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तुम्हारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो

तुम्हारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो

“बस तुम्हारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, और ‘न’ का मतलब न।”—मत्ती 5:37.

1. यीशु ने कसम खाने के बारे में क्या कहा और क्यों?

 आम तौर पर सच्चे मसीहियों को किसी बात के लिए शपथ या कसम खाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वह इसलिए कि वे यीशु की यह आज्ञा मानते हैं, “बस तुम्हारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, और ‘न’ का मतलब न।” यीशु के कहने का मतलब था कि इंसान को अपनी ज़बान का पक्का होना चाहिए। यह आज्ञा देने से पहले यीशु ने कहा था, “तू कभी कसम न खाना।” उसने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि कई लोगों की बात-बात पर कसम खाने की आदत होती है, जबकि अपनी बात पूरी करने का उनका कोई इरादा नहीं होता। अगर एक इंसान कसम खाता है, लेकिन उस पर खरा नहीं उतरता, तो इससे क्या ज़ाहिर होता है? यही कि वह भरोसे के लायक नहीं और उस पर “शैतान” का असर हावी है।—मत्ती 5:33-37 पढ़िए।

2. शपथ खाना हमेशा गलत क्यों नहीं होता?

2 क्या यीशु के कहने का यह मतलब था कि शपथ या कसम खाना हमेशा गलत होता है? हम ऐसा नहीं कह सकते। जैसे कि हमने पिछले लेख में देखा, यहोवा परमेश्‍वर और उसके वफादार सेवक अब्राहम ने भी ज़रूरी मौकों पर शपथ खायी। साथ ही, परमेश्‍वर के कानून के मुताबिक कुछ मसलों को सुलझाने के लिए शपथ खाना ज़रूरी होता था। (निर्ग. 22:10, 11; गिन. 5:21, 22) आज एक मसीही को शायद अदालत में गवाही देते वक्‍त अपना बयान सच साबित करने के लिए कसम खानी पड़े। या यह भी हो सकता है कि कभी-कभार कोई मामला सुलझाने या दूसरे को किसी बात का यकीन दिलाने के लिए एक मसीही को लगे कि उसका शपथ खाना ज़रूरी है। जब यीशु को महायाजक ने सच बोलने की शपथ धरायी, तो उसने कोई एतराज़ नहीं जताया बल्कि यहूदी महासभा को सच-सच जवाब दिया। (मत्ती 26:63, 64) यीशु के लिए यह ज़रूरी नहीं था कि वह शपथ खाए क्योंकि वह हमेशा सच बोलता था। फिर भी दूसरों को यह बताने के लिए कि वे उसकी बात पर पूरा भरोसा कर सकते हैं, वह अकसर कहता, “मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ।” (यूह. 1:51; 13:16, 20, 21, 38) आइए देखें कि हम यीशु, पौलुस और दूसरों के उदाहरण से जिनकी ‘हाँ’ का मतलब हाँ था, इस सिलसिले में और क्या सीख सकते हैं।

यीशु—सबसे बेहतरीन मिसाल

3. यीशु ने अपनी प्रार्थना में परमेश्‍वर से क्या वादा किया? उसकी प्रार्थना के जवाब में उसके पिता ने क्या कहा?

3 “हे परमेश्‍वर, देख! मैं तेरी मरज़ी पूरी करने आया हूँ।” (इब्रा. 10:7) इस प्रार्थना में यीशु ने परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करने का वादा किया। इसका मतलब यीशु वह सबकुछ करने के लिए तैयार था, जो वादा किए गए वंश के बारे में पहले से बताया गया था। यहाँ तक कि वह शैतान के ज़रिए अपनी ‘एड़ी डसवाने’ के लिए भी तैयार था। (उत्प. 3:15) आज तक कोई भी इंसान इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं हुआ। यीशु की प्रार्थना के जवाब में स्वर्ग से उसके पिता यहोवा ने कहा कि उसे अपने बेटे पर पूरा भरोसा है। उसने यीशु से यह नहीं कहा कि वह अपना वादा पुख्ता करने के लिए शपथ खाए।—लूका 3:21, 22.

4. यीशु की ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, इसके लिए वह किस हद तक गया?

4 यीशु जो कहता, वह करके भी दिखाता, उसकी ‘हाँ’ का मतलब हमेशा हाँ होता। उसके पिता ने उसे जो काम सौंपा था, उसे पूरा करने में उसने किसी भी बात को आड़े न आने दिया। वह परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी का प्रचार और उन सभी को चेला बनाने का काम करता रहा जिन्हें परमेश्‍वर उसके पास खींच लाया। (यूह. 6:44) यीशु, परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करने का अपना वादा निभाने में जिस हद तक गया, उस बारे में बाइबल कहती है, “परमेश्‍वर के चाहे कितने ही वादे हों, वे सब उसी के ज़रिए ‘हाँ’ हुए हैं।” (2 कुरिं. 1:20) वाकई, परमेश्‍वर को किए वादे निभाने में यीशु से बढ़िया मिसाल किसी की नहीं हो सकती! अब आइए एक और उदाहरण पर गौर करें जिसने यीशु की मिसाल पर चलने में अपना भरसक किया।

पौलुस—अपनी ज़बान का पक्का

5. प्रेषित पौलुस ने हमारे लिए कैसी मिसाल रखी?

5 “प्रभु मैं क्या करूँ?” (प्रेषि. 22:10) ये शब्द शाऊल ने प्रभु यीशु से उस समय कहे, जब वह उसे एक दर्शन में दिखायी दिया। यीशु चाहता था कि शाऊल मसीहियों पर ज़ुल्म ढाना बंद करे। इस घटना के बाद शाऊल ने अपने किए पर पश्‍चाताप दिखाया, बपतिस्मा लिया और यीशु के बारे में राष्ट्रों को खुशखबरी सुनाने की खास ज़िम्मेदारी कबूल की। तब से शाऊल ने, जिसे बाद में पौलुस के नाम से जाना गया, यीशु को हमेशा अपना “प्रभु” कहा और उसकी आज्ञा मानी। ऐसा उसने धरती पर अपनी ज़िंदगी के आखिर तक किया। (प्रेषि. 22:6-16; 2 कुरिं. 4:5; 2 तीमु. 4:8) पौलुस उन लोगों की तरह नहीं था, जिनके बारे में यीशु ने कहा, “तो फिर, तुम क्यों मुझे ‘प्रभु! प्रभु!’ पुकारते हो, मगर मैं जो कहता हूँ वह नहीं करते?” (लूका 6:46) जितने भी यीशु को अपना प्रभु मानते हैं, उन सभी से वह यह उम्मीद करता है कि वे अपनी ज़बान के पक्के हों, जैसे प्रेषित पौलुस था।

6, 7. (क) पौलुस ने दोबारा कुरिंथ की मंडली का दौरा करने की योजना क्यों बदली? कुछ लोगों का यह कहना कि उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्यों गलत था? (ख) जो हमारे बीच अगुवाई लेते हैं, उनकी तरफ हमारा कैसा रवैया होना चाहिए?

6 पौलुस ने जोश के साथ पूरे एशिया माइनर और यूरोप में राज-संदेश सुनाया। उसने कई मंडलियाँ शुरू कीं और फिर उनका दौरा किया। कई बार उसने यह साबित करने के लिए शपथ खाना ज़रूरी समझा कि उसने जो लिखा है, वह सच है। (गला. 1:20) जब कुरिंथ की मंडली में कुछ लोगों को लगा कि पौलुस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, तो उसने अपनी सफाई में कहा, “जैसे परमेश्‍वर पर भरोसा किया जा सकता है, वैसे ही इस बात का भी भरोसा किया जा सकता है कि जब हम तुमसे ‘हाँ’ कहते हैं, तो उसका मतलब ‘न’ नहीं होता।” (2 कुरिं. 1:18) जब पौलुस ने ये शब्द लिखे, तब वह इफिसुस छोड़ चुका था और मकिदुनिया से होता हुआ कुरिंथ को जा रहा था। शुरू में उसने मकिदुनिया जाने से पहले कुरिंथ दोबारा जाने की सोची थी। (2 कुरिं. 1:15, 16) मगर कभी-कभी योजना में बदलाव करने पड़ते हैं, जैसे आज सफरी निगरानों को मंडली का दौरा करने की तारीख बदलनी पड़ सकती है। वे ऐसा गैर-ज़रूरी कामों या अपने स्वार्थ की वजह से नहीं, बल्कि अचानक किसी ज़रूरी काम के आ जाने पर करते हैं। पौलुस ने भी कुरिंथ की मंडली का दौरा उस वक्‍त करने के बजाय, बाद में करने की सोची क्योंकि इसमें उन्हीं की भलाई थी। वह कैसे?

7 वहाँ जाने की योजना बनाने के कुछ समय बाद पौलुस को यह खबर मिली कि कुरिंथ की मंडली में फूट पड़ गयी है और वे अनैतिक कामों को बरदाश्‍त कर रहे हैं। (1 कुरिं. 1:11; 5:1) इस हालात को सुधारने के लिए पौलुस ने कुरिंथियों को लिखी पहली चिट्ठी में उन्हें कड़ी ताड़ना दी। फिर इफिसुस से जहाज़ पर सीधे कुरिंथ के लिए रवाना होने के बजाय, पौलुस ने फैसला किया कि वह भाइयों को यह सलाह लागू करने के लिए कुछ वक्‍त देगा। इससे जब वह वहाँ पहुँचता, तो उन्हें उसके दौरे से और भी हौसला मिलता। कुरिंथियों को लिखी दूसरी चिट्ठी में पौलुस ने बताया कि अपनी योजना में फेरबदल करने के पीछे यही वजह थी। उसने कहा, “अगर मेरी बात सच नहीं तो परमेश्‍वर मेरे खिलाफ गवाह होगा कि मैं अब तक सिर्फ इसलिए कुरिंथ नहीं आया क्योंकि मैं तुम्हें और ज़्यादा दुःखी नहीं करना चाहता था।” (2 कुरिं. 1:23) हमें उनकी तरह नहीं होना चाहिए जो पौलुस की बातों में नुक्स निकालते थे। इसके बजाय, आइए हम उन भाइयों के लिए गहरा आदर दिखाएँ जिन्हें हमारे बीच अगुवाई लेने के लिए नियुक्‍त किया गया है। हमें भी पौलुस की मिसाल पर चलना चाहिए, ठीक जैसे वह मसीह की मिसाल पर चला।—1 कुरिं. 11:1; इब्रा. 13:7.

दूसरी बेहतरीन मिसालें

8. रिबका ने हमारे लिए क्या मिसाल रखी?

8 “हां मैं जाऊंगी।” (उत्प. 24:58) ये शब्द रिबका ने अपनी माँ और भाई से तब कहे, जब उन्होंने उससे पूछा कि क्या वह अब्राहम के बेटे इसहाक की पत्नी बनने के लिए तैयार है। और क्या वह उसी दिन अपना घर छोड़, एक अजनबी के साथ 800 किलोमीटर से भी दूर जाने के लिए तैयार है। (उत्प. 24:50-58) रिबका ने अपनी ‘हाँ’ की हाँ रखी। वह इसहाक की अच्छी पत्नी बनी और उसने यहोवा की वफादारी से सेवा की। उसने अपनी बाकी ज़िंदगी वादा किए हुए देश में परदेसियों की तरह तंबुओं में बितायी। रिबका ने जो कहा था उसे वफादारी से पूरा किया, इसलिए परमेश्‍वर ने उसे आशीष दी। उसे वादा किए हुए वंश, यीशु मसीह की पुरखिन बनने का सम्मान दिया गया।—इब्रा. 11:9, 13.

9. रूत ने कैसे दिखाया कि उसकी ‘न’ का मतलब न है?

9 “नहीं, हम तो निश्‍चय तेरे साथ तेरे लोगों के पास चलेंगी।” (रूत 1:10, अ न्यू हिंदी ट्रांस्लेशन) ये शब्द दो मोआबी विधवाओं, रूत और ओरपा ने अपनी सास नाओमी से बार-बार कहे। यह उस समय की बात है जब विधवा नाओमी, मोआब से बेतलेहेम वापस जा रही थी। उनकी सास उनसे अपने मायके लौट जाने की गुज़ारिश करती रही। आखिरकार ओरपा चली गयी, मगर रूत ने दिखाया कि उसकी ‘न’ का मतलब न है। (रूत 1:16, 17 पढ़िए।) उसने पूरी वफादारी से नाओमी का साथ दिया, जबकि वह जानती थी कि ऐसा करने पर वह फिर कभी अपने परिवार से नहीं मिल पाएगी और उसे मोआब का झूठा धर्म भी छोड़ना पड़ेगा। इसके बाद उसने अपनी पूरी ज़िंदगी यहोवा की उपासना करने में गुज़ारी। इसके लिए यहोवा ने उसे आशीष दी, उसे उन पाँच औरतों में से एक होने का सम्मान मिला जिनका नाम मत्ती ने यीशु की वंशावली में दर्ज़ किया है।—मत्ती 1:1, 3, 5, 6, 16.

10. यशायाह हमारे लिए क्यों एक अच्छी मिसाल है?

10 “मैं यहां हूं! मुझे भेज।” (यशा. 6:8) यह कहने से पहले यशायाह ने एक शानदार दर्शन देखा। उसने देखा कि यहोवा इसराएल के मंदिर के ऊपर अपने ऊँचे सिंहासन पर विराजमान है। यह नज़ारा देखते वक्‍त उसने यहोवा को यह कहते सुना, “मैं किस को भेजूं, और हमारी ओर से कौन जाएगा?” ऐसा कहकर यहोवा मानो पूछ रहा था कि कौन जाकर आज्ञा न माननेवाले उसके लोगों को उसका संदेश सुनाएगा। यशायाह अपनी ज़बान का पक्का निकला, उसकी ‘हाँ’ का मतलब हाँ था। उसने 46 साल से भी ज़्यादा समय तक भविष्यवक्‍ता के तौर पर वफादारी से सेवा की। उसने न्यायदंड का संदेश सुनाया, साथ ही सच्ची उपासना के बहाल किए जाने के बारे में शानदार वादों का ऐलान किया।

11. (क) हमारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, यह बात क्यों इतनी गंभीर है? (ख) कुछ ऐसे लोगों के उदाहरण दीजिए जिनकी ‘हाँ’ का मतलब हाँ नहीं था।

11 अभी हमने जिन लोगों के बारे में चर्चा की, उनकी मिसालें यहोवा ने बाइबल में क्यों दर्ज़ करवायीं? और हमारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, यह बात कितनी गंभीर है? बाइबल साफ-साफ बताती है कि ‘अपने वादे से मुकरनेवाला’ इंसान “मौत की सज़ा के लायक” है। (रोमि. 1:31, 32) मिस्र का फिरौन, यहूदिया का राजा सिदकिय्याह, हनन्याह और सफीरा बाइबल में दर्ज़ कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिनकी ‘हाँ’ का मतलब हाँ नहीं था। इस वजह से उन्हें भयानक अंजाम भुगतने पड़े और वे हमारे लिए चेतावनी देनेवाली मिसाल हैं।—निर्ग. 9:27, 28, 34, 35; यहे. 17:13-15, 19, 20; प्रेषि. 5:1-10.

12. हमारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ हो, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?

12 आज हम “आखिरी दिनों में” जी रहे हैं। हमारे चारों तरफ ऐसे लोग हैं, जो “विश्‍वासघाती” हैं, ‘वे भक्‍ति का दिखावा तो करते हैं, मगर उनकी ज़िंदगी में इसकी शक्‍ति का असर नहीं दिखायी देता।’ (2 तीमु. 3:1-5) हमें ऐसे लोगों की संगति से दूर रहने की जी-तोड़ कोशिश करनी चाहिए। और हमें लगातार उन लोगों की संगति करनी चाहिए जिनकी ‘हाँ’ का मतलब हमेशा हाँ होता है।—इब्रा. 10:24, 25.

आपकी सबसे अहम ‘हाँ’

13. यीशु मसीह के एक चेले की सबसे अहम ‘हाँ’ किस बारे में होती है?

13 एक इंसान अपनी ज़िंदगी में जो सबसे अहम ‘हाँ’ या वादा कर सकता है, वह है परमेश्‍वर को अपनी ज़िंदगी समर्पित करने का वादा। जो लोग खुद से इनकार कर यीशु मसीह के चेले बनना चाहते हैं, उन्हें अपनी इच्छा ज़ाहिर करने के लिए सबसे अहम ‘हाँ’ कहने के तीन मौके मिलते हैं। (मत्ती 16:24) सबसे पहले, जब कोई व्यक्‍ति बपतिस्मा-रहित प्रचारक बनना चाहता है, तब दो प्राचीन उससे बात करते हैं और पूछते हैं, “क्या आप सचमुच यहोवा का एक साक्षी बनना चाहते हैं?” बाद में जब वह व्यक्‍ति और तरक्की करता है और बपतिस्मा लेना चाहता है, तब प्राचीन उससे मुलाकात करते हैं और पूछते हैं, “क्या आपने प्रार्थना में अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित की है?” और आखिर में बपतिस्मे के दिन, बपतिस्मा लेनेवाले हर व्यक्‍ति से पूछा जाता है, “यीशु मसीह के बलिदान पर विश्‍वास करते हुए, क्या आपने अपने पापों का पश्‍चाताप किया है और यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए अपनी ज़िंदगी उसे समर्पित की है?” तब ये नए लोग सभी गवाहों के सामने ‘हाँ’ कहते हैं और इस तरह परमेश्‍वर की हमेशा सेवा करने का अपना वादा ज़ाहिर करते हैं।

14. हमें समय-समय पर खुद से किस तरह के सवाल पूछने चाहिए?

14 आपने चाहे हाल ही में बपतिस्मा लिया हो या आप दशकों से परमेश्‍वर की सेवा कर रहे हों, आपको समय-समय पर खुद की जाँच करनी चाहिए और खुद से कुछ इस तरह के सवाल पूछने चाहिए, ‘यीशु की मिसाल पर चलते हुए, क्या मैं अपनी सबसे अहम ‘हाँ’ पर खरा उतर रहा हूँ? क्या मैं प्रचार काम और चेला बनाने के काम को अपनी जिंदगी में सबसे ज़्यादा अहमियत देता हूँ, जैसे यीशु ने हमें आज्ञा दी थी?’—2 कुरिंथियों 13:5 पढ़िए।

15. ज़िंदगी के ऐसे कौन-से पहलू हैं, जिनमें हमारी ‘हाँ’ का मतलब हाँ होना ज़रूरी है?

15 समर्पण के वक्‍त परमेश्‍वर से किया वादा निभाने का मतलब है कि हम दूसरे ज़रूरी मामलों में भी वफादार रहें। मिसाल के लिए, क्या आप शादीशुदा हैं? अगर हाँ, तो आपने अपने जीवन-साथी को दिलो-जान से प्यार करने की जो खास शपथ खायी है, उसे निभाते रहिए। क्या आपने किसी बिज़नेस कॉन्ट्रैक्ट पर दस्तखत किए हैं या परमेश्‍वर की सेवा में और ज़्यादा करने के लिए कोई फॉर्म भरा है? तो फिर आपने जो वादा किया है, उसे पूरा कीजिए। क्या आपने किसी के यहाँ खाने पर जाने का न्यौता कबूल किया है, जिसकी माली हालत इतनी अच्छी नहीं? तो फिर अपनी ज़बान से मुकरिए मत, फिर चाहे बाद में आपको किसी अच्छे घर से न्यौता क्यों न मिले। या क्या घर-घर प्रचार करते वक्‍त आपने किसी से दोबारा मिलने का वादा किया है? अगर ऐसा है, तो हर हाल में अपनी ‘हाँ’ का मतलब हाँ रखिए। ऐसा करने पर यहोवा आपकी सेवा पर आशीष देगा।—लूका 16:10 पढ़िए।

हमारे महायाजक और राजा से फायदा पाना

16. जब हमें एहसास होता है कि हमने जो ज़बान दी थी, उसे पूरा करने से हम चूक गए हैं, तो हमें क्या करना चाहिए?

16 बाइबल बताती है कि असिद्ध होने के नाते, “हम सब कई बार गलती करते हैं,” खासकर अपनी ज़बान का इस्तेमाल करने के बारे में। (याकू. 3:2) तो फिर जब हमें एहसास होता है कि हमने जो ज़बान दी थी, उसे पूरा करने से हम चूक गए हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? पुराने ज़माने में, इसराएलियों को दिए कानून में ऐसे लोगों को भी परमेश्‍वर से माफी पाने का इंतज़ाम था जो ‘बिना सोचे समझे कोई बात कहने’ के दोषी हो जाते थे। (लैव्य. 5:4-7, 11) उसी तरह आज मसीहियों के लिए भी एक प्यार-भरा इंतज़ाम है। जब हम अपने वादे के मुताबिक काम करने से चूक जाते हैं, तो हमें यहोवा के सामने अपना गुनाह कबूल करना चाहिए। तब यहोवा दया दिखाएगा और हमारे महायाजक यीशु मसीह के ज़रिए हमें माफ कर देगा। (1 यूह. 2:1, 2) लेकिन अगर हम चाहते हैं कि परमेश्‍वर की मंज़ूरी हम पर बनी रहे, तो हमें यह ज़ाहिर करना चाहिए कि हमें वाकई अपने किए पर पछतावा है। इसका मतलब अपना वादा न निभाने से जो समस्या खड़ी हुई है, उसे सुलझाने की हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए और इस तरह का गुनाह करने की आदत नहीं बनानी चाहिए। (नीति. 6:2, 3) बेहतर होगा कि ऐसा कोई भी वादा करने से पहले हम अच्छी तरह सोच लें, जिसे पूरा करना हमारे लिए मुश्‍किल हो सकता है।—सभोपदेशक 5:2 पढ़िए।

17, 18. जो अपनी ‘हाँ’ का मतलब हाँ रखने की पूरी कोशिश करते हैं, उनके आगे कैसा शानदार भविष्य है?

17 यहोवा के उन सभी उपासकों के आगे क्या ही शानदार भविष्य है, जो अपनी ‘हाँ’ का मतलब हाँ रखने की पूरी कोशिश करते हैं! 1,44,000 अभिषिक्‍त जनों को स्वर्ग में अमर जीवन मिलेगा जहाँ वे यीशु के राज में “राजा बनकर उसके साथ हज़ार साल तक राज करेंगे।” (प्रका. 20:6) इनके अलावा, ऐसे हज़ारों-लाखों लोग होंगे जो यीशु के राज में धरती पर फिरदौस में रहेंगे। उस दौरान उन्हें सिद्धता हासिल करने में मदद दी जाएगी, वे शरीर और मन से पूरी तरह स्वस्थ होंगे।—प्रका. 21:3-5.

18 यीशु के हज़ार साल के राज के अंत में इंसानों की आखिरी परीक्षा होगी। इस परीक्षा में जो खरे उतरेंगे सिर्फ वही फिरदौस में रहेंगे। वहाँ उनके पास किसी की बात पर शक करने की कोई वजह न होगी। (प्रका. 20:7-10) हर किसी की ‘हाँ’ का मतलब हाँ और ‘न’ का मतलब न होगा। सभी इंसान हमारे प्यारे पिता, “सत्यवादी ईश्‍वर” यहोवा की मिसाल पर पूरी तरह से चलेंगे।—भज. 31:5.