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अध्ययन लेख 12

एक-दूसरे का दर्द महसूस करें!

एक-दूसरे का दर्द महसूस करें!

‘तुम सब एक-दूसरे का दर्द महसूस करो।’​—1 पत. 3:8.

गीत 90 एक-दूसरे की हिम्मत बँधाएँ

लेख की एक झलक *

1. पहला पतरस 3:8 के मुताबिक, जो लोग हमारी भावनाएँ और ज़रूरतें समझते हैं, उनके साथ रहना हमें क्यों अच्छा लगता है?

ऐसे लोगों के साथ रहना किसे अच्छा नहीं लगता, जो हमारी भावनाएँ और ज़रूरतें समझते हैं? इस तरह के लोग खुद को हमारी जगह रखकर देखते हैं, ताकि वे समझ सकें कि हम कैसा महसूस कर रहे हैं या क्या सोच रहे हैं। वे हमारी ज़रूरतें भाँप लेते हैं और मदद करते हैं, कई बार तो हमारे पूछने से पहले ही। हम ऐसे लोगों के कितने एहसानमंद होते हैं, जो हमारा ‘दर्द महसूस करते’ हैं या हमसे हमदर्दी * रखते हैं।​—1 पतरस 3:8 पढ़िए।

2. हम कई बार हमदर्दी क्यों नहीं रख पाते हैं?

2 मसीही होने के नाते हम एक-दूसरे से हमदर्दी रखना चाहते हैं। पर सच तो यह है कि कई बार हम ऐसा नहीं कर पाते। वह क्यों? एक वजह यह है कि हम सब अपरिपूर्ण हैं। (रोमि. 3:23) हम अकसर दूसरों से पहले अपने बारे में सोचते हैं। कुछ लोगों की परवरिश जिस माहौल में हुई या पहले उनका जो अनुभव रहा, उसकी वजह से भी उनके लिए दूसरों से हमदर्दी रखना मुश्‍किल होता है। इसके अलावा हम पर इस दुनिया के लोगों का बुरा असर भी हो सकता है। इन आखिरी दिनों में बहुत-से लोग दूसरों की भावनाओं की कोई कदर नहीं करते। वे सिर्फ ‘खुद से प्यार करते’ हैं। (2 तीमु. 3:1, 2) लेकिन हम ऐसा क्या कर सकते हैं, ताकि ये बातें दूसरों से हमदर्दी रखने में रुकावट न बनें?

3. (क) हम लोगों से किस तरह और भी हमदर्दी रख सकते हैं? (ख) इस लेख में हम क्या चर्चा करेंगे?

3 अगर हम यहोवा और उसके बेटे यीशु की मिसाल पर चलें, तो हम लोगों से और भी हमदर्दी रख पाएँगे। यहोवा प्यार का परमेश्‍वर है और लोगों का दर्द समझने में वह सबसे बढ़िया मिसाल है। (1 यूह. 4:8) यीशु हू-ब-हू अपने पिता जैसा था। (यूह. 14:9) जब वह धरती पर था, तब उसने अपने व्यवहार से जताया कि हम लोगों से हमदर्दी कैसे रख सकते हैं। इस लेख में पहले हम चर्चा करेंगे कि यहोवा और यीशु ने किस तरह लोगों का दर्द समझा। फिर हम जानेंगे कि हम उनकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं।

यहोवा लोगों का दर्द समझता है

4. यशायाह 63:7-9 से कैसे पता चलता है कि यहोवा अपने सेवकों का दर्द समझता है?

4 बाइबल सिखाती है कि यहोवा अपने सेवकों का दर्द समझता है। गौर कीजिए कि जब इसराएली मुश्‍किलों से गुज़रे, तो यहोवा ने कैसा महसूस किया। परमेश्‍वर का वचन बताता है, “जब-जब वे तकलीफ में थे, उसे भी तकलीफ हुई।” (यशायाह 63:7-9 पढ़िए।) बाद में यहोवा ने भविष्यवक्‍ता जकरयाह के ज़रिए कहा कि जब उसके लोगों के साथ बुरा सलूक किया जाता है, तो यह ऐसा है मानो खुद उसके साथ बुरा सलूक किया जा रहा हो। यहोवा ने अपने सेवकों से कहा, “जो तुम्हें छूता है वह मेरी आँख की पुतली को छूता है।” (जक. 2:8) यहोवा ने कितने ज़बरदस्त तरीके से बताया कि उसे अपने लोगों की परवाह है!

यहोवा ने तरस खाकर इसराएलियों को मिस्र की गुलामी से आज़ाद किया (पैराग्राफ 5 देखें)

5. समझाइए कि यहोवा ने कैसे अपने लोगों को तकलीफ में देखकर कदम उठाया।

5 जब यहोवा अपने लोगों को तकलीफ में देखता है, तो ऐसा नहीं कि वह उन पर सिर्फ तरस खाता है। वह उनकी खातिर कदम भी उठाता है। ज़रा वह वक्‍त याद कीजिए, जब इसराएली मिस्र में गुलाम थे और बहुत ज़ुल्म सह रहे थे। यहोवा ने उनका दर्द समझा और उससे रहा नहीं गया। उसने मूसा से कहा, “मैंने बेशक देखा है कि . . . मेरे लोग कितनी दुख-तकलीफें झेल रहे हैं। मैंने उनका रोना-बिलखना सुना है . . . मैं अपने लोगों का दुख अच्छी तरह समझ सकता हूँ। इसलिए मैं नीचे जाकर उन्हें मिस्रियों के हाथ से छुड़ाऊँगा।” (निर्ग. 3:7, 8) यहोवा को अपने लोगों पर इतना तरस आया कि उसने उन्हें गुलामी से आज़ाद किया। सदियों बाद जब इसराएली वादा किए गए देश में थे और दुश्‍मन उन्हें सता रहे थे, तब यहोवा ने कैसा महसूस किया? बाइबल बताती है, “जब दुश्‍मन उन पर ज़ुल्म ढाते तो उनका कराहना सुनकर यहोवा तड़प उठता।” इस बार भी यहोवा ने अपने लोगों का दर्द समझा और वह उनकी मदद के लिए आगे आया। उसने इसराएलियों को दुश्‍मनों से बचाने के लिए न्यायी ठहराए।​—न्यायि. 2:16, 18.

6. यहोवा ने कैसे उस व्यक्‍ति से हमदर्दी रखी, जिसकी सोच सही नहीं थी?

6 यहोवा अपने सेवकों से तब भी हमदर्दी रखता है, जब उनकी सोच सही नहीं होती। भविष्यवक्‍ता योना के उदाहरण पर ध्यान दीजिए। परमेश्‍वर ने उसे न्याय का संदेश सुनाने के लिए नीनवे भेजा था। जब नीनवे के लोगों ने पश्‍चाताप किया, तो यहोवा ने उन्हें सज़ा देने का फैसला बदल दिया। लेकिन योना इससे खुश नहीं हुआ। “वह आग-बबूला हो उठा,” क्योंकि उसने नीनवे के नाश होने की जो भविष्यवाणी की थी, वह पूरी नहीं हुई। मगर यहोवा ने सब्र रखा और योना की सोच सुधारी। (योना 3:10–4:11) धीरे-धीरे योना यहोवा की बात समझ गया। फिर यहोवा ने उसी से यह घटना लिखवायी, ताकि हमें इससे फायदा हो।​—रोमि. 15:4. *

7. यहोवा अपने लोगों से जिस तरह पेश आया, उससे हमें किस बात का यकीन हो जाता है?

7 यहोवा अपने लोगों से जिस तरह पेश आया, उससे हमें यकीन हो जाता है कि उसे अपने सेवकों से हमदर्दी है। वह हममें से हर किसी का दर्द और तकलीफ समझता है। वह “सही मायनों में जानता है कि इंसान का दिल कैसा है।” (2 इति. 6:30) वह दिल की गहराइयों में छिपे हमारे विचार, हमारी भावनाएँ और हमारी सीमाएँ जानता है। वह हमें “ऐसी किसी भी परीक्षा में नहीं पड़ने देगा जो [हमारी] बरदाश्‍त के बाहर हो।” (1 कुरिं. 10:13) इस बात से हमें कितना दिलासा मिलता है!

यीशु लोगों का दर्द समझता था

8-10. यीशु लोगों का दर्द क्यों अच्छी तरह समझ सकता था?

8 धरती पर रहते वक्‍त यीशु ने भी लोगों का दर्द अच्छी तरह समझा। वह ऐसा क्यों कर पाया? इसकी कम-से-कम तीन वजह रही होंगी। पहली, जैसे हमने देखा, यीशु हू-ब-हू अपने पिता जैसा था। यहोवा की तरह उसे भी लोगों से प्यार था। यह सच है कि उसे सृष्टि की हर चीज़ से खुशी मिलती थी, जिसे बनाने में उसने पिता का हाथ बँटाया था, मगर सबसे बढ़कर उसे ‘इंसानों से गहरा लगाव था।’ (नीति. 8:31) इसी प्यार की वजह से वह लोगों से हमदर्दी रख सका।

9 दूसरी वजह, यहोवा की तरह यीशु लोगों का दिल पढ़ सकता था। वह लोगों के इरादे और उनकी भावनाएँ जान सकता था। (मत्ती 9:4; यूह. 13:10, 11) इस वजह से जब यीशु यह भाँप लेता था कि लोग अंदर से कितने टूटे हुए हैं, तो उसका दिल तड़प उठता था और वह उन्हें दिलासा देता था।​—यशा. 61:1, 2; लूका 4:17-21.

10 तीसरी वजह, लोग जिन मुश्‍किलों का सामना कर रहे थे, यीशु खुद उनमें से कुछ मुश्‍किलों से गुज़रा था। जैसे, यीशु की परवरिश एक गरीब परिवार में हुई थी। अपने दत्तक पिता यूसुफ के साथ काम करके उसने कड़ी मेहनत करना सीखा। (मत्ती 13:55; मर. 6:3) ऐसा मालूम होता है कि यीशु की सेवा शुरू होने से कुछ समय पहले ही यूसुफ की मौत हो गयी थी। ज़ाहिर है कि यीशु अपनों को खोने का गम अच्छी तरह जानता था। यीशु यह भी जानता था कि उस परिवार में रहना कैसा होता है, जिसमें कुछ लोग सच्चाई में नहीं होते। (यूह. 7:5) इन हालात से गुज़रने की वजह से यीशु लोगों की तकलीफें और उनका दर्द अच्छी तरह समझ सकता था।

यीशु एक बहरे आदमी पर तरस खाता है और उसे भीड़ से दूर ले जाकर ठीक करता है (पैराग्राफ 11 देखें)

11. यह कब और भी साफ ज़ाहिर हुआ कि यीशु को लोगों से हमदर्दी है? समझाइए। (बाहर दी तसवीर देखें।)

11 जब यीशु ने चमत्कार किए, तब यह और भी साफ ज़ाहिर हुआ कि उसे लोगों से हमदर्दी है। वह बस फर्ज़ समझकर चमत्कार नहीं करता था, बल्कि इसलिए करता था कि वह लोगों को तकलीफ में देखकर ‘तड़प उठता था।’ (मत्ती 20:29-34; मर. 1:40-42) सोचिए कि उस वक्‍त यीशु ने कैसा महसूस किया होगा, जब उसने एक बहरे आदमी को भीड़ से अलग ले जाकर ठीक किया था या जब उसने एक विधवा के इकलौते बेटे को ज़िंदा किया था। (मर. 7:32-35; लूका 7:12-15) यीशु को उन लोगों से हमदर्दी थी और वह दिल से उनकी मदद करना चाहता था।

12. यूहन्‍ना 11:32-35 से कैसे पता चलता है कि यीशु ने मारथा और मरियम का दर्द महसूस किया?

12 यीशु ने मारथा और मरियम का भी दर्द महसूस किया। जब उसने देखा कि वे अपने भाई लाज़र की मौत से कितनी दुखी हैं, तो उसके “आँसू बहने लगे।” (यूहन्‍ना 11:32-35 पढ़िए।) क्या यीशु इसलिए रो रहा था कि उसने अपने जिगरी दोस्त को खो दिया है? जी नहीं, वह जानता था कि कुछ ही पलों में वह लाज़र को ज़िंदा कर देगा। दरअसल, लाज़र की बहनों और बाकी दोस्तों को दुखी देखकर उसका दिल भर आया, इसलिए वह अपने आँसू रोक नहीं पाया।

13. यह जानकर हमारा हौसला क्यों बढ़ता है कि यीशु को लोगों से हमदर्दी है?

13 हमने देखा कि यीशु को लोगों से हमदर्दी थी और यह उसके व्यवहार से साफ झलकता था। इससे हमारा हौसला बढ़ता है और उसके लिए हमारा प्यार गहरा हो जाता है। (1 पत. 1:8) हमारा हौसला इस बात से भी बढ़ता है कि आज वह परमेश्‍वर के राज का राजा है। बहुत जल्द वह सारी दुख-तकलीफें मिटा देगा और वे सारे ज़ख्म भर देगा, जो शैतान की हुकूमत ने हमें दिए हैं। ऐसा करने के लिए यीशु एकदम सही है, क्योंकि एक वक्‍त पर वह भी इंसान था। सच में, हमारे लिए यह कितनी खुशी की बात है कि हमारा राजा “हमारी कमज़ोरियों में हमसे हमदर्दी” रख सकता है।​—इब्रा. 2:17, 18; 4:15, 16.

यहोवा और यीशु की मिसाल पर चलिए

14. इफिसियों 5:1, 2 को ध्यान में रखते हुए हमारा दिल हमें क्या करने के लिए उभारता है?

14 यहोवा और यीशु की मिसाल पर गौर करने से हमारा दिल हमें उभारता है कि हम लोगों से और भी हमदर्दी रखें। (इफिसियों 5:1, 2 पढ़िए।) हम लोगों का दिल तो नहीं पढ़ सकते, मगर हम उनकी भावनाएँ और ज़रूरतें समझने की कोशिश ज़रूर कर सकते हैं। (2 कुरिं. 11:29) माना कि आज दुनिया के ज़्यादातर लोग स्वार्थी हैं, पर हम ‘सिर्फ अपने भले की फिक्र में नहीं रहते, बल्कि दूसरे के भले की भी फिक्र करते हैं।’​—फिलि. 2:4.

(पैराग्राफ 15-19 देखें) *

15. खासकर किन्हें लोगों का दर्द समझना चाहिए?

15 खासकर मंडली के प्राचीनों को चाहिए कि वे लोगों का दर्द समझें। उन्हें पता है कि वे यहोवा की भेड़ों की जिस तरह देखभाल करते हैं, उसका उन्हें यहोवा को हिसाब देना होगा। (इब्रा. 13:17) भाई-बहनों की मदद करने के लिए ज़रूरी है कि प्राचीन उनसे हमदर्दी रखें। वे यह कैसे कर सकते हैं?

16. हमदर्दी रखनेवाला प्राचीन क्या करता है और यह क्यों ज़रूरी है?

16 हमदर्दी रखनेवाला प्राचीन मसीही भाई-बहनों के साथ वक्‍त बिताता है। उनसे बात करते वक्‍त वह सवाल करता है और फिर सब्र से उनकी बात सुनता है। ऐसा करना खासकर तब ज़रूरी होता है, जब कोई मसीही अपने दिल का सारा हाल बताना तो चाहता है, पर उसे समझ में नहीं आता कि अपनी बात कैसे कहे। (नीति. 20:5) जब एक प्राचीन खुशी-खुशी भाई-बहनों के साथ वक्‍त बिताता है, तो उस पर उनका भरोसा बढ़ता है, उनकी दोस्ती गहरी होती है और उनके बीच प्यार बढ़ता है।​—प्रेषि. 20:37.

17. बहुत-से भाई-बहनों को प्राचीनों में कौन-सी बात सबसे अच्छी लगती है? एक उदाहरण दीजिए।

17 बहुत-से भाई-बहनों का कहना है कि उन्हें प्राचीनों में यह बात सबसे अच्छी लगती है कि वे दूसरों का दर्द समझते हैं। ऐडलेड नाम की एक बहन कहती है, “जब हमें पता होता है कि प्राचीन हमारी बात समझेंगे, तो हम बेझिझक उनसे बात कर पाते हैं।” वह यह भी कहती है, “प्राचीनों से बात करते वक्‍त हमारी बातों का उन पर जो असर होता है, उससे पता चलता है कि वे हमारा दर्द समझते हैं या नहीं।” एक भाई एहसान-भरे दिल से याद करता है, “एक बार जब मैं एक प्राचीन को अपने हालात बता रहा था, तो उसकी आँखें भर आयीं। वह पल मैं कभी नहीं भूल सकता।”​—रोमि. 12:15.

18. हम लोगों से हमदर्दी कैसे रख सकते हैं?

18 दूसरों का दर्द समझना सिर्फ प्राचीनों की ज़िम्मेदारी नहीं है, हम सभी को दूसरों से हमदर्दी रखनी चाहिए। यह हम कैसे कर सकते हैं? यह समझने की कोशिश कीजिए कि आपके परिवारवाले और मंडली के भाई-बहन किन मुश्‍किलों से गुज़र रहे हैं। मंडली के नौजवानों, बीमार भाई-बहनों, बुज़ुर्गों और जिनके किसी अपने की मौत हो गयी है, उन पर खास ध्यान दीजिए। उनका हाल-चाल पूछिए। जब वे अपने दिल की बात बताते हैं, तो ध्यान से उनकी सुनिए। उन्हें यकीन दिलाइए कि आप उनका दर्द समझते हैं और आपसे जो हो सकेगा, आप उनके लिए करेंगे। इस तरह हम न सिर्फ अपनी बातों से, बल्कि कामों से भी दिखाएँगे कि हम उनसे सच में प्यार करते हैं।​—1 यूह. 3:18.

19. लोगों की मदद करते वक्‍त हमें उनका लिहाज़ क्यों करना चाहिए?

19 लोगों की मदद करते वक्‍त हमें उनका लिहाज़ करना चाहिए। ऐसा क्यों? वह इसलिए कि मुश्‍किलें आने पर हर कोई एक जैसा व्यवहार नहीं करता। कुछ लोग अपनी परेशानी बेझिझक दूसरों को बता देते हैं, तो कुछ लोग अपनी परेशानी खुलकर नहीं बताते। इस वजह से भले ही हम लोगों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन हमें उनसे कुछ ऐसा नहीं पूछना चाहिए, जिससे वे शर्मिंदा हो जाएँ। (1 थिस्स. 4:11) वहीं जो लोग खुलकर अपने दिल की बात बताते हैं, ज़रूरी नहीं कि उनकी बात से हम सहमत हों। फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि वे जो बता रहे हैं, वह उनकी  सोच और भावनाएँ हैं। इस वजह से यह कितना ज़रूरी है कि हम सुनने में फुर्ती करें और बोलने में उतावली न करें।​—मत्ती 7:1; याकू. 1:19.

20. अगले लेख में हम क्या चर्चा करेंगे?

20 मंडली के भाई-बहनों से हमदर्दी रखने के अलावा हम प्रचार में मिलनेवाले लोगों से भी हमदर्दी रखना चाहते हैं। प्रचार करते वक्‍त हम यह बढ़िया गुण कैसे दर्शा सकते हैं? इस बारे में हम अगले लेख में चर्चा करेंगे।

गीत 130 माफ करना सीखें

^ पैरा. 5 यहोवा और यीशु दूसरों का दर्द समझते हैं। इस लेख में चर्चा की जाएगी कि इस मामले में हम उनसे क्या सीख सकते हैं। हम यह भी जानेंगे कि हमें क्यों एक-दूसरे का दर्द समझना चाहिए और यह हम कैसे कर सकते हैं।

^ पैरा. 1 इनका क्या मतलब है? शब्द हमदर्दी रखने  का मतलब है, किसी की भावनाएँ समझना और फिर वैसा ही महसूस करना। (रोमि. 12:15) इस लेख में ‘हमदर्दी रखना’ और ‘एक-दूसरे का दर्द महसूस करना’ दोनों का मतलब एक ही है।

^ पैरा. 6 यहोवा ने दूसरे वफादार सेवकों की भावनाएँ भी समझीं, जो निराश या डरे हुए थे, जैसे हन्‍ना (1 शमू. 1:10-20), एलियाह (1 राजा 19:1-18) और एबेद-मेलेक (यिर्म. 38:7-13; 39:15-18)।

^ पैरा. 65 तसवीर के बारे में: राज-घर में होनेवाली सभाओं से हमें अच्छी संगति के कई मौके मिलते हैं: (1) एक प्राचीन एक छोटे प्रचारक और उसकी माँ से बात कर रहा है। (2) एक पिता और उसकी बेटी एक बुज़ुर्ग बहन को कार तक ले जा रहे हैं और (3) दो प्राचीन एक बहन की बात ध्यान से सुन रहे हैं, जो उनसे सलाह लेने आयी है।