इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

जीवन कहानी

‘यहोवा ने हम पर कृपा की है’

‘यहोवा ने हम पर कृपा की है’

मैं और मेरी पत्नी डनियेल होटल में घुसे ही थे कि रिसेप्शन में बैठी औरत ने मुझसे कहा, “सर, क्या आप सीमा पुलिस को फोन कर सकते हैं?” हम पश्‍चिम अफ्रीका के एक देश गैबन में कुछ ही घंटे पहले पहुँचे थे। सन्‌ 1970 के दशक में यहाँ इस देश में हमारे काम पर रोक लगी थी।

डनियेल हमेशा अपनी आँख-कान खुले रखती थी जिस वजह से उसने तुरंत मेरे कानों में फुसफुसाया, “पुलिस को फोन मत कीजिए, वह आ गयी है!” उसी वक्‍त होटल के सामने एक गाड़ी आकर रुक गयी और कुछ ही मिनटों में पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर लिया। वह तो अच्छा हुआ कि डनियेल ने मुझे पहले ही खबरदार कर दिया और मैंने तुरंत कुछ ज़रूरी कागज़ात एक भाई को थमा दिए।

जब हमें पुलिस स्टेशन ले जाया जा रहा था, तो रास्ते-भर मैं शुक्र मना रहा था कि मेरी पत्नी कितनी बहादुर है और उसे यहोवा और उसके संगठन की कितनी परवाह है। ऐसा कई बार हुआ है जब मुश्‍किल हालात में हम दोनों ने साथ मिलकर काम किया था। आइए अब मैं आपको अपने बारे में कुछ बताता हूँ और यह भी कि क्यों हम उन देशों में जाते थे जहाँ हमारे काम पर पाबंदियाँ लगी थीं।

यहोवा की कृपा से मैं समझ पाया कि यही सच्चाई है

सन्‌ 1930 में मेरा जन्म उत्तरी फ्रांस में ख्वाह नाम के एक छोटे-से कसबे में हुआ। मैं एक कट्टर कैथोलिक परिवार में पला-बढ़ा था। हम लोग हर हफ्ते चर्च जाते थे और पिताजी चर्च के कामों में ज़ोर-शोर से लगे रहते थे। लेकिन जब मैं करीब 14 साल का था तब कुछ ऐसा हुआ जिससे मैं चर्च का ढकोसला साफ देख पाया। ऐसा क्या हुआ?

दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान फ्रांस पर जर्मन सेना का कब्ज़ा था। चर्च में पादरी अकसर उपदेश देते वक्‍त हमें बढ़ावा देता कि हम नात्ज़ियों के पक्ष में शासन करनेवाली वीशी सरकार का समर्थन करें। यह सुनकर हम चौंक गए। फ्रांस में बाकी लोगों की तरह हम भी चोरी-छिपे बीबीसी रेडियो सुनते थे जिसमें हमें मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के बारे में खबरें मिलती थीं। सितंबर 1944 में जब ये सेनाएँ फ्रांस की तरफ बढ़ने लगीं, तो पादरी ने उनका समर्थन करना शुरू कर दिया। उनके आने की खुशी में उसने ईश्‍वर को धन्यवाद देने के लिए चर्च में एक खास सभा रखी। यह ढोंग देखकर मैं हैरान रह गया और पादरियों पर से मेरा भरोसा उठ गया।

युद्ध खत्म होने के कुछ समय बाद पिताजी गुज़र गए। उस वक्‍त तक मेरी बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी और वह बेल्जियम में रहती थी। मुझे लगा, अब माँ की देखभाल करना मेरी ज़िम्मेदारी है। मुझे कपड़ों की एक बड़ी मिल में नौकरी मिल गयी। मेरा बॉस और उसके बेटे कट्टर कैथोलिक थे। उनकी कंपनी में मैं खूब तरक्की कर सकता था, लेकिन बहुत जल्द मेरे सामने एक परीक्षा आनेवाली थी।

मेरी बड़ी बहन सीमोन, यहोवा की साक्षी बन चुकी थी और 1953 में वह हमसे मिलने आयी। उसने अपनी बाइबल से अच्छी तरह समझाया कि नरक, त्रिएक और अमर आत्मा जैसी कैथोलिक चर्च की शिक्षाएँ गलत हैं। पहले तो मैं उससे बहस करने लगा कि वह कैथोलिक बाइबल से नहीं बल्कि अपनी बाइबल से दिखा रही है, लेकिन जल्द ही मुझे यकीन हो गया कि वह जो बता रही है, वह एकदम सच है। बाद में वह मुझे प्रहरीदुर्ग  की पुरानी कॉपियाँ लाकर देने लगी, जिन्हें मैं रात में अपने कमरे में बड़े चाव से पढ़ता था। मैं तुरंत समझ गया कि यही सच्चाई है। लेकिन मुझे डर था कि अगर मैं खुद को यहोवा का साक्षी बताऊँगा, तो मेरी नौकरी चली जाएगी।

कुछ महीनों तक मैं अपने आप बाइबल और प्रहरीदुर्ग  के लेखों का अध्ययन करता रहा। लेकिन फिर मैंने राज-घर जाने का फैसला किया। मंडली में भाई-बहनों का प्यार मेरे दिल को छू गया। मैंने एक तजुरबेकार भाई से छ: महीने तक बाइबल का अध्ययन किया और फिर सितंबर 1954 में बपतिस्मा ले लिया। इसके कुछ समय बाद माँ और छोटी बहन भी साक्षी बन गयीं। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा!

पूरे समय की सेवा में यहोवा पर निर्भर रहे

सन्‌ 1958 में मुझे न्यू यॉर्क में एक अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में जाने का सम्मान मिला, मगर दुख की बात है कि इसके कुछ हफ्ते पहले माँ गुज़र गयीं। अधिवेशन से लौटने के बाद मुझ पर किसी की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी नहीं थी, इसलिए मैंने नौकरी छोड़ दी और पायनियर सेवा करने लगा। इस बीच एक जोशीली पायनियर बहन, डनियेल डली से मेरी सगाई हो गयी और मई 1959 में हमारी शादी हो गयी।

डनियेल ने घर से काफी दूर ब्रिटनी नाम के एक अलग-थलग इलाके में पूरे समय की सेवा शुरू की थी। वह कैथोलिक लोगों का इलाका था, इसलिए वहाँ प्रचार करने और साइकिल से दूर-दूर जाने के लिए उसे हिम्मत चाहिए थी। वह ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को खुशखबरी सुनाना चाहती थी, क्योंकि हम दोनों को एहसास था कि अंत कभी-भी आ सकता है। (मत्ती 25:13) डनियेल में त्याग की भावना थी, इसीलिए वह पूरे समय की सेवा करती रह पायी।

हमारी शादी के कुछ दिन बाद ही हमें सर्किट काम में भेजा गया। हमने कम सुविधाओं में रहना सीखा। जिस पहली मंडली का हमने दौरा किया, वहाँ 14 प्रचारक थे और किसी भी भाई के पास हमें ठहराने की सुविधा नहीं थी। इसलिए हम राज-घर के मंच पर ही सोए। हमें थोड़ी-बहुत दिक्कत तो हुई, पर हमारी कमर के लिए यह बहुत अच्छा था!

हम अपनी छोटी कार से मंडलियों का दौरा करते थे

सफरी काम में हम बहुत व्यस्त रहते थे, मगर डनियेल ने इस सेवा में खुद को अच्छी तरह ढाल लिया था। अकसर ऐसा होता था कि प्राचीन अचानक कोई बैठक रखते थे और डनियेल को कार में इंतज़ार करना पड़ता था। मगर उसने कभी शिकायत नहीं की। हमने दो साल तक सर्किट काम किया और इस दौरान हमने सीखा कि पति-पत्नी के लिए एक-दूसरे से खुलकर बात करना और एक टीम की तरह मिलकर काम करना कितना ज़रूरी है।​—सभो. 4:9.

यहोवा की सेवा में मिली नयी ज़िम्मेदारियाँ

सन्‌ 1962 में हमें गिलियड स्कूल की 37वीं क्लास में हाज़िर होने का बुलावा मिला। यह दस महीने का कोर्स न्यू यॉर्क के ब्रुकलिन में रखा गया था। सौ विद्यार्थियों में से सिर्फ 13 विद्यार्थियों को अपने जीवन-साथी के संग बुलाया गया था। खुशी की बात थी कि हम दोनों को गिलियड स्कूल में जाने का न्यौता मिला। मैं आज भी उन मीठे पलों को याद करता हूँ, जब हमें फ्रेडरिक फ्रांज़, युलिसीज़ ग्लास और एलेक्ज़ैंडर एच. मैकमिलन जैसे विश्‍वास के बड़े-बड़े दिग्गजों की संगति करने का मौका मिला।

हम कितने खुश थे कि हमें गिलियड स्कूल में एक-साथ जाने का मौका मिला!

गिलियड स्कूल के दौरान हमें सिखाया गया कि हम अपने आस-पास की चीज़ों को गौर से देखें। कई बार शनिवार को क्लास के बाद हमें दोपहर को न्यू यॉर्क सिटी की सैर कराने ले जाया जाता था। यह भी हमारी ट्रेनिंग का हिस्सा था। इसके बाद सोमवार को हमारी लिखित परीक्षा होती थी कि हमने क्या-क्या देखा। अकसर दोपहर से शाम तक सैर करते-करते हम पस्त हो जाते थे। लेकिन हमारा टूर गाइड जो बेथेल का ही एक सदस्य था, हमसे कुछ सवाल करता था ताकि हम परीक्षा के लिए मुख्य बातें याद रख सकें। एक बार शनिवार को हमने कई जगहों की सैर की। हम एक वेधशाला में गए, जहाँ हमने सीखा कि उल्का और उल्का-पिंड में क्या फर्क है। इसके बाद हम जानवरों और पेड़-पौधों के एक संग्रहालय में गए और देखा कि घड़ियाल और मगरमच्छ में क्या अंतर होता है। बेथेल लौटने पर हमारे टूर गाइड ने हमसे पूछा, “अच्छा बताओ, उल्का और उल्का-पिंड में क्या फर्क है?” डनियेल बहुत थकी हुई थी और वह बोल पड़ी, “उल्का-पिंड के दाँत लंबे होते हैं!”

अफ्रीका में वफादार भाई-बहनों से मिलकर हमें बहुत खुशी हुई

हैरानी की बात थी कि गिलियड स्कूल के बाद हमें फ्रांस के शाखा दफ्तर में सेवा करने के लिए भेजा गया। वहाँ हम दोनों को सेवा करते 53 साल से ऊपर हो गए हैं। सन्‌ 1976 में मुझे शाखा-समिति प्रबंधक की ज़िम्मेदारी दी गयी। इसके अलावा मुझे अफ्रीका और मध्य पूर्व के देशों का दौरा करने के लिए भी कहा गया, जहाँ हमारे प्रचार काम पर रोक लगी थी या कुछ पाबंदियाँ लगी थीं। इसी वजह से हम गैबन देश गए, जहाँ का अनुभव मैंने शुरू में बताया था। सच कहूँ तो मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि मुझे इस तरह की ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँगी और कई बार मैं खुद को इस काबिल नहीं समझता था। मगर डनियेल ने हमेशा मेरी मदद की, इसलिए मुझे जो भी ज़िम्मेदारी मिली, उसे मैं पूरा कर पाया।

सन्‌ 1988 में पैरिस में “ईश्‍वरीय न्याय” अधिवेशन में भाई थियोडोर जारज़ के भाषण का अनुवाद करते हुए

मुश्‍किल दौर का मिलकर सामना किया

शुरू से ही हम दोनों को बेथेल सेवा से बहुत लगाव था। डनियेल ने गिलियड जाने से पहले, पाँच महीने में ही अँग्रेज़ी सीख ली थी। इस वजह से वह बेथेल में एक अच्छी अनुवादक बन गयी। बेथेल में काम करके तो हमें खुशी मिलती ही थी, लेकिन मंडली के साथ काम करके हमारी खुशी दुगनी हो जाती थी। मुझे आज भी वे दिन याद हैं, जब मैं और डनियेल देर रात तक अध्ययन कराने के बाद पैरिस की मेट्रो से बेथेल लौटते थे। हालाँकि हम काफी थक जाते थे, लेकिन हमें खुशी भी होती थी कि हमने तरक्की करनेवाले बाइबल अध्ययन चलाए। दुख की बात है कि अचानक डनियेल की सेहत खराब हो गयी, जिससे वह बेथेल सेवा और प्रचार सेवा उतना नहीं कर पाती थी, जितना वह चाहती थी।

सन्‌ 1993 में हमें पता चला कि उसे स्तन कैंसर है, इसलिए उसका ऑपरेशन कराना पड़ा और कीमोथेरपी भी। इस इलाज के दौरान उसे बहुत दर्द सहना पड़ा। पंद्रह साल बाद उसका कैंसर और भी भयानक रूप लेकर लौट आया। इतना सब होने के बावजूद डनियेल की हालत जब भी थोड़ी ठीक होती, वह काम करने लगती, क्योंकि उसे अनुवाद काम से बहुत लगाव था।

डनियेल को इतनी गंभीर बीमारी होने के बाद भी हमारे मन में कभी बेथेल छोड़ने का खयाल नहीं आया। लेकिन बेथेल में भी बीमार पड़ने से मुश्‍किलें आती हैं, खासकर जब दूसरों को ठीक-ठीक पता न हो कि वह बीमारी कितनी गंभीर है। (नीति. 14:13) डनियेल की उम्र 75 से ऊपर थी, फिर भी उसके खूबसूरत मुस्कुराते चेहरे को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वह इतनी बीमार है। वह अपनी हालत पर अफसोस नहीं करती थी। इसके बजाय उसका ध्यान हमेशा दूसरों की मदद करने पर रहता था। वह जानती थी कि लोगों की बात सुनने से उनका दुख हलका हो सकता है। (नीति. 17:17) डनियेल ने कभी यह दावा नहीं किया कि उसे कैंसर के बारे में सबकुछ पता है, मगर अपने अनुभव से वह कैंसर से लड़ने में कई बहनों की मदद कर पायी।

फिर हमारे सामने कुछ नयी मुश्‍किलें आयीं। अब डनियेल बेथेल में पूरे दिन काम नहीं कर पाती थी। फिर भी वह नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से मेरी सेवा पर कोई असर पड़े, इसलिए उससे जो हो सकता था, वह करती थी। जैसे, वह दोपहर का खाना बनाती या मेज़ पर लगाती थी, ताकि हम अपने कमरे में एक साथ खाना खा सकें और थोड़ा आराम कर सकें। वाकई उसकी मदद से मैं 37 सालों तक शाखा-समिति प्रबंधक के तौर पर लगातार सेवा कर पाया।​—नीति. 18:22.

हर दिन की चिंताओं से लड़ना

डनियेल को ज़िंदगी से बहुत प्यार था और वह जीना चाहती थी। लेकिन फिर उसे तीसरी बार कैंसर हो गया। अब तो हम बिलकुल बेबस हो गए थे। बार-बार कीमोथेरपी और रेडियोथेरेपी करवाने की वजह से वह इतनी कमज़ोर हो गयी थी कि कई बार तो उसके लिए एक कदम चलना भी मुश्‍किल था। जब मैं अपनी प्यारी पत्नी को देखता कि कहाँ वह एक कुशल अनुवादक थी और कहाँ अब उसके लिए एक-एक शब्द बोलना भी भारी पड़ रहा है, तो मेरा दिल तड़प उठता था।

हालाँकि हम बेबस महसूस कर रहे थे, लेकिन हमने प्रार्थना करना नहीं छोड़ा। हमें पूरा यकीन था कि यहोवा हम पर ऐसी कोई मुश्‍किल नहीं आने देगा, जो हमारी बरदाश्‍त के बाहर हो। (1 कुरिं. 10:13) यहोवा ने अपने वचन, बेथेल के चिकित्सा विभाग और दूसरे भाई-बहनों के ज़रिए मुश्‍किल की इस घड़ी में हमें बहुत सँभाला। इस प्यार और परवाह की हम हमेशा कदर करते थे।

हम अकसर यहोवा से मार्गदर्शन माँगते थे ताकि हम सही इलाज चुन सकें। एक बार ऐसा भी हुआ कि डनियेल कुछ समय तक बिना इलाज के रही। दरअसल वह हर कीमोथेरपी के बाद बेहोश हो जाती थी। जो डॉक्टर 23 साल से डनियेल का इलाज कर रहा था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। उसे कोई दूसरा इलाज भी नहीं सूझ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे सारे रास्ते बंद हो गए हैं। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। तभी एक दूसरा डॉक्टर डनियेल का इलाज करने के लिए तैयार हो गया। यह ऐसा था मानो यहोवा ने हमें चिंताओं के भँवर से निकाल लिया हो।

हमने सीखा कि हमें आगे की इतनी चिंता नहीं करनी चाहिए और यीशु ने यही तो कहा था, “आज के लिए आज की परेशानियाँ काफी हैं।” (मत्ती 6:34) ज़िंदगी के बारे में सही नज़रिया रखने और मज़ाकिया स्वभाव होने की वजह से भी हमें काफी मदद मिली। जैसे, जब दो महीने से डनियेल की कीमोथेरपी नहीं हो रही थी, तो उसने मज़ाक करते हुए कहा, “पता है, अब मैं पहले से बेहतर हूँ!” (नीति. 17:22) इतनी तकलीफ के बावजूद डनियेल खुशी-खुशी नए राज-गीतों का अभ्यास करती थी और वह भी ज़ोर-ज़ोर से।

डनियेल के खुश-मिज़ाज होने की वजह से मैं अपनी मुश्‍किलों का सामना कर पाया। दरअसल पिछले 57 सालों में उसने मेरी हर ज़रूरत का खयाल रखा। यहाँ तक कि उसने कभी मुझे एक अंडा तक फ्राई करने नहीं दिया! इसलिए जब उसकी हालत बहुत खराब हो गयी, तो मुझे घर के काम सीखने पड़े जैसे, बरतन साफ करना, कपड़े धोना और थोड़ा-बहुत खाना बनाना। कई बार मुझसे गिलास टूट जाते थे, फिर भी उसकी देखभाल करने के लिए मैं खुशी-खुशी कुछ भी करने को तैयार था। *

यहोवा के अटल प्यार के लिए एहसानमंद

आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि खराब सेहत और ढलती उम्र की वजह से हम पर जो मुश्‍किलें आयीं, उनसे हमने बहुत कुछ सीखा। एक यह कि हमें कभी-भी इतने व्यस्त नहीं होना चाहिए कि अपने जीवन-साथी की कदर करना ही भूल जाएँ। जब तक हममें दमखम है, हमें अपनों का खयाल रखने की पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए। (सभो. 9:9) मैंने यह भी सीखा कि हमें छोटी-छोटी बातों के बारे में बहुत ज़्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए, नहीं तो हमारा ध्यान उन आशीषों पर नहीं जाएगा जो हमें हर दिन मिलती हैं।​—नीति. 15:15.

जब मैं पूरे समय की सेवा में बिताए दिनों को याद करता हूँ, तो मैं पूरे दावे से कह सकता हूँ कि यहोवा ने हमें उम्मीदों से बढ़कर आशीषें दी हैं। मैं भजन के उस लेखक के जैसा महसूस करता हूँ, जिसने लिखा, “यहोवा ने मुझ पर कृपा की है।”​—भज. 116:7.

^ पैरा. 32 जब यह लेख तैयार किया जा रहा था, तब बहन डनियेल बोकार्ट की मौत हो गयी। वे 78 साल की थीं।