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परमेश्‍वर की सोच जानने की कोशिश करते रहिए

परमेश्‍वर की सोच जानने की कोशिश करते रहिए

“पवित्र शक्‍ति के मार्गदर्शन में चलते रहो।”​—गला. 5:16.

गीत: 136, 10

1, 2. एक भाई को अपने बारे में क्या एहसास हुआ और उसने क्या कदम उठाया?

रौबर्ट जब नौजवान था तब उसका बपतिस्मा हुआ था लेकिन सच्चाई उसकी ज़िंदगी में ज़्यादा अहमियत नहीं रखती थी। वह कहता है, “ऐसा नहीं था कि मैंने कभी कोई गलत काम किया था, मगर सच्चाई मेरे लिए सिर्फ एक ढर्रा बन गयी थी। देखने पर तो लगता था कि मैं सच्चाई में मज़बूत हूँ क्योंकि मैं सभाओं में जाता था और साल में कई बार सहयोगी पायनियर सेवा करता था। लेकिन मेरी ज़िंदगी में किसी चीज़ की कमी थी।”

2 रौबर्ट की जब शादी हुई तो उसे एहसास हुआ कि वह कमी क्या थी। वह और उसकी पत्नी अकसर फुरसत में बाइबल के बारे में एक-दूसरे से सवाल करते थे। उसकी पत्नी सवालों के जवाब आसानी से दे पाती थी क्योंकि उसे बाइबल की अच्छी समझ थी। लेकिन अकसर ऐसा होता था कि रौबर्ट को जवाब पता नहीं होते थे और इस वजह से वह शर्मिंदा महसूस करता था। वह कहता है, “मुझे ऐसा लगता था कि मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं सोचने लगा कि अगर मैं अपने परिवार का अच्छा मुखिया बनना चाहता हूँ, तो मुझे कुछ करना होगा।” उसने फौरन कदम उठाया। वह कहता है, “मैंने बाइबल का अध्ययन करना शुरू किया और धीरे-धीरे मैं इसका और भी गहराई से अध्ययन करने लगा। देखते-ही-देखते बाइबल के बारे में मेरी समझ बढ़ने लगी। लेकिन सबसे बढ़कर यहोवा के साथ मेरा रिश्‍ता और मज़बूत हुआ।”

3. (क) रौबर्ट के अनुभव से हम क्या सीखते हैं? (ख) हम इस लेख में क्या चर्चा करेंगे?

3 रौबर्ट के अनुभव से हम कुछ अहम बातें सीखते हैं। हमें शायद बाइबल का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो और हम लगातार सभाओं और प्रचार में भी जाते हों लेकिन सिर्फ इनसे हम परमेश्‍वर की सोच रखनेवाले इंसान नहीं बन जाते। या हो सकता है कि हम परमेश्‍वर के जैसी सोच रखते हों लेकिन खुद की जाँच करने पर हमें एहसास हो कि हमें अब भी कुछ मामलों में सुधार करना है। (फिलि. 3:16) इस लेख में हम इन तीन अहम सवालों पर गौर करेंगे: (1) हम कैसे जान सकते हैं कि हममें परमेश्‍वर की सोच है या नहीं? (2) हम कैसे यहोवा के साथ अपना रिश्‍ता और मज़बूत कर सकते हैं? और (3) परमेश्‍वर की सोच रखने से कैसे हमें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में फायदा हो सकता है?

खुद की जाँच कीजिए

4. इफिसियों 4:23, 24 में दी सलाह किन लोगों पर लागू होती है?

4 परमेश्‍वर की सेवा करने के लिए हमने कई बदलाव किए जिनका असर हमारी ज़िंदगी के हर पहलू में देखा गया। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि बपतिस्मे के बाद हमें फेरबदल करने की ज़रूरत नहीं। बाइबल हमें सलाह देती है, “तुम्हें अपनी सोच और अपने नज़रिए को नया बनाते जाना है जो तुम पर हावी है।” (इफि. 4:23, 24) हम अपरिपूर्ण हैं, इसलिए हमें लगातार अपने अंदर फेरबदल करना है। भले ही हमें यहोवा की सेवा करते हुए कई साल हो गए हों, फिर भी हमें उसके साथ अपना रिश्‍ता मज़बूत करते जाना है।​—फिलि. 3:12, 13.

5. अपनी जाँच करने के लिए हमें खुद से क्या सवाल करने चाहिए?

5 चाहे हम जवान हों या बूढ़े हमें ईमानदारी से अपनी जाँच करनी चाहिए। हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘क्या मेरी सोच परमेश्‍वर की सोच से और भी मेल खाती है? क्या मैं अपने स्वभाव में मसीह जैसा बन रहा हूँ? मेरे रवैए और सभाओं में मेरे व्यवहार से क्या ज़ाहिर होता है? मेरी बातचीत से मेरी इच्छाओं के बारे में क्या पता चलता है? अध्ययन करने की मेरी आदत, मेरे पहनावे और सलाह मिलने पर मैं जो रवैया दिखाता हूँ, उनसे मेरे बारे में क्या पता चलता है? गलत काम के लिए लुभाए जाने पर मैं क्या करता हूँ? क्या मैं एक प्रौढ़ मसीही बनने में कामयाब हुआ हूँ?’ (इफि. 4:13) इस तरह के सवाल करने से हमें पता चलेगा कि हमने परमेश्‍वर की सोच रखने में कितनी तरक्की की है।

6. हममें परमेश्‍वर की सोच है या नहीं, यह जानने के लिए हमारे पास क्या मदद हाज़िर है?

6 हममें परमेश्‍वर की सोच है या नहीं, यह जानने के लिए कभी-कभी हमें दूसरों की मदद लेनी पड़ सकती है। प्रेषित पौलुस ने समझाया कि इंसानी सोच रखनेवाला यह समझने से चूक जाता है कि परमेश्‍वर उसके जीने के तरीके से खुश नहीं। वहीं दूसरी तरफ, परमेश्‍वर की सोच रखनेवाला इंसान अच्छी तरह समझता है कि परमेश्‍वर का नज़रिया क्या है। वह यह भी जानता है कि यहोवा ऐसे लोगों को मंज़ूर नहीं करता जो दुनियावी सोच रखते हैं। (1 कुरिं. 2:14-16; 3:1-3) जब एक भाई इंसानी सोच रखने लगता है, तो मसीह जैसी सोच रखनेवाले प्राचीन इसे तुरंत भाँप लेते हैं और उसकी मदद करने की कोशिश करते हैं। अगर हमारे साथ ऐसा होता है, तो क्या हम प्राचीनों की सलाह मानेंगे और ज़रूरी बदलाव करेंगे? ऐसा करने से हम दिखाएँगे कि हमारी सोच परमेश्‍वर की सोच से और भी मेल खा रही है।​—सभो. 7:5, 9.

परमेश्‍वर के साथ अपना रिश्‍ता मज़बूत कीजिए

7. परमेश्‍वर की सोच रखने के लिए बाइबल का ज्ञान होना काफी क्यों नहीं?

7 परमेश्‍वर की सोच रखने के लिए बाइबल का ज्ञान होना काफी नहीं। राजा सुलैमान का उदाहरण लीजिए। उसे यहोवा के बारे में बहुत ज्ञान था और उसने कई बुद्धि-भरी बातें कहीं। इनमें से कुछ बातें बाइबल का हिस्सा बनीं। लेकिन आगे चलकर यहोवा के साथ सुलैमान का रिश्‍ता कमज़ोर पड़ गया और वह वफादार नहीं रहा। (1 राजा 4:29, 30; 11:4-6) तो फिर, बाइबल का ज्ञान लेने के साथ-साथ और क्या करना ज़रूरी है? हमें अपने विश्‍वास को मज़बूत करते रहना है। (कुलु. 2:6, 7) यह हम कैसे कर सकते हैं?

8, 9. (क) क्या करने से आपका विश्‍वास मज़बूत होगा? (ख) अध्ययन और मनन करने का हमारा क्या लक्ष्य होना चाहिए? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)

8 पहली सदी में, पौलुस ने मसीहियों को बढ़ावा दिया कि वे “पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य की तरफ बढ़ते जाएँ।” (इब्रा. 6:1) आज हम इस सलाह को कैसे मान सकते हैं? एक अहम तरीका है, खुद को परमेश्‍वर के प्यार के लायक बनाए रखो किताब का अध्ययन करना। इससे आप समझ पाएँगे कि आप बाइबल सिद्धांतों को अपनी ज़िंदगी में किस तरह लागू कर सकते हैं। अगर आपने इस किताब का अध्ययन कर लिया है, तो आप दूसरे प्रकाशनों का अध्ययन कर सकते हैं ताकि आपका विश्‍वास मज़बूत हो। (कुलु. 1:23) इसके अलावा, हम सीखी बातों पर मनन कर सकते हैं और उन्हें लागू करने के लिए यहोवा से बुद्धि और समझ माँग सकते हैं।

9 जब हम अध्ययन और मनन करते हैं, तो हमारा क्या लक्ष्य होना चाहिए? यही कि यहोवा को खुश करने और उसकी आज्ञा मानने की हमारे अंदर गहरी इच्छा पैदा हो। (भज. 40:8; 119:97) अध्ययन और मनन करने से हम यह भी सीखते हैं कि हम कैसे उन बातों को ठुकरा सकते हैं, जो यहोवा की सोच रखने में हमारे लिए एक रुकावट बन सकती हैं।​—तीतु. 2:11, 12.

10. परमेश्‍वर के साथ मज़बूत रिश्‍ता बनाने के लिए नौजवान क्या कर सकते हैं?

10 अगर आप एक नौजवान हैं, तो क्या आपने परमेश्‍वर की सेवा में लक्ष्य रखे हैं? बेथेल में सेवा करनेवाला एक भाई हर सर्किट सम्मेलन में उन नौजवानों से बात करता है, जो बपतिस्मा लेनेवाले होते हैं। वह उनसे पूछता है कि उन्होंने यहोवा की सेवा में कौन-से लक्ष्य रखे हैं। कुछ नौजवान कहते हैं कि वे पूरे समय की सेवा करना चाहते हैं या वहाँ सेवा करना चाहते हैं, जहाँ प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत है। उनके जवाबों से साफ पता चलता है कि उन्होंने अच्छे-से सोचा है कि वे यहोवा की सेवा में क्या करेंगे। वहीं दूसरी तरफ कुछ नौजवान, भाई के सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाते। वह क्यों? शायद उन्होंने इस बारे में सोचा ही नहीं। इसलिए अगर आप एक नौजवान हैं, तो खुद से पूछिए, ‘क्या मैं सभाओं और प्रचार में सिर्फ मम्मी-पापा के कहने पर जाता हूँ? क्या मेरा यहोवा के साथ एक निजी रिश्‍ता है?’ यह सच है कि जवान-बूढ़े सबको परमेश्‍वर की सेवा में लक्ष्य रखने चाहिए। ऐसा करने से परमेश्‍वर के साथ हमारा रिश्‍ता और मज़बूत होगा।​—सभो. 12:1, 13.

11. (क) हमें अपने अंदर सुधार करने के लिए क्या करना चाहिए? (ख) इस सिलसिले में हमें बाइबल के किस किरदार की मिसाल पर चलना चाहिए?

11 जब हमें पता चलता है कि हमें कहाँ सुधार करने की ज़रूरत है, तो हमें तुरंत कदम उठाना चाहिए। ऐसा करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि यह ज़िंदगी और मौत का सवाल है। (रोमि. 8:6-8) यहोवा जानता है कि हम परिपूर्ण नहीं इसलिए वह हमें अपनी पवित्र शक्‍ति देता है ताकि हम अपने अंदर सुधार करें। लेकिन हमें भी अपनी तरफ से मेहनत करनी चाहिए। एक मौके पर शासी निकाय के सदस्य भाई जॉन बार ने लूका 13:24 पर भाषण दिया था और कहा था, “कई लोग इसलिए नाकाम हो जाते हैं क्योंकि वे बलवन्त होने के लिए अच्छी मेहनत नहीं करते।” हमें याकूब की तरह होना चाहिए जिसने बिना हार माने एक स्वर्गदूत के साथ तब तक कुश्‍ती लड़ी जब तक कि उसे आशीष नहीं मिली। (उत्प. 32:26-28) बाइबल का अध्ययन करना मज़ेदार हो सकता है लेकिन हमें दूसरी किताबों की तरह इसे सिर्फ मज़े के लिए नहीं पढ़ना चाहिए। इसके बजाय, हमें इसमें दी अनमोल सच्चाइयों को ढूँढ़ने में कड़ी मेहनत करनी चाहिए।

12, 13. (क) रोमियों 15:5 को लागू करने में क्या बात हमारी मदद करेगी? (ख) पतरस की मिसाल और सलाह से हमें क्या फायदा होगा? (ग) परमेश्‍वर की सोच को अच्छी तरह जानने के लिए आप क्या कर सकते हैं? (बक्स, “ परमेश्‍वर के साथ अपना रिश्‍ता मज़बूत करते जाने के तरीके” देखिए।)

12 जब हम परमेश्‍वर की सोच रखने में मेहनत करते हैं, तो पवित्र शक्‍ति हमारी मदद करती है। नतीजा, हम अपनी सोच और नज़रिए में मसीह के जैसे बनते जाते हैं। (रोमि. 15:5) यही नहीं, पवित्र शक्‍ति की मदद से हम अपने अंदर से गलत इच्छाओं को निकाल पाते हैं और परमेश्‍वर को भानेवाले गुण बढ़ा पाते हैं। (गला. 5:16, 22, 23) अगर हमें एहसास होता है कि हमारा ध्यान दुनियावी इच्छाओं और ऐशो-आराम की चीज़ों पर लगा हुआ है, तो हमें निराश नहीं होना चाहिए। हमें लगातार यहोवा से पवित्र शक्‍ति माँगनी चाहिए ताकि हम सही चीज़ों पर अपना ध्यान लगा सकें। (लूका 11:13) पतरस की मिसाल पर गौर कीजिए। कभी-कभी उसकी सोच मसीह की सोच से बिलकुल अलग थी। (मत्ती 16:22, 23; लूका 22:34, 54-62; गला. 2:11-14) लेकिन उसने हार नहीं मानी। यहोवा की मदद से वह धीरे-धीरे मसीह के जैसी सोच रखने लगा। पतरस की तरह हम भी ऐसा करने में कामयाब हो सकते हैं।

13 बाद में पतरस ने बताया कि मसीह की सोच रखने में कौन-से गुण हमारी मदद कर सकते हैं। (2 पतरस 1:5-8 पढ़िए।) हमें अपने अंदर संयम, धीरज, भाइयों जैसा लगाव और दूसरे गुण बढ़ाने में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। हम हर दिन खुद से पूछ सकते हैं, ‘आज मैं कौन-सा गुण दिखाऊँगा ताकि मेरी सोच परमेश्‍वर की सोच से और भी मेल खाए?’

हर दिन बाइबल सिद्धांतों को लागू कीजिए

14. परमेश्‍वर के जैसी सोच रखने से हमारी ज़िंदगी पर क्या असर होगा?

14 मसीह के जैसी सोच रखने से हमारी बातचीत और रोज़मर्रा के फैसलों पर ज़बरदस्त असर होता है। इसका असर हमारे व्यवहार पर भी होता है फिर चाहे हम स्कूल में हो या काम की जगह पर। इन सब बातों से पता चलेगा कि हम मसीह के जैसे बनने की कोशिश कर रहे हैं या नहीं। अगर हमारी सोच परमेश्‍वर के जैसी है, तो हम कभी नहीं चाहेंगे कि यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता टूट जाए। जब गलत कामों के लिए हमें लुभाया जाता है, तो हम फौरन इसे ठुकरा देंगे। इसके अलावा, जब हमें कोई फैसला लेना होता है तो हम खुद से पूछेंगे, ‘बाइबल का कौन-सा सिद्धांत मेरी मदद कर सकता है? अगर यीशु मेरी जगह होता तो क्या करता? क्या मेरे फैसले से यहोवा खुश होगा?’ कोई भी फैसला लेने से पहले हमें अपने आप से ये सवाल करने चाहिए। अब हम कुछ मामलों पर गौर करेंगे और देखेंगे कि हर मामले में बाइबल का कौन-सा सिद्धांत सही फैसला लेने में हमारी मदद करेगा।

15, 16. मसीह के जैसी सोच रखने से हम इन मामलों में कैसे बुद्धि-भरे फैसले ले पाएँगे: (क) जीवन-साथी चुनते वक्‍त? (ख) दोस्त चुनते वक्‍त?

15 जीवन-साथी चुनते वक्‍त। दूसरा कुरिंथियों 6:14, 15 में दिए बाइबल के सिद्धांत पर गौर कीजिए। (पढ़िए।) पौलुस ने साफ बताया कि परमेश्‍वर की सोच रखनेवाले और इंसानी सोच रखनेवाले में कोई मेल नहीं। उनका नज़रिया एक-दूसरे से बिलकुल अलग होता है। यह सिद्धांत जीवन-साथी चुनने में कैसे आपकी मदद कर सकता है?

16 दोस्त चुनते वक्‍त। पहला कुरिंथियों 15:33 में दिए सिद्धांत पर गौर कीजिए। (पढ़िए।) परमेश्‍वर की सोच रखनेवाला इंसान कभी-भी ऐसे लोगों से दोस्ती नहीं करेगा, जो उसका विश्‍वास कमज़ोर कर सकते हैं। सोचिए कि आप सोशल नेटवर्किंग या फिर ऑनलाइन जाकर अजनबियों के साथ वीडियो गेम खेलने के मामले में यह सिद्धांत कैसे लागू कर सकते हैं।

क्या मेरे फैसले दिखाते हैं कि मैं परमेश्‍वर की सोच रखता हूँ? (पैराग्राफ 17 देखिए)

17-19. परमेश्‍वर की सोच रखने से हमें इन मामलों में कैसे फायदा होगा: (क) बेकार के कामों से दूर रहने में? (ख) लक्ष्य रखने में? (ग) झगड़े निपटाने में?

17 ऐसे काम जिनसे हमारा विश्‍वास कमज़ोर हो सकता है। इब्रानियों 6:1 में दी चेतावनी पर ध्यान दीजिए। (पढ़िए।) यहाँ बताए ‘बेकार के काम’ क्या हैं जिनसे हमें दूर रहना चाहिए? ये वे काम हैं जो अपने आपमें गलत नहीं, लेकिन इनसे यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता मज़बूत नहीं होता। इस आयत में दी चेतावनी पर ध्यान देने से हम इन सवालों के जवाब दे पाएँगे, ‘क्या फलाँ काम फायदेमंद है या बेकार? क्या मुझे इस बिज़नेस में पैसा लगाना चाहिए? मुझे क्यों ऐसे समूह से नहीं जुड़ना चाहिए जो दुनिया के हालात ठीक करने में लगे हुए हैं?’

क्या मेरे फैसले दिखाते हैं कि मैं उसकी सेवा में ज़्यादा करना चाहता हूँ? (पैराग्राफ 18 देखिए)

18 परमेश्‍वर की सेवा से जुड़े लक्ष्य। यीशु ने पहाड़ी उपदेश में लक्ष्य रखने के मामले में अच्छी सलाह दी। (मत्ती 6:33) परमेश्‍वर की सोच रखनेवाला इंसान उसके राज को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देता है। इस आयत में दिए सिद्धांत को ध्यान में रखने से हम इन सवालों के जवाब दे पाएँगे, ‘क्या मुझे स्कूल की पढ़ाई के बाद ऊँची शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी जाना चाहिए? क्या मुझे फलाँ नौकरी करनी चाहिए?’

क्या मेरे फैसले दिखाते हैं कि मैं दूसरों के साथ शांति बनाए रखता हूँ? (पैराग्राफ 19 देखिए)

19 झगड़े। रोम के मसीहियों को पौलुस ने जो सलाह दी, उसकी मदद से हम आपसी झगड़े निपटा सकते हैं। (रोमि. 12:18) मसीह की मिसाल पर चलते हुए हम “सबके साथ शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश” करते हैं। हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘जब दूसरों के साथ मेरा झगड़ा होता है, तब मैं कैसा रवैया दिखाता हूँ? क्या दूसरों की राय मानना मेरे लिए मुश्‍किल होता है? या क्या दूसरे मेरे बारे में यह कहते हैं कि मैं हमेशा शांति कायम करने की कोशिश करता हूँ?’​—याकू. 3:18.

20. आप क्यों यहोवा की सोच को जानने की लगातार कोशिश करेंगे?

20 अब तक हमने जिन मामलों पर गौर किया, उनसे साफ ज़ाहिर होता है कि बाइबल के सिद्धांत बुद्धि-भरे फैसले करने में हमारी मदद करते हैं। हमारे फैसलों से यह भी साबित होता है कि हम परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति के मार्गदर्शन में चलते हैं। परमेश्‍वर की सोच रखने से हम ज़िंदगी में खुश और संतुष्ट रह पाते हैं। रौबर्ट जिसका ज़िक्र लेख की शुरूआत में किया गया था कहता है, “जब मैंने सही मायनों में यहोवा के साथ एक मज़बूत रिश्‍ता कायम किया, तो मैं एक अच्छा पति और एक अच्छा पिता बन पाया। मैं अपनी ज़िंदगी से बहुत खुश हूँ।” अगर हम यहोवा की सोच को जानने और उसकी मिसाल पर चलने की लगातार कोशिश करें, तो हमें भी कई आशीषें मिलेंगी। हम आज एक खुशहाल ज़िंदगी जी पाएँगे और भविष्य में “असली ज़िंदगी” का पूरा मज़ा ले पाएँगे।​—1 तीमु. 6:19.