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‘मुझ को यह सिखा कि मैं तेरी इच्छा कैसे पूरी करूं’

‘मुझ को यह सिखा कि मैं तेरी इच्छा कैसे पूरी करूं’

“मुझ को यह सिखा, कि मैं तेरी इच्छा [कैसे] पूरी करूं, क्योंकि मेरा परमेश्‍वर तू ही है!”—भज. 143:10.

1, 2. परमेश्‍वर की मरज़ी को ध्यान में रखने से हमें कैसे फायदा हो सकता है? इस मामले में राजा दाविद से हम क्या सीख सकते हैं?

 सोचिए आप पहाड़ी इलाके में सैर कर रहे हैं। चलते-चलते आप दोराहे पर पहुँच जाते हैं। आपको किस रास्ते पर जाना चाहिए? यह जानने के लिए आप शायद एक चट्टान पर चढ़कर देखें कि कौन-सा रास्ता कहाँ जाता है। यही बात उस समय भी लागू होती है, जब हमें ज़रूरी फैसले लेने होते हैं। अगर हम हालात को सृष्टिकर्ता के नज़रिए से देखें, तो इससे हमें उस ‘मार्ग पर चलने में’ मदद मिलेगी जिस पर यहोवा की मंज़ूरी है।—यशा. 30:21.

2 प्राचीन इसराएल के राजा दाविद ने लगभग अपनी पूरी ज़िंदगी परमेश्‍वर की मरज़ी को ध्यान में रखा। इस तरह उसने हमारे लिए एक बेहतरीन मिसाल कायम की। आइए हम दाविद की ज़िंदगी में हुई कुछ घटनाओं पर गौर करें और देखें कि हम उस शख्स से क्या सीख सकते हैं जिसका मन यहोवा परमेश्‍वर की तरफ पूरी रीति से लगा रहा।—1 राजा 11:4.

दाविद ने यहोवा के नाम को आदर-सम्मान दिया

3, 4. (क) किस बात ने दाविद को गोलियत का मुकाबला करने के लिए उभारा? (ख) परमेश्‍वर के नाम के बारे में दाविद कैसा नज़रिया रखता था?

3 ज़रा उस घटना पर गौर कीजिए जब दाविद का सामना पलिश्‍ती सूरमा गोलियत से हुआ। गोलियत हथियारों से पूरी तरह लैस था। वह बहुत ही लंबे-चौड़े डील-डौल का था, उसका कद करीब साढ़े नौ फुट था। (1 शमू. 17:4) आखिर वह क्या बात थी जिसने दाविद को उसका मुकाबला करने के लिए उभारा? उसका साहस? परमेश्‍वर पर उसका विश्‍वास? बेशक इन दोनों गुणों की वजह से वह बहादुरी से उसका सामना कर पाया। लेकिन इनसे कहीं बढ़कर जिस बात ने उसे गोलियत का सामना करने के लिए उभारा वह थी, यहोवा और उसके महान नाम के लिए आदर। क्रोध से भरकर दाविद ने कहा, ‘यह खतनारहित पलिश्‍ती, यह कौन होता है जीवित परमेश्‍वर की सेना को ललकारनेवाला?’—1 शमू. 17:26.

4 नौजवान दाविद ने गोलियत का सामना करते हुए उससे कहा, “तू तो तलवार और भाला और सांग लिए हुए मेरे पास आता है; परन्तु मैं सेनाओं के यहोवा के नाम से तेरे पास आता हूं, जो इसराएली सेना का परमेश्‍वर है, और उसी को तू ने ललकारा है।” (1 शमू. 17:45) परमेश्‍वर पर भरोसा रखते हुए दाविद ने गोफन के एक ही पत्थर से उस पलिश्‍ती सूरमा का खात्मा कर दिया। ऐसा नहीं था कि दाविद ने सिर्फ इसी मौके पर यहोवा पर भरोसा रखा, उसने अपनी पूरी ज़िंदगी ऐसा किया और परमेश्‍वर के नाम को सबसे ज़्यादा आदर-सम्मान दिया। और दाविद ने अपने साथी इसराएलियों को भी यह बढ़ावा दिया कि वे यहोवा के ‘पवित्र नाम पर घमंड करें।’—1 इतिहास 16:8-10 पढ़िए।

5. गोलियत की तरह आज लोग यहोवा का निरादर कैसे करते हैं?

5 क्या आपको इस बात का फख्र है कि यहोवा आपका परमेश्‍वर है? (यिर्म. 9:24) आप उस वक्‍त कैसा रवैया दिखाते हैं जब आपके पड़ोसी, साथ काम करनेवाले, स्कूल के साथी या रिश्‍तेदार यहोवा के बारे में बुरा-भला कहते हैं और उसके साक्षियों का मज़ाक उड़ाते हैं? जब यहोवा के नाम की निंदा की जाती है, तब क्या आप यहोवा पर भरोसा रखते हुए उसके पक्ष में बोलते हैं? माना कि “चुप रहने का समय” होता है, मगर हमें कभी भी यहोवा के साक्षी या यीशु के चेले होने की वजह से शर्मिंदा नहीं महसूस करना चाहिए। (सभो. 3:1, 7; मर. 8:38) हालाँकि जो लोग हमारे संदेश के लिए सही रवैया नहीं रखते, उनके साथ हमें सूझबूझ और अदब से पेश आना चाहिए, लेकिन हमें उन इसराएलियों की तरह कभी नहीं बनना चाहिए, जिनका गोलियत के ताने सुनकर ‘मन कच्चा हो गया और जो अत्यन्त डर गए।’ (1 शमू. 17:11) इसके बजाय, आइए हम यहोवा परमेश्‍वर के नाम को पवित्र ठहराने के लिए ठोस कदम उठाएँ। हम लोगों की मदद करें ताकि वे जान सकें कि यहोवा असल में कैसा परमेश्‍वर है। आइए हम उन्हें बाइबल से समझाएँ कि परमेश्‍वर के करीब आना कितना ज़रूरी है।—याकू. 4:8.

6. जब दाविद ने गोलियत का मुकाबला किया तो दाविद का क्या इरादा था? आज हमारे लिए क्या बात सबसे ज़्यादा मायने रखनी चाहिए?

6 दाविद का गोलियत से जो मुकाबला हुआ, उससे हमें एक और ज़रूरी सीख मिलती है। जब दाविद युद्ध के मैदान में दौड़ता हुआ आया, तो उसने पूछा, “जो उस पलिश्‍ती को मारके इसराएलियों की नामधराई दूर करेगा उसके लिये क्या किया जाएगा?” जवाब में लोगों ने वही बात दोहराई जो उन्होंने पहले कही थी, “जो कोई [गोलियत को] मार डालेगा उसको राजा बहुत धन देगा, और अपनी बेटी ब्याह देगा।” (1 शमू. 17:25-27) मगर दाविद के लिए यह बात सबसे ज़्यादा मायने नहीं रखती थी कि उसे इनाम में धन-दौलत मिलेगी। उसका इरादा इससे कहीं बढ़कर था। वह सच्चे परमेश्‍वर की महिमा करना चाहता था। (1 शमूएल 17:46, 47 पढ़िए।) हमारे बारे में क्या? क्या हमारे लिए यह बात सबसे ज़्यादा मायने रखती है कि हम धन-दौलत बटोरें और ऊँचा ओहदा हासिल करें ताकि दुनिया में हमारा नाम हो? बेशक हम ऐसा नहीं चाहते। इसके बजाय हम दाविद की तरह बनना चाहते हैं, जिसने लिखा, “मेरे साथ यहोवा की बड़ाई करो, और आओ हम मिलकर उसके नाम की स्तुति करें!” (भज. 34:3) आइए हम परमेश्‍वर पर भरोसा रखें और अपने नाम से ज़्यादा उसके नाम को अहमियत दें।—मत्ती 6:9.

7.. लोगों की बेरुखी के बावजूद प्रचार काम में लगे रहने के लिए हमें जिस मज़बूत विश्‍वास की ज़रूरत है, वह हम कैसे पैदा कर सकते हैं?

7 जिस तरह दाविद ने गोलियत का हिम्मत से सामना किया, इसके लिए ज़रूरी था कि दाविद का यहोवा पर पूरा भरोसा और मज़बूत विश्‍वास हो। लेकिन दाविद में ऐसा मज़बूत विश्‍वास कैसे आया? एक तरीका था, चरवाहे के नाते काम करते वक्‍त उसने परमेश्‍वर पर भरोसा रखा। (1 शमू. 17:34-37) हमें भी प्रचार काम में लगे रहने के लिए मज़बूत विश्‍वास की ज़रूरत है, खासकर तब जब हमारी मुलाकात ऐसे लोगों से होती है, जो हमारे संदेश के बारे में सही रवैया नहीं रखते। हम अपने रोज़मर्रा के कामों में परमेश्‍वर पर भरोसा रखकर ऐसा विश्‍वास पैदा कर सकते हैं। मिसाल के लिए, बस या ट्रेन वगैरह में सफर करते वक्‍त हम अपने साथ बैठे लोगों से बाइबल की सच्चाइयों के बारे में बातचीत कर सकते हैं। घर-घर प्रचार करते वक्‍त अगर हमें सड़क पर कुछ लोग मिलते हैं, तो बिना हिचकिचाए हम उनसे भी बातचीत कर सकते हैं।—प्रेषि. 20:20, 21.

दाविद ने परमेश्‍वर की मरज़ी को ध्यान में रखा

8, 9. दाविद, राजा शाऊल के साथ जिस तरह पेश आया, उससे उसने कैसे दिखाया कि वह यहोवा की मरज़ी को ध्यान में रखता था?

8 दाविद हमेशा यहोवा पर भरोसा रखता था, यह इससे भी ज़ाहिर होता है कि वह इसराएल के पहले राजा शाऊल के साथ किस तरह पेश आया। राजा शाऊल ने तीन बार दाविद को अपने भाले से दीवार में बेधने की कोशिश की, मगर हर बार दाविद वहाँ से हट गया और शाऊल का निशाना खाली गया। दाविद ने कभी बदला नहीं लेना चाहा। एक वक्‍त ऐसा आया कि दाविद, शाऊल के पास से भाग गया। (1 शमू. 18:7-11; 19:10) तब शाऊल ने पूरे इसराएल में से 3,000 आदमियों को चुना और दाविद का पीछा करने वीराने को निकल पड़ा। (1 शमू. 24:2) ढूँढ़ते-ढूँढ़ते शाऊल अनजाने में उस गुफा में जा पहुँचा, जहाँ दाविद और उसके आदमी थे। दाविद चाहता तो उस मौके का फायदा उठाकर राजा को ठिकाने लगा सकता था, जो उसकी जान लेने पर तुला हुआ था। और फिर परमेश्‍वर की भी यही मरज़ी थी कि शाऊल के बाद दाविद इसराएल का राजा बने। (1 शमू. 16:1, 13) अगर दाविद ने अपने लोगों की बात मानी होती, तो राजा ज़िंदा नहीं बचता। मगर दाविद ने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उसने कहा, “यहोवा न करे कि मैं अपने प्रभु से जो यहोवा का अभिषिक्‍त है ऐसा काम करूं।” (1 शमूएल 24:4-7 पढ़िए।) शाऊल अब भी परमेश्‍वर का अभिषिक्‍त राजा था। उसे यहोवा ने अभी तक राजगद्दी से नहीं हटाया था, इसलिए दाविद उसकी सत्ता अपने हाथ में नहीं लेना चाहता था। उसने सिर्फ शाऊल के बागे की छोर काटी और इस तरह दिखाया कि शाऊल को मारने का उसका कोई इरादा नहीं था।—1 शमू. 24:11.

9 दाविद ने तब भी यहोवा के अभिषिक्‍त के लिए आदर दिखाया, जब उसने आखिरी बार राजा को देखा। यह उस समय की बात है, जब दाविद और अबीशै वहाँ पहुँचे, जहाँ शाऊल छावनी डाले हुए था। उन्होंने देखा कि शाऊल सो रहा है। अबीशै ने सोचा कि परमेश्‍वर ने दुश्‍मन को दाविद के हाथ में कर दिया है। उसने कहा कि वह शाऊल को भाले से ज़मीन में बेध देगा, मगर दाविद ने इसकी इजाज़त नहीं दी। (1 शमू. 26:8-11) दाविद की यही कोशिश रहती थी कि वह परमेश्‍वर का मार्गदर्शन माने। इसलिए अबीशै के कहने के बावजूद वह यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर डटा रहा और उसने परमेश्‍वर के अभिषिक्‍त राजा को मारना नहीं चाहा।

10. हमारे सामने कैसे मुश्‍किल हालात आ सकते हैं? और क्या बात हमें अपने इरादे पर डटे रहने में मदद देगी?

10 हमारे सामने भी मुश्‍किल हालात आ सकते हैं। हो सकता है हमारे साथी हमें परमेश्‍वर की मरज़ी के मुताबिक चलने का बढ़ावा देने के बजाय, हम पर यह दबाव डालें कि हम वही करें जो उन्हें सही लगता है। अबीशै की तरह कुछ लोग शायद हमें यह बढ़ावा दें कि फलाँ मामले में हम परमेश्‍वर की मरज़ी पर ध्यान दिए बगैर फैसला ले सकते हैं। लेकिन अगर हम अपने इरादे पर डटे रहना चाहते हैं तो ज़रूरी है कि हम इस बात का ध्यान रखें कि उस मामले के बारे में परमेश्‍वर क्या सोचता है। और फिर उसकी बतायी राह पर चलने की ठान लें।

11. परमेश्‍वर की मरज़ी को सबसे ज़्यादा अहमियत देने के बारे में आपने दाविद से क्या सीखा?

11 दाविद ने यहोवा परमेश्‍वर से प्रार्थना की, “मुझ को यह सिखा, कि मैं तेरी इच्छा [कैसे] पूरी करूं।” (भजन 143:5, 8, 10 पढ़िए।) खुद पर भरोसा रखने या दूसरों की बातों में आने के बजाय, दाविद परमेश्‍वर के ज़रिए सीखने के लिए बेताब रहता था। ‘वह यहोवा के सब अद्‌भुत कामों पर ध्यान करता था और उसके काम के बारे में सोचता था।’ अगर हम परमेश्‍वर के वचन का गहराई से अध्ययन करें और उन वाकयों पर मनन करें जिनसे हम देख सकते हैं कि यहोवा इंसानों के साथ किस तरह पेश आया, तो हम भी परमेश्‍वर की मरज़ी जान सकते हैं।

दाविद ने कानून के पीछे छिपे सिद्धांत समझे

12, 13. दाविद ने वह पानी ज़मीन पर क्यों उँडेल दिया, जो उसके तीन आदमी उसके लिए लाए थे?

12 यहोवा के दिए कानून के पीछे क्या सिद्धांत हैं, यह समझने और उनके मुताबिक जीने के मामले में भी दाविद ने हमारे लिए बेहतरीन मिसाल कायम की। ज़रा उस घटना पर ध्यान दीजिए, जब दाविद ने “बेतलेहेम के . . . कुएं का पानी” पीने की इच्छा ज़ाहिर की। दाविद के तीन आदमी अपनी जान पर खेलकर उस शहर में गए जो उस समय पलिश्‍तियों के कब्ज़े में था और वहाँ से पानी भर लाए। मगर ‘दाविद ने उसे पीने से इनकार कर दिया और उसे यहोवा के साम्हने अर्घ करके उण्डेल दिया।’ आखिर क्यों? दाविद समझाता है, “मेरा परमेश्‍वर मुझ से ऐसा करना दूर रखे; क्या मैं इन मनुष्यों का लोहू पीऊं जिन्हों ने अपने प्राणों पर खेला है? ये तो अपने प्राण पर खेलकर उसे ले आए हैं।”—1 इति. 11:15-19.

13 दाविद मूसा के कानून से जानता था कि खून को खाया नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे यहोवा के सामने उँडेल दिया जाना चाहिए। वह यह भी समझता था कि ऐसा क्यों किया जाना चाहिए। वह जानता था कि “शरीर का प्राण लोहू में रहता है।” मगर यह खून कहाँ था, यह तो पानी था। उसने पानी पीने से क्यों मना कर दिया? दरअसल दाविद खून के बारे में दिए नियम के पीछे छिपा सिद्धांत समझता था। उसकी नज़र में वह पानी उतना ही कीमती था, जितना इन तीन आदमियों का खून। इसलिए वह यह पानी पीने की सोच भी नहीं सकता था। उसे पीने के बजाय, उसने फैसला किया कि वह उसे ज़मीन पर उँडेल देगा।—लैव्य. 17:11; व्यव. 12:23, 24.

14. किस बात से दाविद को यहोवा का नज़रिया जानने में मदद मिली?

14 दाविद की यह कोशिश रहती थी कि परमेश्‍वर का कानून उसकी रग-रग में बस जाए। उसने एक भजन में कहा, “हे मेरे परमेश्‍वर मैं तेरी इच्छा पूरी करने से प्रसन्‍न हूं; और तेरी व्यवस्था मेरे अन्त:करण में बसी है।” (भज. 40:8) दाविद, परमेश्‍वर के कानून का अध्ययन करता और उस पर गहराई से मनन करता था। उसे पूरा भरोसा था कि यहोवा की आज्ञाएँ मानने में ही अक्लमंदी है। इसलिए दाविद न सिर्फ इस बात का ध्यान रखता था कि वह कानून में दिए नियम माने, बल्कि वह इनके पीछे छिपे सिद्धांतों पर भी चलना चाहता था। जब हम बाइबल का अध्ययन करते हैं, तो बेहतर होगा कि हम पढ़ी हुई बातों पर मनन करें और उन्हें अपने दिल में संजो लें ताकि हम समझ पाएँ कि फलाँ मामले में किस बात से यहोवा खुश होगा।

15. किस तरह सुलैमान परमेश्‍वर के कानून के लिए कदर दिखाने से चूक गया?

15 दाविद के बेटे सुलैमान को परमेश्‍वर यहोवा ने बहुत आशीष दी। लेकिन एक समय ऐसा आया जब सुलैमान परमेश्‍वर के कानून के लिए कदर दिखाने से चूक गया। उसने यहोवा की यह आज्ञा नहीं मानी कि इसराएली राजा ‘बहुत स्त्रियां न रखे।’ (व्यव. 17:17) उसने तो बहुत-सी परदेशी स्त्रियों से शादी की। जब वह बूढ़ा हुआ, तो “उसकी स्त्रियों ने उसका मन पराये देवताओं की ओर बहका दिया।” उसने चाहे जो भी तर्क किया हो, सच तो यह है कि “सुलैमान ने वह किया जो यहोवा की दृष्टि में बुरा है, और [वह] यहोवा के पीछे अपने पिता दाऊद की नाईं पूरी रीति से न चला।” (1 राजा 11:1-6) कितना ज़रूरी है कि हम परमेश्‍वर के वचन में दिए नियम और सिद्धांतों के मुताबिक ज़िंदगी जीएँ! मिसाल के लिए, यह तब बहुत ज़रूरी है जब कोई शादी करने की सोच रहा हो।

16. “सिर्फ प्रभु में” शादी करने की आज्ञा के पीछे छिपा सिद्धांत समझने से वे मसीही क्या करेंगे जो शादी करना चाहते हैं?

16 जब कोई अविश्‍वासी हम पर डोरे डालने की कोशिश करता है, तब हम किस तरह का रवैया दिखाते हैं, दाविद की तरह या सुलैमान की तरह? सच्चे मसीहियों को आज्ञा दी गयी है कि वे “सिर्फ प्रभु में” शादी करें। (1 कुरिं. 7:39) अगर एक मसीही शादी करना चाहता है तो उसे यहोवा की सेवा करनेवाले एक मसीही से ही शादी करनी चाहिए। और अगर हम बाइबल के इस नियम के पीछे छिपा सिद्धांत समझ लें, तो हम न सिर्फ एक अविश्‍वासी से शादी करने से दूर रहेंगे बल्कि उसे अपने साथ इश्‍कबाज़ी करने का भी बढ़ावा नहीं देंगे।

17. पोर्नोग्राफी के फंदे से बचने के लिए क्या बात हमारी मदद कर सकती है?

17 जैसा कि हमने गौर किया दाविद हमेशा मामले को परमेश्‍वर की नज़र से देखने की कोशिश करता था। उसकी तरह अगर हम भी ऐसा करें, तो हम अश्‍लील तसवीरें देखने के खतरे में पड़ने से बच सकेंगे। ज़रा यहाँ दी आयतें पढ़िए। सोचिए कि उनमें क्या सिद्धांत दिए गए हैं और यह समझने की कोशिश कीजिए कि पोर्नोग्राफी के बारे में यहोवा की क्या मरज़ी है। (भजन 119:37; मत्ती 5:28, 29; कुलुस्सियों 3:5 पढ़िए।) परमेश्‍वर के ऊँचे स्तरों पर मनन करने से हम पोर्नोग्राफी के फंदे में नहीं फँसेंगे।

हमेशा परमेश्‍वर के नज़रिए को ध्यान में रखिए

18, 19. (क) हालाँकि दाविद असिद्ध था, फिर भी किस वजह से उस पर परमेश्‍वर की मंज़ूरी बनी रही? (ख) आपने क्या करने की ठानी है?

18 हालाँकि दाविद ने बहुत-से मामलों में अच्छी मिसाल कायम की, लेकिन उसने कुछ गंभीर पाप भी किए। (2 शमू. 11:2-4, 14, 15, 22-27; 1 इति. 21:1, 7) पर उसने जब पाप किए, तो उसके लिए पश्‍चाताप भी किया। वह परमेश्‍वर के सामने “मन की खराई” से चलता रहा। (1 राजा 9:4) हम ऐसा क्यों कह सकते हैं? क्योंकि दाविद की यही कोशिश रहती थी कि वह यहोवा की मरज़ी के मुताबिक काम करे।

19 हमारे असिद्ध होने के बावजूद, हम पर यहोवा की मंज़ूरी बनी रह सकती है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि हम मन लगाकर परमेश्‍वर के वचन का अध्ययन करें, हम जो सीखते हैं उस पर गहराई से मनन करें और हमने अपने दिल में जो बातें संजोयी हैं उनके मुताबिक चलें। अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम भजनहार की तरह होंगे जिसने नम्रता से यहोवा से यह बिनती की, “मुझ को यह सिखा, कि मैं तेरी इच्छा [कैसे] पूरी करूं।”