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आप किसकी नज़रों में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं?

आप किसकी नज़रों में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं?

“परमेश्‍वर अन्यायी नहीं कि तुम्हारे काम और उस प्यार को भूल जाए जो तुम्हें उसके नाम के लिए है।”​—इब्रा. 6:10.

गीत: 4, 51

1. हम सब क्या चाहते हैं?

मान लीजिए कि जिस व्यक्‍ति को आप जानते हैं और उसका आदर करते हैं, वह आपका नाम भूल जाता है। यहाँ तक कि वह आपको पहचान भी नहीं पाता। ऐसे में आपको कैसा लगेगा? शायद आपको बुरा लगे। आखिर हम सब चाहते हैं कि लोग हम पर ध्यान दें, हमें पहचानें। यही नहीं, हम यह भी चाहते हैं कि वे यह जानें कि हम कैसे इंसान हैं और हमने क्या-कुछ किया है।​—गिन. 11:16; फु.; अय्यू. 31:6.

2, 3. लोगों की नज़रों में अपनी पहचान बनाने की चाहत हमारे लिए फंदा कैसे बन सकती है? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)

2 लेकिन अगर हम सावधान न रहें, तो लोगों की नज़रों में अपनी पहचान बनाने की चाहत हमारे लिए फंदा बन सकती है। शैतान की दुनिया हमें मशहूर होने या नामो-शोहरत कमाने के लिए उकसाती है। अगर हम दुनिया के इस बहकावे में आ जाएँ, तो हम स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता को वह आदर और भक्‍ति नहीं दे रहे होंगे, जिसका वह हकदार है।​—प्रका. 4:11.

3 यीशु के दिनों में पहचान बनाने के बारे में कुछ धर्म गुरुओं का नज़रिया गलत था। उनके बारे में यीशु ने अपने चेलों से कहा, “शास्त्रियों से खबरदार रहो, जिन्हें लंबे-लंबे चोगे पहनकर घूमना और बाज़ारों में लोगों से नमस्कार सुनना अच्छा लगता है और सभा-घरों में सबसे आगे की [“सबसे बढ़िया,” फु.] जगहों पर बैठना और शाम की दावतों में सबसे खास जगह लेना पसंद है।” उसने यह भी कहा, “इन्हें दूसरों के मुकाबले और भी कड़ी सज़ा मिलेगी।” (लूका 20:46, 47) लेकिन उनसे बिलकुल अलग एक गरीब विधवा थी, जिसने दान में बहुत कम रकम डाली। वह लोगों की नज़रों में छाना नहीं चाहती थी। उसकी इस बात पर यीशु का ध्यान गया और उसने उसकी तारीफ की। (लूका 21:1-4) इस तरह यीशु ने दिखाया कि पहचान बनाने के बारे में सही नज़रिया क्या है। वह है कि हमें लोगों की नज़रों में नहीं बल्कि परमेश्‍वर की नज़र में अपनी पहचान बनानी चाहिए। इसी नज़रिए के बारे में हम इस लेख में सीखेंगे।

सबसे बढ़िया पहचान

4. हमारी सबसे बढ़िया पहचान कब बनती है और क्यों?

4 कई लोग ऊँची शिक्षा या व्यापार जगत में कामयाबी हासिल करके या फिर मनोरंजन की दुनिया में नाम कमाकर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ये तरीके सही नहीं हैं। सबसे बढ़िया पहचान बनाने के तरीके के बारे में प्रेषित पौलुस ने समझाया, “अब जब तुम परमेश्‍वर को जान गए हो या यूँ कहें कि अब परमेश्‍वर तुम्हें जानता है, तो फिर तुम क्यों दुनिया की उन मामूली बातों की तरफ मुड़ रहे हो जो गयी-गुज़री और बेकार हैं और क्यों दोबारा उनकी गुलामी करना चाहते हो?” (गला. 4:9) सच, यह कितने बड़े सम्मान की बात है कि पूरे जहान का मालिक यहोवा ‘हमें जानता है’! वह हमारी शख्सियत जानता है, हमसे प्यार करता है और चाहता है कि हमारा उसके साथ करीबी रिश्‍ता हो। उसने हमारी सृष्टि ही इसलिए की कि हम उसके दोस्त बनें।​—सभो. 12:13, 14.

5. अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हमें जाने, तो हमें क्या करना चाहिए?

5 मूसा यहोवा का एक दोस्त था। एक बार उसने यहोवा से गुज़ारिश की, “मुझे अपनी राहों के बारे में सिखा।” तब यहोवा ने उसे जवाब दिया, “ठीक है, मैं तेरी यह गुज़ारिश भी पूरी करूँगा क्योंकि तूने मुझे खुश किया है और मैं तुझे तेरे नाम से जानता हूँ।” (निर्ग. 33:12-17) यहोवा हममें से हरेक को भी जान सकता है। लेकिन अगर हम चाहते हैं कि वह हमें जाने, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें उससे प्यार करना चाहिए और अपनी ज़िंदगी उसे समर्पित करनी चाहिए।​—1 कुरिंथियों 8:3 पढ़िए।

6, 7. यहोवा के साथ हमारी दोस्ती किस वजह से टूट सकती है?

6 यहोवा के साथ हमारी जो दोस्ती है, उससे बढ़कर दुनिया में और कुछ नहीं। लेकिन इस दोस्ती को बनाए रखने के लिए हमें मेहनत करनी होगी। गलातिया में रहनेवाले मसीहियों की तरह हमें भी दुनिया की उन बातों की गुलामी करना छोड़ना होगा, “जो गयी-गुज़री और बेकार हैं।” (गला. 4:9) जैसे, दुनिया में नामो-शोहरत कमाना। गलातिया के मसीही परमेश्‍वर को जानते थे और परमेश्‍वर उन्हें जानता था। लेकिन पौलुस ने कहा कि अब यही मसीही फिर से बेकार की बातों “की तरफ मुड़ रहे” थे। दूसरे शब्दों में कहें, तो वह उनसे कह रहा था, ‘तुमने इतनी अच्छी तरक्की की है, फिर तुम वापस बेकार की बातों की तरफ मुड़कर उनकी गुलामी क्यों करना चाहते हो?’

7 क्या हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है? हाँ, हो सकता है। शायद सच्चाई में आने के बाद पौलुस की तरह हमने वे मौके छोड़ दिए, जब हम शैतान की दुनिया में काफी बड़ा नाम कमा सकते थे। (फिलिप्पियों 3:7, 8 पढ़िए।) शायद हमने ऊँची शिक्षा हासिल करने, नौकरी में तरक्की करने या खूब पैसा कमाने के मौके ठुकरा दिए हों। हो सकता है कि हममें इतना हुनर हो कि हम संगीत या खेल की दुनिया में काफी नाम और पैसा कमा सकते थे। मगर हमने यह सब ठुकरा दिया। ऐसा करके हमने सही फैसला किया। (इब्रा. 11:24-27) लेकिन अब क्या हमें उन फैसलों पर पछतावा हो रहा है? क्या हम सोचने लगे हैं कि हमने ऐसा न किया होता, तो हमारी ज़िंदगी बेहतर होती? ऐसा सोचना बड़ी बेवकूफी होगी। यह सोच हमें वापस दुनिया में ले जा सकती है। हम फिर से उन बातों की गुलामी करने लग सकते हैं, जिन्हें हमने “गयी-गुज़री और बेकार” की बातें ठहरा दिया था।

यहोवा की मंज़ूरी पाने का इरादा मज़बूत कीजिए

8. यहोवा की मंज़ूरी पाने का इरादा हम कैसे मज़बूत कर सकते हैं?

8 हमें यहोवा की मंज़ूरी पाने का इरादा मज़बूत करना चाहिए। इससे हम दुनिया में पहचान बनाने के बारे में नहीं सोचेंगे। हम अपना यह इरादा कैसे मज़बूत कर सकते हैं? दो अहम सच्चाइयों पर ध्यान देकर। पहली, यहोवा हमेशा उन लोगों को पहचानता है, जो वफादारी से उसकी सेवा करते हैं। (इब्रानियों 6:10 पढ़िए; 11:6) यहोवा अपने सभी वफादार सेवकों को अनमोल समझता है, इसलिए वह किसी भी सेवक को नज़रअंदाज़ करने की सोच ही नहीं सकता। अगर वह ऐसा करे, तो यह उसकी नज़र में ‘अन्याय’ होगा। यहोवा हमेशा “उन्हें जानता है जो उसके अपने हैं।” (2 तीमु. 2:19) वह “नेक लोगों की राह पर ध्यान देता है” और जानता है कि उन्हें कैसे बचाना है।​—भज. 1:6; 2 पत. 2:9.

9. कुछ उदाहरण दीजिए कि यहोवा ने कैसे साबित किया कि वह अपने लोगों को मंज़ूर करता है।

9 कई बार यहोवा ने अनोखे तरीके से यह साबित किया कि वह अपने लोगों को मंज़ूर करता है। (2 इति. 20:20, 29) उदाहरण के लिए, जब फिरौन की ताकतवर सेना इसराएलियों का पीछा कर रही थी, तो लाल सागर के पास यहोवा ने अपने लोगों को बचाया। (निर्ग. 14:21-30; भज. 106:9-11) यह घटना इतनी हैरतअंगेज़ थी कि 40 साल बाद भी आस-पास के इलाकों के लोग इस बारे में बात कर रहे थे। (यहो. 2:9-11) ऐसी घटनाओं से पता चलता है कि यहोवा अपने लोगों से प्यार करता है और अपनी शक्‍ति का इस्तेमाल करके उन्हें बचाता है। इन पर गहराई से सोचने से हमें बहुत हिम्मत मिलती है, क्योंकि जल्द ही मागोग का गोग हम पर हमला करनेवाला है। (यहे. 38:8-12) उस समय हमें खुशी होगी कि हमने दुनिया में नहीं, बल्कि परमेश्‍वर की नज़रों में अपनी पहचान बनायी है।

10. हमें और किस सच्चाई पर ध्यान देना चाहिए?

10 हमें एक और सच्चाई पर ध्यान देना चाहिए। वह यह कि यहोवा शायद हमें उस तरीके से आशीष दे, जिसकी हमने उम्मीद भी नहीं की होगी। अगर लोग दूसरों से वाह-वाही पाने के इरादे से भले काम करें, तो यहोवा उन्हें कोई आशीष नहीं देगा। ऐसा क्यों? क्योंकि जब लोग उनकी तारीफ करते हैं, तो यही उनका फल होता है, जैसे यीशु ने कहा था। (मत्ती 6:1-5 पढ़िए।) दूसरी तरफ, यहोवा “गुप्त में” उन लोगों को देखता है, जो भले काम तो करते हैं, मगर इसके लिए उनकी सराहना नहीं की जाती। (मत्ती 6:4, फु.) वह उनके कामों पर ध्यान देता है और उन्हें आशीष देता है। कई बार तो वह उन्हें उस तरीके से आशीष देता है, जिसकी उन्होंने उम्मीद भी नहीं की होगी। आइए कुछ उदाहरणों पर गौर करें।

यहोवा ने एक नम्र लड़की को उम्मीद से बढ़कर आशीषें दीं

11. यहोवा ने कैसे दिखाया कि वह मरियम को पहचानता है?

11 यहोवा ने मरियम को चुना, ताकि वह उसके बेटे यीशु की माँ बन सके। मरियम बहुत नम्र लड़की थी। वह एक छोटे-से शहर नासरत में रहती थी, जो यरूशलेम और उसके आलीशान मंदिर से काफी दूर था। (लूका 1:26-33 पढ़िए।) यहोवा ने मरियम को ही क्यों चुना? जिब्राईल स्वर्गदूत ने मरियम को बताया कि उसने “परमेश्‍वर की बड़ी आशीष पायी” थी। बाद में मरियम ने अपनी रिश्‍तेदार इलीशिबा को जो बताया, उससे पता चलता है कि उसकी यहोवा के साथ गहरी दोस्ती थी। (लूका 1:46-55) यहोवा मरियम पर काफी समय से ध्यान दे रहा था और उसने देखा कि वह वफादारी से उसकी सेवा कर रही है। उसने मरियम को ऐसा सम्मान दिया, जिसकी उसने उम्मीद भी नहीं की होगी।

12, 13. यीशु के पैदा होने पर और 40 दिन बाद उसे मंदिर ले जाने पर यहोवा ने उसका सम्मान कैसे किया?

12 जब यीशु पैदा हुआ, तो यह खबर यहोवा ने किसे दी? उसने यरूशलेम और बेतलेहेम के बड़े-बड़े अधिकारियों या शासकों को यह खबर नहीं दी। इसके बजाय उसने अपने स्वर्गदूतों के ज़रिए गरीब चरवाहों को यह खबर दी, जो बेतलेहेम के बाहर मैदानों में अपनी भेड़ों की देखभाल कर रहे थे। (लूका 2:8-14) फिर ये चरवाहे नन्हे यीशु को देखने गए। (लूका 2:15-17) यह देखकर मरियम और यूसुफ को बहुत हैरानी हुई होगी। यहोवा के काम करने का तरीका शैतान के काम करने के तरीके से बहुत अलग है। शैतान ने भी यीशु को देखने के लिए कुछ ज्योतिषियों को भेजा। लेकिन उनकी वजह से यीशु के जन्म की खबर पूरे यरूशलेम में फैल गयी और इसका बुरा अंजाम हुआ। (मत्ती 2:3) बहुत-से मासूम बच्चों का कत्ल कर दिया गया।​—मत्ती 2:16.

13 यीशु के जन्म के 40 दिन बाद मरियम को यरूशलेम के मंदिर में एक बलिदान चढ़ाना था। मरियम और यूसुफ यीशु को लेकर बेतलेहेम से करीब 9 किलोमीटर का सफर तय करके यरूशलेम गए। (लूका 2:22-24) शायद रास्ते में मरियम ने सोचा होगा, ‘क्या याजक यीशु के सम्मान में कुछ खास करेगा?’ यीशु का सम्मान किया गया, लेकिन उस तरीके से नहीं जैसे मरियम ने सोचा था। इसके बजाय यहोवा ने यीशु का सम्मान करने के लिए शिमोन को चुना, “जो नेक और परमेश्‍वर का भक्‍त था।” साथ ही उसने 84 साल की एक विधवा हन्‍ना को चुना, जो भविष्यवक्‍तिन थी। इन दोनों ने ऐलान किया कि यीशु ही वादा किया गया मसीहा होगा।​—लूका 2:25-38.

14. यहोवा ने मरियम को कौन-सी आशीषें दीं?

14 मरियम वफादारी से परमेश्‍वर की सेवा करती रही और उसने यीशु की अच्छी तरह परवरिश की। क्या इसके लिए भी यहोवा ने उसे आशीष दी? जी हाँ। मरियम ने जो बातें कहीं और जो काम किए, उनमें से कुछ के बारे में यहोवा ने बाइबल में दर्ज़ करवाया। ऐसा मालूम होता है कि यीशु की साढ़े तीन साल की सेवा के दौरान मरियम उसके साथ सफर नहीं कर पायी। शायद उसे नासरत में ही रहना पड़ा, क्योंकि वह एक विधवा थी। इस वजह से वह यीशु के बहुत-से चमत्कार नहीं देख पायी और उसकी शिक्षाएँ नहीं सुन पायी। लेकिन यीशु की ज़िंदगी के आखिरी पलों में वह उसके साथ थी। (यूह. 19:26) बाद में पिन्तेकुस्त से पहले के कुछ दिनों के दौरान यीशु के चेले यरूशलेम में इकट्ठा होते थे, तो मरियम भी उनके साथ होती थी। (प्रेषि. 1:13, 14) ज़ाहिर-सी बात है कि जब पिन्तेकुस्त के दिन चेलों पर पवित्र शक्‍ति उतरी, तो बाकी चेलों के साथ मरियम का भी अभिषेक हुआ होगा। इसका मतलब है कि उसे स्वर्ग में यीशु के साथ हमेशा रहने का सम्मान मिला। जिस वफादारी से उसने परमेश्‍वर की सेवा की, उसका उसे क्या ही बढ़िया इनाम मिला!

यहोवा ने अपने बेटे को सम्मान और आशीषें दीं

15. जब यीशु धरती पर था, तो यहोवा ने उस पर अपनी मंज़ूरी कैसे ज़ाहिर की?

15 यीशु ने धर्म गुरुओं या शासकों को खुश करने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय वह अपने पिता को खुश करना चाहता था। जब तीन मौकों पर यहोवा ने स्वर्ग से कहा कि वह अपने बेटे से प्यार करता है, तो यह सुनकर यीशु का कितना हौसला बढ़ा होगा! जब यरदन नदी में यीशु का बपतिस्मा हुआ, तो उसके तुरंत बाद यहोवा ने कहा, “यह मेरा प्यारा बेटा है। मैंने इसे मंज़ूर किया है।” (मत्ती 3:17) मालूम होता है कि यहोवा की यह बात सिर्फ यीशु और यूहन्‍ना बपतिस्मा देनेवाले ने सुनी थी। फिर यीशु की मौत से करीब एक साल पहले उसके तीन प्रेषितों ने यहोवा को यीशु के बारे में यह कहते सुना, “यह मेरा प्यारा बेटा है जिसे मैंने मंज़ूर किया है। इसकी सुनो।” (मत्ती 17:5) आखिर में यीशु की मौत से कुछ ही दिन पहले यहोवा ने स्वर्ग से अपने बेटे से बात की।​—यूह. 12:28.

यहोवा ने अपने बेटे का जिस तरह सम्मान किया, उससे हम क्या सीखते हैं? (पैराग्राफ 15-17 देखिए)

16, 17. यहोवा ने यीशु को उम्मीद से बढ़कर आशीष किस तरह दी?

16 यीशु जानता था कि लोग उस पर परमेश्‍वर की निंदा करने का इलज़ाम लगाएँगे और उसकी बेइज़्ज़ती करके उसे मार डालेंगे। फिर भी उसने प्रार्थना में कहा कि उसकी नहीं बल्कि परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी हो। (मत्ती 26:39, 42) उसने “यातना के काठ पर मौत सह ली और शर्मिंदगी की ज़रा भी परवाह नहीं की,” क्योंकि वह दुनिया में नहीं बल्कि अपने पिता की नज़रों में पहचान बनाना चाहता था। (इब्रा. 12:2) क्या इसके लिए यहोवा ने उसे आशीष दी?

17 जब यीशु धरती पर था, तो उसने बिनती की कि उसे वह महिमा दी जाए, जो पहले उसे स्वर्ग में मिली थी। (यूह. 17:5) बाइबल में कहीं नहीं बताया गया है कि वह उससे बढ़कर महिमा पाना चाहता था। धरती पर यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए उसने कोई खास इनाम पाने की उम्मीद नहीं की। फिर भी उसको यहोवा ने उम्मीद से बढ़कर आशीषें दीं। जब उसने यीशु को ज़िंदा किया, तो उसे स्वर्ग में “पहले से भी ऊँचा पद” दिया। यही नहीं, उसने यीशु को अमरता भी दी। यह ऐसा इनाम था, जो पहले किसी को नहीं मिला था! * (फिलि. 2:9; 1 तीमु. 6:16) यीशु को उसकी वफादारी के लिए बहुत ही अनोखा इनाम दिया गया!

18. परमेश्‍वर की नज़रों में अपनी पहचान बनाने के लिए हमें क्या करना होगा?

18 अगर हम चाहते हैं कि हम दुनिया में नहीं बल्कि परमेश्‍वर की नज़रों में अपनी पहचान बनाएँ, तो हमें क्या करना होगा? हमें ध्यान देना होगा कि यहोवा उन लोगों को हमेशा पहचानता है, जो वफादारी से उसकी सेवा करते हैं। हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि वह अकसर उन्हें उस तरीके से आशीष देता है, जिसकी उन्होंने उम्मीद भी नहीं की होगी। दरअसल हम सोच भी नहीं सकते कि भविष्य में यहोवा हमें क्या-क्या आशीषें देगा। आज भले ही हमें तकलीफों से गुज़रना पड़ रहा है, फिर भी हमें दुनिया की मंज़ूरी पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि यह दुनिया मिटनेवाली है और इसमें हम जो भी पहचान बनाएँगे, वह भी मिट जाएगी। (1 यूह. 2:17) मगर हमारा प्यारा पिता यहोवा ‘अन्यायी नहीं कि हमारे काम और उस प्यार को भूल जाए, जो हमें उसके नाम के लिए है।’ (इब्रा. 6:10) वह हमेशा हमें पहचानेगा और शायद हमें उस तरीके से आशीषें दे, जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

^ पैरा. 17 अमरता का इब्रानी शास्त्र में कोई ज़िक्र नहीं किया गया है, इसलिए हो सकता है कि यीशु ने इसकी उम्मीद न की हो।