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हम सब एक हों जैसे यहोवा और यीशु एक हैं

हम सब एक हों जैसे यहोवा और यीशु एक हैं

‘मैं बिनती करता हूँ कि वे सभी एक हों, ठीक जैसे हे पिता, तू मेरे साथ एकता में है।’​—यूह. 17:20, 21.

गीत: 16, 31

1, 2. (क) जब यीशु ने अपने प्रेषितों के साथ आखिरी बार प्रार्थना की, तो उसने क्या बिनती की? (ख) यीशु चेलों की एकता के बारे में इतना क्यों सोच रहा होगा?

जिस रात यीशु ने अपने प्रेषितों के साथ आखिरी बार खाना खाया, उस रात वह उनकी एकता के बारे में सोच रहा था। उसने उनके साथ एक आखिरी प्रार्थना की और बिनती की कि वे एक हों, ठीक जैसे वह और उसका पिता एक हैं। (यूहन्‍ना 17:20, 21 पढ़िए।) अगर यीशु के चेलों में एकता होगी, तो लोग समझ पाएँगे कि यहोवा ने ही अपनी मरज़ी पूरी करने के लिए यीशु को धरती पर भेजा है। चेलों के बीच प्यार होने से उनकी यह एकता और भी मज़बूत होती। यही प्यार यीशु के सच्चे चेलों की पहचान होती।​—यूह. 13:34, 35.

2 उस रात यीशु ने एकता के बारे में बहुत कुछ बताया, क्योंकि उसने गौर किया था कि उसके प्रेषितों में पूरी तरह एकता नहीं है। पहले की तरह इस बार भी प्रेषितों में बहस हो रही थी कि “उनमें सबसे बड़ा किसे समझा जाए।” (लूका 22:24-27; मर. 9:33, 34) एक और मौके पर याकूब और यूहन्‍ना ने यीशु से कहा था कि वह स्वर्ग के राज में उन्हें अपने पास जगह दे यानी खास ओहदा दे।​—मर. 10:35-40.

3. (क) मसीह के चेलों के बीच एकता न होने की क्या वजह रही होगी? (ख) हम किन सवालों पर चर्चा करेंगे?

3 मसीह के चेलों में एकता न होने की वजह सिर्फ यह नहीं थी कि वे ज़्यादा अधिकार पाना चाहते थे। यीशु के दिनों में लोगों में फूट पड़ी थी, क्योंकि उनमें नफरत और भेदभाव था। यीशु के चेलों को अपने दिल से ऐसी बुरी भावनाओं को निकाल फेंकना था। इस लेख में हम इन सवालों पर चर्चा करेंगे: जब यीशु के साथ भेदभाव हुआ, तो उसने क्या किया? उसने अपने चेलों को किसी से पक्षपात न करने और एक होकर रहने के बारे में कैसे सिखाया? यीशु की मिसाल और शिक्षाओं से हमारे बीच एकता कैसे रह सकती है?

यीशु और उसके चेलों के साथ भेदभाव

4. उदाहरण देकर समझाइए कि यीशु के साथ भेदभाव कैसे किया गया।

4 यीशु भी कई बार भेदभाव का शिकार हुआ था। उदाहरण के लिए, जब फिलिप्पुस ने नतनएल को बताया कि उसे मसीहा मिल गया है, तो नतनएल ने कहा, “भला नासरत से भी कुछ अच्छा निकल सकता है?” (यूह. 1:46) शायद नतनएल जानता था कि मसीहा बेतलेहेम में पैदा होगा, जैसे मीका 5:2 की भविष्यवाणी में बताया गया है। उसने सोचा होगा कि मसीहा नासरत से कैसे आ सकता है, वह तो एक मामूली नगर है। इसके अलावा यहूदिया के कई रुतबेदार लोग यीशु को नीचा समझते थे, क्योंकि वह गलील से था। (यूह. 7:52) यहूदिया के बहुत-से लोग गलील के लोगों को कम दर्जे का मानते थे। कुछ यहूदी ऐसे भी थे, जिन्होंने यीशु को सामरी कहकर उसका अपमान किया। (यूह. 8:48) सामरी लोग न सिर्फ दूसरे राष्ट्र से थे, बल्कि उनका धर्म भी यहूदियों से अलग था। इस वजह से यहूदिया और गलील के लोग उनकी ज़रा-भी इज़्ज़त नहीं करते थे और उनसे दूर-दूर रहते थे।​—यूह. 4:9.

5. यीशु के चेलों के साथ भेदभाव किस तरह किया गया?

5 यहूदी धर्म गुरु यीशु के चेलों की भी इज़्ज़त नहीं करते थे। फरीसी उन्हें “शापित लोग” कहते थे। (यूह. 7:47-49) वे ऐसे हर किसी को बेकार और मामूली समझते थे, जो यहूदियों के धार्मिक स्कूल में नहीं पढ़ा था और उनकी परंपराओं को नहीं मानता था। (प्रेषि. 4:13, फु.) उन दिनों लोगों को अपनी हैसियत, जाति और अपने धर्म पर बहुत घमंड था, इसलिए यीशु और उसके चेलों के साथ भेदभाव होता था। यीशु के चेले भी भेदभाव करते थे। इस वजह से उन्हें अपनी सोच बदलनी थी, तभी वे एक होकर रह सकते थे।

6. उदाहरण देकर समझाइए कि भेदभाव का हम पर कैसे असर हो सकता है।

6 आज भी चारों तरफ भेदभाव देखने को मिलता है। हो सकता है कि लोग हमें नीचा समझें या हम उन्हें नीचा समझें। ऑस्ट्रेलिया की एक पायनियर बहन कहती है, “गोरे लोगों ने आदिवासियों के साथ न सिर्फ बीते समय में अन्याय किया, बल्कि आज भी कर रहे हैं। मैं जितना इस बारे में सोचती थी, उतना ही गोरे लोगों के लिए मेरी नफरत बढ़ती जाती थी।” वह खुद इस अन्याय की शिकार हुई थी, इसलिए भी वह गोरे लोगों से नफरत करती थी। कनाडा का एक भाई कहता है, “मैं सोचता था कि फ्रांसीसी भाषा बोलनेवाले लोग ऊँचे दर्जे के हैं।” इस वजह से वह अँग्रेज़ी भाषा बोलनेवाले लोगों को पसंद नहीं करता था।

7. भेदभाव सहने के बाद भी यीशु ने क्या किया?

7 यीशु के दिनों की तरह आज भी ज़्यादातर लोगों में भेदभाव जड़ पकड़े हुए है और उसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं होता। भेदभाव सहने के बाद भी यीशु ने क्या किया? पहली बात, उसने कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। उसने हमेशा सबके साथ एक जैसा बरताव किया। उसने अमीर-गरीब को, फरीसियों और सामरियों को, यहाँ तक कि कर-वसूलनेवालों और पापियों को भी प्रचार किया। दूसरी बात, उसने चेलों को अपनी शिक्षाओं और अपनी मिसाल से सिखाया कि उन्हें दूसरों को शक की निगाह से नहीं देखना चाहिए, न ही उनके साथ भेदभाव करना चाहिए।

भेदभाव निकालने के लिए प्यार और नम्रता ज़रूरी है

8. कौन-सा अहम सिद्धांत हमारी एकता की बुनियाद है? समझाइए।

8 यीशु ने एक अहम सिद्धांत सिखाया, जो हमारी एकता की बुनियाद है। उसने अपने चेलों से कहा, “तुम सब भाई हो।” (मत्ती 23:8, 9 पढ़िए।) हम इस मायने में भाई हैं कि हम सब आदम की संतान हैं। (प्रेषि. 17:26) लेकिन यीशु समझा रहा था कि उसके चेले एक और मायने में भाई-बहन हैं। वह यह कि वे सब यहोवा को अपना पिता मानते हैं। (मत्ती 12:50) वे परमेश्‍वर के परिवार का हिस्सा बने हैं और प्यार और विश्‍वास की वजह से उनमें एकता है, इसलिए प्रेषितों ने मंडलियों को लिखी चिट्ठियों में दूसरे मसीहियों को अपने भाई-बहन कहा।​—रोमि. 1:13; 1 पत. 2:17; 1 यूह. 3:13. *

9, 10. (क) यहूदियों को अपनी जाति पर घमंड क्यों नहीं करना चाहिए था? (ख) यीशु ने यह कैसे सिखाया कि दूसरी जाति के लोगों को नीचा समझना गलत है? (लेख की शुरूआत में दी पहली तसवीर देखिए।)

9 यह कहने के बाद कि चेलों को एक-दूसरे को अपना भाई-बहन मानना चाहिए, यीशु ने इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्हें नम्र होना चाहिए। (मत्ती 23:11, 12 पढ़िए।) जैसे हमने देखा है, कभी-कभी घमंड की वजह से प्रेषितों में फूट पड़ जाती थी और यीशु के दिनों में लोगों को अपनी जाति पर बहुत घमंड था। बहुत-से यहूदी मानते थे कि अब्राहम के वंशज होने की वजह से वे दूसरों से बेहतर हैं। लेकिन यूहन्‍ना बपतिस्मा देनेवाले ने उनसे कहा, “परमेश्‍वर इन पत्थरों से अब्राहम के लिए संतान पैदा कर सकता है।”​—लूका 3:8.

10 यीशु ने सिखाया कि जब लोग अपनी जाति पर घमंड करते हैं, तो यह गलत है। यह बात उसने उस समय साफ-साफ समझायी, जब एक शास्त्री ने उससे पूछा, “असल में मेरा पड़ोसी कौन है?” इसका जवाब देने के लिए यीशु ने एक कहानी सुनायी। एक यहूदी को लुटेरों ने बहुत मारा और उसे सड़क किनारे छोड़कर चले गए। हालाँकि उस रास्ते से कुछ यहूदी गुज़रे, मगर किसी ने उसकी मदद नहीं की। फिर एक सामरी को उसे देखकर तरस आया और उसने उसकी देखभाल की। कहानी सुनाने के बाद यीशु ने शास्त्री से कहा कि उसे उस सामरी की तरह बनना चाहिए। (लूका 10:25-37) इस तरह यीशु ने दिखाया कि एक सामरी यहूदियों को सब लोगों से प्यार करना सिखा सकता है।

11. (क) यीशु के चेलों को भेदभाव क्यों नहीं करना चाहिए था? (ख) यह समझने में यीशु ने उनकी मदद कैसे की?

11 स्वर्ग लौटने से पहले यीशु ने अपने चेलों से कहा कि वे “सारे यहूदिया और सामरिया में, यहाँ तक कि दुनिया के सबसे दूर के इलाकों में” प्रचार करें। (प्रेषि. 1:8) यह ज़िम्मेदारी पूरी करने के लिए ज़रूरी था कि चेले अपने अंदर से घमंड और भेदभाव निकाल फेंकें। अकसर यीशु परदेसियों के अच्छे गुणों की तारीफ करता था। इस तरह उसने चेलों को सब राष्ट्रों में प्रचार करने के लिए तैयार किया। उदाहरण के लिए, उसने दूसरे देश के एक सेना-अफसर के ज़बरदस्त विश्‍वास की तारीफ की। (मत्ती 8:5-10) अपने नगर नासरत में यीशु ने समझाया कि पुराने ज़माने में यहोवा ने कई परदेसियों की मदद की। जैसे, फीनीके के सारपत नगर में रहनेवाली एक विधवा की और सीरिया के सेनापति नामान की, जिसे कोढ़ की बीमारी थी। (लूका 4:25-27) यही नहीं, यीशु ने एक सामरी औरत को गवाही दी। यहाँ तक कि वह सामरियों के एक नगर में दो दिन रहा, क्योंकि वहाँ के लोग उसका संदेश सुनना चाहते थे।​—यूह. 4:21-24, 40.

भेदभाव निकालने के लिए शुरू के मसीहियों का संघर्ष

12, 13. (क) जब यीशु ने एक सामरी औरत को सिखाया, तो प्रेषितों को कैसा लगा? (लेख की शुरूआत में दी दूसरी तसवीर देखिए।) (ख) क्या बात दिखाती है कि याकूब और यूहन्‍ना ने सामरी औरत की घटना से सबक नहीं सीखा?

12 प्रेषितों के लिए अपने मन से भेदभाव निकालना आसान नहीं था। जब उन्होंने देखा कि यीशु एक सामरी औरत को सिखा रहा है, तो वे हैरान रह गए। (यूह. 4:9, 27) शायद इसकी वजह यह थी कि यहूदी धर्म गुरु सबके सामने किसी औरत से बात नहीं करते थे और ऐसी सामरी औरत से तो बिलकुल नहीं, जिसका चरित्र ठीक न हो। प्रेषितों ने यीशु से खाना खाने के लिए कहा, मगर उसे इस औरत से बात करके इतना अच्छा लगा कि वह खाना खाना भूल गया। परमेश्‍वर चाहता था कि यीशु लोगों को प्रचार करे, फिर चाहे वह एक सामरी औरत ही क्यों न हो। ऐसा करना उसके लिए खाना खाने के बराबर था।​—यूह. 4:31-34.

13 मगर याकूब और यूहन्‍ना ने इस घटना से सबक नहीं सीखा। जब चेले यीशु के साथ सामरिया से होकर जा रहे थे, तो वे एक गाँव में रात बिताने के लिए जगह ढूँढ़ने लगे। लेकिन सामरी लोगों ने उन्हें कोई जगह नहीं दी। इस पर याकूब और यूहन्‍ना को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने यीशु से स्वर्ग से आग बरसाकर पूरे गाँव को भस्म कर देने की बात की। तब यीशु ने उन्हें डाँटा। (लूका 9:51-56) अगर उनके अपने लोग यानी गलील के लोग इस तरह पेश आए होते, तो हो सकता है कि उन्हें इतना गुस्सा नहीं आता। यह दिखाता है कि शायद उनके गुस्सा होने की वजह थी कि वे सामरियों को पसंद नहीं करते थे। बाद में जब यूहन्‍ना ने सामरी लोगों को प्रचार किया और बहुत-से लोगों ने उसकी बात सुनी, तो यह पुरानी बात याद करके उसे बुरा लगा होगा।​—प्रेषि. 8:14, 25.

14. शायद भाषा की वजह से जो समस्या उठी थी, उसे कैसे सुलझाया गया?

14 ईसवी सन्‌ 33 में कुछ समय बाद मंडली में भेदभाव की समस्या खड़ी हो गयी। जब भाई ज़रूरतमंद विधवाओं को खाना बाँट रहे थे, तो उन्होंने यूनानी बोलनेवाली विधवाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया। (प्रेषि. 6:1) शायद इस भेदभाव की वजह भाषा थी। यह समस्या सुलझाने के लिए प्रेषितों ने फौरन कदम उठाया। उन्होंने सात योग्य भाइयों को चुना, ताकि वे सबको बराबर खाना बाँट सकें। इन सभी भाइयों के यूनानी नाम थे। इससे उन विधवाओं को काफी दिलासा मिला होगा, जिन्हें नज़रअंदाज़ किया गया था।

15. किसी के साथ भेदभाव न करना पतरस ने कैसे सीखा? (लेख की शुरूआत में दी तीसरी तसवीर देखिए।)

15 ईसवी सन्‌ 36 से यीशु के चेले सब राष्ट्र के लोगों को प्रचार करने लगे। इससे पहले प्रेषित पतरस आम तौर पर यहूदियों को प्रचार करता और उन्हीं के साथ उठता-बैठता था। लेकिन उस साल परमेश्‍वर ने पतरस को साफ-साफ बताया कि मसीहियों को भेदभाव नहीं करना चाहिए। तब पतरस ने एक रोमी सैनिक कुरनेलियुस को गवाही दी। (प्रेषितों 10:28, 34, 35 पढ़िए।) उसके बाद से पतरस उन गैर-यहूदी लोगों के साथ खाने-पीने लगा और वक्‍त गुज़ारने लगा, जो मसीही बने। लेकिन कुछ साल बाद जब वह अंताकिया शहर में था, तो उसने गैर-यहूदी मसीहियों के साथ खाना-पीना बंद कर दिया। (गला. 2:11-14) इस पर पौलुस ने उसे सुधारा और उसने पौलुस की सलाह मानी। यह हम कैसे कह सकते हैं? जब पतरस ने एशिया माइनर के यहूदी और गैर-यहूदी मसीहियों को पहली चिट्ठी लिखी, तो उसने बताया कि सभी भाई-बहनों से प्यार करना बहुत ज़रूरी है।​—1 पत. 1:1; 2:17.

16. शुरू के मसीही किस बात के लिए जाने गए?

16 प्रेषितों ने यीशु से सीखा कि उन्हें “सब किस्म के लोगों” से प्यार करना चाहिए। (यूह. 12:32; 1 तीमु. 4:10) भले ही उन्हें लोगों के बारे में अपना नज़रिया बदलने में वक्‍त लगा, मगर उन्होंने वह बदला। दरअसल शुरू के मसीहियों में इतना प्यार था कि वे इस बात के लिए लोगों में जाने गए। करीब 200 साल बाद टर्टलियन नाम के एक लेखक ने लिखा कि मसीहियों के बारे में लोगों का कहना है, ‘वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं और एक-दूसरे की खातिर मर-मिटने को भी तैयार हैं।’ उन मसीहियों ने “नयी शख्सियत” पहन ली थी, इसलिए उन्होंने सबको एक बराबर समझा, जैसे परमेश्‍वर की नज़र में सब एक बराबर हैं।​—कुलु. 3:10, 11.

17. हम अपने मन से भेदभाव कैसे निकाल सकते हैं? उदाहरण देकर समझाइए।

17 शायद हमें भी अपने मन से भेदभाव निकालने में वक्‍त लगे। ऐसा करने में फ्राँस की एक बहन को बहुत मुश्‍किल हुई। वह कहती है, “यहोवा ने मुझे सिखाया कि प्यार क्या होता है, उदारता क्या होती है और हर किस्म के लोगों से प्यार करने का मतलब क्या है। लेकिन मैं अब भी सीख रही हूँ कि मैं अपने मन से भेदभाव कैसे निकालूँ। यह आसान नहीं है, इसलिए मैं हमेशा इस बारे में प्रार्थना करती हूँ।” स्पेन की एक बहन पहले एक समूह के लोगों को बिलकुल पसंद नहीं करती थी। वह बताती है कि उनके बारे में गलत खयाल निकालने के लिए उसे अब भी संघर्ष करना पड़ता है। वह कहती है, “अकसर मैं ऐसे खयाल निकाल पाती हूँ, लेकिन मैं जानती हूँ कि मुझे इसके लिए अपने आपसे लड़ते रहना होगा। मैं खुश हूँ कि मैं एक ऐसे परिवार का हिस्सा हूँ, जो एकता में बँधा है। इसके लिए मैं यहोवा का धन्यवाद करती हूँ।” हम सबको सोचना चाहिए कि कहीं हममें किसी तरह का भेदभाव तो नहीं। अगर है, तो हमें उसे निकाल फेंकना चाहिए।

प्यार बढ़ने से भेदभाव मिटता है

18, 19. (क) हर किसी को अपनाने की वजह क्या है? (ख) हम दूसरों को कैसे अपना सकते हैं?

18 हमें याद रखना चाहिए कि हम सब पहले परमेश्‍वर से दूर थे। (इफि. 2:12) लेकिन यहोवा ने “प्यार की डोरी से” हमें अपनी ओर खींचा। (होशे 11:4; यूह. 6:44) मसीह ने भी हमें अपनाया। उसकी वजह से हम परमेश्‍वर के परिवार का हिस्सा बन पाए। (रोमियों 15:7 पढ़िए।) जब यहोवा और यीशु ने हमें अपरिपूर्ण होने के बावजूद अपनाया है, तो हमें भी हर किसी को अपनाना चाहिए। हमें अपने मन में किसी को ठुकराने का खयाल तक नहीं आने देना चाहिए!

स्वर्ग से मिलनेवाली बुद्धि से काम लेने की वजह से हममें प्यार और एकता है (पैराग्राफ 19 देखिए)

19 जैसे-जैसे इस दुष्ट दुनिया का अंत करीब आ रहा है, लोगों में फूट पड़ती जा रही है, उनमें भेदभाव और नफरत बढ़ती जा रही है। (गला. 5:19-21; 2 तीमु. 3:13) लेकिन हम यहोवा के लोग हैं, इसलिए हमें ‘स्वर्ग से मिलनेवाली बुद्धि’ के लिए बिनती करनी चाहिए, ताकि हम किसी से भेदभाव न करें और शांति का बढ़ावा दें। (याकू. 3:17, 18) हमें दूसरे देश के लोगों से दोस्ती करने में खुशी होती है। वे जिस तरीके से काम करते हैं, उससे हमें कोई एतराज़ नहीं होता। हममें से कुछ उनकी भाषा भी सीख लेते हैं। जब हम यह सब करते हैं, तो हमारे बीच शांति “नदी के समान” होती है और न्याय ‘समुंदर की लहरों’ की तरह होता है।​—यशा. 48:17, 18.

20. जब प्यार की वजह से हमारी सोच और भावनाएँ बदलती हैं, तो क्या होता है?

20 जब ऑस्ट्रेलिया की एक बहन ने बाइबल का अध्ययन किया, तो उसके मन में गहराई तक समाया भेदभाव और नफरत धीरे-धीरे खत्म हो गयी। जैसे-जैसे लोगों के लिए उसका प्यार बढ़ने लगा, उसकी सोच और भावनाएँ बदलने लगीं। फ्रांसीसी बोलनेवाला कनाडा का भाई कहता है कि अब उसे एहसास हुआ कि अकसर लोगों में नफरत की वजह होती है कि वे एक-दूसरे को नहीं जानते। उसने सीखा कि “लोगों के गुण उनके पैदा होने की जगह पर निर्भर नहीं करते।” उस भाई ने तो अँग्रेज़ी बोलनेवाली एक मसीही बहन से शादी भी की। ये उदाहरण दिखाते हैं कि प्यार भेदभाव मिटाता है। प्यार हमें एकता के ऐसे बंधन में बाँधता है, जो कभी तोड़ा नहीं जा सकता।​—कुलु. 3:14.

^ पैरा. 8 शब्द “भाई” या “भाइयों” में मंडली की बहनें भी शामिल हो सकती हैं। हालाँकि पौलुस ने रोम को लिखी चिट्ठी में “भाइयो” कहा, मगर उसका मतलब बहनें भी था, क्योंकि उसने चिट्ठी में कुछ बहनों का भी ज़िक्र किया। (रोमि. 16:3, 6, 12) कई सालों से प्रहरीदुर्ग में मंडली के मसीहियों के लिए शब्द ‘भाई और बहन’ इस्तेमाल हो रहे हैं।