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आप कैसा रवैया दिखाते हैं?

आप कैसा रवैया दिखाते हैं?

“प्रभु यीशु मसीह की महा-कृपा तुम्हारी उस भावना के साथ हो जो तुम लोग दिखाते हो।”—फिले. 25.

1. पहली सदी के मसीहियों को लिखते वक्‍त प्रेषित पौलुस ने क्या दिली तमन्‍ना ज़ाहिर की?

 प्रेषित पौलुस ने पहली सदी के मसीहियों को लिखते वक्‍त कई बार अपनी एक दिली तमन्‍ना ज़ाहिर की। वह चाहता था कि मंडलियों के भाई-बहन ऐसा रवैया दिखाएँ जिससे परमेश्‍वर और मसीह खुश हों। उदाहरण के लिए, उसने गलातियों को लिखा, “भाइयो, हमारे प्रभु यीशु मसीह की महा-कृपा तुम्हारी उस भावना के साथ हो जो तुम दिखाते हो। आमीन।” (गला. 6:18) जब उसने कहा कि ‘जो भावना तुम दिखाते हो’ तो उसका मतलब क्या था?

2, 3. (क) कई बार पौलुस ने जब शब्द “भावना” इस्तेमाल किया, तो उसका क्या मतलब था? (ख) हम जो रवैया दिखाते हैं, उस बारे में हमें खुद से क्या सवाल पूछने चाहिए?

2 पौलुस ने यहाँ शब्द “भावना” का इस्तेमाल, हमारे रवैए या हमारी सोच को बताने के लिए किया। यह रवैया हमें उभारता है कि हम कोई बात या काम फलाँ तरीके से कहें या करें। इसी वजह से कुछ लोग नरमी से पेश आते हैं, दूसरों का लिहाज़ करते हैं, कोमल स्वभाव दिखाते हैं, दरियादिल होते हैं और दूसरों को माफ करने के लिए तैयार रहते हैं। बाइबल कहती है, “शांत और कोमल स्वभाव” और ‘शांत मन’ का होना अच्छी बात है। (1 पत. 3:4; नीति. 17:27, हिंदी—कॉमन लैंग्वेज) वहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ताना कसते हैं, धन-दौलत के पीछे भागते हैं, छोटी-छोटी बात पर बुरा मान जाते हैं या फिर अपनी मन-मरज़ी करते हैं। इससे भी बदतर, कुछ लोगों का रवैया ऐसा होता है कि वे अनैतिक बातों के बारे में सोचते हैं, आज्ञा नहीं मानते यहाँ तक कि बगावत पर उतर आते हैं।

3 तो फिर जब पौलुस ने कहा, “तू जिस भावना के साथ सेवा करता है, उस पर प्रभु की आशीष हो” और इसी तरह की दूसरी बातें कहीं, तो दरअसल वह अपने भाइयों को बढ़ावा दे रहा था कि वे मसीह के जैसी शख्सियत पहनें और ऐसा रवैया दिखाएँ जिससे परमेश्‍वर खुश हो। (2 तीमु. 4:22; कुलुस्सियों 3:9-12 पढ़िए।) आज हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘मैं किस तरह का रवैया दिखाता हूँ? क्या मैं अपना रवैया सुधार सकता हूँ जिससे परमेश्‍वर खुश हो? मैं मंडली में दूसरों को कैसे बढ़ावा दे सकता हूँ ताकि वे भी सही रवैया दिखाएँ?’ ज़रा इस उदाहरण पर गौर कीजिए। सूरजमुखी के खेत में खिला हर फूल पूरे खेत की खूबसूरती बढ़ाता है। क्या हम सूरजमुखी के एक फूल की तरह पूरी मंडली की रौनक बढ़ाते हैं? हममें से हरेक को ऐसा ही करने की कोशिश करनी चाहिए। अब आइए देखें कि हम ऐसा रवैया कैसे दिखा सकते हैं जिससे परमेश्‍वर खुश होता है।

दुनिया की फितरत से दूर रहिए

4. “दुनिया की फितरत” क्या है?

4 बाइबल बताती है, “हमने दुनिया की फितरत नहीं पायी बल्कि वह पवित्र शक्‍ति पायी है जो परमेश्‍वर की तरफ से है।” (1 कुरिं. 2:12) “दुनिया की फितरत” क्या है? यह वही फितरत है जिसका ज़िक्र इफिसियों 2:2 में किया गया है। वहाँ लिखा है, “तुम एक वक्‍त पर इस दुनिया और इसकी व्यवस्था के मुताबिक जीते थे। तुम उस राजा की मानते हुए चलते थे जो दुनिया की फितरत के अधिकार पर राज करता है। यह फितरत चारों तरफ हवा की तरह फैली हुई है और अब आज्ञा न माननेवालों में काम करती हुई दिखायी देती है।” “दुनिया की फितरत” इस दुनिया के लोगों की सोच या उनका रवैया है। वाकई, यह हमारे चारों तरफ हवा की तरह फैली हुई है। मिसाल के लिए, आज बहुत-से लोगों का यह रवैया है, ‘मैं अपनी मरज़ी का मालिक हूँ, मुझे किसी की सलाह की ज़रूरत नहीं’ या ‘अपने हक के लिए लड़ो।’ ऐसे लोग शैतान की दुनिया में “आज्ञा न माननेवालों” में से हैं।

5. इसराएल में कुछ लोगों ने कैसा रवैया दिखाया?

5 लोगों में ऐसा रवैया होना कोई नयी बात नहीं है। मूसा के समय में, कोरह ने उन लोगों के खिलाफ आवाज़ उठायी जिन्हें इसराएल की मंडली में अधिकार दिया गया था। उसने खासकर हारून और उसके बेटों को अपना निशाना बनाया, जिन्हें याजक के तौर पर सेवा करने का सम्मान मिला था। शायद कोरह ने उनकी कमियों पर ध्यान दिया। या शायद उसने सोचा हो कि मूसा ने उन्हें इसलिए इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दी है क्योंकि वे उसके रिश्‍तेदार हैं। बात चाहे जो भी हो, यह साफ ज़ाहिर था कि कोरह हालात को इंसानी नज़रिए से देखने लगा था और उन लोगों के खिलाफ आवाज़ उठा रहा था, जिन्हें यहोवा ने नियुक्‍त किया था। उसने उनकी तौहीन करते हुए कहा, “तुम ने बहुत किया, अब बस करो; . . . तुम यहोवा की मण्डली में ऊंचे पदवाले क्यों बन बैठे हो?” (गिन. 16:3) उसी तरह, दातान और अबीराम, मूसा के खिलाफ शिकायत करने लगे। वे उससे कहने लगे, ‘तू हमारे ऊपर प्रधान बनकर अधिकार जताता है।’ जब उन्हें मूसा के सामने बुलाया गया, तो उन्होंने बड़ी हेकड़ी दिखाते हुए कहा, “हम तेरे पास नहीं आएंगे।” (गिन. 16:12-14) उनके इस रवैए से यहोवा कतई खुश नहीं हुआ। उसने सभी बागियों को मौत के घाट उतार दिया।—गिन. 16:28-35.

6. पहली सदी में कुछ लोगों ने कैसे दिखाया कि उनमें बुरा रवैया है? और इसकी वजह शायद क्या थी?

6 पहली सदी में भी, कुछ लोग मंडली में ‘अधिकार रखनेवालों को नीची नज़र से देखने’ लगे, वे उनकी नुक्‍ताचीनी करने लगे थे। (यहू. 8) इसकी वजह शायद यह थी कि नुक्‍ताचीनी करनेवाले ये लोग अपनी ज़िम्मेदारियों से खुश नहीं थे। और ये उन लोगों को भी अधिकार रखनेवाले भाइयों के खिलाफ भड़का रहे थे, जो परमेश्‍वर से मिली ज़िम्मेदारी निभाने में अपना भरसक कर रहे थे।—3 यूहन्‍ना 9, 10 पढ़िए।

7. हमें किस तरह का रवैया अपनाने से दूर रहना चाहिए?

7 ज़ाहिर है, इस तरह के रवैए की मसीही मंडली में कोई जगह नहीं। इसलिए हमें इस मामले में खबरदार रहने की ज़रूरत है। मंडली के प्राचीन सिद्ध नहीं हैं, ठीक जैसे मूसा और प्रेषित यूहन्‍ना के दिनों में अधिकार रखनेवाले लोग सिद्ध नहीं थे। प्राचीनों से भी ऐसी गलतियाँ हो सकती हैं, जिनका सीधे हम पर असर होता है। अगर हमारे साथ ऐसा होता है तो हमें चाहिए कि हम दुनिया के लोगों जैसा रवैया अपनाकर यह न कहें, “मेरे साथ नाइंसाफी हुई है,” या “इस भाई के साथ ज़रूर कुछ किया जाना चाहिए”! कभी-कभी यहोवा प्राचीनों की छोटी-छोटी गलतियाँ नज़रअंदाज़ कर देता है। क्या हम ऐसा नहीं कर सकते? कुछ मसीही जब कोई गंभीर पाप करते हैं, तो वे प्राचीनों की समिति के सामने हाज़िर होने से इनकार कर देते हैं जो उनकी मदद के लिए ठहरायी गयी है, क्योंकि उन्हें प्राचीनों में कमियाँ नज़र आती हैं। ऐसे लोग उस मरीज़ की तरह हैं, जो इलाज करवाने से इनकार कर देता है क्योंकि उसे डॉक्टर की कोई बात पसंद नहीं आती।

8. मंडली के प्राचीनों के बारे में सही रवैया रखने में कौन-सी आयतें हमारी मदद कर सकती हैं?

8 इस तरह के रवैए से बचने के लिए हमें याद रखना चाहिए कि बाइबल में यीशु को अपने “दाएँ हाथ में सात तारे” लिए बताया गया है। ये “तारे” अभिषिक्‍त प्राचीनों को दर्शाते हैं। लेकिन यह बात मंडलियों के सभी प्राचीनों पर भी लागू की जा सकती है। यीशु अपने हाथ के ‘तारों’ को ऐसा कुछ भी करने का निर्देश दे सकता है, जो उसे सही लगता है। (प्रका. 1:16, 20) इसका मतलब मसीही मंडली का मुखिया होने के नाते यीशु जानता है कि प्राचीन क्या कर रहे हैं। उसकी “आँखें आग की ज्वाला जैसी” हैं और वह सबकुछ देख रहा है। इसलिए अगर किसी प्राचीन को सुधारे जाने की ज़रूरत है, तो यीशु इस बात का ध्यान रखेगा कि उसे सही वक्‍त पर, सही तरीके से सुधारा जाए। (प्रका. 1:14) लेकिन तब तक हमें उनको आदर देते रहना चाहिए, जिन्हें पवित्र शक्‍ति के ज़रिए नियुक्‍त किया गया है। क्योंकि पौलुस ने कहा, “तुम्हारे बीच जो अगुवाई करते हैं उनकी आज्ञा मानो और उनके अधीन रहो, क्योंकि वे यह जानते हुए तुम्हारी निगरानी करते हैं कि उन्हें इसका हिसाब देना होगा, ताकि वे यह काम खुशी से करें न कि आहें भरते हुए, क्योंकि ऐसे में तुम्हारा ही नुकसान होगा।”—इब्रा. 13:17.

9. (क) जब एक मसीही को ताड़ना दी जाती है तो किस बात में उसकी परख हो सकती है? (ख) जब हमें ताड़ना दी जाती है, तो हमें कैसा रवैया दिखाना चाहिए?

9 एक मसीही का रवैया उस वक्‍त भी परखा जाता है, जब उसे सुधारने के लिए ताड़ना दी जाती है, या फिर मंडली में उसकी ज़िम्मेदारी ले ली जाती है। एक बार एक नौजवान को प्राचीनों ने प्यार से ताड़ना दी, क्योंकि वह खून-खराबेवाले वीडियो गेम खेलता था। मगर अफसोस, उसने ताड़ना कबूल नहीं की। अब क्योंकि वह बाइबल में दी सहायक सेवक की योग्यताएँ पूरी नहीं कर रहा था, इसलिए उसे अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ धोना पड़ा। (भज. 11:5; 1 तीमु. 3:8-10) इसके बाद, वह भाई दूसरों को बताने लगा कि वह प्राचीनों के फैसले से सहमत नहीं है। उसने प्राचीनों की शिकायत करने के लिए कई बार शाखा-दफ्तर को खत लिखे। यहाँ तक कि वह मंडली में दूसरों को भी ऐसा करने के लिए उकसाने लगा। लेकिन ऐसा करने से कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि सच तो यह है कि अगर हम गलती करने पर सफाई देने लगें, तो पूरी मंडली की शांति भंग हो सकती है। इसलिए कितना बेहतर होगा कि जब हमें ताड़ना दी जाती है, तो उसे अपनी कमज़ोरियाँ देखने का मौका समझें और चुपचाप उसे कबूल कर लें।—विलापगीत 3:28, 29 पढ़िए।

10. (क) याकूब 3:16-18 में सही और गलत रवैए के बारे में क्या बताया गया है? (ख) ‘स्वर्ग से मिलनेवाली बुद्धि’ के मुताबिक काम करने का क्या नतीजा होता है?

10 याकूब 3:16-18 में अच्छी तरह बताया गया है कि मंडली में किस तरह का रवैया दिखाना सही होगा और किस तरह का गलत। वहाँ लिखा है, “जहाँ ईर्ष्या और झगड़े होते हैं, वहाँ गड़बड़ी और हर तरह की बुराई होती है। लेकिन जो बुद्धि स्वर्ग से मिलती है, वह सबसे पहले तो पवित्र, फिर शांति कायम करनेवाली, लिहाज़ दिखानेवाली, आज्ञा मानने के लिए तैयार, दया और अच्छे कामों से भरपूर होती है। यह भेदभाव नहीं करती और न ही कपटी होती है। जो शांति कायम करनेवाले हैं, वे शांति के हालात में बीज बोते हैं और नेकी के फल काटते हैं।” जब हम ‘स्वर्ग से मिलनेवाली बुद्धि’ के मुताबिक काम करते हैं, तो हम अपने अंदर परमेश्‍वर के गुण बढ़ा पाते हैं। ऐसा करके हम एक-दूसरे को सही रवैया दिखाने का बढ़ावा देते हैं और मंडली में शांति बनी रहती है।

मंडली में आदर दिखाने का रवैया बनाइए

11. (क) अगर हम सही रवैया रखते हैं, तो हम क्या नहीं करेंगे? (ख) हम दाविद के उदाहरण से क्या सीख सकते हैं?

11 हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्राचीनों को ‘परमेश्‍वर की मंडली की चरवाहों की तरह देखभाल करने’ की ज़िम्मेदारी किसी और ने नहीं, यहोवा ने दी है। (प्रेषि. 20:28; 1 पत. 5:2) इसलिए हम जानते हैं कि परमेश्‍वर के इंतज़ामों का आदर करने में ही बुद्धिमानी है, फिर चाहे हम प्राचीन के तौर पर सेवा कर रहे हों या नहीं। अगर हम सही रवैया रखते हैं तो हम ज़िम्मेदारी या अधिकार को ज़्यादा तवज्जह नहीं देंगे। जब इसराएल के राजा शाऊल को लगा कि दाविद उसकी राजगद्दी के लिए खतरा बन गया है, तो शाऊल “दाऊद की ताक में लगा रहा।” (1 शमू. 18:9) राजा शाऊल का रवैया बुरा हो गया था, यहाँ तक कि वह दाविद को मार डालना चाहता था। शाऊल की तरह अधिकार को लेकर हद-से-ज़्यादा चिंता करने के बजाय, कितना बेहतर होगा कि हम दाविद की तरह बनें। उसके साथ कितनी नाइंसाफी की गयी, फिर भी उसने हमेशा उसके लिए आदर दिखाया जिसे परमेश्‍वर ने अधिकार दिया था।—1 शमूएल 26:23 पढ़िए।

12. मंडली की एकता बनाए रखने में हम किस तरह मदद कर सकते हैं?

12 हम सभी की राय अलग-अलग होती है, इसलिए कभी-कभी हम अपनी राय से एक-दूसरे को खीझ दिला सकते हैं। ऐसा निगरानों के बीच भी हो सकता है। इस मामले में बाइबल की यह सलाह काफी मददगार हो सकती है, “एक-दूसरे का आदर करने में पहल करो” और “अपनी ही नज़र में खुद को बड़ा समझदार न समझो।” (रोमि. 12:10, 16) यह ज़िद करने के बजाय कि हम सही हैं, हमें कबूल करना चाहिए कि अकसर किसी हालात के बारे में एक-से-ज़्यादा लोगों का नज़रिया सही हो सकता है। अगर हम दूसरे के नज़रिए को समझने की कोशिश करें, तो हम मंडली की एकता बनाए रखने में मदद कर रहे होंगे।—फिलि. 4:5.

13. अपनी बात कह लेने के बाद, हमें क्या करना चाहिए? बाइबल का कौन-सा उदाहरण दिखाता है कि हमें क्या करना चाहिए?

13 तो क्या इसका मतलब, अगर हमें लगता है कि मंडली में कोई ऐसी बात है जिसे सुधारे जाने की ज़रूरत है, तो ऐसे में अपनी राय देना गलत होगा? नहीं। पहली सदी में, एक मसला खड़ा हुआ जिस पर मंडली में काफी वाद-विवाद हुआ। भाइयों ने “इस झगड़े के सिलसिले में पौलुस और बरनबास को साथ ही अपने बीच से कुछ और भाइयों को, प्रेषितों और बुज़ुर्गों के पास यरूशलेम भेजने का इंतज़ाम किया।” (प्रेषि. 15:2) बेशक, उनमें से हरेक भाई की उस विषय पर अपनी एक अलग राय थी कि क्या करना सही होगा। लेकिन जब हरेक ने अपनी राय पेश कर दी और पवित्र शक्‍ति की मदद से फैसला ले लिया गया, उसके बाद भाइयों ने दोबारा अपनी राय पेश नहीं की। जब मंडलियों को इस फैसले के बारे में चिट्ठी मिली, तो “वे लोग उसके हौसला बढ़ानेवाले संदेश से बेहद खुश हुए” और ‘विश्‍वास में मज़बूत हुए।’ (प्रेषि. 15:31; 16:4, 5) उसी तरह आज, जब हम किसी मामले के बारे में ज़िम्मेदार भाइयों से एक बार बात कर लेते हैं, तो हमें भरोसा रखना चाहिए कि प्राचीन उस बारे में गंभीरता से सोचेंगे और ज़रूरी कदम उठाएँगे।

सही रवैया दिखाइए—आपसी रिश्‍ते मज़बूत बनाइए

14. हम आपसी रिश्‍तों में कैसे सही रवैया दिखा सकते हैं?

14 आपसी रिश्‍तों में भी हमें सही रवैया दिखाने के कई मौके मिलते हैं। मसलन, जब दूसरे हमें ठेस पहुँचाते हैं तब अगर हम उन्हें माफ करने के लिए तैयार रहें, तो हमारे आपसी रिश्‍ते अच्छे बने रहेंगे। परमेश्‍वर का वचन बताता है, “अगर किसी के पास दूसरे के खिलाफ शिकायत की कोई वजह है, तो एक-दूसरे की सहते रहो और एक-दूसरे को दिल खोलकर माफ करो। जैसे यहोवा ने तुम्हें दिल खोलकर माफ किया है, वैसे ही तुम भी दूसरे को माफ करो।” (कुलु. 3:13) शब्द “अगर किसी के पास दूसरे के खिलाफ शिकायत की कोई वजह है,” दिखाते हैं कि कई बार दूसरों से चिढ़ने के हमारे पास वाजिब कारण हो सकते हैं। लेकिन दूसरों की जो छोटी-छोटी बातें हमें पसंद नहीं हैं, उनसे हम खीझ नहीं उठते और इस तरह मंडली की शांति में खलल नहीं डालते। इसके बजाय, हम यहोवा की मिसाल पर चलकर अपने भाइयों को दिल खोलकर माफ करते हैं और उनके साथ मिलकर परमेश्‍वर की सेवा करना जारी रखते हैं।

15. (क) माफ करने के बारे में हम अय्यूब से क्या सीख सकते हैं? (ख) सही रवैया दिखाने में प्रार्थना कैसे हमारी मदद कर सकती है?

15 माफ करने के बारे में हम अय्यूब से बहुत कुछ सीख सकते हैं। झूठा दिलासा देने आए उसके तीन दोस्तों ने अपनी बातों से उसे ठेस पहुँचायी। इसके बावजूद अय्यूब ने उन्हें माफ कर दिया। कैसे? “अय्यूब ने अपने मित्रों के लिये प्रार्थना की।” (अय्यू. 16:2; 42:10) जब हम दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं, तो उनके बारे में हमारा रवैया बदल सकता है। अपने सभी भाई-बहनों के लिए प्रार्थना करने से, हम उनके बारे में वैसा ही रवैया रख सकते हैं, जैसा यीशु रखता है। (यूह. 13:34, 35) इसके अलावा, हमें पवित्र शक्‍ति पाने के लिए भी प्रार्थना करनी चाहिए। (लूका 11:13) परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति की मदद से, हम दूसरों से पेश आते वक्‍त मसीही गुण दिखा पाएँगे।—गलातियों 5:22, 23 पढ़िए।

मंडली में अच्छा रवैया रखने की ठान लीजिए

16, 17. आप किस तरह का रवैया या “भावना” दिखाना चाहते हैं?

16 सचमुच, अगर मंडली का हर सदस्य यह ठान ले कि वह सही रवैया दिखाएगा, तो मंडली में क्या ही खुशनुमा माहौल होगा! इस लेख पर गौर करने के बाद, हम शायद यह फैसला करें कि हम अपना रवैया सुधारेंगे और दूसरों का हौसला बढ़ाएँगे। अगर ऐसा है, तो हमें चाहिए कि हम बिना देर किए परमेश्‍वर के वचन की मदद से खुद की जाँच करें और देखें कि हम कहाँ बदलाव कर सकते हैं। (इब्रा. 4:12) पौलुस जो मंडलियों के लिए एक अच्छी मिसाल रखना चाहता था, उसने कहा, “मुझे खुद में कोई बुराई नज़र नहीं आती। फिर भी इस बात से मैं नेक साबित नहीं होता, लेकिन जो मेरी जाँच-पड़ताल करता है वह यहोवा है।”—1 कुरिं. 4:4.

17 जब हम स्वर्ग से मिलनेवाली बुद्धि के मुताबिक काम करने में जी-तोड़ मेहनत करते हैं और अपनी राय या अधिकार को ज़्यादा तवज्जह नहीं देते, तो हम मंडली में अच्छा रवैया बनाए रखने में मदद देते हैं। एक-दूसरे को माफ करने के लिए तैयार रहने और दूसरों के बारे में सही रवैया रखने से हम अपने भाई-बहनों के साथ शांति बनाए रख सकते हैं। (फिलि. 4:8) अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम पूरा यकीन रख सकते हैं कि हम जो रवैया या ‘भावना दिखाते हैं’, उससे यहोवा और यीशु मसीह खुश होंगे।—फिले. 25.