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परमेश्वर के राज के वफादार बने रहिए

परमेश्वर के राज के वफादार बने रहिए

“वे दुनिया के नहीं हैं।”—यूह. 17:16.

गीत: 18, 54

1, 2. (क) यहोवा के वफादार रहने और इस दुनिया के मामलों में हिस्सा न लेने के बीच क्या ताल्लुक है? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) (ख) बहुत-से लोग किसके वफादार रहते हैं, लेकिन इस वजह से क्या अंजाम होता है?

यहोवा के सेवक हमेशा निष्पक्ष बने रहते हैं। वे ऐसे मामलों में नहीं पड़ते जो लोगों में फूट डालते हैं। जैसे, राष्ट्रवाद, जाति-भेद या ऊँच-नीच का भेदभाव। क्यों? क्योंकि हम यहोवा से प्यार करते हैं, उसके वफादार रहते हैं और उसकी आज्ञा मानते हैं। (1 यूह. 5:3) हम सभी परमेश्वर के नेक स्तरों पर चलते हैं, फिर चाहे हम किसी भी देश में रहते हों या किसी भी संस्कृति के हों। हम यहोवा और उसके राज के वफादार रहने को सबसे ज़्यादा अहमियत देते हैं। (मत्ती 6:33) इसीलिए हम कह सकते हैं कि हम “दुनिया के नहीं हैं।”—यूहन्ना 17:11, 15, 16 पढ़िए; यशा. 2:4.

2 आज दुनिया में बहुत-से लोग अपने देश, अपनी जाति और संस्कृति के वफादार रहते हैं। यहाँ तक कि वे अपने देश की खेल-कूद की टीम के भी वफादार रहते हैं। इस वजह से लोग एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं, नफरत करते हैं और कभी-कभी तो विरोधी पक्ष के लोगों का खून तक कर देते हैं। हालाँकि ऐसे मामलों में हम मसीही हिस्सा नहीं लेते, मगर इनका हम पर और हमारे परिवार पर असर हो सकता है और कभी-कभी तो हमें घोर अन्याय भी सहना पड़ सकता है। हमें परमेश्वर ने सही और गलत के बीच फर्क करने की काबिलीयत दी है, इस वजह से जब हम देखते हैं कि सरकारें मुँह देखा न्याय करती हैं, तो शायद हम बड़ी आसानी से किसी का पक्ष लेने लगें। (उत्प. 1:27; व्यव. 32:4) जब आप नाइंसाफी होते देखते हैं, तो आप कैसा रवैया दिखाते हैं? क्या आप निष्पक्ष बने रहते हैं या किसी की तरफदारी करने लगते हैं?

3, 4. (क) हम दुनिया के रगड़ों-झगड़ों में क्यों किसी का पक्ष नहीं लेते? (ख) इस लेख में हम क्या चर्चा करेंगे?

3 बहुत-से लोग दुनिया के रगड़ों-झगड़ों में इसलिए किसी का पक्ष लेने लगते हैं, क्योंकि सरकार उन्हें यकीन दिलाती है कि अच्छे नागरिकों को ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन हम यीशु के नक्शे-कदम पर चलते हैं। इसलिए हम न तो राजनीति में हिस्सा लेते हैं और न ही युद्ध में। (मत्ती 26:52) सच्चे मसीही यह नहीं सोचते कि शैतान की दुनिया का एक हिस्सा दूसरे हिस्से से बेहतर है। (2 कुरिं. 2:11) हम इस दुनिया के रगड़ों-झगड़ों से कोई नाता नहीं रखना चाहते।—यूहन्ना 15:18, 19 पढ़िए।

4 असिद्ध होने की वजह से हममें से कुछ भाई-बहनों का शायद अब भी ऐसा रवैया हो कि वे उन लोगों के बारे में गलत राय कायम कर लेते हैं, जो किसी-न-किसी तरह हमसे अलग हैं। (यिर्म. 17:9; इफि. 4:22-24) इस लेख में, हम उन सिद्धांतों पर चर्चा करेंगे, जो हमें ऐसे रवैए से लड़ने और उन पर काबू पाने में मदद दे सकते हैं, जिनकी वजह से लोगों में फूट पड़ती है। हम यह भी चर्चा करेंगे कि हम कैसे अपने मन और ज़मीर को ऐसी तालीम दे सकते हैं, जिससे हम परमेश्वर के राज के वफादार रहें और यहोवा और यीशु की तरह सोच सकें।

हम दुनिया के मामलों में क्यों किसी का पक्ष नहीं लेते?

5, 6. जब यीशु धरती पर था, तो उसने अलग-अलग समूह के लोगों के बारे में कैसा रवैया दिखाया और क्यों?

5 जब किसी हालात में निष्पक्ष बने रहना आपके लिए मुश्किल होता है, तो खुद से पूछिए, ‘ऐसे हालात में यीशु क्या करता?’ जब यीशु धरती पर था, तो यहूदिया, गलील और सामरिया के लोग कई बातों पर एक-दूसरे से सहमत नहीं होते थे। जैसे, यहूदी और सामरी आपस में बात नहीं करते थे। (यूह. 4:9) कई बातों पर फरीसी और सदूकी एक-दूसरे से सहमत नहीं होते थे। (प्रेषि. 23:6-9) लोग कर-वसूलनेवालों से नफरत करते थे। (मत्ती 9:11) जिन यहूदियों ने कानून का अध्ययन किया था, वे सोचते थे कि वे उन लोगों से बेहतर हैं, जिन्होंने कानून का अध्ययन नहीं किया। (यूह. 7:49) लेकिन यीशु ऐसे मामलों में नहीं पड़ता था। हालाँकि उसने हमेशा परमेश्वर के बारे में सच्चाई के पक्ष में बात की और वह जानता था कि इसराएल परमेश्वर का खास राष्ट्र है, फिर भी उसने अपने चेलों को कभी यह नहीं सिखाया कि वे दूसरों से बेहतर हैं। (यूह. 4:22) इसके बजाय, उसने उन्हें सब लोगों से प्यार करना सिखाया।—लूका 10:27.

6 यीशु क्यों किसी समूह के लोगों को दूसरों से बेहतर नहीं समझता था? क्योंकि वह और उसका पिता इस दुनिया के मामलों में किसी का पक्ष नहीं लेते। जब यहोवा ने इंसानों की सृष्टि की तो वह चाहता था कि इंसान अलग-अलग तरह के लोगों से धरती को आबाद करे। (उत्प. 1:27, 28) इसलिए यहोवा और यीशु किसी भी जाति, राष्ट्र या भाषा के लोगों को दूसरों से बेहतर नहीं समझते। (प्रेषि. 10:34, 35; प्रका. 7:9, 13, 14) हमें उनकी इस उम्दा मिसाल पर चलना चाहिए।—मत्ती 5:43-48.

7, 8. (क) हम किसका पक्ष लेते हैं और क्यों? (ख) इंसानों की समस्याओं के हल के बारे में हमें क्या याद रखना चाहिए?

7 हम किसी इंसानी शासक या सरकार का पक्ष क्यों नहीं लेते? क्योंकि हम यहोवा के पक्ष में हैं। हमारा शासक यहोवा है। अदन बाग में शैतान ने कहा कि यहोवा, इंसानों के लिए अच्छा शासक नहीं है। शैतान इंसानों को यकीन दिलाना चाहता था कि उसका काम करने का तरीका परमेश्वर से बेहतर है। यहोवा ने हमें यह तय करने की आज़ादी दी है कि हम किसका पक्ष लेंगे। लेकिन आपके बारे में क्या? क्या आप पूरे विश्वास के साथ यहोवा का पक्ष लेते हैं? यानी क्या आप उसके नियम-कानून मानते और उसके स्तरों पर चलते हैं, या फिर आप अपने हिसाब से काम करते हैं? और क्या आपको यकीन है कि सिर्फ उसका राज हमारी समस्याएँ हल कर सकता है? या फिर आप यह मानते हैं कि इंसान खुद तय कर सकता है कि क्या सही है और क्या गलत?—उत्प. 3:4, 5.

8 ज़रा सोचिए, आपसे कोई पूछता है कि फलाँ राजनैतिक पार्टी, दल या ऐसे ही किसी संगठन के बारे में आपकी क्या राय है। ऐसे में आप क्या जवाब देंगे? हो सकता है इस तरह के कुछ समूह नेक इरादे से काम करते हों और लोगों की मदद करना चाहते हों। लेकिन हम जानते हैं कि सिर्फ यहोवा का राज ही इंसानों की सारी समस्याएँ हल कर सकता है और हर तरह का अन्याय मिटा सकता है। हम मंडली में भी यहोवा का निर्देशन मानते हैं, न कि यह सोचते हैं कि जिसको जो सही लगे, वह करे। तभी तो मंडली में एकता बनी रहती है।

9. (क) पौलुस ने पहली सदी के मसीहियों के बीच क्या समस्या देखी? (ख) उन्हें क्या करने की ज़रूरत थी?

9 पहली सदी में, कुरिंथ के कुछ मसीही आपस में बहस कर रहे थे। उनमें से कोई कहता, “‘मैं पौलुस का चेला हूँ,’ तो कोई ‘मैं अपुल्लोस का चेला हूँ,’ और कोई ‘मैं कैफा का चेला हूँ,’ ‘मैं मसीह का चेला हूँ।’” इस बारे में जब पौलुस को पता चला तो उसे बहुत दुख हुआ। यह एक गंभीर समस्या थी, क्योंकि मंडली की शांति और एकता खतरे में थी। इसलिए पौलुस ने उन मसीहियों से कहा कि “मसीह तुम्हारे बीच बँट गया है।” तो फिर इस समस्या का समाधान क्या था? पौलुस ने उन्हें बताया, “भाइयो, मैं तुम्हें हमारे प्रभु यीशु मसीह के नाम से उकसाता हूँ कि तुम सब एक ही बात कहो और तुम्हारे बीच फूट न हो, बल्कि तुम्हारे विचारों और सोचने के तरीके में पूरी तरह से एकता हो।” यह बात आज भी लागू होती है। मंडली में किसी भी तरह की फूट नहीं होनी चाहिए।—1 कुरिं. 1:10-13; रोमियों 16:17, 18 पढ़िए।

10. (क) पौलुस ने अभिषिक्‍त मसीहियों को क्या याद दिलाया? (ख) इससे हम क्या सीखते हैं?

10 पौलुस ने अभिषिक्‍त मसीहियों को याद दिलाया कि उनकी नागरिकता स्वर्ग की है और उन्हें “धरती की बातों” पर मन नहीं लगाना चाहिए। (फिलि. 3:17-20) * अभिषिक्‍त मसीही, परमेश्वर और मसीह के राजदूत हैं। एक राजदूत जब दूसरे देश में होता है तो वह उस देश के लड़ाई-झगड़ों में और वहाँ की राजनीति में हिस्सा नहीं लेता। उसी तरह, अभिषिक्‍त मसीही इस दुनिया के लड़ाई-झगड़ों और राजनीति में हिस्सा नहीं लेते। (2 कुरिं. 5:20) जिन लोगों की आशा धरती पर जीने की है, वे भी परमेश्वर के राज के वफादार रहते हैं और दुनिया के लड़ाई-झगड़ों में किसी का पक्ष नहीं लेते।

खुद को इस तरह ढालिए कि आप यहोवा के वफादार रह सकें

11, 12. (क) अगर हम राज के वफादार रहना चाहते हैं, तो हमें कैसा रवैया अपने अंदर नहीं आने देना चाहिए? (ख) एक बहन कुछ लोगों के बारे में कैसा महसूस करती थी और उसे अपना रवैया बदलने में किस बात से मदद मिली?

11 दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों में, लोगों को उनसे कुछ ज़्यादा ही लगाव होता है, जिनका बीता कल, संस्कृति और भाषा उनके जैसी होती है। वे जिस जगह से होते हैं, अकसर उस पर उन्हें बहुत घमंड होता है। लेकिन ऐसा रवैया हमें अपने अंदर नहीं आने देना चाहिए। इसके बजाय, हमें अपनी सोच बदलनी चाहिए और अपने ज़मीर को इस तरह ढालना चाहिए कि हम हर हालात में निष्पक्ष बने रह सकें। यह हम कैसे कर सकते हैं?

12 ज़रा मीना * के उदाहरण पर गौर कीजिए। वह उस देश में पैदा हुई थी जिसे पहले युगोस्लाविया कहते थे। जिस इलाके में वह पली-बढ़ी, वहाँ के लोग सरबिया के लोगों से नफरत करते थे। जब उसने यहोवा के बारे में सच्चाई सीखी, तो उसे पता चला कि वह एक जाति को दूसरी जाति से बेहतर नहीं समझता, लेकिन शैतान चाहता है कि लोग एक-दूसरे से नफरत करें। इसलिए उसने अपनी सोच बदलने की पुरज़ोर कोशिश की। लेकिन जिस इलाके में मीना रहती थी वहाँ अलग-अलग जाति के लोगों के बीच जब युद्ध छिड़ गया, तो वह फिर से सरबिया के लोगों के बारे में गलत सोचने लगी। यहाँ तक कि वह उन्हें गवाही भी नहीं देना चाहती थी। वह जानती थी कि उसका यह रवैया गलत है। इसलिए उसने गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की कि यहोवा ऐसी सोच मन से निकालने में उसकी मदद करे। उसने यहोवा से यह भी बिनती की कि पायनियर सेवा शुरू करने में वह उसकी मदद करे। मीना कहती है, “मैंने देखा है कि प्रचार सेवा पर ध्यान देने से मुझे जो मदद मिली, वैसी मदद मुझे कभी नहीं मिली। मैं प्रचार सेवा में यहोवा के जैसा प्यार दिखाने की कोशिश करती हूँ। और मैंने देखा है कि ऐसा करने से दूसरों के बारे में मेरा रवैया बदल गया।”

13. (क) स्टेला के साथ क्या हुआ और उसने कैसा रवैया दिखाया? (ख) स्टेला के अनुभव से हम क्या सीख सकते हैं?

13 एक और उदाहरण पर गौर कीजिए। स्टेला नाम की एक बहन मैक्सिको से यूरोप गयी। वहाँ वह जिस मंडली में गयी उसमें कुछ भाई-बहन लैटिन अमरीका के दूसरे हिस्से से हैं। स्टेला कहती है कि वे भाई-बहन उस देश का जहाँ की वह थी और वहाँ के रीति-रिवाज़ और संगीत का मज़ाक बनाते थे। यह बात उसे बुरी लगती थी। इसलिए उसने यहोवा से प्रार्थना में मदद माँगी ताकि उस पर ऐसी बातों का असर न हो। अगर हम स्टेला की जगह होते, तो हम क्या करते? हमारे कुछ भाई-बहन अब भी न चाहते हुए उस वक्‍त बुरा मान जाते हैं, जब लोग उस जगह के बारे में बुरा-भला कहते हैं जहाँ के वे रहनेवाले हैं। हमें कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहना या करना चाहिए जिससे लगे कि एक समूह के लोग दूसरों से बेहतर हैं। हम न तो अपने भाई-बहनों के बीच, न ही दूसरे लोगों के बीच कोई दीवार खड़ी करना चाहते हैं।—रोमि. 14:19; 2 कुरिं. 6:3.

14. क्या बात आपको मदद करेगी कि आप लोगों के बारे में वही सोच रखें, जैसी यहोवा रखता है?

14 हम सब जानते हैं कि यहोवा के सेवक पूरी तरह एक हैं। इसलिए हमें कभी-भी यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई एक जगह या देश दूसरे से बेहतर है। लेकिन अपने परिवार और जिनके बीच आप पले-बढ़ें हैं उनके असर की वजह से आपको शायद उस जगह से गहरा लगाव हो जाए, जहाँ के आप रहनेवाले हैं। इसलिए कभी-कभार शायद दूसरे देश, संस्कृति, भाषा या जाति के लोगों के बारे में अब भी आपके मन में गलत सोच आए। ऐसी सोच मन से निकालने में क्या बात आपकी मदद कर सकती है? सोचिए कि यहोवा उन लोगों के बारे में कैसा महसूस करता है जिन्हें अपने देश पर घमंड है या जो खुद को दूसरों से बेहतर समझते हैं। ऐसे ही या इससे जुड़े दूसरे विषयों पर अपने निजी अध्ययन या पारिवारिक उपासना के दौरान और ज़्यादा खोजबीन कीजिए। फिर यहोवा से प्रार्थना कीजिए कि वह लोगों के बारे में वही सोच रखने में आपकी मदद करे, जैसा वह सोचता है।—रोमियों 12:2 पढ़िए।

यहोवा के वफादार बने रहने के लिए ज़रूरी है कि हम उसकी आज्ञा मानें फिर चाहे लोग हमारे साथ कुछ भी करें (पैराग्राफ 15, 16 देखिए)

15, 16. (क) हम दूसरों से अलग नज़र आते हैं, इसलिए कुछ लोग हमारे साथ कैसे पेश आएँगे? (ख) यहोवा के वफादार रहने में माता-पिता अपने बच्चों की मदद कैसे कर सकते हैं?

15 हम यहोवा की सेवा साफ ज़मीर से करना चाहते हैं। इस वजह से कभी-कभार हम शायद साथ काम करनेवालों, साथ पढ़नेवालों, पड़ोसियों या रिश्तेदारों से बिलकुल अलग नज़र आएँ। (1 पत. 2:19) और हमें अलग नज़र आना भी चाहिए। यहाँ तक कि जब लोग हमसे नफरत करते हैं, तो हमें हैरान नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस बारे में यीशु ने हमें पहले से आगाह कर दिया था। साथ ही, याद रखिए कि जो लोग हमारा विरोध करते हैं, उनमें से ज़्यादातर लोग, परमेश्वर के राज के बारे में नहीं जानते। इसलिए वे यह नहीं समझ पाते कि हमारे लिए इंसानी सरकारों के बजाय परमेश्वर के राज के वफादार रहना क्यों बहुत मायने रखता है।

16 यहोवा के वफादार बने रहने के लिए ज़रूरी है कि हम उसकी आज्ञा मानें फिर चाहे लोग हमसे कुछ भी कहें या करें। (दानि. 3:16-18) दूसरों से अलग नज़र आना बच्चों या नौजवानों के लिए और ज़्यादा मुश्किल हो सकता है। इसलिए माता-पिताओ, अपने बच्चों को स्कूल में हिम्मत से काम लेने में मदद दीजिए। आपका बच्चा शायद झंडे को सलामी देने या दूसरे राष्ट्रीय समारोह में हिस्सा लेने से इनकार करने से डरे। तो क्यों न पारिवारिक उपासना के दौरान यह अध्ययन करें कि इस बारे में यहोवा कैसा महसूस करता है? अपने बच्चों को सिखाइए कि वे जो विश्वास करते हैं उस बारे में वे साफ-साफ और आदर के साथ दूसरों को कैसे बता सकते हैं। (रोमि. 1:16) अगर ज़रूरी हो तो खुद जाकर अपने बच्चे के शिक्षकों से बात कीजिए और उन्हें समझाइए कि हम क्या विश्वास करते हैं।

यहोवा की सृष्टि की सभी चीज़ों की कदर कीजिए!

17. हमें किस तरह की सोच नहीं रखनी चाहिए और क्यों?

17 हम जिस जगह पले-बढ़े होते हैं, आम तौर पर हमें वहाँ का खाना, वहाँ की भाषा, वहाँ के नज़ारे और वहाँ के रीति-रिवाज़ पसंद होते हैं। लेकिन क्या हम सोचते हैं कि हमारी पसंद दूसरों की पसंद से हमेशा बेहतर होती है? यहोवा चाहता है कि हम उसकी सृष्टि में मौजूद तरह-तरह की चीज़ों का मज़ा लें। (भज. 104:24; प्रका. 4:11) तो हम इस बात पर क्यों अड़े रहें कि किसी काम को करने का एक तरीका दूसरे से बेहतर है?

18. अगर हम दूसरों को उसी नज़र से देखें जिस नज़र से यहोवा देखता है, तो इससे क्या फायदा होगा?

18 यहोवा चाहता है कि सब किस्म के लोग उसे जानें, उसकी उपासना करें और हमेशा की ज़िंदगी पाएँ। (यूह. 3:16; 1 तीमु. 2:3, 4) हमें दूसरों की राय सुनने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। और जब भी मुनासिब हो, हमें उनकी राय मान लेनी चाहिए, फिर चाहे उनकी राय हमारी राय से अलग क्यों न हो। अगर हम ऐसा करते हैं, तो हमारी ज़िंदगी बड़ी दिलचस्प और खुशनुमा होगी और हम भाई-बहनों के साथ एकता के बंधन में बँधे रहेंगे। हम यहोवा और उसके राज के वफादार रहना चाहते हैं इसलिए हम दुनिया के लड़ाई-झगड़ों में किसी का पक्ष नहीं लेते। आज जहाँ शैतान की दुनिया में लोग एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं और घमंड करते हैं, वहीं हम ऐसी भावनाओं से नफरत करते हैं। हम यहोवा के कितने शुक्रगुज़ार हैं कि उसने हमें शांति से रहना और नम्र होना सिखाया है! हम ठीक वैसा ही महसूस करते हैं, जैसा भजनहार ने महसूस किया, “देखो, यह क्या ही भली और मनोहर बात है कि भाई लोग आपस में मिले रहें!”—भज. 133:1.

^ पैरा. 10 शायद फिलिप्पी की मंडली में कुछ मसीहियों के पास रोमी नागरिकता थी। इस वजह से उनके पास उन भाइयों से ज़्यादा अधिकार थे, जिनके पास रोमी नागरिकता नहीं थी।

^ पैरा. 12 कुछ नाम बदल दिए गए हैं।