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हमें अपनी ज़िंदगी यहोवा को क्यों समर्पित करनी चाहिए?

हमें अपनी ज़िंदगी यहोवा को क्यों समर्पित करनी चाहिए?

हमें अपनी ज़िंदगी यहोवा को क्यों समर्पित करनी चाहिए?

“मैं जिस परमेश्‍वर का हूँ उसका एक दूत रात को मेरे पास आया।”—प्रेषि. 27:23.

1. बपतिस्मा लेने से पहले एक व्यक्‍ति को कौन-से कदम उठाने होते हैं? इससे क्या सवाल खड़े होते हैं?

 “यीशु मसीह के बलिदान पर विश्‍वास करते हुए, क्या आपने अपने पापों का पश्‍चाताप किया है और यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए अपनी ज़िंदगी उसे समर्पित की है?” ये उन दो सवालों में से एक है जो बपतिस्मा लेनेवालों से, बपतिस्मे के भाषण के आखिर में पूछे जाते हैं। मसीहियों को क्यों अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित करनी चाहिए? ऐसा करने के क्या फायदे हैं? बिना समर्पण के यहोवा की उपासना करना क्यों नामुमकिन है? इन सवालों के जवाब पाने के लिए आइए सबसे पहले जानें कि समर्पण क्या है।

2. अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित करने का क्या मतलब है?

2 अपनी ज़िंदगी परमेश्‍वर को समर्पित करने का क्या मतलब है? ध्यान दीजिए कि प्रेषित पौलुस ने परमेश्‍वर के साथ अपने रिश्‍ते के बारे में क्या बताया। हिचकोले खाते जहाज़ में सवार लोगों से उसने कहा: ‘मैं [यहोवा] परमेश्‍वर का हूँ।’ (प्रेषितों 27:22-24 पढ़िए।) सभी सच्चे मसीही परमेश्‍वर के हैं, जबकि यह दुनिया “शैतान के कब्ज़े में पड़ी हुई है।” (1 यूह. 5:19) यहोवा के होने के लिए मसीही उसके बताए तरीके से समर्पण करते हैं। वे प्रार्थना में वादा करते हैं कि वे अपनी ज़िंदगी में यहोवा की मरज़ी को पहली जगह देंगे। इसके बाद, वे पानी में बपतिस्मा लेते हैं।

3. यीशु का बपतिस्मा किस बात की निशानी था? उसके चेले उसकी मिसाल पर कैसे चलते हैं?

3 इस मामले में यीशु मसीह हमारे लिए एक बढ़िया मिसाल है। उसने अपनी इच्छा से परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करने का चुनाव किया। उसका जन्म एक समर्पित जाति इसराएल में हुआ था, इसलिए वह पहले से ही यहोवा को समर्पित था। इससे पता चलता है कि यीशु का बपतिस्मा उसके समर्पण की निशानी नहीं था। इसके बजाय जैसा परमेश्‍वर का वचन बताता है, उसने कहा: “देख! मैं तेरी मरज़ी पूरी करने आया हूँ।” (इब्रा. 10:7; लूका 3:21) यह दिखाता है कि यीशु का बपतिस्मा इस बात की निशानी था कि वह अपने पिता की मरज़ी पूरी करने के लिए खुद को पेश कर रहा है। यीशु के चेले जब बपतिस्मा लेते हैं, तो वे उसकी मिसाल पर चल रहे होते हैं। मगर फर्क सिर्फ इतना है कि वे बपतिस्मा लेकर सबके सामने ज़ाहिर करते हैं कि उन्होंने प्रार्थना में यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया है।

मसीही समर्पण के फायदे

4. दाविद और योनातन की दोस्ती से हम समर्पण के बारे में क्या सीखते हैं?

4 मसीही समर्पण एक गंभीर बात है। यह किसी का साथ निभाने या कोई काम करने के वादे से कहीं बढ़कर है। फिर भी इस तरह के वादों से जो फायदे मिलते हैं, वैसे ही फायदे हमें समर्पण करने से भी मिलते हैं। ये फायदे क्या हैं? यह जानने के लिए आइए इंसानी रिश्‍तों की एक मिसाल लें। वह है दोस्ती की। इससे फायदे पाने के लिए आपको भी एक दोस्त होने की ज़िम्मेदारी निभानी होगी। जैसे, अपने दोस्त की देखभाल करने को अपना फर्ज़ समझना। बाइबल में बेजोड़ दोस्ती के कई उदाहरण दिए गए हैं। उनमें से एक है, दाविद और योनातन की दोस्ती। उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि उन्होंने एक-दूसरे का साथ कभी न छोड़ने का करार भी किया। (1 शमूएल 17:57; 18:1, 3 पढ़िए।) हालाँकि आज ऐसी दोस्ती बहुत कम देखने को मिलती है, फिर भी जब दो दोस्त एक-दूसरे की देखभाल करने के फर्ज़ को कभी नहीं भूलते, तो उनकी दोस्ती दिनों-दिन, सालों-साल और भी मज़बूत होती जाती है।—नीति. 17:17; 18:24.

5. ज़िंदगी-भर अपने मालिक का होकर फायदा पाने के लिए एक दास को क्या करना होता था?

5 मसीही समर्पण का दूसरा फायदा हमें एक और रिश्‍ते से पता चलता है, जिसके बारे में इसराएलियों को दिए कानून में बताया गया था। वह था, एक मालिक और दास का रिश्‍ता। अगर मालिक अच्छा होता, तो एक दास उसकी सेवा करने में सुरक्षित महसूस करता। अगर वह अपने मालिक को नहीं छोड़ना चाहता, बल्कि ज़िंदगी-भर उसकी सेवा करना चाहता, तो उसे अपने मालिक के साथ करार करना होता। कानून में लिखा था: “यदि वह दास दृढ़ता से कहे, कि मैं अपने स्वामी, और अपनी पत्नी, और बालकों से प्रेम रखता हूं; इसलिये मैं स्वतन्त्र होकर न चला जाऊंगा; तो उसका स्वामी उसको परमेश्‍वर के पास ले चले; फिर उसको द्वार के किवाड़ वा बाजू के पास ले जाकर उसके कान में सुतारी से छेद करे; तब वह सदा उसकी सेवा करता रहे।”—निर्ग. 21:5, 6.

6, 7. (क) साथ निभाने के वादे या कॉन्ट्रैक्ट से लोगों को क्या फायदा होता है? (ख) इससे यहोवा के साथ हमारे रिश्‍ते के बारे में क्या पता चलता है?

6 शादी ऐसा रिश्‍ता है, जिसमें दो लोग मरते दम तक एक-दूसरे का साथ निभाने का वादा करते हैं। उनकी एक-दूसरे से निबाह करने की वजह यह नहीं कि उन्होंने शादी के सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर किए हैं, बल्कि इसलिए कि वे दिल से ऐसा करना चाहते हैं। जब एक स्त्री-पुरुष साथ निभाने का वादा कर शादी के रिश्‍ते का आदर करते हैं, तो उनकी ज़िंदगी में चाहे कोई भी परेशानी आए, उनके पास बाइबल में दी ऐसी कई वजह हैं जो उन्हें प्यार से अपनी परेशानी का हल ढूँढ़ने के लिए उभारती हैं। इस मायने में वे सुरक्षित महसूस करते हैं। (मत्ती 19:5, 6; 1 कुरिं. 13:7, 8; इब्रा. 13:4) लेकिन जो लोग बिना शादी के साथ रहते हैं, न तो उन्हें और न ही उनके होनेवाले बच्चों को यह सुरक्षा मिलती है।

7 पुराने ज़माने में, कारोबार और नौकरी के मामले में लोग करार करते थे, जिससे उन्हें फायदा होता था। (मत्ती 20:1, 2, 8) आज भी यह बात सच है। उदाहरण के लिए, कोई भी नया कारोबार शुरू करने या किसी कंपनी में नौकरी शुरू करने से पहले हम एक लिखित इकरारनामे या कॉन्ट्रैक्ट पर दस्तखत करते हैं। ऐसा करना फायदेमंद होता है। अगर किसी का साथ निभाने के वादे से दोस्ती और शादी का बंधन मज़बूत होता है, या नौकरी-पेशे की दुनिया में कॉन्ट्रैक्ट से लोगों को फायदा होता है, तो ज़रा सोचिए, समर्पण करने से यहोवा के साथ आपका रिश्‍ता और कितना गहरा होगा। आइए अब गौर करें कि पुराने ज़माने के इसराएलियों को कैसे फायदा हुआ, जब उन्होंने यहोवा को अपना समर्पण किया। और यह भी कि उनका समर्पण कैसे एक वादे से कहीं बढ़कर था।

परमेश्‍वर को अपना समर्पण करने से इसराएलियों को कैसे फायदा हुआ

8. परमेश्‍वर को अपना समर्पण करना, इसराएलियों के लिए क्या मायने रखता था?

8 पूरी इसराएल जाति ने जब परमेश्‍वर के सामने शपथ खायी, तो वह यहोवा को समर्पित हो गयी। यहोवा ने सभी इसराएलियों को सीनै पहाड़ के पास इकट्ठा किया और कहा: “यदि तुम निश्‍चय मेरी मानोगे, और मेरी वाचा [का] पालन करोगे, तो सब लोगों में से तुम ही मेरा निज धन ठहरोगे।” तब उन्होंने एकमत होकर जवाब दिया: “जो कुछ यहोवा ने कहा है वह सब हम नित करेंगे।” (निर्ग. 19:4-8) इसराएलियों के समर्पण का सिर्फ यह मतलब नहीं था कि उन्होंने यहोवा की आज्ञा मानने का वादा किया है। उनके समर्पण का यह भी मतलब था कि वे यहोवा के हैं और वह उन्हें अपना “निज धन” समझकर उनकी देखभाल करेगा।

9. परमेश्‍वर को अपना समर्पण करने से इसराएल को कैसे फायदा हुआ?

9 जब इसराएली, यहोवा के हो गए तो इससे उन्हें बहुत फायदा हुआ। यहोवा ने उनसे वफा निभायी और कदम-कदम पर उनकी देखभाल की, ठीक जैसे एक प्यार करनेवाला पिता अपने बच्चे के लिए परवाह दिखाता है। परमेश्‍वर ने इसराएलियों से कहा: “क्या यह हो सकता है कि कोई माता अपने दूधपिउवे बच्चे को भूल जाए और अपने जन्माए हुए लड़के पर दया न करे? हां, वह तो भूल सकती है, परन्तु मैं तुझे नहीं भूल सकता।” (यशा. 49:15) यहोवा ने उनका मार्गदर्शन करने के लिए उन्हें कानून दिया, उनका हौसला बढ़ाने के लिए भविष्यवक्‍ता भेजे और उनकी हिफाज़त करने के लिए स्वर्गदूतों का इस्तेमाल किया। एक भजनहार ने लिखा: “वह याकूब को अपना वचन, और इस्राएल को अपनी विधियां और नियम बताता है। किसी और जाति से उस ने ऐसा बर्ताव नहीं किया।” (भज. 147:19, 20; भजन 34:7, 19; 48:14 पढ़िए।) यहोवा ने इसराएलियों की जैसी देखभाल की, वैसी ही देखभाल वह आज उन लोगों की करता है, जो अपनी ज़िंदगी उसे समर्पित करते हैं।

हमें अपना जीवन परमेश्‍वर को क्यों समर्पित करना चाहिए?

10, 11. क्या हम जन्म से परमेश्‍वर के विश्‍वव्यापी परिवार से जुड़े होते हैं? समझाइए।

10 मसीही समर्पण और बपतिस्मे के बारे में सोचते वक्‍त कुछ लोग शायद मन-ही-मन पूछें, ‘मैं समर्पण किए बिना परमेश्‍वर की उपासना क्यों नहीं कर सकता?’ हमें इसकी साफ वजह तब नज़र आएगी, जब हम गौर करेंगे कि फिलहाल परमेश्‍वर के सामने हमारी क्या जगह है। याद रखिए, आदम के पाप की वजह से हम सब पैदाइशी पापी हैं और इसलिए परमेश्‍वर के परिवार से हमारा कोई नाता नहीं। (रोमि. 3:23; 5:12) लिहाज़ा अगर हम परमेश्‍वर के विश्‍वव्यापी परिवार का हिस्सा बनना चाहते हैं, तो यहोवा को अपना समर्पण करना निहायत ज़रूरी है। आइए देखें क्यों।

11 दुनिया में ऐसा एक भी पिता नहीं जो अपने बच्चों को हमेशा की ज़िंदगी दे सके, जैसा परमेश्‍वर ने शुरूआत में चाहा था। (1 तीमु. 6:19) हम परमेश्‍वर के बेटों के तौर पर पैदा नहीं हुए हैं, क्योंकि जब पहले इंसानी जोड़े ने पाप किया, तब पूरी मानवजाति अपने प्यारे पिता और सिरजनहार से अलग हो गयी। (व्यवस्थाविवरण 32:5 से तुलना कीजिए।) उस वक्‍त से लेकर आज तक, मानवजाति परमेश्‍वर से दूर है और उसका यहोवा के विश्‍वव्यापी परिवार से कोई रिश्‍ता नहीं।

12. (क) असिद्ध इंसान कैसे परमेश्‍वर के परिवार के सदस्य बन सकते हैं? (ख) बपतिस्मे से पहले कौन-से कदम उठाने की ज़रूरत है?

12 फिर भी, हम सब परमेश्‍वर से गुज़ारिश कर सकते हैं कि वह हमें अपने सेवकों से बने परिवार का हिस्सा बना ले। * लेकिन हम पापी इंसानों के लिए परमेश्‍वर के परिवार का सदस्य बनना कैसे मुमकिन है? प्रेषित पौलुस ने लिखा: “जब हम परमेश्‍वर के दुश्‍मन थे, . . . तब उसके बेटे की मौत से परमेश्‍वर के साथ हमारी सुलह हुई।” (रोमि. 5:10) बपतिस्मे के समय हम परमेश्‍वर से साफ ज़मीर पाने की गुज़ारिश करते हैं, ताकि वह हमें स्वीकार कर सके। (1 पत. 3:21) लेकिन बपतिस्मे से पहले हमें कुछ कदम उठाने की ज़रूरत है। वे हैं: परमेश्‍वर को जानना, उस पर भरोसा रखना, पश्‍चाताप करना और अपने तौर-तरीके बदलना। (यूह. 17:3; प्रेषि. 3:19; इब्रा. 11:6) मगर परमेश्‍वर के परिवार का सदस्य बनने के लिए हमें और भी कुछ करने की ज़रूरत है। वह क्या?

13. यह क्यों सही है कि एक इंसान परमेश्‍वर के परिवार का हिस्सा बनने से पहले समर्पण का वादा करे?

13 इससे पहले कि एक इंसान परमेश्‍वर के परिवार का हिस्सा बने, उसे यहोवा से एक वादा करना होता है। क्यों? यह समझने के लिए एक पिता का उदाहरण लीजिए, जिसे एक अनाथ लड़के पर दया आती है और वह उसे गोद लेना चाहता है। यह पिता एक नेक इंसान है और समाज में उसका अच्छा नाम है। फिर भी, इस लड़के को अपनाने से पहले पिता उस लड़के से एक वादा चाहता है। वह लड़के से कहता है: “तुम्हें अपना बेटा कबूल करने से पहले मैं जानना चाहता हूँ कि क्या तुम मुझे अपना पिता मानकर प्यार करोगे और मेरी इज़्ज़त करोगे?” लड़के के वादा करने पर ही पिता उसे अपने परिवार में शामिल करेगा। क्या पिता की यह माँग वाजिब नहीं? उसी तरह, यहोवा सिर्फ उन्हीं लोगों को अपने परिवार में शामिल करता है, जो उससे समर्पण का वादा करते हैं। बाइबल कहती है: “तुम अपने शरीरों को जीवित पवित्र और ग्रहणयोग्य बलिदान कर के परमेश्‍वर को समर्पित कर दो।”—रोमि. 12:1, NHT.

प्यार और विश्‍वास का सबूत

14. हमारा समर्पण कैसे हमारे प्यार का सबूत है?

14 परमेश्‍वर से समर्पण का वादा करना, इस बात का सबूत है कि हम यहोवा से सच्चे दिल से प्यार करते हैं। कई मायनों में समर्पण करना, शादी की शपथ लेने जैसा है। एक मसीही दुल्हा जब शपथ खाता है कि वह मरते दम तक अपनी पत्नी का वफादार बना रहेगा, तो वह अपने प्यार का इज़हार कर रहा होता है। यह महज़ कोई काम करने का वादा नहीं, बल्कि ज़िंदगी-भर साथ निभाने की शपथ है। एक मसीही दुल्हा अच्छी तरह समझता है कि शादी की शपथ लिए बिना वह अपनी दुल्हन के साथ ज़िंदगी नहीं बिता सकता। उसी तरह, समर्पण का वादा किए बगैर हम परमेश्‍वर के परिवार का सदस्य होने के फायदे नहीं पा सकते। इसलिए हम यहोवा को अपना समर्पण करते हैं, क्योंकि असिद्ध होने के बावजूद हम उसके होना चाहते हैं। साथ ही, हमने ठान लिया है कि चाहे जो हो जाए हम उसके वफादार बने रहेंगे।—मत्ती 22:37.

15. हमारा समर्पण कैसे हमारे विश्‍वास का सबूत है?

15 जब हम यहोवा को अपना समर्पण करते हैं, तो हम अपने विश्‍वास का भी सबूत दे रहे होते हैं। वह कैसे? हम यहोवा पर विश्‍वास करते हैं, इसलिए इस बात पर हमारा यकीन और भी पक्का हो जाता है कि उसके करीब आने में ही हमारी भलाई है। (भज. 73:28) हम जानते हैं कि “एक टेढ़ी और भ्रष्ट पीढ़ी के बीच” रहकर परमेश्‍वर के साथ-साथ चलना हमेशा आसान नहीं। फिर भी, हमें परमेश्‍वर के वादे पर भरोसा है कि वह हमारी मेहनत पर ज़रूर आशीष देगा। (फिलि. 2:15; 4:13) हम जानते हैं कि हम असिद्ध हैं, लेकिन हमें इस बात का भी यकीन है कि हमारी गलती करने पर वह हम पर दया करेगा और हमें माफ कर देगा। (भजन 103:13, 14; रोमियों 7:21-25 पढ़िए।) हमें पूरा विश्‍वास है कि अगर हम अपनी खराई पर बने रहने का पक्का इरादा कर लें, तो यहोवा हमें ज़रूर आशीष देगा।—अय्यू. 27:5.

यहोवा को अपना समर्पण करने से हमें खुशी मिलती है

16, 17. यहोवा को अपना समर्पण करने से हमें क्यों खुशी मिलती है?

16 यहोवा को अपना समर्पण करने से हमें खुशी मिलती है, क्योंकि समर्पण करने का मतलब है परमेश्‍वर की खातिर खुद को पूरी तरह दे देना। और यीशु ने एक बुनियादी सच्चाई बतायी, जब उसने कहा: “लेने से ज़्यादा खुशी देने में है।” (प्रेषि. 20:35) जब वह इस धरती पर अपनी सेवा कर रहा था, तब उसने पूरी तरह इस खुशी का अनुभव किया। ज़रूरत पड़ने पर यीशु बिना आराम किए, बिना खाए-पिए या बिना किसी सुख-सुविधा के रहता था, ताकि जीवन के रास्ते पर चलने में वह दूसरों की मदद कर सके। (यूह. 4:34) अपने पिता के मन को आनंदित करने में ही उसकी खुशी थी। यीशु ने कहा: “मैं हमेशा वही करता हूँ जिससे वह खुश होता है।”—यूह. 8:29; नीति. 27:11.

17 इसलिए यीशु ने अपने चेलों को ज़िंदगी की वह राह दिखायी, जिस पर चलकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता। उसने कहा: “अगर कोई मेरे पीछे आना चाहता है, तो वह खुद से इनकार करे।” (मत्ती 16:24) ऐसा करने से हम यहोवा के और करीब आते हैं। क्या उससे बढ़कर प्यार और परवाह करनेवाला कोई और है, जिसके हाथों में हम खुद को सौंप सकते हैं?

18. ऐसा क्यों कहा जा सकता है कि समर्पण के मुताबिक जीने से हमें जितनी खुशी मिलती है, उतनी खुशी साथ निभाने या कोई काम करने के वादे से नहीं मिलती?

18 जब हम यहोवा को अपना समर्पण करते हैं और उस समर्पण के मुताबिक जीने के लिए उसकी मरज़ी पूरी करते हैं, तो हमें बड़ी खुशी मिलती है। इतनी खुशी तो हमें साथ निभाने या कोई काम करने के वादे से भी नहीं मिलती। उदाहरण के लिए, बहुत-से लोग अपनी पूरी ज़िंदगी दौलत और पैसा कमाने में लगा देते हैं, लेकिन फिर भी सच्ची खुशी और संतोष उनसे कोसों दूर रहता है। इसके उलट, जो लोग यहोवा को अपना समर्पण करते हैं, उन्हें हमेशा-हमेशा की खुशी मिलती है। (मत्ती 6:24) “परमेश्‍वर के सहकर्मी” होने का सम्मान उन्हें खुशी देता है। मगर उन्होंने किसी काम के लिए खुद को समर्पित नहीं किया, बल्कि कदरदान परमेश्‍वर यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया है। (1 कुरिं. 3:9) उनके इस त्याग की कदर परमेश्‍वर से ज़्यादा और कोई नहीं कर सकता। यहाँ तक कि आगे चलकर वह अपने वफादार जनों की जवानी भी लौटा देगा, ताकि वे उसकी परवाह से हमेशा के लिए फायदा पाएँ।—अय्यू. 33:25; इब्रानियों 6:10 पढ़िए।

19. यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित करनेवालों को क्या सम्मान मिलता है?

19 अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित करने से आप उसके साथ एक मज़बूत रिश्‍ता बना पाएँगे। बाइबल कहती है: “परमेश्‍वर के करीब आओ और वह तुम्हारे करीब आएगा।” (याकू. 4:8) अगले लेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि हम क्यों इस बात का यकीन रख सकते हैं कि परमेश्‍वर के होने का हमने जो चुनाव किया है, वह सही है।

[फुटनोट]

^ यीशु की “दूसरी भेड़ें” हज़ार साल के खत्म होने पर ही परमेश्‍वर के बेटे कहलाएँगी। फिर भी, वे परमेश्‍वर को अपना “पिता” बुला सकते हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्‍वर को अपना समर्पण किया है। इस मायने में वे यहोवा के उपासकों से बने परिवार के सदस्य कहलाए जा सकते हैं।—यूह. 10:16; यशा. 64:8; मत्ती 6:9; प्रका. 20:5.

आप क्या जवाब देंगे?

• अपनी ज़िंदगी परमेश्‍वर को समर्पित करने का क्या मतलब है?

• परमेश्‍वर को अपना समर्पण करने से हमें क्या फायदे मिलते हैं?

• यहोवा को अपना समर्पण करना मसीहियों के लिए क्यों ज़रूरी है?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 6 पर तसवीर]

अपने समर्पण के मुताबिक जीने से हमें हमेशा-हमेशा की खुशी मिलती है