।

कुछ संस्कृतियों में एक मरीज़ के परिवारवाले उसे यह नहीं बताते कि उसे क्या बीमारी है। उन्हें लगता है कि सच्चाई छिपाकर वे अपने अज़ीज़ की हिफाज़त कर रहे होते हैं। यहाँ तक कि वे उसे अपने इलाज के बारे में फैसला करने का मौका भी नहीं देते। दूसरी संस्कृतियों में एक अलग ही समस्या खड़ी होती है। ज़ेरी, जो नर्स का काम करता है, कहता है: “कभी-कभी ऐसा होता कि जो लोग मरीज़ से मिलने आते हैं, वे उसके पलंग के पास खड़े होकर उसी के बारे में ऐसे बात करते हैं, जैसे कि वह वहाँ है ही नहीं।” मरीज़ के साथ इस तरह का बर्ताव करने से आप उसका आत्म-सम्मान छीन रहे होते हैं।

मरीज़ की एक और बुनियादी ज़रूरत है, उम्मीद। जिन देशों में इलाज की अच्छी-से-अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहाँ मरीज़ की उम्मीद बंधी रहती है कि वह एक ऐसा इलाज ढूँढ़ लेगा, जिससे वह ठीक हो सकता है। मीशेल, जिसकी माँ पर कैंसर ने तीन बार धावा बोला है, कहती है: “अगर माँ इलाज का कोई और तरीका अपनाना चाहती है या किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेना चाहती है, तो मैं उसे इस बारे में जानकारी इकट्ठा करने में मदद देती हूँ। मैं जानती हूँ कि मुझे याद रखना है कि माँ एकदम से ठीक नहीं हो सकती। मगर फिर भी, मैं हमेशा उससे इस तरीके से बात करती हूँ जिससे उसका हौसला बढ़े।”

लेकिन तब क्या अगर बीमारी का इलाज ढूँढ़ निकालने की कोई उम्मीद न हो? ऐसे में, आपको मरीज़ के साथ उसकी मौत के बारे में खुलकर बात करनी चाहिए। ज़ॉर्ज़, जिसका हवाला पहले भी दिया गया है, कहता है: “यह बहुत ज़रूरी है कि हम मरीज़ से यह बात न छिपाएँ कि उसकी मौत बहुत करीब है। ऐसा करने से वह ज़रूरी इंतज़ाम कर सकेगा और अपनी मौत के लिए भी तैयार होगा।” इस तरह इंतज़ाम करने से मरीज़ को इस बात की तसल्ली मिलेगी कि मरने से पहले उसने अपने सारे ज़रूरी काम खत्म कर लिए हैं। साथ ही, उसे यह फिक्र नहीं सताएगी कि वह दूसरों पर एक बोझ है।

माना कि मरीज़ से उसकी मौत के बारे में खुलकर बात करना आसान नहीं। लेकिन अगर हम ऐसा करें, तो हमें अपने दिल की गहराई में छिपी भावनाओं को ज़ाहिर करने का अनोखा मौका मिलेगा। दूसरी तरफ, मरनेवाला शायद आपके साथ हुए मन-मुटाव को दूर करना चाहे, अपना अफसोस ज़ाहिर करना चाहे या फिर आपसे माफी माँगना चाहे। इस तरह की बातचीत से मरनेवाले के साथ आपका रिश्‍ता पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत होगा।

आखिरी लमहों में दिलासा दीजिए

आखिरी साँसें गिननेवाले इंसान को आप दिलासा कैसे दे सकते हैं? डॉ. ओर्टीस, जिनका हवाला पहले भी दिया गया है, कहती हैं: “मरीज़ से उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछिए। फिर ध्यान से उसकी सुनिए। मुमकिन हो तो उसकी ख्वाहिश पूरी कीजिए। लेकिन अगर यह मुमकिन न हो, तो उसे सच-सच बताइए।”

अकसर एक मरनेवाले इंसान की दिली तमन्‍ना होती है कि वह उन लोगों से आखिरी बार मिले, जिनसे वह बेहद प्यार करता है। ज़ॉर्ज़ कहता है: “मरीज़ के घरवालों और दोस्तों को बुलाने का इंतज़ाम कीजिए, फिर चाहे वह कमज़ोरी की वजह से उनसे ज़्यादा बात न भी कर पाए।” और अगर वे मिलने नहीं आ सकते, तो कम-से-कम फोन पर उनसे उसकी बात कराइए। इससे वे मरीज़ की हिम्मत बँधा पाएँगे और उसके साथ मिलकर प्रार्थना भी कर पाएँगे। कनाडा की रहनेवाली क्रिस्टीना, जिसने एक-के-बाद-एक तीन अज़ीज़ों को मौत में खोया है, कहती है: “जैसे-जैसे उनकी मौत नज़दीक आ रही थी, वे चाहते थे कि उनके साथी मसीही उनके लिए और भी ज़्यादा प्रार्थना करें।”

क्या आपको अपने अज़ीज़ के सामने रोने से झिझकना चाहिए? बिलकुल नहीं। क्योंकि आपके रोने से आप उन्हें मौका दे रहे होते हैं कि वे आपको दिलासा दें। मरनेवालों की ज़रूरतें किताब कहती है: “जब मरनेवाला किसी को दिलासा देता है, तो यह बात सामनेवाले के दिल को छू जाती है। यही नहीं, यह बात मरनेवाले के लिए भी बहुत मायने रखती।” इस वक्‍त तक दूसरे, मरनेवाले इंसान की देखभाल करते आए हैं। मगर अब जब मरनेवाला इंसान दूसरों को दिलासा देता है, तो उसे दोबारा अपनी पहचान का एहसास होता है कि वह एक दोस्त, पिता या माँ है।

कभी-कभी हालात की वजह से आप शायद अपने अज़ीज़ की ज़िंदगी के आखिरी लमहों में उसके पास न हों। लेकिन अगर आप उन लमहों में उसके साथ होते हैं, तो उसके मरते दम तक उसका हाथ थामे रहिए। हो सकता है इस दरमियान आपको अपनी उन भावनाओं को ज़ाहिर करने का मौका मिले, जो शायद आपने पहले कभी न ज़ाहिर की हों। मरनेवाला चाहे आपकी बातों का जवाब न दे पाए, फिर भी आप उससे बातें करते रहिए। उससे अपना प्यार ज़ाहिर कीजिए और कहिए कि आप उसे दोबारा नयी दुनिया में मिलेंगे, जब मरे हुओं को ज़िंदा किया जाएगा।—अय्यूब 14:14, 15; प्रेरितों 24:15.

अगर आप इन आखिरी लमहों का पूरा-पूरा फायदा उठाएँगे, तो आपको बाद में कोई मलाल नहीं होगा। यही नहीं, आगे चलकर इन लमहों को याद करके आपको सुकून मिलेगा। जी हाँ, आप “विपत्ति के दिन” में एक सच्चे मित्र साबित होंगे।—नीतिवचन 17:17. (w08 5/1)

[पेज 28 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

अगर आप बीमारी के बजाय बीमार इंसान पर ध्यान दें, तो इससे आपको और आपके अज़ीज़ दोनों को फायदा होगा

[पेज 29 पर बक्स/तसवीर]

मरीज़ के आत्म-सम्मान का आदर करने का एक तरीका

कई देशों में यह कोशिश की जा रही है कि जिन लोगों को जानलेवा बीमारी है, उन्हें चैन से और आत्म-सम्मान के साथ मरने का हक दिया जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि मरीज़ पहले से एक निर्देश-पत्र तैयार करे, जिसमें वह अपनी ख्वाहिशें लिख सकता है। इस निर्देश-पत्र की मदद से उसके हक का आदर किया जाता है और उसे अपनी ज़िंदगी के आखिरी दिन घर पर या किसी अस्पताल में गुज़ारने की इजाज़त दी जाती है।

पहले से तैयार किए गए निर्देश-पत्र के फायदे:

• मरीज़ अपने डॉक्टरों और रिश्‍तेदारों के साथ खुलकर बातचीत कर पाएगा

• मरीज़ के परिवारवालों को उसके लिए चिकित्सा से जुड़े फैसले करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी

• इसके ज़रिए मरीज़ इलाज के ऐसे तरीकों को ठुकरा सकता है, जिनकी वह ज़रूरत महसूस नहीं करता या जिनसे उसे कोई खास फायदा नहीं होगा। साथ ही वह उन तरीकों को भी ठुकरा सकता है, जो बहुत महँगे हैं या जिनसे उसे काफी तकलीफ सहनी पड़ेगी

अच्छी तरह से तैयार किए गए निर्देश-पत्र में कम-से-कम ये बातें लिखी होनी चाहिए:

• आपके स्वास्थ्य-संबंधी प्रतिनिधि का नाम

• अगर आगे चलकर आपकी हालत ऐसी हो जाए कि उसे सुधारना नामुमकिन हो, तो ऐसे में आपको कौन-सा इलाज मंज़ूर है और कौन-सा नहीं

• अगर मुमकिन हो, तो उस डॉक्टर का नाम, जिसे आपके फैसलों के बारे में जानकारी है