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सच्चे मसीही परमेश्‍वर के वचन की इज़्ज़त करते हैं

सच्चे मसीही परमेश्‍वर के वचन की इज़्ज़त करते हैं

“तेरा वचन सच्चा है।”—यूह. 17:17

1. अपने अनुभव से बताइए कि किस मायने में यहोवा के साक्षी दूसरे धार्मिक समूहों से अलग हैं।

 उस वक्‍त को याद कीजिए जब पहली बार आपकी यहोवा के साक्षियों के साथ चर्चा हुई थी। आपको उनकी क्या बात पसंद आयी थी? बहुत-से लोग शायद कहें, ‘मुझे यह बात बहुत पसंद आयी कि यहोवा के साक्षियों ने मेरे सभी सवालों के जवाब बाइबल से दिए।’ हमें यह जानकर कितनी खुशी हुई थी कि धरती के लिए परमेश्‍वर का एक मकसद है, मौत की नींद सो रहे हमारे अपनों के लिए एक आशा है और यह भी कि मरने पर हमारा क्या होता है।

2. आप किन वजहों से बाइबल की कदर करने लगे?

2 लेकिन जब हम बाइबल का अध्ययन करने लगे तो हमने जाना कि बाइबल न सिर्फ ज़िंदगी, मौत और भविष्य के बारे में हमारे सवालों के जवाब देती है, बल्कि यह आज के ज़माने के लिए बहुत कारगर सलाह भी देती है। और जो इसकी सलाह को ध्यान से मानते हैं उनकी ज़िंदगी कामयाब होती है और उन्हें खुशी मिलती है। (भजन 1:1-3 पढ़िए।) सच्चे मसीहियों ने हमेशा बाइबल को “इंसानों का नहीं बल्कि परमेश्‍वर का वचन समझकर स्वीकार किया, जो यह सचमुच है।” (1 थिस्स. 2:13) आइए अब हम इतिहास के कुछ ऐसे लोगों पर ध्यान दें जिन्होंने परमेश्‍वर के वचन का आदर किया और उन पर भी जिन्होंने ऐसा नहीं किया।

एक नाज़ुक मसला सुलझा

3. पहली सदी में मसीही मंडली की एकता खतरे में क्यों पड़ गयी थी और इसका हल इतना आसान क्यों नहीं था?

3 कुरनेलियुस पहला खतनारहित गैर-यहूदी था जिसे पवित्र शक्‍ति से अभिषिक्‍त किया गया। इस घटना के 13 साल बाद तक एक ऐसा विवाद छिड़ा रहा जो मसीही मंडली की एकता के लिए खतरा बन गया था। अन्यजाति के बहुत-से लोग मसीही धर्म को अपना रहे थे। सवाल यह था कि ऐसे पुरुषों को, बपतिस्मा लेने के लिए यहूदी रिवाज़ के मुताबिक खतना कराना चाहिए या नहीं। एक यहूदी मसीही के लिए इसका जवाब देना आसान नहीं था। यहूदी धर्म को माननेवाले, दूसरी जाति के लोगों से मिलना-जुलना तो दूर, उनके घर में पाँव तक नहीं रखते थे। यहूदी मसीहियों को अपना धर्म छोड़ने की वजह से पहले ही ज़ुल्मों का सामना करना पड़ रहा था। अब अगर वे खतनारहित गैर-यहूदियों के साथ उठना-बैठना शुरू कर दें, तो इससे उनमें और यहूदी धर्म को माननेवालों के बीच दूरियाँ और बढ़ जातीं और शायद उन पर और भी ज़ुल्म ढाए जाते।—गला. 2:11-14.

4. इस मसले को सुलझाने की ज़िम्मेदारी किसे दी गयी? इस बारे में लोगों के मन में क्या सवाल उठे होंगे?

4 ईसवी सन्‌ 49 में यरूशलेम के प्रेषित और बुज़ुर्ग, जो खुद खतना किए हुए यहूदी थे, “इस मामले पर गौर करने के लिए इकट्ठा हुए।” (प्रेषि. 15:6) यह धर्म की बारीकियों को लेकर एक वाद-विवाद नहीं था बल्कि परमेश्‍वर के वचन की शिक्षाओं के बारे में एक दमदार चर्चा थी। दोनों तरफ के लोगों ने अपनी राय पेश की। क्या उनकी खुद की पसंद-नापसंद या गैर-यहूदियों के खिलाफ भेदभाव की भावना का उनके फैसले पर असर होता? क्या वे तब तक फैसला टाल देते जब तक हालात सुधर नहीं जाते और यहूदियों का विरोध कम नहीं हो जाता? या फिर वे किसी तरह का समझौता कर लेते ताकि कोई फैसला लिया जा सके, फिर चाहे वह सही हो या गलत?

5. ईसवी सन्‌ 49 में यरूशलेम में रखी गयी सभा किन मायनों में पादरियों की बैठकों से अलग थी?

5 चर्च के पादरियों की बैठकों में समझौता करना और अपनी मनवाने के लिए गुट बनाना आजकल आम बात है। लेकिन यरूशलेम की उस सभा में किसी तरह का समझौता नहीं किया गया; ना ही वोट पाने के लिए लोगों पर किसी तरह का दबाव डाला गया। दिलचस्प बात तो यह है कि चर्चा के आखिर में सभी एक ही नतीजे पर पहुँचे। यह कैसे मुमकिन हुआ? हालाँकि सबकी अपनी-अपनी राय थी लेकिन वहाँ मौजूद सभी परमेश्‍वर के वचन का आदर करते थे और उसकी मदद से ही वे उस मसले को सुलझा पाए।—भजन 119:97-101 पढ़िए।

6, 7. खतने के मसले को सुलझाने के लिए परमेश्‍वर के वचन का इस्तेमाल कैसे किया गया?

6 आखिर में, आमोस 9:11, 12 की बिनाह पर मसला सुलझाया गया। प्रेषितों 15:16, 17 में उन आयतों का हवाला इस तरह दिया गया है: “इन बातों के बाद मैं वापस आऊँगा और दाविद का गिरा हुआ डेरा फिर से खड़ा करूँगा; और उसके खंडहरों को फिर बनाऊँगा और उसे दोबारा उठाऊँगा, ताकि उसके बचे हुए लोग जी-जान से यहोवा की खोज करें और उनके साथ वे सारे गैर-यहूदी भी, जिनके बारे में यहोवा . . . कहता है, ये मेरे नाम से पुकारे जाते हैं।”

7 लेकिन कोई कह सकता है, ‘मगर उस आयत में यह तो नहीं लिखा कि गैर-यहूदियों के लिए खतना कराना ज़रूरी नहीं है।’ यह सच है, लेकिन यहूदी मसीहियों को बात समझ में आ गयी होगी। क्यों? क्योंकि यहूदी, खतना किए हुए अन्यजाति के लोगों को “गैर-यहूदी” नहीं बल्कि अपना भाई समझते थे। (निर्ग. 12:48, 49) मिसाल के लिए एस्तेर 8:17 में लिखा है: “उस देश के लोगों में से बहुत लोग यहूदी बन गए।” तो फिर, जब आमोस की किताब में भविष्यवाणी की गयी थी कि इसराएल के बचे हुए लोग (यानी यहूदी और जो खतना कराकर यहूदी बन गए थे) और उनके साथ “सारे गैर-यहूदी भी” (यानी अन्यजाति के लोग जिनका खतना नहीं हुआ था) यहोवा के नाम से पुकारे जाएँगे, तो इसका मतलब साफ था। जो गैर-यहूदी मसीही बनना चाहते थे, उनके लिए खतना कराना ज़रूरी नहीं था।

8. जो फैसला लिया गया उसके लिए हिम्मत की ज़रूरत क्यों थी?

8 परमेश्‍वर के वचन और उसकी पवित्र शक्‍ति की मदद से नेकदिल मसीही मसले को ‘एकमत से तय’ कर पाए। (प्रेषि. 15:25) हालाँकि इस फैसले की वजह से यहूदी मसीहियों पर और भी ज़ुल्म ढाए जाते, मगर इसके बावजूद उन वफादार मसीहियों ने बाइबल पर आधारित इस फैसले को अपना पूरा समर्थन दिया।—प्रेषि. 16:4, 5.

ज़मीन आसमान का फर्क!

9. सच्ची उपासना के दूषित होने की एक खास वजह क्या थी और इससे किस गलत शिक्षा की शुरुआत हुई?

9 पौलुस ने पहले से बताया था कि प्रेषितों की मौत के बाद, मसीही धर्म झूठी शिक्षाओं से दूषित हो जाएगा। (2 थिस्सलुनीकियों 2:3, 7 पढ़िए।) “खरी शिक्षा” को दूषित करनेवालों में ऐसे लोग भी होते जो मंडली में ज़िम्मेदारी के पद पर थे। (2 तीमु. 4:3) पौलुस ने अपने ज़माने के प्राचीनों को यह चेतावनी दी: “तुम्हारे ही बीच में से ऐसे आदमी उठ खड़े होंगे जो चेलों को अपने पीछे खींच लेने के लिए टेढ़ी-मेढ़ी बातें कहेंगे।” (प्रेषि. 20:30) ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी बातों की शुरूआत की एक खास वजह बताते हुए द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है: “यूनानी फलसफों की जानकारी रखनेवाले मसीहियों ने अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए और पढ़े-लिखे गैर-मसीहियों को मसीही बनाने के लिए यूनानी फलसफों के आधार पर अपने विश्‍वास को समझाने की ज़रूरत महसूस की।” बाइबल की जिन शिक्षाओं को टेढ़ा-मेढ़ा किया गया उनमें से एक अहम शिक्षा थी यीशु मसीह की पहचान के बारे में। बाइबल उसे परमेश्‍वर का बेटा कहती है, लेकिन यूनानी फलसफों के चाहनेवाले उसे परमेश्‍वर कहने पर उतारू थे।

10. मसीह की पहचान का मसला कैसे सुलझाया जा सकता था?

10 पादरियों की बैठकों में इस मसले पर कई बार बहस हुई। अगर उन लोगों ने परमेश्‍वर के वचन को ज़रा भी अहमियत दी होती, तो यह मसला बड़ी आसानी से सुलझाया जा सकता था। लेकिन ज़्यादातर लोगों ने ऐसा नहीं किया। दरअसल उनमें से कई, बैठक में आने से पहले ही अपना मन बनाकर आते और बैठक के खत्म होने के बाद भी अपनी राय पर अड़े रहते। इन बैठकों के बाद जो फरमान जारी किए गए, उनमें बाइबल का ज़िक्र तक नहीं किया गया था।

11. ईसाई धर्म के विद्वानों को किस हद तक तवज्जह दी गयी और क्यों?

11 मगर बाइबल पर गौर क्यों नहीं किया गया? विद्वान चार्ल्स फ्रीमन ने इसका जवाब देते हुए कहा कि जो यीशु को परमेश्‍वर मानते थे, उन्हें “यीशु की उन बातों को झुठलाना मुश्‍किल लग रहा था जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि वह पिता परमेश्‍वर के अधीन है।” नतीजा यह हुआ कि चर्च की परंपराओं और उनके अधिकारियों की राय को खुशखबरी की किताबों से ज़्यादा अहमियत दी गयी। आज भी बहुत-से पादरी, परमेश्‍वर के वचन से ज़्यादा तवज्जह, ईसाई धर्म के विद्वान कहलानेवालों की बातों को देते हैं। अगर आपने कभी किसी ऐसे व्यक्‍ति से त्रिएक के बारे में बात की हो, जो किसी सेमिनेरी से पादरी बनने की शिक्षा ले रहा है, तो आप यह बखूबी जानते होंगे।

12. सम्राटों ने किस तरह अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल किया?

12 यह गौर करने लायक है कि इन बैठकों में अकसर रोमी सम्राट दखलअंदाज़ी किया करते थे। निसिया की धर्मसभा की मिसाल देते हुए, प्रोफेसर रिचर्ड ई रूबनस्टाइन ने कहा: “कॉनस्टनटाइन ने [बिशपों] को मालामाल कर दिया था। एक साल के अंदर ही इस नए सम्राट ने बिशपों को उनके चर्च लौटा दिए या कुछ चर्चों को दोबारा बनवाया . . . उसने उन्हें उनका काम और पदवी लौटा दी . . . उसने ईसाई पादरियों को वह रुतबा दिया जो पहले दूसरे धर्म के धर्मगुरुओं को दिया जाता था।” इस वजह से यह कहा जा सकता है कि “कॉनस्टनटाइन, निसिया की धर्मसभा में लिए गए फैसलों का रुख मोड़ सकता था। यह भी हो सकता है कि फैसले उसी की मर्ज़ी के मुताबिक लिए गए हों।” चार्ल्स फ्रीमन ने लिखा कि इस सभा के बाद से, चर्च के मामलों में सम्राटों की दखलअंदाज़ी बढ़ गयी। चर्च की मदद करने के अलावा वे उसकी शिक्षाओं में फेरबदल भी करने लगे।याकूब 4:4 पढ़िए।

13. ईसाई धर्मगुरु बाइबल की शिक्षाओं को क्यों नज़रअंदाज़ करते थे?

13 ईसाई धर्मगुरुओं को यीशु की सही पहचान भले ही समझ नहीं आ रही थी, लेकिन आम लोगों को इसे समझने में कोई मुश्‍किल नहीं हो रही थी। वे सम्राट का पैसा नहीं चाहते थे, ना ही उन्हें चर्च में किसी ऊँची पदवी की चाहत थी इसलिए वे मामले को सही नज़रिए से यानी बाइबल के नज़रिए से देख पाए। उस समय के एक विद्वान निस्सा के ग्रेगरी ने आम लोगों के बारे में तिरस्कार-भरे शब्दों में कहा: “कपड़े के व्यापारी, पैसा बदलनेवाले सौदागर और बनिए, सब-के-सब धर्म के विद्वान बन बैठे हैं। आप पैसे का मोल पूछने जाएँ, तो कोई तत्त्वज्ञानी आपको समझाता है कि पिता और पुत्र दोनों अलग-अलग हैं। आप रोटी लेने जाएँ, तो जवाब मिलता है कि पिता, बेटे से बड़ा है। अगर आप पूछें कि नहाने के लिए सब कुछ तैयार है, तो वे उपदेश देने लगते हैं कि बेटे की सृष्टि की गयी थी।” जी हाँ, चर्च के पादरियों के विपरीत, आम लोग परमेश्‍वर के वचन के आधार पर इस नतीजे पर पहुँचे थे। भला होता अगर ग्रेगरी और उसके साथी उनकी सुनते!

“गेहूँ” और “जंगली दाने के पौधे” साथ बढ़ते हैं

14. हम क्यों कह सकते हैं कि इस धरती पर पहली सदी से हमेशा कोई-न-कोई अभिषिक्‍त मसीही रहा है?

14 अपनी एक मिसाल में यीशु ने इस बात की ओर इशारा किया कि इस धरती पर पहली सदी से हमेशा कोई-न-कोई अभिषिक्‍त मसीही रहेगा। उसने उनकी तुलना “गेहूँ” से की जो ‘जंगली दाने के पौधों’ के साथ-साथ बढ़ता। (मत्ती 13:30) हालाँकि हम साफ तौर पर यह तो नहीं कह सकते कि कौन-सा व्यक्‍ति या समूह अभिषिक्‍त गेहूँ वर्ग का था, लेकिन हम इतना ज़रूर कह सकते हैं कि हमेशा कोई-न-कोई ऐसा था जिसने हिम्मत के साथ परमेश्‍वर के वचन की पैरवी की और चर्च की झूठी शिक्षाओं का परदाफाश किया। आइए कुछ मिसालों पर गौर करें।

15, 16. परमेश्‍वर के वचन की इज़्ज़त करनेवाले कुछ लोगों के नाम बताइए।

15 फ्राँस में रहनेवाले, लायॉन्स के आर्चबिशप ऐगोबार्ड ने (जो ईसवी सन्‌ 779 से 840 तक जीया) मूर्ति-पूजा, संतों को समर्पित चर्चों, साथ ही चर्च की उन परंपराओं और कामों के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाइबल पर आधारित नहीं थीं। उस ज़माने के बिशप क्लॉडिअस ने भी चर्च के रिवाज़ों को ठुकराया और संतों से प्रार्थना करने और अवशेषों की उपासना करने का विरोध किया। ग्यारहवीं सदी में, फ्राँस में स्थित टूअर्स के आर्कडीकन बेरनगैरिअस को इसलिए बेदखल कर दिया गया कि उसने इस कैथोलिक शिक्षा को ठुकराया कि रोटी और दाखमधु सचमुच यीशु का शरीर और खून बन जाता है। उसका यह भी मानना था कि चर्च की परंपराएँ बाइबल से बढ़कर नहीं हैं।

16 ब्रुई के पीटर और लोज़ैन के हेनरी, बारहवीं सदी में जीए। वे बाइबल की सच्चाइयों से बहुत प्यार करते थे। पीटर ने पादरी के पद से इस्तीफा दे दिया क्योंकि वह शिशुओं के बपतिस्मे, रोटी-दाखमधु के शरीर और खून में तबदील होने, मरे हुओं के लिए प्रार्थना करने और क्रूस की उपासना करने जैसी कैथोलिक शिक्षाओं से सहमत नहीं था। इस वजह से सन्‌ 1140 में उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। हेनरी एक मठवासी था और उसने चर्च में हो रहे भ्रष्टाचार और उसकी गलत परंपराओं की खिलाफत की। सन्‌ 1148 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया और वह उम्र-भर कैद में रहा।

17. वॉल्डो और उसके शिष्यों ने क्या ज़रूरी कदम उठाए?

17 जिस साल ब्रुई के पीटर को चर्च की तौहीन करने की वजह से ज़िंदा जलाकर मार दिया गया, तकरीबन उसी समय एक ऐसे इंसान का जन्म हुआ जो आगे चलकर बाइबल सच्चाइयों को फैलाने में एक बड़ी भूमिका निभाता। उसका उपनाम था वॉल्डीस या वॉल्डो। * ब्रुई के पीटर और लोज़ैन के हेनरी की तरह वह एक धर्मगुरु नहीं था, मगर वह परमेश्‍वर के वचन को इतना अनमोल समझता था कि उसने दक्षिणपूर्वी फ्राँस में बोली जानेवाली भाषा में बाइबल के कुछ हिस्सों का अनुवाद करने के लिए अपनी सारी धन-दौलत लगा दी। अपनी मातृ-भाषा में बाइबल का संदेश सुनकर कुछ लोगों को इतनी खुशी हुई कि उन्होंने भी बाइबल की सच्चाई को फैलाने के लिए अपनी धन-संपत्ति लगा दी। इन्हें आगे चलकर वॉलडेनसीज़ कहा गया। उनका जोश देखकर चर्च में हलचल मच गयी। सन्‌ 1184 में पोप ने इन जोशीले स्त्री-पुरुषों को चर्च से बेदखल कर दिया और बिशपों ने उन्हें उनके घरों से निकाल दिया। लेकिन उन्हें बेदखल करने का एक अच्छा नतीजा यह हुआ कि बाइबल का संदेश दूसरे इलाकों तक पहुँच पाया। आगे चलकर यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में, वॉल्डो, ब्रुई के पीटर और लोज़ैन के हेनरी के शिष्यों की गिनती बढ़ गयी, साथ ही चर्च की शिक्षाओं का विरोध करनेवाले कई और लोग भी उठ खड़े हुए। आगे की सदियों में ऐसे बहुत-से लोग हुए जिन्होंने बाइबल सच्चाइयों की पैरवी की: जॉन विक्लिफ (जो करीब सन्‌ 1330 से 1384 तक जीया), विलियम टिंडेल (जो करीब सन्‌ 1494 से 1536 तक जीया), हेनरी ग्रू (जो सन्‌ 1781 से 1862 तक जीया) और जॉर्ज स्टॉर्ज़ (जो सन्‌ 1796 से 1879 तक जीया)।

“परमेश्‍वर का वचन कैद नहीं है”

18. समझाइए कि 19वीं सदी में बाइबल विद्यार्थी किस तरह बाइबल अध्ययन किया करते थे और यह तरीका इतना असरदार क्यों था।

18 बाइबल के दुश्‍मन उसके संदेश को फैलने से रोक नहीं पाए। दूसरा तीमुथियुस 2:9 कहता है: “परमेश्‍वर का वचन कैद नहीं है।” सन्‌ 1870 में बाइबल के नेकदिल विद्यार्थी सच्चाई की खोज करने लगे। वे किस तरह अध्ययन करते थे? उनमें से कोई एक सवाल करता। फिर वे मिलकर उस पर चर्चा करते और उस विषय से जुड़ी सारी आयतें पढ़ते। जब वे आपस में इस बात पर सहमत होते कि ये आयतें एक-दूसरे से किस तरह मेल खाती हैं तब वे अपनी चर्चा के नतीजे लिख लेते। हमें यह जानकर कितनी तसल्ली मिलती है कि प्रेषितों और पहली सदी के बुज़ुर्गों की तरह, 19वीं सदी के इन वफादार लोगों ने, यानी हमारे “आध्यात्मिक पूर्वजों” ने परमेश्‍वर के वचन को ही अपने विश्‍वास का आधार बनाने की ठान ली थी।

19. सन्‌ 2012 का सालाना वचन क्या है और यह सही क्यों है?

19 बाइबल आज भी हमारे विश्‍वास का आधार है। इसे ध्यान में रखते हुए, यहोवा के साक्षियों के शासी निकाय ने सन्‌ 2012 का सालाना वचन, यीशु के इन शब्दों से लिया है, जो उसने पूरे यकीन के साथ कहे थे: “तेरा वचन सच्चा है।” (यूह. 17:17) परमेश्‍वर की मंज़ूरी पाने के लिए सच्चाई में चलते रहना ज़रूरी है, इसलिए ऐसा हो कि हम सब परमेश्‍वर के वचन के मार्गदर्शन में चलते रहें।

[फुटनोट]

^ पैरा. 17 वॉल्डीस को कभी-कभार पीएर वॉल्डीस या पीटर वॉल्डो के नाम से भी पुकारा गया है, मगर यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उसका असल नाम पीएर था या पीटर।

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 8 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

सन्‌ 2012 का हमारा सालाना वचन है: “तेरा वचन सच्चा है।”—यूहन्‍ना 17:17

[पेज 7 पर तसवीर]

वॉल्डो

[पेज 7 पर तसवीर]

विक्लिफ

[पेज 7 पर तसवीर]

टिंडेल

[पेज 7 पर तसवीर]

ग्रू

[पेज 7 पर तसवीर]

स्टॉर्ज़