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क्या आपकी कायापलट हुई है?

क्या आपकी कायापलट हुई है?

“अपने मन को नयी दिशा देने की वजह से तुम्हारी कायापलट होती जाए।”—रोमि. 12:2.

1, 2. हमारी परवरिश और हमारे आस-पास के माहौल का हम पर क्या असर होता है?

 हम सभी पर अपनी परवरिश और हमारे आस-पास के माहौल का ज़बरदस्त असर होता है। इसलिए हमें खास किस्म का खान-पान पसंद होता है, हम फलाँ तरीके से पेश आते हैं, या फलाँ तरह का पहनावा पसंद करते हैं।

2 लेकिन हमारे माहौल का कुछ दूसरी चीज़ों पर भी असर होता है, जो हमारे खाने-पहनने से कहीं ज़्यादा अहमियत रखती हैं। उदाहरण के लिए, हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, हमें सिखाया जाता है कि क्या सही है और क्या गलत। मगर सही और गलत के बारे में हरेक की अपनी राय होती है। दूसरों के अलावा, कभी-कभी हमारे अंदर की आवाज़, यानी हमारा ज़मीर भी हमसे कहता है कि क्या सही है और क्या गलत। बाइबल कहती है कि अकसर “राष्ट्रों के लोग, जिनके पास परमेश्‍वर का कानून नहीं है, वे . . . अपने आप इस कानून के मुताबिक चलते हैं।” (रोमि. 2:14) तो क्या इसका यह मतलब है कि अगर किसी मामले में परमेश्‍वर की तरफ से दिया कोई कानून नहीं है, तो हम आँख मूँदकर उन स्तरों के मुताबिक फैसले ले सकते हैं, जिन्हें हमारे परिवारवाले या इलाके के लोग मानते हैं?

3. किन दो वजहों से मसीही आँख मूँदकर दुनिया के तौर-तरीके और स्तर नहीं अपनाते?

3 मसीही ऐसा नहीं करते। क्यों? इसकी कम-से-कम दो खास वजहें हैं। पहली वजह, बाइबल हमें याद दिलाती है: “ऐसा भी मार्ग है, जो मनुष्य को सीधा देख पड़ता है, परन्तु उसके अन्त में मृत्यु ही मिलती है।” (नीति. 16:25) असिद्ध होने की वजह से हम इंसान अपने कदमों को सही राह नहीं दिखा पाते। (नीति. 28:26; यिर्म. 10:23) और दूसरी वजह, बाइबल कहती है कि दुनिया के तौर-तरीकों और स्तरों के पीछे किसी और का नहीं, “इस दुनिया की व्यवस्था के ईश्‍वर” शैतान का हाथ है। (2 कुरिं. 4:4; 1 यूह. 5:19) इसलिए अगर हम यहोवा से आशीषें और उसकी मंज़ूरी पाना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम रोमियों 12:2 में दी सलाह मानें।—पढ़िए।

4. इस लेख में हम किन मुद्दों पर चर्चा करेंगे?

4 इस लेख में हम तीन ज़रूरी मुद्दों पर चर्चा करेंगे, जिनका रोमियों 12:2 में ज़िक्र किया गया है। वे हैं: (1) हमें “कायापलट” करने या बदलने की ज़रूरत क्यों है? (2) कायापलट करने में क्या शामिल है? (3) हम कायापलट कैसे कर सकते हैं?

हमें कायापलट करने की ज़रूरत क्यों है?

5. रोमियों 12:2 में दी सलाह पौलुस ने किसे लिखी थी?

5 जब पौलुस ने ईसवी सन्‌ 56 में रोमियों के नाम चिट्ठी लिखी, तो वह आम लोगों या अविश्‍वासियों को नहीं बल्कि अभिषिक्‍त मसीहियों को लिख रहा था। (रोमि. 1:7) पौलुस ने उनसे गुज़ारिश की कि वे कायापलट करें, यानी खुद में बदलाव लाएँ, और ‘इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करें।’ उस वक्‍त रोम के मसीहियों के लिए “दुनिया की व्यवस्था” का मतलब था वहाँ के लोगों के स्तर, उनके रिवाज़, तौर-तरीके, पहनावा, वगैरह। और पौलुस के शब्द “बंद करो” ज़ाहिर करते हैं कि कुछ मसीहियों पर अब भी “दुनिया की व्यवस्था” का असर बना हुआ था। उन पर किस तरह का असर हो रहा था?

6, 7. पौलुस के दिनों में, रोम में एक मसीही होना क्यों एक चुनौती थी?

6 आज जो सैलानी रोम घूमने जाते हैं, वे अकसर पुराने ज़माने के मंदिरों, कब्रों, स्तंभों, अखाड़ों, थियेटरों वगैरह के खँडहरों को देखने जाते हैं। इनमें से कुछ खँडहर पहली सदी के हैं। बीते ज़माने के इन खँडहरों से हमें यह जानने में मदद मिलती है कि रोम के लोग किस तरह की ज़िंदगी जीते थे और कैसे उपासना करते थे। इतिहास की किताबें बताती हैं कि उस ज़माने में वहशियाना मनोरंजन के लिए अखाड़े हुआ करते थे, जहाँ योद्धा एक-दूसरे से या जंगली जानवरों से लड़ते थे और रथों की दौड़ होती थीं। साथ ही, वहाँ कई विषयों पर नाटक होते थे, जिनमें से कुछ अनैतिक होते थे। और-तो-और रोम एक फलता-फूलता शहर भी था, जहाँ बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। इसलिए वहाँ के लोगों के पास धन-दौलत कमाने के कई मौके थे।—रोमि. 6:21; 1 पत. 4:3, 4.

7 हालाँकि रोम में बहुत-से मंदिर थे और वे बहुत-से देवी-देवताओं को मानते थे, लेकिन ज़्यादातर लोगों को अपने ईश्‍वरों के साथ एक असल या करीबी रिश्‍ता बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे धर्म के नाम पर बस जन्म, शादी और मौत से जुड़े रस्मों-रिवाज़ मानते थे। और ये उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा थे। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि ऐसे शहर में जीना, वहाँ के मसीहियों के लिए कितनी बड़ी चुनौती रही होगी। उनमें से बहुत-से मसीही इसी माहौल में पले-बढ़े, इसलिए सच्चे मसीही बनने के लिए उन्हें अपनी कायापलट करने की ज़रूरत थी। और यह कायापलट उनके बपतिस्मा लेने से खत्म नहीं हुई।

8. आज यह दुनिया मसीहियों के लिए क्यों एक खतरा है?

8 जिस तरह रोम का माहौल वहाँ के मसीहियों के लिए एक खतरा था, उसी तरह, यह दुनिया आज हम समर्पित मसीहियों के लिए खतरा है। क्यों? क्योंकि दुनिया की फितरत आज कई तरीकों से काम करती नज़र आती है। (इफिसियों 2:2, 3; 1 यूहन्‍ना 2:16 पढ़िए।) यह दुनिया हमें अपने साँचे में ढालना चाहती है और हम पर दबाव डालती है कि हम उसकी ख्वाहिशों, उसकी सोच, उसके तौर-तरीकों और उसके नैतिक स्तरों को अपनाएँ। हम पर दुनिया का भाग बनने का खतरा लगातार मँडराता रहता है। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि हम इस सलाह को मानें कि “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो” और अपनी “कायापलट” करो। हमें कायापलट करने के लिए क्या करना होगा?

कायापलट करने में क्या शामिल है?

9. बपतिस्मा लेने से पहले, कई लोग क्या बदलाव करते हैं?

9 जैसे-जैसे एक इंसान बाइबल का अध्ययन करता है और उसमें दी सच्चाइयों को अपनी ज़िंदगी में लागू करता है, वैसे-वैसे वह यहोवा के करीब आने लगता है। साथ ही, वह अपनी ज़िंदगी में बदलाव करके अपनी तरक्की ज़ाहिर करता है। वह झूठे धर्म के रीति-रिवाज़ों को, और पहले वह जिस तरह की ज़िंदगी जीता था, उसे छोड़ देता है और अपने अंदर मसीह जैसी शख्सियत पैदा करता है। (इफि. 4:22-24) हमें खुशी है कि हर साल हज़ारों-लाखों लोग इस तरह तरक्की करते हैं, और अपनी ज़िंदगी यहोवा परमेश्‍वर को समर्पित करके बपतिस्मा लेते हैं। बेशक इससे यहोवा का दिल खुश होता है। (नीति. 27:11) लेकिन यह सवाल पूछना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है: क्या एक इंसान को सिर्फ यही बदलाव करने की ज़रूरत है?

बहुत-से लोगों को शैतान की दुनिया से बाहर आने और अपनी कायापलट करने की ज़रूरत है (पैराग्राफ 9 देखिए)

10. कायापलट का मतलब सिर्फ खुद में सुधार लाना क्यों नहीं है?

10 दरअसल, कायापलट करने में सिर्फ तरक्की करना या खुद में सुधार लाना शामिल नहीं है। मिसाल के लिए, बाज़ार में कभी-कभी किसी सामग्री के पैकेट पर लिखा होता है “पहले से कहीं बेहतर।” मगर जाँचने पर पता लगता है कि चीज़ वही है, बस उसमें थोड़ा-बहुत फेरबदल कर दिया गया है। कई बार उसमें एक नयी चीज़ जोड़ दी जाती है, या उसका पैकेट ज़्यादा आकर्षक बना दिया जाता है। एक बाइबल शब्दकोश कहता है कि रोमियों 12:2 में इस्तेमाल किए गए शब्द “कायापलट” में पवित्र शक्‍ति की मदद से अपनी सोच बदलना या उसे नया बनाते जाना शामिल है। इसलिए सिर्फ बुरी आदतें, गंदी बोली और अनैतिक काम छोड़ने से ही एक मसीही की कायापलट नहीं हो जाती। देखा जाए, तो कुछ लोग जिन्हें बाइबल का ज्ञान नहीं है, वे भी इन बुरी बातों से दूरी बनाए रखने की कोशिश करते हैं। तो फिर मसीही होने के नाते, हमें क्या बदलाव करने की ज़रूरत है ताकि हमारी कायापलट हो सके?

11. कायापलट करने में क्या शामिल है इस बारे में पौलुस ने क्या कहा?

11 पौलुस ने लिखा, “अपने मन को नयी दिशा देने की वजह से तुम्हारी कायापलट होती जाए।” “मन” का मतलब है हमारे सोचने की काबिलीयत। लेकिन बाइबल में शब्द “मन” का मतलब यह भी हो सकता है: हम किस बारे में सोचना पसंद करते हैं, हमारा रवैया और किसी मामले पर तर्क करने की हमारी काबिलीयत। रोमियों को लिखी अपनी चिट्ठी की शुरूआत में पौलुस ने ऐसे लोगों का ज़िक्र किया जिन्होंने अपने कामों से दिखाया कि उनकी ‘दिमागी हालत भ्रष्ट’ हो चुकी है। वे काम क्या थे? पौलुस ने कहा कि उनमें “पाप, दुष्टता, लालच, बुराई कूट-कूटकर भरी है और वे ईर्ष्या, हत्या, झगड़े, छल और द्वेष” और ऐसी दूसरी चोट पहुँचानेवाली बातों से भरे हैं। (रोमि. 1:28-31) इसलिए हम समझ सकते हैं कि क्यों पौलुस ने उन मसीहियों से, जो ऐसे माहौल में पले-बढ़े थे, यह गुज़ारिश की कि वे अपनी “कायापलट” करें और ‘अपने मन को नयी दिशा दें।’

‘हर तरह का गुस्सा, क्रोध, चीखना-चिल्लाना और गाली-गलौज खुद से दूर करो।’—इफि. 4:31

12. आज बहुत-से लोग किस तरह की सोच रखते हैं? मसीहियों के लिए इस तरह की सोच रखना क्यों खतरे से खाली नहीं?

12 दुख की बात है कि इस दुनिया में हमारे चारों तरफ ऐसे लोग हैं, जो उस तरह की सोच रखते हैं जिसका पौलुस ने ज़िक्र किया। उन्हें लगता है कि उसूलों और सही-गलत के स्तरों के मुताबिक जीना दकियानूसी है और उन्हें मानने के लिए किसी को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। बहुत से शिक्षक और माता-पिता अपने बच्चों को जो चाहे करने की आज़ादी देते हैं। वे बच्चों को यह तक सिखाते हैं कि वे खुद तय कर सकते हैं कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। क्योंकि ऐसे लोगों का मानना है कि सही-गलत के स्तरों का पता लगाने का कोई तरीका नहीं। धर्म के मामले में भी यह बात सच है। कई लोग जो धर्म में आस्था रखने का दावा करते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्‍वर क्या चाहता है, उस हिसाब से चलने की कोई ज़रूरत नहीं। वही करो, जो आपको सही लगता है। (भज. 14:1) इस तरह का रवैया मसीहियों के लिए खतरे से खाली नहीं। अगर हम ध्यान न दें, तो यह रवैया हम परमेश्‍वर के संगठन में भी अपनाने लग सकते हैं। हो सकता है हम भी परमेश्‍वर के संगठन से मिलनेवाली हिदायतों को मानने से इनकार करें और उन बातों के बारे में शिकायत करने लगें, जो हमें पसंद नहीं आतीं। या फिर हो सकता है हम मनोरंजन, इंटरनेट के इस्तेमाल और ऊँची शिक्षा के बारे में दी जानेवाली बाइबल की सलाह से पूरी तरह सहमत न हों।

13. हमें ईमानदारी से क्यों अपनी जाँच करनी चाहिए?

13 अगर हम “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद” करना चाहते हैं, यानी अगर हम नहीं चाहते कि हम दुनिया की सोच अपनाएँ, तो ज़रूरी है कि हम ईमानदारी से खुद को जाँचें कि हम असल में कैसे इंसान हैं। यानी हमें अपने दिल में झाँककर देखना है कि हमारा रवैया और हमारी भावनाएँ क्या हैं। साथ ही, हमें जाँचना होगा कि हमारे लक्ष्य और उसूल क्या हैं। दूसरे नहीं जान सकते कि हम असल में कैसे इंसान हैं, शायद वे हमसे कहें कि हम बहुत अच्छा कर रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि सिर्फ हम जानते हैं कि हमने बाइबल से जो सीखा है, उसकी मदद से हमने किस हद तक इन मामलों में अपनी कायापलट की है और लगातार ऐसा कर रहे हैं या नहीं।—याकूब 1:23-25 पढ़िए।

हम कायापलट कैसे कर सकते हैं

14. क्या बात हमारी मदद करेगी जिससे हम जान सकें कि हमें अपने अंदर क्या बदलाव करने हैं?

14 कायापलट करने के लिए ज़रूरी है कि हम अपने अंदर के इंसान को बदलें। तो ज़ाहिर है ऐसा करने के लिए हमें किसी ऐसी चीज़ की ज़रूरत है जो हमारे दिल की गहराई तक पहुँच सके। ऐसा करने में क्या बात हमारी मदद करेगी? जब हम बाइबल का अध्ययन करते हैं, तो हम सीखते हैं कि यहोवा हमसे क्या चाहता है। यह जानने के बाद हम जो रवैया दिखाते हैं, उससे हमें पता चलेगा कि हमारे दिल में क्या है। और फिर हम जान पाएँगे कि हमें अपने अंदर क्या बदलाव करने की ज़रूरत है ताकि हम “परमेश्‍वर की सिद्ध इच्छा” पूरी कर सकें।—रोमि. 12:2; इब्रा. 4:12.

15. जब यहोवा हमें ढालता है तो हममें किस तरह की कायापलट होती है?

15 यशायाह 64:8 पढ़िए। भविष्यवक्‍ता यशायाह ने इस मिसाल में जो तसवीर पेश की, उससे हम एक ज़रूरी सबक सीख सकते हैं। हम मिट्टी हैं, और यहोवा हमारा कुम्हार है। जब वह हमें ढालता है, तो वह हमारा बाहरी रूप नहीं बदलता, मानो वह हमारी सुंदरता बढ़ाना चाहता हो। इसके बजाय, वह हमारे अंदर के इंसान की कायापलट करता है, यानी हमारी सोच और भावनाओं को बदलता है। जब हम खुद को उसके हाथों में सौंप देते हैं, तो हम उसे अपने बाहरी रूप को नहीं, बल्कि अंदर के इंसान को बदलने दे रहे होते हैं। और इस दुनिया के असर से खुद को बचाने के लिए हमें ठीक इसी चीज़ की ज़रूरत है। यहोवा हमें कैसे ढालता है?

16, 17. (क) समझाइए कि कुम्हार मिट्टी को एक बढ़िया किस्म के बर्तन का रूप देने के लिए क्या करता है। (ख) परमेश्‍वर का वचन कैसे हमें कायापलट करने में मदद देता है ताकि यहोवा हमें अपने काम के लिए इस्तेमाल कर सके?

16 अगर एक कुम्हार बढ़िया किस्म का बर्तन बनाना चाहता है, तो वह अच्छी मिट्टी इस्तेमाल करता है। मगर मिट्टी को बर्तन का रूप देने से पहले, उसे दो चीज़ें करनी होती हैं। पहली, उसे मिट्टी में से गंदगी निकालने के लिए उसे धोना होता है। फिर, उसे मिट्टी में सही मात्रा में पानी डालकर उसे गूँधना होता है, ताकि वह ढालने लायक हो जाए।

17 ध्यान दीजिए कि कुम्हार न सिर्फ मिट्टी में से गंदगी निकालने के लिए बल्कि उसे ढालने लायक बनाने के लिए भी पानी का इस्तेमाल करता है। फिर वह उस मिट्टी से किसी भी तरह का बर्तन बना सकता है, एक बढ़िया बर्तन भी। ठीक जैसे पानी मिट्टी को बदल देता है, उसी तरह परमेश्‍वर का वचन हमें बदल देता है। जब हम परमेश्‍वर के बारे में सीखने लगे, तो बाइबल की मदद से हमने इस दुनिया की सोच को अपने मनों से निकालकर खुद को शुद्ध किया और हम परमेश्‍वर की सोच अपनाने लगे। फिर परमेश्‍वर ने हमें एक बेशकीमती बर्तन के रूप में ढाला, यानी हमारी कायापलट की ताकि वह हमें अपने काम के लिए इस्तेमाल कर सके। (इफि. 5:26) हमें कई बार याद दिलाया जाता है कि हमें हर रोज़ बाइबल पढ़नी चाहिए और लगातार सभाओं में हाज़िर होना चाहिए। हमें ऐसा करने के लिए क्यों बढ़ावा दिया जाता है? क्योंकि ऐसा करके, हम खुद को यहोवा के हाथों सौंप रहे होते हैं, ताकि वह हमें ढाल सके।—भज. 1:2; प्रेषि. 17:11; इब्रा. 10:24, 25.

कायापलट करने से आप अपनी समस्याएँ पहले से बेहतर तरीके से सुलझा पाएँगे (पैराग्राफ 18 देखिए)

18. (क) अगर हम चाहते हैं कि परमेश्‍वर का वचन हमारी कायापलट करे, तो मनन करना क्यों ज़रूरी है? (ख) किन सवालों पर मनन करने से हमें कायापलट करने में मदद मिल सकती है?

18 अगर हम चाहते हैं कि परमेश्‍वर का वचन हमारी कायापलट करे, तो उसे सिर्फ पढ़ना या उससे सीखना काफी नहीं है। दुनिया में कई लोग बाइबल पढ़ते हैं और उसमें लिखी बातों के बारे में बहुत कुछ जानते भी हैं। शायद आप भी प्रचार में ऐसे कुछ लोगों से मिले हों। कुछ को तो बाइबल की आयतें मुँह-ज़बानी याद होती हैं। * मगर इससे उनकी सोच और उनकी ज़िंदगी नहीं बदलती। क्यों? क्योंकि परमेश्‍वर का वचन तभी हमारी कायापलट करता है, जब हम इसे अपने दिल की गहराइयों तक उतरने देते हैं। (गला. 6:6) इसलिए हम बाइबल से जो सीखते हैं, उस पर हमें वक्‍त निकालकर मनन करने की भी ज़रूरत है। हमें खुद से पूछना चाहिए: “क्या मैं इस बात पर विश्‍वास करता हूँ कि मैं जो सीख रहा हूँ वह बस एक धार्मिक शिक्षा नहीं, बल्कि उससे कहीं बढ़कर है? क्या मैंने अपनी ज़िंदगी में इस बात के सबूत देखे हैं कि यही सच्चाई है? मैं जो सीखता हूँ, उसे दूसरों को सिखाने के अलावा, क्या मैं खुद भी उस पर अमल करने की कोशिश करता हूँ? क्या मैं मानता हूँ कि जो मैं सीख रहा हूँ, वह ऐसा है मानो यहोवा खुद मुझसे बात कर रहा है?” इन सवालों पर सोचने और मनन करने से हम यहोवा के और भी करीब महसूस कर पाएँगे। उसके लिए हमारा प्यार बढ़ेगा। हम जो सीखते हैं, वे बातें जब हमारे दिल को छू जाती हैं, तो उससे हमें बढ़ावा मिलता है कि हम अपनी ज़िंदगी में ज़रूरी बदलाव करें, जिससे यहोवा खुश होता है।—नीति. 4:23; लूका 6:45.

19, 20. बाइबल की कौन-सी सलाह लागू करने से हमें फायदा होगा?

19 अगर हम लगातार बाइबल पढ़ें और उस पर मनन करें, तो हमें बढ़ावा मिलेगा कि हम उस काम को करने में लगे रहें, जो शायद हम कुछ हद तक कर चुके हैं, यानी ‘पुरानी शख्सियत को उसकी आदतों समेत उतार फेंकें और सही ज्ञान के ज़रिए वह नयी शख्सियत पहन लें जिसकी रचना परमेश्‍वर करता है। और इसे लगातार नया बनाते जाएँ।’ (कुलु. 3:9, 10) अगर हम असल में समझें कि बाइबल क्या सिखाती है और सीखी हुई बातों को लागू करें, तो हमें यह बढ़ावा मिलेगा कि हम नयी मसीही शख्सियत पहनें, जो हमें शैतान के फँदों से बचा सकेगी।

20 प्रेषित पौलुस हमें याद दिलाता है: “आज्ञा माननेवाले बच्चों की तरह, अपनी उन ख्वाहिशों के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो जो तुम्हारे अंदर . . . थीं” और “अपने सारे चालचलन में पवित्र बनो।” (1 पत. 1:14, 15) अगला लेख समझाएगा कि अगर हम अपनी पुरानी सोच और रवैए के मुताबिक खुद को ढालना बंद करें, और अपनी कायापलट करें, तो यहोवा हमें आशीषें देगा।

^ 1 फरवरी, 1994 की प्रहरीदुर्ग के पेज 9, पैराग्राफ 7 पर दिया उदाहरण देखिए।