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पहले “उसकी धार्मिकता” की खोज करो

पहले “उसकी धार्मिकता” की खोज करो

पहले “उसकी धार्मिकता” की खोज करो

“तुम पहले उसके राज और उसके स्तरों के मुताबिक जो सही है उसकी खोज में लगे रहो और ये बाकी सारी चीज़ें भी तुम्हें दे दी जाएँगी।”—मत्ती 6:33.

1, 2. परमेश्‍वर की धार्मिकता क्या है और यह किस पर आधारित है?

 “उसके राज . . . की खोज में लगे रहो।” (मत्ती 6:33) यहोवा के साक्षी इस सलाह को बखूबी जानते हैं, जो यीशु मसीह ने पहाड़ी उपदेश में दी थी। हम जीवन के हर पहलू से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि हम परमेश्‍वर के राज से प्यार करते हैं और हमेशा उसके वफादार रहना चाहते हैं। लेकिन ज़रूरी है कि हम आयत के दूसरे भाग पर भी ध्यान दें, जो कहती है, “उसके स्तरों के मुताबिक जो सही है” या “उसकी धार्मिकता” (NHT) की खोज में लगे रहो। तो परमेश्‍वर की धार्मिकता क्या है और पहले उसकी खोज करने का क्या मतलब है?

2 मूल इब्रानी भाषा में “धार्मिकता” के लिए जो शब्द इस्तेमाल हुआ है, उसका अनुवाद “इंसाफ” भी किया जा सकता है। परमेश्‍वर की धार्मिकता उसके अपने स्तर और मूल्य हैं, जिनके आधार पर वह काम करता है। सृष्टिकर्ता होने के नाते यहोवा के पास पूरा अधिकार है कि वह सही और गलत का, अच्छे और बुरे का स्तर तय करे। (प्रका. 4:11) लेकिन परमेश्‍वर की धार्मिकता सिर्फ कड़े नियमों की लंबी-चौड़ी सूची नहीं, जिसमें भावनाओं की कोई परवाह नहीं की जाती। इसके बजाय यह यहोवा की शख्सियत और उसके खास गुण न्याय के अलावा, प्यार, बुद्धि और शक्‍ति, इन खास गुणों पर आधारित है। इसलिए परमेश्‍वर की धार्मिकता उसकी इच्छा और मकसद से जुड़ी है। इसमें वह अपने सेवकों से अपने स्तरों को पूरा करने की माँग भी करता है।

3. (क) परमेश्‍वर की धार्मिकता की खोज पहले करने का क्या मतलब है? (ख) हम यहोवा के धर्मी स्तरों को हर हाल में क्यों मानते हैं?

3 परमेश्‍वर की धार्मिकता की खोज पहले करने का क्या मतलब है? अगर आसान शब्दों में कहा जाए तो इसका मतलब है, परमेश्‍वर को खुश करने के लिए उसकी इच्छा पूरी करना। उसकी धार्मिकता की खोज करने में यह भी शामिल है कि हम उसके मूल्यों और सिद्ध स्तरों के मुताबिक जीने की कोशिश करें, न कि अपने। (रोमियों 12:2 पढ़िए।) परमेश्‍वर के धर्मी स्तरों के मुताबिक जीकर ही हम उसके साथ एक करीबी रिश्‍ता बना पाएँगे। मगर हम डर या सज़ा मिलने के खौफ से उसके नियमों को नहीं मानेंगे, बल्कि उसके लिए प्यार हमें उभारेगा कि हम उसके स्तरों पर चलें और खुद अपने लिए स्तर ना बनाएँ। हम यह मानते हैं कि इसी तरह जीना सही है और हमें ऐसे ही जीने के लिए बनाया गया है। हमें भी परमेश्‍वर के राज के राजा यीशु मसीह की तरह परमेश्‍वर की धार्मिकता से प्यार करना चाहिए।—इब्रा. 1:8, 9.

4. परमेश्‍वर की धार्मिकता के मुताबिक जीना क्यों बहुत ज़रूरी है?

4 परमेश्‍वर के धर्मी स्तरों के मुताबिक जीना क्यों बहुत ज़रूरी है? इस बात पर ध्यान दीजिए: यहोवा के पास स्तर बनाने का अधिकार था और अदन के बाग में जब पहली परीक्षा हुई तो वह इस बात को लेकर थी कि आदम और हव्वा उसके इस अधिकार को कबूल करेंगे या नहीं। (उत्प. 2:17; 3:5) मगर उन्होंने यहोवा के स्तरों को ठुकरा दिया और इस वजह से उनकी संतान होने के नाते हम पर भी मुसीबतें और मौत आ गयी। (रोमि. 5:12) दूसरी तरफ परमेश्‍वर का वचन कहता है: “जो धर्म और कृपा का पीछा [करता] है, वह जीवन, धर्म और महिमा भी पाता है।” (नीति. 21:21) जी हाँ, परमेश्‍वर की धार्मिकता के मुताबिक जीने से हम यहोवा के साथ प्यार भरा रिश्‍ता कायम कर पाएँगे, जिससे आगे चलकर हमारा उद्धार होगा।—रोमि. 3:23, 24.

अपने आपको धर्मी समझने का खतरा

5. हमें किस खतरे से बचने की ज़रूरत है?

5 अगर हम परमेश्‍वर के धर्मी स्तरों के मुताबिक जीना चाहते हैं तो हमें उस खतरे से बचना होगा, जिसके बारे में प्रेषित पौलुस ने रोम के मसीहियों को आगाह किया था। उसने संगी यहूदियों से कहा था: “मैं उनके बारे में गवाही देता हूँ कि वे परमेश्‍वर की सेवा के लिए जोश तो रखते हैं, मगर सही ज्ञान के मुताबिक नहीं। क्योंकि परमेश्‍वर की नज़र में नेक ठहरने के लिए क्या ज़रूरी है, यह न जानते हुए वे खुद को नेक ठहराने की कोशिश में लगे रहे। इसलिए वे नेक ठहराए जाने की परमेश्‍वर की माँगों के अधीन न हुए।” (रोमि. 10:2, 3) पौलुस के मुताबिक परमेश्‍वर के ऐसे उपासक उसकी धार्मिकता को नहीं समझ पाए, क्योंकि वे खुद को नेक या धर्मी ठहराने में लगे हुए थे। *

6. हमें कैसे रवैए से दूर रहना चाहिए और क्यों?

6 हम खुद को नेक या धर्मी ठहराने के फँदे में तब फँसते हैं, जब हम परमेश्‍वर की सेवा में एक-दूसरे से होड़ लगाने यानी तुलना करने लगते हैं। इस तरह का रवैया अपनाने से हम अपनी योग्यताओं पर हद-से-ज़्यादा भरोसा करने लगते हैं। और अगर हम ऐसा करें तो बेशक हम यहोवा के धर्मी स्तरों को भूल रहे होंगे। (गला. 6:3, 4) हमारा इरादा नेक तभी कहा जाएगा, जब हम यहोवा के लिए प्यार की वजह से सही काम करेंगे। अगर हम खुद को नेक ठहराने की कोशिश में लगे रहें, तो परमेश्‍वर के लिए हमारा प्यार सच्चा नहीं रहेगा।

7. जो खुद को धर्मी समझते हैं, उनके रवैये को यीशु ने कैसे उजागर किया?

7 यीशु उनके बारे में चिंता कर रहा था “जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि हम धर्मी हैं, और औरों को तुच्छ जानते थे।” (O.V.) उसने ऐसे लोगों के लिए यह मिसाल दी जो खुद को धर्मी समझते थे: “दो आदमी मंदिर में प्रार्थना करने गए। एक फरीसी था और दूसरा कर-वसूलनेवाला। फरीसी खड़ा होकर मन-ही-मन प्रार्थना में ये बातें कहने लगा, ‘हे परमेश्‍वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि मैं बाकियों जैसा नहीं हूँ, जो लुटेरे, बेईमान और बदचलन हैं, और न ही इस कर-वसूलनेवाले जैसा हूँ। मैं हफ्ते में दो बार उपवास रखता हूँ और जो कुछ पाता हूँ, उन सबका दसवाँ अंश देता हूँ।’ मगर कर-वसूलनेवाला दूर खड़ा रहा और आकाश की तरफ आँखें भी न उठानी चाहीं, मगर छाती पीटते हुए कहता रहा: ‘हे परमेश्‍वर, मुझ पापी पर दया कर।’ आखिर में यीशु ने कहा: “मैं तुमसे कहता हूँ, यह आदमी उस फरीसी से ज़्यादा नेक साबित होकर अपने घर गया। क्योंकि हर कोई जो खुद को ऊँचा करता है, उसे नीचा किया जाएगा, मगर जो खुद को नीचे रखता है, उसे ऊँचा किया जाएगा।”—लूका 18:9-14.

एक और खतरा—“बहुत धर्मी” बनना

8, 9. “बहुत धर्मी” होने का क्या मतलब है और इसकी वजह से हम क्या कर बैठेंगे?

8 हमें एक और खतरे से बचने की ज़रूरत है, जिसके बारे में सभोपदेशक 7:16 में इस तरह बताया गया है: “अपने को बहुत धर्मी न बना, और न अपने को अधिक बुद्धिमान बना; तू क्यों अपने ही नाश का कारण हो?” परमेश्‍वर की प्रेरणा से बाइबल का लेखक आगे आयत 20 में हमें ऐसे रवैए से दूर रहने की वजह बताता है: “पृथ्वी पर कोई ऐसा धर्मी मनुष्य नहीं जो भलाई ही करे और जिस से पाप न हुआ हो।” जो इंसान “बहुत धर्मी” बनता है, वह खुद अपने स्तर कायम करता और उनके हिसाब से दूसरों का न्याय करता है। लेकिन वह यह भूल जाता है कि ऐसा करके वह अपने स्तरों को परमेश्‍वर के स्तरों से ऊँचा उठाता है और इस तरह वह परमेश्‍वर की नज़र में अधर्मी बन जाता है।

9 कुछ दूसरी बाइबलों में “बहुत धर्मी” का अनुवाद, “हद से ज़्यादा” या “अति धर्मी” किया गया है। ऐसा रवैया रखनेवाले परमेश्‍वर के काम करने के तरीके पर भी उँगली उठाते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर हम यहोवा के काम करने के तरीके या उसके फैसले पर सवाल खड़ा करेंगे, तो हम अपने स्तरों को यहोवा के स्तरों से ऊँचा उठा रहे होंगे। यह ऐसा होगा मानो हम यहोवा की परीक्षा ले रहे हैं और उसे अपने सही या गलत स्तरों के आधार पर परख रहे हैं। लेकिन सिर्फ यहोवा है जिसे धार्मिकता के स्तर बनाने का हक है, हमें नहीं।—रोमि. 14:10.

10. अय्यूब की तरह कभी-कभी हम भी कैसे परमेश्‍वर को परख सकते हैं?

10 हालाँकि हममें से कोई जानबूझकर यहोवा को नहीं परखेगा, मगर असिद्ध होने की वजह से मुमकिन है कि हम ऐसा कर बैठें। खासकर ऐसा तब हो सकता है, जब हम कुछ गलत होते देखते हैं या हम मुश्‍किलों का सामना कर रहे होते हैं। वफादार इंसान अय्यूब भी ऐसी गलती कर बैठा। शुरू में अय्यूब को “खरा और सीधा” इंसान कहा गया, जो “परमेश्‍वर का भय मानता और बुराई से परे रहता था।” (अय्यू. 1:1) मगर इसके बाद अय्यूब पर एक-के-बाद-एक मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा और उसे लगा कि उसके साथ गलत हो रहा है। इस वजह से उसने “परमेश्‍वर को नहीं, अपने ही को निर्दोष ठहराया।” (अय्यू. 32:1, 2) आखिरकार अय्यूब को अपनी सोच सुधारनी पड़ी। ताज्जुब नहीं कि कभी-कभी हम भी खुद को ऐसे हालात में पाएँ। अगर ऐसा होता है तो क्या बात हमें अपनी सोच सुधारने में मदद देगी?

हमें हमेशा मामले की पूरी जानकारी नहीं होती

11, 12. (क) अगर हमें लगता है कि कुछ गलत हो रहा है, तो हमें क्या याद रखना चाहिए? (ख) क्यों कुछ लोग सोच सकते हैं कि अंगूरों के बाग में काम करनेवाले मज़दूरों के उदाहरण में नाइंसाफी झलकती है?

11 पहली बात जो हमें याद रखनी है, वह यह है कि हमें हमेशा मामले की पूरी जानकारी नहीं होती। अय्यूब के मामले में यह बात सच थी। उसे इस बात की खबर नहीं थी कि स्वर्ग में परमेश्‍वर के बेटों की सभा हुई थी, जिसमें शैतान ने अय्यूब पर झूठा इलज़ाम लगाया था। (अय्यू. 1:7-12; 2:1-6) अय्यूब को इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं था कि उसकी समस्या की जड़ असल में शैतान है। और लगता है कि उसे यह भी मालूम नहीं था कि शैतान वाकई में है या नहीं! इसलिए उसने परमेश्‍वर को ही अपनी मुसीबतों के लिए दोषी ठहराया। जी हाँ, जब हमें मामले की पूरी जानकारी नहीं होती तो हम आसानी से गलत नतीजे पर पहुँच सकते हैं।

12 अब ज़रा यीशु के उस उदाहरण पर गौर कीजिए जो उसने अंगूरों के बाग में काम करनेवाले मज़दूरों के बारे में दी थी। (मत्ती 20:8-16 पढ़िए।) यहाँ यीशु एक ऐसे मालिक का ज़िक्र करता है जो अपने सभी मज़दूरों को एक बराबर मज़दूरी देता है, फिर चाहे उन्होंने सारा दिन काम किया हो या सिर्फ एक घंटा। इस बारे में आपको कैसा लगता है? क्या आपको यह गलत लगता है? शायद आप तुरंत उन मज़दूरों के बारे में सोचने लगें जिन्होंने दिन भर तपती दोपहरी में काम किया था। आप शायद सोचें, उन्हें बेशक ज़्यादा मज़दूरी मिलनी चाहिए थी! अगर हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं, तो हमें ज़रूर लगेगा कि मालिक ने उनके साथ नाइंसाफी की। हमें शिकायत करनेवाले मज़दूरों को दिया मालिक का जवाब भी रूखा लग सकता है, मानो वह अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन क्या हमें इस मामले की पूरी जानकारी है?

13. अंगूरों के बाग में काम करनेवाले मज़दूरों के उदाहरण को हम और किस नज़रिए से देख सकते हैं?

13 आइए इस उदाहरण को हम एक अलग नज़रिए से देखें। इसमें शक नहीं कि इस उदाहरण में मालिक को एहसास है कि सभी मज़दूरों को अपने परिवार का पेट पालना है। यीशु के दिनों में खेतों में काम करनेवालों को हर दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती थी। उनके परिवार उनकी हर दिन की मज़दूरी पर जीते थे। इस बात को ध्यान में रखते हुए ज़रा उन मज़दूरों के बारे में सोचिए जिन्हें मालिक दिन ढलने के बाद ही देखता है इसलिए वे सिर्फ एक घंटा ही काम कर पाते हैं। शायद एक घंटे की मज़दूरी से वे अपने परिवार का पेट न भर पाएँ। लेकिन वे तो पूरा दिन काम करने के लिए तैयार थे और इसी इंतज़ार में खड़े रहे। (मत्ती 20:1-7) उन्हें पूरा दिन का काम नहीं मिला, तो इसमें उनकी क्या गलती थी? ऐसा भी कोई अंदेशा नहीं मिलता कि वे काम से जी चुरा रहे थे इसलिए देर से आए। और ज़रा सोचिए कि जब आपको मालूम होता है कि आपकी उस दिन की कमाई से ही चूल्हा जलेगा, लेकिन फिर भी पूरा दिन आपको काम नहीं मिलता तो उस इंतज़ार की घड़ी में आप पर क्या गुज़रेगी! ऐसे में अगर आपको कोई काम मिल जाए तो आप कितने खुश होंगे और वह भी इतनी मज़दूरी पर जिससे आपके परिवार का पेट भर सके तब तो क्या कहने!

14. अंगूरों के बाग के उदाहरण से हम क्या अनमोल सबक सीखते हैं?

14 आइए अब हम मालिक के व्यवहार पर गौर करें। उसने किसी को कम मज़दूरी नहीं दी। उसे एहसास था कि उसके हरेक मज़दूर को अपने परिवार का पेट भरना है तो यह ध्यान में रखते हुए उसने सबके साथ एक-सा व्यवहार किया। हालाँकि हालात ऐसे दिखायी देते थे मानो काम करने के लिए मज़दूरों का ताँता लगा है, मगर मालिक ने इसका फायदा उठाते हुए किसी को तय रकम से कम मज़दूरी पर नहीं रखा। सभी को उतनी मज़दूरी मिल ही गयी, जिससे वे अपने परिवार का पेट भर सकें। इस बात को समझने से हमें मालिक के व्यवहार के बारे में एक अलग नज़रिया अपनाने में मदद मिलती है। उसका फैसला बेशक प्यार भरा था और वह अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल नहीं कर रहा था। इससे हम क्या सबक सीख सकते हैं? यही कि अगर हमें मामले की पूरी जानकारी न हो तो हम गलत नतीजे पर पहुँच सकते हैं। बेशक यह उदाहरण दिखाता है कि परमेश्‍वर के धर्मी स्तर कितने ऊँचे हैं जिनमें सिर्फ यह नहीं देखा जाता कि कानून का नियम क्या है और कि एक इंसान उसके लायक है या नहीं।

हमारा नज़रिया गलत या सीमित हो सकता है

15. हमारा नज़रिया क्यों गलत या सीमित हो सकता है?

15 हमें एक बात याद रखनी है कि जब हमें लगता है कि हमारे साथ नाइंसाफी हुई है तो हमारी ऐसी सोच की वजह हमारा सीमित या गलत नज़रिया हो सकता है। हम असिद्ध हैं, दूसरों के बारे में पहले से राय कायम कर लेते हैं और हमारी संस्कृति भी अलग-अलग है, जिस वजह से हमारा नज़रिया सीमित हो सकता है। इसके अलावा, न तो हम दूसरों के दिल में झाँककर देख सकते हैं, न ही उनके इरादों को समझ सकते हैं। लेकिन जहाँ तक यहोवा और यीशु की बात है, उन पर ऐसी बातों को ज़ोर नहीं चलता, वे किसी सीमा में नहीं बँधे।—नीति. 24:12; मत्ती 9:4; लूका 5:22.

16, 17. दाविद और बतशेबा के व्यभिचार के मामले में यहोवा ने अपना बनाया कानून क्यों लागू नहीं किया?

16 आइए दाविद के वाकए पर गौर करें जब उसने बतशेबा के साथ व्यभिचार किया था। (2 शमू. 11:2-5) मूसा के नियम के मुताबिक उन्हें मौत की सज़ा मिलनी चाहिए थी। (लैव्य. 20:10; व्यव. 22:22) हालाँकि यहोवा ने उन्हें सज़ा दी मगर अपने कानून के मुताबिक नहीं। तो क्या यह नाइंसाफी नहीं हुई? क्या यहोवा ने दाविद का पक्ष लेकर अपने ही धर्मी स्तरों को नहीं तोड़ा? यह वाकया पढ़कर कुछ लोगों को ऐसा ही लगता है।

17 गौर कीजिए कि यहोवा ने व्यभिचार के बारे में जो कानून दिया था, वह असिद्ध न्यायियों को दिया था, जिनमें दिलों को पढ़ने की काबिलीयत नहीं थी। और असिद्ध होने के बावजूद वे इस कानून के आधार पर हमेशा एक जैसा न्याय कर पाते थे। लेकिन जहाँ तक यहोवा की बात है, वह दिलों को पढ़ सकता है। (उत्प. 18:25; 1 इति. 29:17) तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि यहोवा को भी उन्हीं कानूनों के मुताबिक चलना चाहिए जो उसने असिद्ध न्यायियों के लिए बनाए थे। अगर वह उन्हीं के मुताबिक चलता, तो यह ऐसा होता मानो एक ऐसे इंसान को जबरन नज़र का चश्‍मा पहनाया जा रहा है, जिसकी आँखें बिलकुल ठीक हैं। क्या ऐसा करना सही होगा? यहोवा दाविद और बतशेबा के दिलों को पढ़कर उनका सच्चा पश्‍चाताप देख सकता था। इन बातों को ध्यान में रखते हुए यहोवा ने दया और प्यार के साथ उनका न्याय किया।

यहोवा के धर्मी स्तरों पर चलते रहिए

18, 19. क्या बात हमारी मदद करेगी कि हम अपने स्तरों के हिसाब से कभी यहोवा को न परखें?

18 अगर बाइबल का कोई वाकया पढ़कर या अपनी ज़िंदगी के अनुभव से आपको लगे कि यहोवा ने नाइंसाफी की है तो आइए हम अपने स्तरों के हिसाब से यहोवा का न्याय न करें। याद रखिए कि हमें हमेशा मामले की पूरी जानकारी नहीं होती और हमारा नज़रिया गलत या सीमित हो सकता है। कभी मत भूलिए कि “इंसान के क्रोध करने का नतीजा वह नेकी नहीं होता जिसकी माँग परमेश्‍वर करता है।” (याकू. 1:19, 20) अगर हम इन बातों को ध्यान में रखें तो हमारा मन ‘यहोवा के विरुद्ध क्रोध से भड़केगा’ नहीं।—नीति. 19:3, NHT.

19 यीशु की तरह आइए हम हमेशा इस बात को मानें कि धर्मी और नेक स्तर ठहराने का अधिकार सिर्फ यहोवा को है। (मर. 10:17, 18) उसके स्तरों का “सही ज्ञान” लेते रहने की कोशिश कीजिए। (रोमि. 10:2; 2 तीमु. 3:7) यहोवा के धर्मी स्तरों को मानने और उसकी मरज़ी के मुताबिक जीने के ज़रिए हम दिखाएँगे कि हम पहले “उसकी धार्मिकता” की खोज कर रहे हैं।—मत्ती 6:33.

[फुटनोट]

^ एक विद्वान के मुताबिक मूल भाषा में शब्द “ठहराने” का मतलब ‘स्मृति स्तंभ खड़ा करना’ भी हो सकता है। तो एक तरह से वे यहूदी परमेश्‍वर की महिमा के बदले खुद की महिमा में मानो एक स्मृति स्तंभ खड़ा कर रहे थे।

क्या आपको याद है?

• यहोवा के धर्मी स्तरों के मुताबिक जीना क्यों ज़रूरी है?

• हमें किन दो खतरों से बचना चाहिए?

• हम पहले परमेश्‍वर की धार्मिकता की खोज कैसे कर सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 9 पर तसवीर]

यीशु ने दो आदमियों के प्रार्थना करने का जो उदाहरण दिया, उससे हम क्या सीखते हैं?

[पेज 10 पर तसवीर]

क्या यह गलत था कि जिन्होंने सिर्फ एक घंटा काम किया, उन्हें भी उतनी ही मज़दूरी दी गयी जितनी कि पूरा दिन काम करनेवालों को?