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“खुशी-खुशी यहोवा की सेवा” करने में “परदेसियों” की मदद कीजिए

“खुशी-खुशी यहोवा की सेवा” करने में “परदेसियों” की मदद कीजिए

“यहोवा परदेसियों की रक्षा करता है।”—भज. 146:9.

गीत: 25, 50

1, 2. (क) कुछ भाई-बहनों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा है? (ख) इससे क्या सवाल खड़े होते हैं?

लीजे नाम का एक भाई कहता है, “जब बुरूंडी में गृह-युद्ध शुरू हुआ तो उस वक्‍त हम एक सम्मेलन में थे। बाहर लोगों में अफरा-तफरी मची थी और गोलियाँ चल रही थीं। मम्मी-पापा और हम 11 भाई-बहन जान बचाकर भागे। हमारे पास जो थोड़ी-बहुत चीज़ें थीं वही लेकर हम निकल पड़े। हमारे कुछ सदस्य 1,600 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद मलावी के एक शरणार्थी शिविर पहुँचे। बाकी लोग तितर-बितर हो गए।”

2 दुनिया-भर में 6 करोड़ 50 लाख से भी ज़्यादा लोगों को युद्धों या ज़ुल्मों की वजह से अपना घरबार छोड़कर शरणार्थियों की ज़िंदगी बितानी पड़ी है। शरणार्थियों की इतनी बड़ी गिनती पहले कभी नहीं देखी गयी! * इनमें से हज़ारों यहोवा के साक्षी हैं। कई लोगों ने अपने अज़ीज़ों की मौत का गम सहा है और उनकी सारी संपत्ति लुट गयी है। उन्हें और किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा है? जब वे इस तरह की आज़माइशों से गुज़रते हैं तो हम कैसे यहोवा की सेवा करने और अपनी खुशी बनाए रखने में उनकी मदद कर सकते हैं? (भज. 100:2) साथ ही, जिन शरणार्थियों को यहोवा के बारे में कुछ नहीं पता हम उन्हें किस तरह प्रचार कर सकते हैं?

एक शरणार्थी की ज़िंदगी

3. यीशु और उसके चेलों को किन हालात में एक शरणार्थी की ज़िंदगी बितानी पड़ी?

3 जब राजा हेरोदेस यीशु को मार डालना चाहता था तो यहोवा के स्वर्गदूत ने यूसुफ को मिस्र भागने के लिए कहा। यीशु और उसके माता-पिता ने वहाँ एक शरणार्थी की ज़िंदगी जी और जब तक हेरोदेस की मौत नहीं हुई वे वहीं रहे। (मत्ती 2:13, 14, 19-21) यीशु के शुरूआती चेलों पर भी जब ज़ुल्म हुए तो वे “यहूदिया और सामरिया के इलाकों में तितर-बितर हो गए” और वहाँ उन्होंने शरण ली। (प्रेषि. 8:1) यीशु जानता था कि आगे चलकर उसके कई चेलों को अपना घरबार छोड़ना पड़ेगा। इसलिए उसने कहा, “जब वे एक शहर में तुम्हें सताएँ, तो दूसरे शहर में भाग जाना।” (मत्ती 10:23) यह सच है कि अपना घरबार छोड़ना कभी आसान नहीं होता।

4, 5. जान बचाकर भागते वक्‍त और शरणार्थी शिविर में भाइयों को किन खतरों का सामना करना पड़ता है?

4 अपनी जान बचाकर भागते वक्‍त और शरणार्थी शिविर में रहते वक्‍त लोगों को कई खतरों का सामना करना पड़ता है। लीजे का छोटा भाई गैड कहता है, “हम कई हफ्तों तक पैदल चलते रहे और रास्ते में हमने सैकड़ों लाशें देखीं। उस वक्‍त मैं 12 साल का था। चलते-चलते मेरे पाँव इतने सूज गए थे कि मुझसे और चला नहीं जा रहा था। मैंने अपने घरवालों से कहा कि वे मुझे छोड़कर आगे चले जाएँ। लेकिन पापा नहीं मानें, वे मुझे उठाकर चलने लगे। वे नहीं चाहते थे कि मैं विद्रोही दल के हाथ पड़ जाऊँ। हम यहोवा से प्रार्थना करते रहे और उस पर भरोसा रखा। कभी-कभी हम सिर्फ पेड़ों पर लगे आम तोड़कर खाते थे। इस तरह हम ज़िंदा बचे।”—फिलि. 4:12, 13.

5 लीजे के परिवार के ज़्यादातर लोग कई साल तक संयुक्‍त राष्ट्र के शरणार्थी शिविरों में रहे। लेकिन वहाँ भी ज़िंदगी आसान नहीं थी। लीजे जो अब एक सर्किट निगरान है बताता है कि वहाँ क्या खतरे थे। वह कहता है, “कई लोग बेरोज़गार थे। इसलिए एक-दूसरे की बुराई करना, शराब पीना, जूआ खेलना, चोरी करना और बदचलनी बहुत आम थी।” इससे बचने के लिए साक्षियों को मंडली के कामों में व्यस्त रहना था। (इब्रा. 6:11, 12; 10:24, 25) उन्होंने अपने समय का अच्छा इस्तेमाल किया और सच्चाई में मज़बूत बने रहे। कइयों ने पायनियर सेवा भी शुरू की। वे खुद को याद दिलाते रहे कि जैसे इसराएलियों को हमेशा वीराने में नहीं रहना पड़ा, उन्हें भी शरणार्थी शिविर में हमेशा नहीं रहना पड़ेगा। इस तरह वे सही नज़रिया रख पाए।—2 कुरिं. 4:18.

उनके लिए प्यार ज़ाहिर कीजिए

6, 7. (क) “परमेश्वर से प्यार” हमें क्या करने को उभारता है? (ख) एक उदाहरण दीजिए।

6 हम “परमेश्वर से प्यार” करते हैं। यही प्यार हमें भाइयों से प्यार करने के लिए उभारता है खासकर जब वे मुसीबत में होते हैं। (1 यूहन्ना 3:17, 18 पढ़िए।) पहली सदी में जब यहूदिया में अकाल पड़ा और भाइयों को खाने के लाले पड़े तब मंडली ने तुरंत मदद का इंतज़ाम किया। (प्रेषि. 11:28, 29) प्रेषित पौलुस और प्रेषित पतरस ने भी कई मौकों पर भाइयों को बढ़ावा दिया कि वे मेहमान-नवाज़ी करें। (रोमि. 12:13; 1 पत. 4:9) हम आम तौर पर सभी भाइयों का स्वागत करते हैं। तो क्या हमें उन भाइयों के लिए और भी प्यार और कृपा नहीं दिखानी चाहिए जो अपने विश्वास की वजह से या किसी मुसीबत की वजह से अपना देश छोड़कर आते हैं?—नीतिवचन 3:27 पढ़िए। *

7 हाल ही में पूर्वी युक्रेन में युद्ध और ज़ुल्म की वजह से हज़ारों साक्षियों को मजबूरन अपना घर छोड़ना पड़ा है। दुख की बात है कि इनमें से कुछ भाई-बहन मारे गए। लेकिन ज़्यादातर भाइयों को युक्रेन के दूसरे हिस्सों में और रूस में रहनेवाले साक्षियों ने अपने घरों में पनाह दी। इस दौरान रूस और युक्रेन के भाई निष्पक्ष रहे और पूरे जोश के साथ “वचन की खुशखबरी सुनाते” रहे।—प्रेषि. 8:4; यूह. 15:19.

उनका विश्वास मज़बूत कीजिए

8, 9. (क) नए देश में शरणार्थी किन मुश्किलों का सामना करते हैं? (ख) यह क्यों ज़रूरी है कि हम उनकी मदद करें?

8 कुछ शरणार्थी अपने ही देश के दूसरे हिस्से में भाग जाते हैं। लेकिन कइयों को अनजान देश में जाकर रहना पड़ता है। यह सच है कि सरकार उन्हें खाने की चीज़ें, कपड़ा और रहने की जगह देती है, लेकिन वहाँ उन्हें दूसरी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जैसे, वहाँ का खानपान अलग हो सकता है। शायद वे गरम देश से आए हों मगर अब उन्हें बर्फीले मौसम में रहना मुश्किल लगे। कुछ शरणार्थी पिछड़े इलाके से हों और उन्हें आधुनिक उपकरण इस्तेमाल करना न आए।

9 कुछ सरकारों ने शरणार्थियों के लिए कार्यक्रम चलाए हैं ताकि वे नए देश में रहना सीखें। लेकिन कुछ महीने बाद उन्हें अपनी देखभाल खुद करनी पड़ती है। यह उनके लिए आसान नहीं होता। सोचिए उन्हें क्या-क्या सीखना पड़ता है: नयी भाषा, वहाँ का रहन-सहन, वहाँ के कानून जैसे बिल कैसे भरें, टैक्स कैसे चुकाएँ, स्कूल में हाज़िरी कितनी होनी चाहिए और बच्चों के साथ कितनी सख्ती बरतनी चाहिए। ऐसे हालात में क्या आप उन भाई-बहनों की मदद कर सकते हैं? क्या आप उनके साथ सब्र रखेंगे और आदर से पेश आएँगे?—फिलि. 2:3, 4.

10. हम शरणार्थी भाई-बहनों का विश्वास कैसे मज़बूत कर सकते हैं? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)

10 कभी-कभी अधिकारी इन भाई-बहनों के लिए मंडली के साथ संपर्क करना मुश्किल कर देते हैं। कुछ सरकारी संगठन हमारे भाइयों के लिए ऐसी नौकरी ढूँढ़ते हैं जिससे वे सभाओं में नहीं जा पाएँगे। अधिकारी कहते हैं कि अगर वे नौकरी लेने से इनकार करेंगे तो उन्हें देश में रहने नहीं दिया जाएगा, न ही उनकी मदद की जाएगी। ऐसे में कुछ भाई-बहन डर गए और बेबस होकर उन्होंने नौकरी स्वीकार की है। इसलिए यह कितना ज़रूरी है कि जैसे ही शरणार्थी भाई-बहन आपके देश में आएँ, आप फौरन उनसे मिलने की कोशिश करें। ऐसा करने से वे देख पाएँगे कि हमें उनकी परवाह है और हम उनकी मदद करना चाहते हैं। यह परवाह देखकर उनका विश्वास मज़बूत होगा।—नीति. 12:25; 17:17.

अलग-अलग तरीकों से मदद कीजिए

11. (क) शरणार्थी भाइयों को शुरू में किन चीज़ों की ज़रूरत पड़े? (ख) वे किस तरह अपनी कदर दिखा सकते हैं?

11 शुरू-शुरू में हमें शायद शरणार्थी भाइयों को खाना, कपड़े और दूसरी ज़रूरी चीज़ें देनी पड़े। * छोटे-छोटे तोहफे भी मायने रखते हैं जैसे एक भाई को टाय देना। दूसरी तरफ, शरणार्थी भाई-बहन कभी चीज़ों की माँग नहीं करेंगे बल्कि उन्हें जो भी दिया जाता है वे उसकी कदर करेंगे। यह देखकर देनेवाले भाइयों को खुशी होगी। शरणार्थी भाइयों के लिए ज़रूरी है कि आगे चलकर वे अपनी ज़रूरतें खुद पूरी करना सीखें। इससे वे अपना आत्म-सम्मान बनाए रख पाएँगे और भाइयों के साथ उनका अच्छा रिश्ता होगा। (2 थिस्स. 3:7-10) फिर भी शरणार्थी भाई-बहनों को अलग-अलग तरीकों से मदद देनी पड़ सकती है।

हम अपने शरणार्थी भाई-बहनों की मदद कैसे कर सकते हैं? (पैराग्राफ 11-13 देखिए)

12, 13. (क) हम किन तरीकों से शरणार्थी भाइयों की मदद कर सकते हैं? (ख) इसका एक उदाहरण दीजिए।

12 शरणार्थी भाइयों की मदद करने के लिए ज़रूरी नहीं कि हमारे पास ढेर सारा पैसा हो। उन्हें पैसों से ज़्यादा हमारा समय और प्यार चाहिए। जैसे, हम उन्हें ट्रेन, बस से सफर करना सिखा सकते हैं। हम उन्हें खाने की ऐसी चीज़ें खरीदना सिखा सकते हैं जो सस्ती होने के साथ-साथ पौष्टिक भी हों। हम सिलाई मशीन खरीदने या कोई हुनर सीखने में उनकी मदद कर सकते हैं ताकि वे अपना गुज़ारा चला सकें। इससे भी बढ़कर हम उनकी मदद कर सकते हैं ताकि वे नयी मंडली में सबके साथ घुल-मिल जाएँ। हम उन्हें सभाओं में ले जा सकते हैं, उन्हें समझा सकते हैं कि नए इलाके में कैसे गवाही दें और उनके साथ प्रचार में भी जा सकते हैं।

13 एक मंडली में जब चार शरणार्थी आए, तो प्राचीनों ने उनकी बहुत मदद की। उन्होंने इन नौजवानों को गाड़ी चलाना, कंप्यूटर पर खत लिखना और नौकरी के लिए अर्ज़ी भरना सिखाया। प्राचीनों ने उन्हें शेड्यूल बनाना भी सिखाया ताकि वे यहोवा की सेवा को पहली जगह दे सकें। (गला. 6:10) आगे चलकर वे चारों पायनियर बने। प्राचीनों ने जो मदद दी और अपने लक्ष्यों को पाने में उन्होंने जो मेहनत की उसके अच्छे नतीजे मिले। वे मंडली में अच्छी तरक्की कर पाएँ और शैतान की दुनिया का हिस्सा बनने से दूर रह पाएँ।

14. (क) शरणार्थी भाइयों को किस दबाव का सामना करना होता है? (ख) वे कैसे यह कर सकते हैं, एक उदाहरण दीजिए।

14 सभी मसीहियों की तरह, शरणार्थी भाइयों पर भी यह दबाव आता है कि वे यहोवा को छोड़कर ऐशो-आराम के पीछे भागें। उन्हें इस दबाव का डटकर सामना करना चाहिए। * लीजे, जिसका ज़िक्र पहले आया था और उसके भाई-बहन याद करते हैं कि जब वे भाग रहे थे तब उनके पिता ने उन्हें यहोवा पर विश्वास रखने की सीख दी। वे कहते हैं, “पापा ने एक-एक करके सब सामान फेंक दिया। फिर उन्होंने खाली बैग दिखाया और मुस्कुराकर कहा ‘देखा! जो सामान हमने फेंका उनकी हमें ज़रूरत नहीं थी!’”—1 तीमुथियुस 6:8 पढ़िए।

सबसे बड़ी ज़रूरत पूरी कीजिए

15, 16. (क) हम भाइयों का विश्वास कैसे मज़बूत कर सकते हैं? (ख) दर्द से उबरने में हम कैसे उनकी मदद कर सकते हैं?

15 शरणार्थियों को खाने-पहनने की चीज़ों से बढ़कर बाइबल से हिम्मत पाने और अपने दर्द से उबरने की ज़रूरत होती है। (मत्ती 4:4) यह ज़रूरत कैसे पूरी की जा सकती है? प्राचीन उन्हें उनकी भाषा में प्रकाशन दे सकते हैं और ऐसे भाइयों से मिलवा सकते हैं जो उनकी भाषा बोलते हैं। याद रखिए, ये भाई अपना सबकुछ छोड़कर आए हैं। उन्हें अपने घरबार और मंडली की कमी खलती है। उन्हें भाई-बहनों के बीच यह महसूस होना चाहिए कि यहोवा उनसे प्यार करता है, उनका दर्द समझता है। अगर वे ऐसा महसूस न करें तो वे शायद उन लोगों की संगति करें जो उनके देश से हों मगर यहोवा के सेवक नहीं हैं। (1 कुरिं. 15:33) जब हम उन्हें महसूस कराते हैं कि वे मंडली का ज़रूरी हिस्सा हैं तो हम यहोवा के साथ मिलकर “परदेसियों” की रक्षा करते हैं।—भज. 146:9.

16 यीशु और उसके माता-पिता तब तक अपने घर नहीं लौटे जब तक उनके सतानेवाले राज कर रहे थे। शायद इन्हीं कुछ वजहों से आज शरणार्थी अपने घर वापस न जा पाएँ। दूसरे ऐसे हैं जो कभी घर लौटना नहीं चाहते। लीजे कहता है कि कई माँ-बाप ने अपने घरवालों का बलात्कार और खून होते देखा था इसलिए वे अपने बच्चों को वापस अपने देश नहीं ले जाना चाहते। इन लोगों की मदद करने के लिए ज़रूरी है कि हम उनका ‘दर्द महसूस करें, भाइयों जैसा लगाव रखें, कोमल करुणा दिखाएँ और नम्र स्वभाव रखें।’ (1 पत. 3:8) कुछ भाई-बहन ज़ुल्म सहने की वजह से शायद चुप-चुप रहें और खासकर अपने बच्चों के सामने यह बताने में शर्म महसूस करें कि उन पर क्या बीती है। हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘अगर मैं उनकी जगह होता तो मैं क्या चाहता, लोग मेरे साथ किस तरह पेश आएँ?’—मत्ती 7:12.

जब हम शरणार्थियों को प्रचार करते हैं

17. प्रचार काम से शरणार्थियों को कैसे राहत मिलती है?

17 कई शरणार्थी ऐसे देशों से होते हैं जहाँ प्रचार काम पर रोक लगी है। लेकिन जोशीले भाई-बहनों की बदौलत हज़ारों शरणार्थी पहली बार “राज का वचन” सुन रहे हैं। (मत्ती 13:19, 23) “बोझ से दबे” ये लोग सभाओं में आकर दिलासा और राहत पाते हैं। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगती कि ‘परमेश्वर सचमुच हमारे बीच है।’—मत्ती 11:28-30; 1 कुरिं. 14:25.

18, 19. शरणार्थियों को प्रचार करते वक्‍त हम कैसे समझदारी दिखा सकते हैं?

18 शरणार्थियों को प्रचार करते वक्‍त हमें “सतर्क” रहना चाहिए और समझ से काम लेना चाहिए। (मत्ती 10:16; नीति. 22:3) जब वे बात करते हैं तो हमें उनकी सुननी चाहिए, लेकिन हमें राजनैतिक मामलों पर कोई चर्चा नहीं करनी चाहिए। यह भी ज़रूरी है कि हम अधिकारियों और शाखा दफ्तर से मिले निर्देश मानें ताकि हम खुद को या दूसरों को खतरे में न डालें। शरणार्थी अलग-अलग धर्म और संस्कृति से होते हैं इसलिए हमें उनकी भावनाओं को समझना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए। मिसाल के लिए, कुछ देशों के लोग कट्टर राय रखते हैं कि औरतों को किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए। इसलिए उन लोगों को गवाही देते वक्‍त हमारा पहनावा ऐसा होना चाहिए कि उन्हें ठेस न पहुँचें।

19 यीशु की मिसाल में बताए दयालु सामरी की तरह हम उन सबकी मदद करना चाहते हैं जो तकलीफ में हैं फिर चाहे वे यहोवा की सेवा करते हों या नहीं। (लूका 10:33-37) लोगों की मदद करने का सबसे बेहतरीन तरीका है उन्हें खुशखबरी सुनाना। एक प्राचीन जिसने कई शरणार्थियों की मदद की कहता है, “यह बहुत ज़रूरी है कि हम पहली मुलाकात में ही उन्हें साफ-साफ बताएँ कि हम यहोवा के साक्षी हैं। हमें यह भी बताना चाहिए कि हमारा मुख्य काम है, लोगों को बाइबल से बढ़िया आशा देना, न कि पैसों से मदद देना।”

अच्छे नतीजे

20, 21. (क) शरणार्थियों के लिए सच्चा प्यार ज़ाहिर करने से क्या अच्छे नतीजे मिलते हैं? (ख) अगले लेख में हम क्या सीखेंगे?

20 जब हम “परदेसियों” के लिए सच्चा प्यार ज़ाहिर करते हैं तो इसके अच्छे नतीजे मिलते हैं। एक मसीही बहन बताती है कि उसका परिवार एरिट्रीया से इसलिए भागा ताकि वहाँ हो रहे ज़ुल्म से बच सके। उसके परिवार के चार बच्चों को एक रेगिस्तान पार करना पड़ा जिसमें आठ दिन लग गए। सूडान पहुँचने तक वे बहुत थक गए। बहन कहती है, “वहाँ के भाइयों ने मेरे बच्चों की ऐसी देखभाल की मानो वे उनके सगे हों। उन्होंने उन्हें कपड़ा, खाना, रहने की जगह और गाड़ी का किराया दिया। ऐसे कौन लोग हैं जो अजनबियों को इसलिए पनाह देते हैं क्योंकि वे एक ही परमेश्वर की उपासना करते हैं? यहोवा के साक्षियों के सिवा कोई ऐसा नहीं करता।”—यूहन्ना 13:35 पढ़िए।

21 उन बच्चों के बारे में क्या जो अपने माँ-बाप के साथ शरणार्थी की ज़िंदगी जी रहे हैं? अगले लेख में हम सीखेंगे कि हम कैसे इन परिवारों की मदद कर सकते हैं ताकि वे खुशी से यहोवा की सेवा करें।

^ पैरा. 2 इस लेख में शब्द “शरणार्थी” उन लोगों के लिए इस्तेमाल हुआ है जिन्हें युद्ध, ज़ुल्म या कुदरती आफतों की वजह से अपना घर छोड़ना पड़ा है। वे शायद किसी नए देश में या अपने ही देश के दूसरे हिस्से में जाकर रहें। शरणार्थियों की मदद करनेवाला संयुक्‍त राष्ट्र का एक संगठन बताता है कि दुनिया-भर में 113 लोगों में 1 व्यक्‍ति को मजबूरन अपना घर छोड़ना पड़ा है।

^ पैरा. 6 अक्टूबर 2016 की प्रहरीदुर्ग के पेज 8-12 में दिया लेख “अजनबियों पर कृपा करना मत भूलना” देखिए।

^ पैरा. 11 जैसे ही कोई शरणार्थी भाई आता है, प्राचीनों को संगठित किताब के अध्याय 8 के पैराग्राफ 30 में दिए निर्देश मानने चाहिए। उस भाई की मंडली से संपर्क करने के लिए प्राचीनों को चाहिए कि वे jw.org पर जाकर अपने शाखा दफ्तर को लिखें। इस बीच वे उस भाई से उसकी मंडली और सेवा के बारे में पूछ सकते हैं, ताकि वे जान पाएँ कि वह अपनी मंडली में कितना मज़बूत था।

^ पैरा. 14 15 अप्रैल, 2014 की प्रहरीदुर्ग के पेज 17-26 में ये लेख देखिए: “कोई भी दो मालिकों की सेवा नहीं कर सकता” और “हिम्मत रखिए—यहोवा आपका मददगार है!