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ऐसे फैसले लीजिए जिनसे परमेश्‍वर की महिमा हो

ऐसे फैसले लीजिए जिनसे परमेश्‍वर की महिमा हो

ऐसे फैसले लीजिए जिनसे परमेश्‍वर की महिमा हो

“चतुर मनुष्य समझ बूझकर चलता है।”—नीति. 14:15.

1, 2. (क) फैसले लेते वक्‍त हमारी सबसे बड़ी चिंता क्या होनी चाहिए? (ख) हम किन सवालों पर गौर करेंगे?

 रोज़ाना कितनी ही बार इन्हें लिया जाता है। इनमें से कइयों का हम पर ज़्यादा असर नहीं होता, लेकिन कुछ गहरी छाप छोड़ जाते हैं। ये क्या हैं? ये हैं फैसले। हम जो भी फैसले लें, चाहे वे बड़े हों या छोटे, हमें इस बात का पूरा खयाल रखना चाहिए कि उनसे परमेश्‍वर की महिमा हो।—कुरिंथियों 10:31 पढ़िए।

2 क्या आप आसानी से फैसले ले लेते हैं या ऐसा करना आपको एक चुनौती लगता है? अगर हम एक प्रौढ़ मसीही बनना चाहते हैं, तो हमें सही-गलत में फर्क करना सीखना होगा, फिर ऐसे फैसले लेने होंगे जो हमारे पक्के यकीन को ज़ाहिर करें ना कि किसी और के। (रोमि. 12:1, 2; इब्रा. 5:14) और क्या ठोस वजह हैं कि हम अच्छे फैसले लेना सीखें? कभी-कभी फैसले करना इतना मुश्‍किल क्यों होता है? हम कौन-से कदम उठा सकते हैं ताकि जो फैसले हम लें उनसे परमेश्‍वर की महिमा हो?

फैसले लें ही क्यों?

3. फैसले लेते वक्‍त हमें किस बात को आड़े नहीं आने देना चाहिए?

3 ऐसे हालात होते हैं, जब हम बाइबल के आधार पर फैसले कर सकते हैं, लेकिन अगर हम फिर भी हिचकिचाते हैं तो साथ पढ़नेवाले और काम करनेवाले इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि हमें अपनी शिक्षाओं पर पूरा विश्‍वास नहीं और वे आसानी से हमारी सोच बदल सकते हैं। हो सकता है, वे झूठ बोलें, धोखा दें या चोरी करें और फिर हम पर दबाव डालें कि हम भी उन “बहुतों के पीछे” हो लें यानी उनके रंग-में-रंग जाएँ और नहीं तो कम-से-कम उनकी करतूतों पर परदा डालें। (निर्ग. 23:2) लेकिन जिस इंसान को यह मालूम है कि किन फैसलों से परमेश्‍वर की महिमा होती है, वह न तो कभी दूसरों से डरेगा और ना ही उनकी मंज़ूरी पाने की चाहत रखेगा। इसलिए वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगा, जो बाइबल से तालीम पाए उसके ज़मीर के खिलाफ हो।—रोमि. 13:5.

4. दूसरे क्यों शायद आपके लिए फैसले करना चाहें?

4 कई लोग हमारा भला चाहते हुए हमारे लिए फैसले लेते हैं। ऐसे दोस्त हम पर उनकी सलाह मानने का दबाव डाल सकते हैं। अगर हम परिवार से दूर रहते हैं, तो हो सकता है नाते-रिश्‍तेदार हमारी भलाई चाहते हुए ज़रूरी मामलों में हमारी खातिर फैसले करना अपना फर्ज़ समझें। इलाज का ही मामला लीजिए। बाइबल खून के गलत इस्तेमाल की साफ निंदा करती है। (प्रेषि. 15:28, 29) लेकिन इलाज के अलग-अलग तरीकों के बारे में बाइबल साफ-साफ कोई निर्देश नहीं देती। इसलिए इस मामले में हरेक को निजी फैसला करना होगा कि वह कौन-सा इलाज कबूल करेगा और कौन-सा नहीं। * हो सकता है, हमारे अज़ीज़ इलाज के बारे में कुछ खास राय रखते हों। लेकिन इलाज के मामले में चुनाव करते वक्‍त हरेक बपतिस्मा पाए मसीही को “अपनी ज़िम्मेदारी का बोझ” खुद उठाने की ज़रूरत है। (गला. 6:4, 5) हमें इंसानों को खुश करने की नहीं बल्कि इस बात की चिंता करनी चाहिए कि परमेश्‍वर के सामने हमारा ज़मीर साफ रहे।—1 तीमु. 1:5.

5. हम अपने विश्‍वास को तहस-नहस होने से कैसे बचा सकते हैं?

5 ज़रूरत की घड़ी में फैसले न लेना खतरनाक साबित हो सकता है। चेले याकूब ने कहा कि दुचित्ता इंसान “सारी बातों में डाँवाडोल” होता है। (याकू. 1:8) उसकी हालत समुद्री तूफान में बिन पतवार की नैया में बैठे इंसान की तरह होती है। वह बदलती इंसानी सोच की वजह से इधर-उधर उछाला जाता है। उस नैया की तरह ऐसे इंसान का विश्‍वास भी तहस-नहस हो सकता है। और फिर वह शायद अपनी इस दुर्दशा के लिए दूसरों को ज़िम्मेदार ठहराए। (1 तीमु. 1:19) हम ऐसे हालात से कैसे बच सकते हैं? इसके लिए हमें अपना ‘विश्‍वास मज़बूत’ करना होगा। (कुलुस्सियों 2:6, 7 पढ़िए।) मज़बूती पाने के लिए ज़रूरी है कि हम ऐसे फैसले लेना सीखें जो दिखाएँ कि हमें परमेश्‍वर के प्रेरित वचन पर विश्‍वास है। (2 तीमु. 3:14-17) लेकिन अच्छे फैसले लेने में क्या रुकावट आ सकती है?

फैसले लेना मुश्‍किल क्यों हो सकता है?

6. डर का हम पर क्या असर हो सकता है?

6 फैसले लेने में डर एक सबसे बड़ी रुकावट हो सकता है। हम शायद इस बात से डरें कि कहीं हमारा फैसला गलत न हो, कहीं हम नाकामयाब न हो जाएँ या दूसरों के सामने हमारा मज़ाक न बन जाए। ये चिंताएँ वाजिब हैं। हममें से कोई भी गलत फैसला नहीं लेना चाहेगा जिससे बाद में हमें परेशानी और शर्मिंदगी महसूस हो। लेकिन परमेश्‍वर और उसके वचन के लिए प्यार, डर पर काबू पाने में हमारी मदद कर सकता है। कैसे? परमेश्‍वर के लिए प्यार हमें उभारेगा कि ज़रूरी फैसले लेने से पहले हमेशा उसके वचन और उस पर आधारित साहित्य से सलाह लें। इस तरह हमसे कम गलतियाँ होंगी। क्यों? क्योंकि बाइबल “भोलों को चतुराई, और जवान को ज्ञान और विवेक” दे सकती है।—नीति. 1:4.

7. राजा दाविद की मिसाल से हम क्या सीख सकते हैं?

7 क्या मुमकिन है कि हम हमेशा सही फैसले लें? नहीं। हम सभी गलतियाँ करते हैं। (रोमि. 3:23) मिसाल के लिए, राजा दाविद एक बुद्धिमान और वफादार इंसान था। फिर भी, कुछ मौकों पर उसने गलत फैसले किए जिस वजह से उसे और दूसरों को भी दुख उठाना पड़ा। (2 शमू. 12:9-12) लेकिन गलतियाँ करने के बावजूद उसने यह नहीं सोचा कि वह ऐसे फैसले करने के काबिल ही नहीं, जिन पर परमेश्‍वर की मंजूरी हो। (1 राजा 15:4, 5) हो सकता है कि हमने भी गलत फैसले किए हों, मगर दाविद की तरह हम यह याद रख सकते हैं कि यहोवा हमारी गलतियों को नज़रअंदाज़ करता है और पापों को माफ कर देता है। जी हाँ, उससे प्यार करनेवालों और उसकी आज्ञा माननेवालों को वह कभी नहीं छोड़ता।—भज. 51:1-4, 7-10.

8. प्रेषित पौलुस ने शादी के विषय में जो कहा उससे हम क्या सीखते हैं?

8 फैसले लेते वक्‍त जो तनाव हम महसूस करते हैं, उसे भी कम किया जा सकता है। कैसे? यह ज़रूरी नहीं कि हमेशा एक ही फैसला सही हो। किसी मामले पर एक-से-ज़्यादा फैसले सही हो सकते हैं। गौर कीजिए कि प्रेषित पौलुस ने शादी के विषय पर किस तरह तर्क किया। परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति से प्रेरित होकर उसने लिखा: “अगर किसी कुँवारे को लगता है कि वह अपने शरीर की इच्छाओं पर काबू नहीं कर पा रहा और अगर वह जवानी की कच्ची उम्र पार कर चुका है और उसे लगता है कि उसे शादी करनी चाहिए, तो इन हालात में वह ऐसा ही करे। ऐसे में वह पाप नहीं करता। ऐसे लोग शादी कर लें। लेकिन अगर कोई अपने दिल में इरादा कर चुका है कि वह कुँवारा ही रहेगा और वह अपने इस फैसले पर अटल रहता है क्योंकि उसे शादी करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती, बल्कि वह अपनी इच्छा पर पूरा अधिकार रखता है तो वह अच्छा करता है।” (1 कुरिं. 7:36-38) पौलुस ने कहा कि कुँवारे रहने का फैसला सबसे अच्छा है, लेकिन अगर कोई शादी करने का फैसला करता है तो वह भी गलत नहीं।

9. क्या हमें इस बात की चिंता होनी चाहिए कि दूसरे हमारे फैसलों को किस नज़र से देखेंगे? समझाइए।

9 क्या हमें इस बात की चिंता करनी चाहिए कि हमारे फैसलों के बारे में दूसरे क्या सोचेंगे? कुछ हद तक। ध्यान दीजिए कि पौलुस ने ऐसी चीज़ों के खाने के बारे में क्या कहा जो शायद मूर्तियों को चढ़ायी गयी थीं। उसने कबूल किया कि उन्हें खाने का फैसला करना शायद अपने आपमें गलत न हो, लेकिन उससे ऐसे इंसान को ठेस पहुँच सकती है जिसका ज़मीर कमज़ोर है। इसलिए पौलुस ने क्या करने की ठानी? “अगर खाना मेरे भाई के लिए पाप में गिरने की वजह बनता है, तो मैं फिर कभी माँस न खाऊँगा ताकि मैं अपने भाई के लिए पाप में पड़ने की वजह न बनूँ।” (1 कुरिं. 8:4-13) उसी तरह हमें भी फैसले लेते वक्‍त दूसरों के ज़मीर का खयाल रखना चाहिए। बेशक हमारी सबसे बड़ी चिंता यह होनी चाहिए कि हमारे फैसलों का यहोवा के साथ हमारी दोस्ती पर क्या असर पड़ेगा। (रोमियों 14:1-4 पढ़िए।) बाइबल के कौन-से सिद्धांत हमारी मदद कर सकते हैं ताकि हम ऐसे फैसले लें जिनसे परमेश्‍वर की महिमा हो?

अच्छे फैसले लेने के लिए छ: कदम

10, 11. (क) परिवार में फैसले लेते वक्‍त हम ढीठ होने से कैसे बच सकते हैं? (ख) जब प्राचीन ऐसे फैसले लेते हैं जिनका मंडली पर असर होता है तो उन्हें क्या याद रखना चाहिए?

10 ढीठ मत बनिए। कोई भी फैसला करने से पहले हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘क्या मुझे यह फैसला लेने का अधिकार है?’ राजा सुलैमान ने लिखा: “जब अभिमान होता, तब अपमान भी होता है, परन्तु नम्र लोगों में बुद्धि होती है।”—नीति. 11:2.

11 माता-पिता अपने बच्चों को कुछ फैसले लेने की इजाज़त दे सकते हैं, लेकिन बच्चों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह उनका अधिकार है। (कुलु. 3:20) पत्नियों और माँओं को भी परिवार में कुछ अधिकार दिए गए हैं पर उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि परिवार के मुखिया दरअसल उनके पति हैं। (नीति. 1:8; 31:10-18; इफि. 5:23) उसी तरह, पतियों को भी एहसास होना चाहिए कि उनका अधिकार सीमित है और वे मसीह के अधीन हैं। (1 कुरिं. 11:3) प्राचीन कई फैसले लेते हैं जिनका मंडली पर असर होता है। लेकिन वे ध्यान रखते हैं कि वे परमेश्‍वर के वचन में “जो लिखा है उससे आगे न” जाएँ। (1 कुरिं. 4:6) वे विश्‍वासयोग्य दास से मिले निर्देशनों पर भी बारीकी से चलते हैं। (मत्ती 24:45-47) जब हमें फैसले लेने का अधिकार दिया जाता है, सिर्फ तभी अगर हम फैसले लें, तो हम दिखाते हैं कि हम ढीठ या गुस्ताख नहीं हैं और इस तरह हम खुद को साथ ही दूसरों को बहुत-सी चिंताओं और दुखों से बचा सकेंगे।

12. (क) हमें खोजबीन क्यों करनी चाहिए? (ख) समझाइए कि एक इंसान ऐसी खोजबीन कैसे कर सकता है?

12 खोजबीन कीजिए। सुलैमान ने लिखा: “कामकाजी की कल्पनाओं से केवल लाभ होता है, परन्तु उतावली करनेवाले को केवल [घटी] होती है।” (नीति. 21:5) मिसाल के लिए, क्या आप कारोबार से संबंधित किसी पेशकश को कबूल करने या न करने की दुविधा में हैं? भावनाओं में बहकर कोई फैसला मत कीजिए। उस मामले से जुड़ी सारी जानकारी हासिल कीजिए, ऐसे लोगों से सलाह-मशविरा कीजिए जिन्हें इस बारे में अच्छी जानकारी है, और देखिए कि कौन-से बाइबल सिद्धांत इस मामले में लागू किए जा सकते हैं। (नीति. 20:18) अपनी खोजबीन को व्यवस्थित करके दो भागों में बाँटिए। एक भाग में फायदों के बारे में और दूसरे में नुकसान के बारे में लिखिए। फैसला लेने से पहले, “खर्च का हिसाब” लगाइए। (लूका 14:28) गौर कीजिए कि आपके फैसले से आपकी आर्थिक हालत के साथ-साथ आध्यात्मिक हालत पर कैसा असर पड़ेगा। हालाँकि खोजबीन करने में समय और मेहनत लगती है लेकिन इससे आप जल्दबाज़ी में ऐसे फैसले लेने से बचेंगे जिनसे आगे चलकर शायद आपको पछताना पड़े।

13. (क) याकूब 1:5 हमें क्या यकीन दिलाता है? (ख) बुद्धि के लिए प्रार्थना करने से हमें कैसे मदद मिल सकती है?

13 बुद्धि के लिए प्रार्थना कीजिए। हमारे फैसलों से परमेश्‍वर की महिमा तभी होगी जब हम उन्हें लेने में उसकी मदद माँगें। चेले याकूब ने लिखा: “अगर तुम में से किसी को बुद्धि की कमी हो तो वह परमेश्‍वर से माँगता रहे क्योंकि परमेश्‍वर अपने सभी माँगनेवालों को उदारता से और बिना डाँटे-फटकारे बुद्धि देता है और माँगनेवाले को यह दी जाएगी।” (याकू. 1:5) यह कबूल करने में कोई शर्म की बात नहीं कि फैसले लेने के लिए हमें परमेश्‍वर की बुद्धि की ज़रूरत है। (नीति. 3:5, 6) अगर हम सिर्फ अपनी बुद्धि का सहारा लें तो लाज़िमी है कि हम गलत फैसले कर बैठेंगे। जब हम बुद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं और परमेश्‍वर के वचन में दिए सिद्धांतों की खोज करते हैं, तब पवित्र शक्‍ति हमारी मदद करती है जिससे हम अपने इरादों को परख पाते हैं कि हम किस भावना के साथ कोई फैसला कर रहे हैं।—इब्रा. 4:12; याकूब 1:22-25 पढ़िए।

14. हमें फैसले लेने में टाल-मटोल क्यों नहीं करनी चाहिए?

14 फैसला कीजिए, मगर जल्दबाज़ी में नहीं। खोजबीन करके बुद्धि के लिए प्रार्थना कीजिए। क्योंकि बुद्धिमान इंसान “समझ बूझकर चलता है।” (नीति. 14:15) लेकिन हाँ, फैसले लेने में टाल-मटोल मत कीजिए। टाल-मटोल करनेवाला इंसान अजीबो-गरीब बहाने बनाकर फैसले लेने से पीछे हटता है। (नीति. 22:13) मगर देखा जाए तो न चाहकर भी वह फैसला कर ही लेता है, वह दूसरों को अपनी ज़िंदगी का फैसला करने का हक दे देता है।

15, 16. फैसले के मुताबिक काम करने में क्या शामिल होता है?

15 फैसले के मुताबिक काम कीजिए। हमारा अच्छे-से-अच्छा फैसला नाकाम हो सकता है अगर हम उसे पूरा करने के लिए जोश के साथ तय किया हर कदम न उठाएँ। सुलैमान ने लिखा, “जो काम तुझे मिले उसे अपनी शक्‍ति भर करना।” (सभो. 9:10) अगर हम फैसले को अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं तो उसकी खातिर अपने ज़रूरी साधनों को लगाने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। मिसाल के लिए, मंडली में एक प्रचारक पायनियर सेवा करने की सोच सकता है। क्या वह कामयाब होगा? ज़रूर। बशर्ते वह अपना सारा समय और ताकत नौकरी और मनोरंजन में न गँवाकर पायनियर सेवा के लिए बचाकर रखे।

16 अकसर हम जो अच्छे फैसले लेते उसके मुताबिक काम करना बहुत मुश्‍किल होता है। क्यों? क्योंकि “सारी दुनिया शैतान के कब्ज़े में पड़ी हुई है।” (1 यूह. 5:19) हमारी कुश्‍ती “दुनिया के अंधकार के शासकों और उन शक्‍तिशाली दुष्ट दूतों से है जो स्वर्गीय स्थानों में हैं।” (इफि. 6:12) प्रेषित पौलुस और चेले यहूदा दोनों ने बताया कि परमेश्‍वर की महिमा करनेवालों को यह कुश्‍ती लड़नी होगी।—1 तीमु. 6:12; यहू. 3.

17. जब हम कोई फैसला करते हैं, तो यहोवा हमसे क्या उम्मीद करता है?

17 फैसले पर दोबारा गौर कीजिए और ज़रूरत पड़े तो फेरबदल कीजिए। हर फैसले का नतीजा बिलकुल वैसा नहीं निकलता जैसा हमने सोचा होता है। हम सभी “समय और संयोग” के वश में हैं। (सभो. 9:11) फिर भी, यहोवा हमसे माँग करता है कि हम अपने कुछ फैसलों पर मुश्‍किलों के बावजूद डटे रहें। यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित करना या शादी की शपथ लेना ऐसे फैसले हैं जिनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। परमेश्‍वर चाहता है कि हम इन फैसलों पर अटल रहें। (भजन 15:1, 2, 4 पढ़िए।) लेकिन ज़्यादातर फैसले, इतने गंभीर नहीं होते। एक बुद्धिमान इंसान समय-समय पर अपने फैसलों पर गौर करेगा। अपने फैसलों में फेरबदल करने, यहाँ तक कि उन्हें बदलने में वह घमंड या ज़िद को आड़े नहीं आने देगा। (नीति. 16:18) वह खासकर इस बात का ध्यान रखेगा कि वह ऐसी ज़िंदगी जीए जिससे परमेश्‍वर की महिमा हो।

दूसरों को ऐसे फैसले लेने की तालीम दीजिए जिससे परमेश्‍वर की महिमा हो

18. माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे फैसले लेना कैसे सिखा सकते हैं?

18 ऐसे फैसले लेने में माता-पिता बच्चों की मदद कर सकते हैं। यह बात वे बच्चों को अपने अच्छे उदाहरण से सिखा सकते हैं। (लूका 6:40) माता-पिता अपने बच्चों को समझा सकते हैं कि अमुक फैसला करने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए थे। कुछ मामलों में वे बच्चों को अपना फैसला करने की इजाज़त दे सकते हैं और जब उनका फैसला सही हो, तो उनकी तारीफ कर सकते हैं। लेकिन अगर वह गलत फैसला करे, तब क्या? माता-पिता का स्वभाव होता है कि वे तुरंत अपने बच्चे को बुरे अंजाम से बचाने की कोशिश करते हैं, पर इससे हमेशा बच्चे की भलाई नहीं होती। मिसाल के लिए, माता-पिता, शायद बच्चे को गाड़ी चलाने का लाइसेंस लेने की इजाज़त दें। मान लीजिए, बच्चा सड़क पर गाड़ी चलाने का नियम तोड़ दे और उस पर जुर्माना लग जाए। माता-पिता चाहें तो उसका जुर्माना भर सकते हैं। लेकिन अगर वही जुर्माना बच्चे को खुद कमाकर चुकाना पड़े तो मुमकिन है कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह उठाना सीखेगा।—रोमि. 13:4.

19. हमें अपने बाइबल विद्यार्थी को क्या सिखाना चाहिए और हम यह कैसे कर सकते हैं?

19 यीशु ने अपने चेलों से कहा कि वे जाकर दूसरों को सिखाएँ। (मत्ती 28:20) एक ज़रूरी चीज़ जो हम अपने बाइबल विद्यार्थियों को सिखा सकते हैं, वह है अच्छे फैसले लेना। उन्हें यह सिखाने का सबसे अच्छा तरीका है कि हम उनके लिए खुद फैसले न लेकर उन्हें समझाएँ कि वे बाइबल सिद्धांतों के आधार पर तर्क करके कैसे फैसले ले सकते हैं। आखिर “हम में से हरेक इंसान परमेश्‍वर को अपना-अपना हिसाब देगा।” (रोमि. 14:12) इसलिए बहुत ज़रूरी है कि हम ऐसे फैसले लें, जिनसे परमेश्‍वर की महिमा होती है।

[फुटनोट]

^ इस बारे में और जानने के लिए कृपया नवंबर 2006 की हमारी राज्य सेवकाई के पेज 3-6 के इंसर्ट में यह लेख देखिए: “लहू के अंशों और इलाज के उन तरीकों के बारे में मुझे क्या फैसला करना चाहिए, जिनमें मेरा अपना खून इस्तेमाल किया जाता है?

आप क्या जवाब देंगे?

• यह क्यों ज़रूरी है कि हम फैसले लेना सीखें?

• डर का हम पर क्या असर हो सकता है और हम अपने डर पर कैसे काबू पा सकते हैं?

• यह तय करने के लिए कि हमारे फैसलों से परमेश्‍वर की महिमा हो, हम कौन-से छः कदम उठा सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 16 पर बक्स/तसवीर]

अच्छे फैसले लेने के कदम

1 ढीठ मत बनिए।

2 खोजबीन कीजिए।

3 बुद्धि के लिए प्रार्थना कीजिए।

4 फैसला कीजिए।

5 फैसले के मुताबिक काम कीजिए।

6 फैसले पर दोबारा गौर कीजिए और ज़रूरत पड़े तो फेरबदल कीजिए।

[पेज 15 पर तसवीर]

दुचित्ते इंसान की हालत, समुद्री तूफान में बिन पतवार की नैया में बैठे इंसान की तरह होती है