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जीवन कहानी

60 साल से दोस्ती, मगर यह तो शुरूआत ही है

60 साल से दोस्ती, मगर यह तो शुरूआत ही है

बात सन्‌ 1951 की है, अमरीका में न्यू यॉर्क राज्य के इथिका शहर की। गर्मियों का मौसम है। शाम के वक्‍त चार जवान भाई, जिनकी उम्र 20-25 है, पास-पास बने टेलीफोन बूथों पर खड़े हुए हैं। वे यहाँ से काफी दूर मिशिगन, आयोवा और कैलिफोर्निया फोन कर रहे हैं। वे एक खुशखबरी बताना चाहते हैं!

इसके कुछ समय पहले फरवरी के महीने में 122 पायनियर न्यू यॉर्क के दक्षिण लैंसिंग में गिलियड स्कूल की 17वीं क्लास में हाज़िर होने के लिए इकट्ठा हुए, जो आगे चलकर मिशनरी बनते। इनमें से चार थे, लोअल टर्नर, विलियम (बिल) केसटन, रिचर्ड केलसी और रेमन टेमपलटन। लोअल और बिल मिशिगन से थे, रिचर्ड आयोवा से और रेमन कैलिफोर्निया से। बहुत जल्द चारों की अच्छी जान-पहचान हो गयी।

इसके करीब पाँच महीने बाद, एक दिन यह घोषणा की गयी कि विश्‍व मुख्यालय से भाई नेथन नॉर भाषण देने आ रहे हैं। यह सुनकर विद्यार्थियों में उमंग की लहर दौड़ गयी। इन चार भाइयों ने अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी कि अगर मुमकिन हो तो वे एक ही देश में साथ मिलकर सेवा करना चाहेंगे। क्या अब उन्हें यह बताया जाएगा कि उन्हें मिशनरी के तौर पर सेवा करने किस देश भेजा जाएगा? बेशक!

जब भाई नॉर पूरी क्लास के सामने यह घोषणा करने लगे कि किसको कौन-से देश भेजा जाएगा, तो सब और भी उत्साह से भर गए। हर कोई यह सुनने के लिए बेताब था कि उसे कहाँ भेजा जाएगा। सबसे पहले मंच पर इन चार जवान भाइयों को बुलाया गया। वे थोड़ा घबराए हुए थे मगर जब उन्हें पता चला कि उन्हें एक साथ सेवा करने के लिए भेजा जा रहा है, तो उन्होंने राहत की साँस ली। उन्हें कहाँ जाना था? जर्मनी! जैसे ही यह नाम लिया गया, तो सारे विद्यार्थी हैरान रह गए और काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही।

हर कहीं यहोवा के साक्षी, जर्मनी के साक्षियों की मिसाल के बारे में सुन चुके थे कि कैसे हिटलर की हुकूमत में सन्‌ 1933 से उन्होंने अपनी वफादारी बनाए रखी। बहुत-से विद्यार्थियों को याद है कि कैसे उन्होंने दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद जर्मनी के भाइयों को कपड़े भेजने के लिए पैकेट तैयार किए और कैसे उनके लिए ‘केयर’ नाम के संगठन से खाने के पैकेट खरीदे गए थे। जर्मनी में परमेश्‍वर के लोगों ने अटूट विश्‍वास दिखाने, पक्का इरादा रखने, हिम्मत से काम लेने और यहोवा पर भरोसा रखने में एक अच्छी मिसाल कायम की थी। लोअल याद करते हुए कहता है कि उस वक्‍त उसके मन में क्या चल रहा था, ‘अब हम इन प्यारे भाई-बहनों को करीबी से जान पाएँगे!’ इसलिए ताज्जुब नहीं कि क्यों सब इतने खुश थे और उस शाम ये भाई अपने घरवालों और दोस्तों को फोन करना चाहते थे!

जर्मनी के सफर में

27 जुलाई, 1951 में होमलैंड नाम का जहाज़ न्यू यॉर्क की ईस्ट रिवर के बंदरगाह से जर्मनी के लिए रवाना हुआ और इन चार दोस्तों का 11 दिन का सफर शुरू हो गया। उन्हें जर्मन भाषा में कुछ वाक्य सिखानेवाले पहले शख्स भाई अलबर्ट श्रोडर थे जो गिलियड स्कूल में उनके शिक्षक थे और बाद में शासी निकाय के सदस्य बने। अब ये चारों दोस्त जिस जहाज़ पर थे, उसके कई यात्री जर्मन थे। इसलिए उन्होंने सोचा कि अब शायद उन्हें थोड़ी-बहुत जर्मन सीखने का मौका मिले। मगर अफसोस कि वे सभी यात्री जर्मन भाषा की अलग-अलग बोलियाँ बोल रहे थे। सबकुछ उनके सिर के ऊपर से जा रहा था!

समुद्री यात्रा की वजह से भाई काफी बीमार हो गए। आखिरकार 7 अगस्त, मंगलवार की सुबह उन्होंने जर्मनी के हैमबर्ग शहर में कदम रखा। हर तरफ दूसरे विश्‍वयुद्ध से हुई बरबादी के निशान दिखायी दे रहे थे, जो अभी छ: साल पहले हुआ था। शहर का नज़ारा देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। वहाँ से वे ट्रेन पकड़कर वीसबाडन शाखा दफ्तर के लिए रवाना हुए जो उन्हें सुबह वहाँ पहुँचाती।

बुधवार सुबह वे जर्मनी में सबसे पहले साक्षी से मिले। उसका नाम था हान्स, जो जर्मनी में अकसर सुनने को मिलता है। हान्स उन्हें स्टेशन से बेथेल ले गया और उन्हें एक बुज़ुर्ग बहन के हवाले कर दिया। वह बहन अपने इरादे की पक्की थी और बिलकुल अँग्रेज़ी नहीं बोलती थी। बहन को शायद लगा कि अगर वह ऊँची आवाज़ में बोले, तो भाई उसकी बात समझ जाएँगे। वह धीरे-धीरे अपनी आवाज़ ऊँची करती गयी, मगर कोई फायदा न हुआ उल्टा वह बहन और चारों भाई और भी परेशान हो गए। आखिकार शाखा दफ्तर में निगरानी कर रहे भाई एरिक फ्रॉस्ट वहाँ आए और उन्होंने अँग्रेज़ी में इन भाइयों का प्यार से स्वागत किया। धीरे-धीरे सबकुछ ठीक होता गया।

अगस्त के आखिर में, ये चार भाई जर्मन भाषा में अपने पहले अधिवेशन यानी “शुद्ध उपासना” सम्मेलन में हाज़िर हुए। यह मेन नदी पर बसे फ्रैंकफर्ट शहर में हुआ था। अधिवेशन की हाज़िरी 47,432 थी और इसमें 2,373 लोगों ने बपतिस्मा लिया। इससे इन भाइयों में मिशनरी सेवा और प्रचार काम के लिए फिर से जोश भर आया। लेकिन कुछ दिनों बाद, भाई नॉर ने इन्हें बताया कि वे बेथेल में रहेंगे और वहीं सेवा करेंगे।

यहोवा की सेवा में उन्हें जो खुशी मिली, उससे उन्हें पूरा यकीन हो गया कि हमारे लिए अच्छा क्या है यह यहोवा सबसे बेहतर जानता है

रेमन मिशनरी सेवा करना चाहता था, इसलिए जब एक बार उसे अमरीका के बेथेल में सेवा करने का मौका मिला, तो वह राज़ी नहीं हुआ था। रिचर्ड और बिल ने भी बेथेल सेवा के बारे में कभी नहीं सोचा था। मगर वहाँ सेवा करने से उन्हें जो खुशी मिली, उससे उन्हें पूरा यकीन हो गया कि हमारे लिए अच्छा क्या है यह यहोवा सबसे बेहतर जानता है। इसलिए कितना अच्छा होगा कि हम अपनी मरज़ी पूरी करने के बजाय, यहोवा का निर्देशन मानें। अगर हम यह बात गाँठ बाँध लें, तो हम हमेशा यहोवा की सेवा करने को तैयार रहेंगे, फिर चाहे हमें कहीं भी, कोई भी काम क्यों न दिया जाए।

फरबॉटन!

जर्मन बेथेल परिवार के बहुत-से सदस्य खुश थे कि अब उनके बीच अमरीकी हैं, जिनके साथ वे अँग्रेज़ी में बात करके अपनी अँग्रेज़ी सुधार सकते हैं। मगर एक दिन डाईनिंग रूम में कुछ ऐसा हुआ जिससे उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। भाई फ्रॉस्ट हमेशा की तरह बड़े जोश से हाज़िर लोगों के साथ जर्मन भाषा में किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे थे। डाईनिंग रूम में बैठे ज़्यादातर लोग एकदम शांत थे, उनकी नज़रें अपनी-अपनी प्लेट पर टिकी थीं। अभी-अभी आए इन भाइयों को समझ नहीं आ रहा था कि किस बारे में बात हो रही है, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें एहसास हो गया कि बात उन्हीं के बारे में हो रही है। थोड़ी देर में भाई फ्रॉस्ट ने ज़ोरदार आवाज़ में कहा, “फरबॉटन!” (“मना है!”) फिर जब ज़ोर देने के लिए भाई ने और भी तेज़ आवाज़ में यह शब्द दोहराया, तब इन भाइयों को बेचैनी होने लगी। आखिर उन्होंने ऐसा क्या कर दिया था कि भाई ने इस तरह बात की?

खाना खत्म होने पर सब अपने-अपने कमरे में चले गए। बाद में एक भाई ने उन्हें समझाया, “अगर आप हमारी मदद करना चाहते हैं, तो आपको जर्मन बोलना आना ही चाहिए। इसीलिए भाई फ्रॉस्ट ने कहा है कि जब तक आप यह भाषा सीख न लें, आपके साथ अँग्रेज़ी बोलना फरबॉटन है।”

बेथेल परिवार तुरंत इस हिदायत पर अमल करने लगा। इससे न सिर्फ इन भाइयों को जर्मन भाषा सीखने में मदद मिली, बल्कि उन्होंने यह भी सीखा कि अगर एक प्यार करनेवाला भाई कोई सलाह देता है तो इसमें हमारी ही भलाई है, फिर चाहे शुरू में उसे अमल में लाना मुश्‍किल क्यों न हो। भाई फ्रॉस्ट की सलाह से साफ ज़ाहिर था कि उन्हें यहोवा के संगठन की कितनी फिक्र है और वे भाइयों से कितना प्यार करते हैं। * यही वजह थी कि भाई फ्रॉस्ट के लिए इन चारों भाइयों का प्यार दिनों-दिन बढ़ता गया!

दोस्तों से सीखना

परमेश्‍वर का भय माननेवाले दोस्तों से हम अनमोल सबक सीख सकते हैं और इससे हमें यहोवा के साथ अपनी दोस्ती मज़बूत करने में मदद मिलती है। इन चारों ने अनगिनत वफादार जर्मन भाई-बहनों से बहुत कुछ सीखा, साथ ही इन्होंने एक-दूसरे से भी काफी कुछ सीखा। रिचर्ड कहता है, “लोअल को थोड़ी-बहुत जर्मन आती थी और उसने इसका अच्छा इस्तेमाल किया मगर हम तीनों को इसके लिए काफी जद्दोजेहद करनी पड़ती थी। लोअल हम चारों में सबसे बड़ा था इसलिए चाहे भाषा की बात हो या किसी और मामले में अगुवाई लेने की, हम उसी की ओर ताकते थे।” रेमन याद करता है, “जर्मनी में एक साल गुज़ारने के बाद, जब हमें पहली बार छुट्टियों पर जाने का मौका मिला, तो स्विट्‌ज़रलैंड के एक भाई ने हमसे कहा कि हम छुट्टियों के दौरान स्विट्‌ज़रलैंड के पहाड़ों पर उसके लकड़ी के घर में रह सकते हैं! यह सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। दो हफ्तों तक हम चैन की साँस ले सकते थे, हमें जर्मन भाषा बोलने की कोई चिंता नहीं करनी थी! मगर मुझे नहीं पता था कि लोअल के मन में कुछ और ही चल रहा है। उसने ज़ोर देकर कहा कि हम हर सुबह दिन के वचन पर चर्चा करेंगे, मगर जर्मन में! उसने मेरी एक न सुनी इसलिए मैं निराश हो गया। मगर इससे हमने एक अनमोल सबक सीखा। जो वाकई हमारी भलाई चाहते हैं हमें उनकी बात माननी चाहिए, फिर चाहे हम कभी-कभार उनसे सहमत न भी हों। ऐसा रवैया रखने से हमें इतने सालों के दौरान बहुत फायदा हुआ और परमेश्‍वर के संगठन से मिले निर्देशन के मुताबिक चलने में मदद मिली है।”

इन चारों दोस्तों ने एक-दूसरे की खूबियों की कदर करना भी सीखा है, जैसे फिलिप्पियों 2:3 कहता है, “मन की दीनता के साथ दूसरों को खुद से बेहतर समझो।” इसलिए जब तीनों को लगता कि फलाँ काम बिल उनसे बेहतर कर सकता है, तो वे उस काम के लिए बिल को बोलते थे। लोअल कहता है, “जब हमारे सामने कोई पेचीदा हालात खड़े हो जाते और उसकी गुत्थी सुलझाने के लिए कोई बड़ा या मुश्‍किल कदम उठाना होता, तो हम मामला बिल पर छोड़ देते। उसमें यह काबिलीयत थी कि वह मुश्‍किल हालात का सामना करने की ऐसी तरकीब निकालता जिससे हम सभी सहमत होते थे। लेकिन हमें वैसा करने की या तो हिम्मत न होती थी या फिर वह कदम उठाने की सूझती न थी।”

खुशहाल शादीशुदा ज़िंदगी

एक-के-बाद-एक उन चारों ने शादी करने का फैसला किया। दरअसल, इन चारों की दोस्ती की बुनियाद यह थी कि वे यहोवा और पूरे समय की सेवा से प्यार करते थे। इसलिए वे ऐसा जीवन-साथी चुनना चाहते थे जो यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देने को तैयार हो। पूरे समय की सेवा से उन्होंने सीखा था कि लेने से देने में ज़्यादा खुशी और आशीष मिलती है, साथ ही हमें अपनी ख्वाहिशों से ज़्यादा राज के कामों को अहमियत देनी चाहिए। इसलिए इन भाइयों ने ऐसी बहनों को जीवन-साथी चुना जो पहले से ही पूरे समय की सेवा कर रही थीं। यही वजह है कि चारों की शादीशुदा ज़िंदगी खुशहाल रही।

वाकई दोस्ती या शादी का रिश्‍ता तभी कामयाब होता है जब यहोवा उस रिश्‍ते में हो। (सभो. 4:12) यह बात इन चारों दोस्तों के बारे में बिलकुल सच साबित हुई। बिल और रेमन को हालाँकि अपनी पत्नी की मौत का गम सहना पड़ा, लेकिन जब तक वे रहीं, उन दोनों ने उस खुशी और सहारे का अनुभव किया जो एक वफादार पत्नी देती है। जहाँ तक लोअल और रिचर्ड की बात है, उन्हें आज भी वह सहारा मिल रहा है। बिल ने दोबारा शादी की और उसने ऐसा जीवन साथी चुना जिसने उसे पूरे समय की सेवा जारी रखने में मदद दी।

आगे चलकर परमेश्‍वर की सेवा में मिली ज़िम्मेदारियों की वजह से उन्हें अलग-अलग जगह जाना पड़ा, खासकर जर्मनी, ऑस्ट्रिया, लक्सम्बर्ग, कनाडा और अमरीका जैसे देशों में। नतीजा, ये चारों दोस्त एक-साथ उतना वक्‍त नहीं बिता पाए जितना वे चाहते थे। हालाँकि वे एक-दूसरे से दूर थे, मगर उन्होंने इन दूरियों को अपनी दोस्ती के आड़े नहीं आने दिया, वे हमेशा एक-दूसरे के संपर्क में रहे। जब किसी को कोई आशीष मिलती, तो एक-दूसरे के साथ खुशी मनाते और दुख में एक-दूसरे के साथ रोते। (रोमि. 12:15) ऐसे दोस्त बहुत अनमोल होते हैं और हमें इसके लिए शुक्रगुज़ार होना चाहिए। वे यहोवा की तरफ से कीमती तोहफा होते हैं। (नीति. 17:17) आज की दुनिया में सच्चे दोस्त मिलना वाकई बहुत मुश्‍किल है! मगर सच्चे मसीहियों के साथ ऐसा नहीं है। वे दुनिया-भर में पाए जानेवाले साक्षियों के साथ दोस्ती का लुत्फ उठाते हैं। और इससे भी बढ़कर उन्हें यहोवा और यीशु मसीह के साथ दोस्ती करने का मौका मिला है।

जैसा हम सभी के साथ होता है, इन चार दोस्तों को भी कभी-कभी मुश्‍किल दौर से गुज़रना पड़ा। कभी किसी को मौत ने अपने साथी से जुदा कर दिया, तो कभी किसी को गंभीर बीमारी से जूझना पड़ा, किसी को अपने बूढ़े माँ-बाप की देखभाल की चिंता सताती, तो किसी को पूरे समय की सेवा करते हुए बच्चे की परवरिश करनी पड़ी। कभी ऐसा भी हुआ कि उन्हें यहोवा की सेवा में मिली नयी ज़िम्मेदारी कबूल करने से डर लगा। और आज उन्हें बुढ़ापे में आनेवाली मुश्‍किलों का सामना करना पड़ रहा है। मगर वे अपने तजुरबे से जानते हैं कि सच्चे दोस्तों की मदद से, फिर चाहे वे हमारे नज़दीक हों या दूर, यहोवा से प्यार करनेवाले हर मुश्‍किल का सामना करने में कामयाब हो सकते हैं!

दोस्ती जो हमेशा कायम रहेगी

यह कितनी खुशी की बात थी कि लोअल, रेमन, बिल और रिचर्ड ने 18, 12, 11 और 10 की उम्र में यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित की और 17-21 साल की उम्र में पूरे समय की सेवा करने लगे। उन्होंने ठीक वैसा ही किया जैसे सभोपदेशक 12:1 में उन्हें बढ़ावा दिया गया था, “अपनी जवानी के दिनों में अपने सृजनहार को स्मरण रख।”

अगर आप एक जवान मसीही भाई हैं और आपके हालात इजाज़त देते हैं, तो पूरे समय की सेवा करने का यहोवा की तरफ से मिला न्यौता कबूल कीजिए। ऐसा करने पर आप उसकी महा-कृपा की बदौलत उस खुशी का अनुभव कर पाएँगे जो इन चार दोस्तों ने की। जी हाँ उस खुशी का जो सर्किट, ज़िला या ज़ोन निगरान के तौर पर सेवा करने; बेथेल सेवा करने, शाखा समिति का सदस्य होने; राज-सेवा या पायनियर सेवा स्कूलों में शिक्षक के तौर पर सेवा करने; और छोटे-बड़े अधिवेशनों में भाषण देन से मिलती है। इन चारों को इस बात से कितनी खुशी हुई कि उनकी सेवा से हज़ारों लोगों को फायदा हुआ है! यह सब इसलिए मुमकिन हो सका क्योंकि उन्होंने अपनी जवानी में यहोवा का प्यार-भरा न्यौता कबूल किया और तन-मन लगाकर उसकी सेवा की।—कुलु. 3:23.

आज लोअल, रिचर्ड और रेमन एक बार फिर साथ मिलकर जर्मनी के शाखा दफ्तर में सेवा कर रहे हैं, जो अब सेलटर्स में है। लेकिन दुख की बात, 2010 में बिल की मौत हो गयी। उस वक्‍त वह अमरीका में खास पायनियर के तौर पर सेवा कर रहा था। करीब 60 साल से दोस्ती के बंधन में बँधे चार दोस्तों में से एक को मौत ने छीन लिया! मगर हमारा परमेश्‍वर यहोवा अपने दोस्तों को कभी नहीं भूलता। हम पूरा भरोसा रख सकते हैं कि उसके राज में हर मसीही अपनी वह दोस्ती दोबारा कायम कर पाएगा, जो मौत की वजह से फिलहाल टूट गयी है।

“60 साल की हमारी दोस्ती में, मुझे एक भी ऐसा पल याद नहीं जब हमारे बीच तकरार हुई हो”

अपनी मौत से कुछ समय पहले बिल ने लिखा, “60 साल की हमारी दोस्ती में, मुझे एक भी ऐसा पल याद नहीं जब हमारे बीच तकरार हुई हो। हमारी दोस्ती मेरे लिए किसी खज़ाने से कम नहीं।” इस पर उसके तीनों दोस्त, जो इस दोस्ती को नयी दुनिया में बनाए रखने की आस लगाए हैं, फट से कहते हैं, “और अभी तो इसकी शुरूआत ही हुई है!”

^ पैरा. 17 भाई फ्रॉस्ट की मज़ेदार जीवन कहानी 15 अप्रैल, 1961 की प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी) के पेज 244-249 पर छपी थी।