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जीवन कहानी

हमने यहोवा को कभी “ना” नहीं कहा

हमने यहोवा को कभी “ना” नहीं कहा

तूफान की वजह से नदी कीचड़-कीचड़ हो गयी थी। पानी का बहाव इतना तेज़ था कि बड़े-बड़े पत्थर भी अपनी जगह से हिल गए थे। पुल भी टूटकर बह गया था। मैं, मेरे पति हार्वी और हमारे साथ आमिस भाषा का एक अनुवादक नदी के किनारे खड़े थे। हम बहुत डरे हुए थे, हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम नदी कैसे पार करें। नदी के दूसरी तरफ खड़े भाइयों को भी हमारी चिंता हो रही थी। फिर किसी तरह नदी पार करने के लिए हमने अपनी गाड़ी एक ट्रक के पीछे चढ़ायी। लेकिन हमारी गाड़ी को बाँधने के लिए कोई रस्सी या ज़ंजीर नहीं थी। ट्रक नदी में उतरा और धीरे-धीरे उसे पार करने लगा। ऐसा लग रहा था कि किनारा मीलों दूर है! हम पूरे रास्ते प्रार्थना करते रहे और आखिरकार सही-सलामत पहुँच गए। यह 1971 की बात है। उस वक्‍त हम घर से हज़ारों किलोमीटर दूर ताइवान के पूर्वी तट पर सेवा कर रहे थे। आइए मैं आपको शुरू से बताती हूँ कि हम यहाँ कैसे पहुँचे।

यहोवा के लिए प्यार बढ़ा

हार्वी पश्‍चिम ऑस्ट्रेलिया के एक छोटे-से शहर मिडलैंड जंक्शन से थे। सन्‌ 1930 के दशक में ऑस्ट्रेलिया में बहुत गरीबी थी। उनके परिवार ने इसी दौरान सच्चाई सीखी। हार्वी के तीन भाई थे और वे सबसे बड़े थे। जैसे-जैसे हार्वी बड़े हुए यहोवा के लिए उनका प्यार बढ़ता गया और 14 साल की उम्र में उन्होंने बपतिस्मा लिया। एक बार एक भाई ने उन्हें सभा में प्रहरीदुर्ग  पढ़ने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें लगा कि वे अच्छे से नहीं पढ़ पाएँगे। भाई ने उन्हें समझाया, “यहोवा के संगठन में जब कोई आपको काम देता है, तो उसे पूरा यकीन  होता है कि आप उसे करने के योग्य हैं!” (2 कुरिं. 3:5) उस घटना के बाद से हार्वी ने कभी किसी ज़िम्मेदारी को “ना” नहीं कहा।

मैं इंग्लैंड से हूँ। मैंने, मेरी माँ और मेरी बड़ी बहन ने सच्चाई वहीं सीखी। पिताजी हमारा विरोध करते थे। नौ साल की उम्र में जब मैंने बपतिस्मा लिया, तो वे मेरे इस फैसले के खिलाफ थे। मैं पायनियर सेवा करना चाहती थी और एक मिशनरी बनना चाहती थी। लेकिन पिताजी ने कहा कि मैं तब तक पायनियर सेवा नहीं कर सकती, जब तक मैं 21 की नहीं हो जाती। लेकिन मैं इतनी देर तक इंतज़ार नहीं कर सकती थी। इसलिए जब मैं 16 की हुई, तो मैंने पिताजी से इजाज़त माँगी और अपनी बड़ी बहन के पास ऑस्ट्रेलिया चली गयी। आखिरकार 18 की उम्र में, मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। कुछ समय बाद पिताजी भी सच्चाई में आ गए।

सन्‌ 1951, हमारी शादी का दिन

ऑस्ट्रेलिया में मेरी मुलाकात हार्वी से हुई। हम दोनों मिशनरी बनना चाहते थे। सन्‌ 1951 में हमने शादी कर ली। हमने साथ मिलकर दो साल तक पायनियर सेवा की, फिर हमें मंडलियों का दौरा करने के लिए कहा गया। हमें पश्‍चिम ऑस्ट्रेलिया की सभी मंडलियों का दौरा करना था, जो बहुत बड़ा इलाका था। एक मंडली से दूसरी मंडली पहुँचने के लिए हमें घंटों सफर करना पड़ता था और बंजर और सुनसान इलाकों से गुज़रना पड़ता था।

हमारा सपना सच हुआ

सन्‌ 1955, यैंकी स्टेडियम में हम गिलियड स्कूल से ग्रैजुएट हुए

सन्‌ 1954 में हमें गिलियड स्कूल की 25वीं क्लास में बुलाया गया। मिशनरी बनने का हमारा सपना आखिरकार पूरा होनेवाला था! हम समुद्री जहाज़ से न्यू यॉर्क पहुँचे। गिलियड स्कूल में हमने बाइबल का गहराई से अध्ययन किया। स्कूल में हमें स्पेनी भाषा सीखनी थी। हार्वी के लिए स्पेनी भाषा इतनी मुश्‍किल थी कि वे उसे ठीक से बोल ही नहीं पाते थे।

कोर्स के दौरान शिक्षकों ने बताया कि जो लोग जापान में सेवा करना चाहते हैं, वे जापानी भाषा सीखने के लिए अपना नाम दे सकते हैं। लेकिन हमने अपने नाम नहीं दिए। हम चाहते थे कि यहोवा का संगठन हमें बताए कि हमें कहाँ सेवा करनी है। गिलियड के शिक्षक भाई अल्बर्ट श्रोडर को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने हमसे कहा, “चाहो तो तुम सोचने के लिए और वक्‍त ले लो।” लेकिन जब हमने नाम तब भी नहीं लिखवाए, तो भाई श्रोडर ने कहा, “मैंने और बाकी शिक्षकों ने तुम्हारे नाम लिखवा दिए हैं। देख लो, शायद तुम्हें जापानी भाषा ज़्यादा आसान लगे।” और ऐसा ही हुआ। हार्वी जापानी भाषा आसानी से सीख गए।

सन्‌ 1955 में हम जापान आ गए। उस वक्‍त पूरे देश में सिर्फ 500 प्रचारक थे। हार्वी 26 साल के थे और मैं 24 साल की थी। हमें कोबे शहर भेजा गया, वहाँ हमने चार साल तक सेवा की। फिर हार्वी को सर्किट निगरान की ज़िम्मेदारी दी गयी और हमने खुशी-खुशी नगोया शहर के पास सेवा की। हमें यहाँ की हर बात अच्छी लगी, यहाँ के भाई-बहन, यहाँ का खाना और खूबसूरत नज़ारे। कुछ समय बाद, हमें यहोवा की सेवा में एक और मौका मिला, जिसे हमने “ना” नहीं कहा।

नयी ज़िम्मेदारी लायी नयी मुश्‍किलें

सन्‌ 1957, हार्वी और मैं जापान के कोबे शहर में दूसरे मिशनरियों के साथ

तीन साल तक सफरी निगरान की ज़िम्मेदारी निभाने के बाद जापान के शाखा दफ्तर ने हार्वी और मुझसे पूछा कि क्या हम ताइवान जाकर आमिस जाति के लोगों को प्रचार करेंगे। आमिस भाषा बोलनेवाले कुछ भाई धर्मत्यागी बन गए थे, इसलिए उन्हें रोकने के लिए ताइवान शाखा दफ्तर को कोई ऐसा भाई चाहिए था जो जापानी अच्छी तरह बोलता हो। * जापान में सेवा करके हमें बहुत मज़ा आ रहा था, इसे छोड़कर जाना हमारे लिए मुश्‍किल था। लेकिन हार्वी ने कभी किसी ज़िम्मेदारी को “ना” नहीं कहा था। इसलिए हम जाने के लिए तैयार हो गए।

हम 1962 के नवंबर महीने में ताइवान पहुँचे। उस वक्‍त वहाँ 2,271 प्रचारक थे और ज़्यादातर भाई आमिस बोलते थे। पर सबसे पहले हमें चीनी भाषा सीखनी थी। हमारे पास सिर्फ एक किताब थी और हमें एक ऐसी टीचर मिली जिसे अँग्रेज़ी नहीं आती थी। फिर भी हमने चीनी भाषा सीख ली।

ताइवान पहुँचने के कुछ समय बाद हार्वी को शाखा सेवक बनाया गया। शाखा दफ्तर का इलाका ज़्यादा बड़ा नहीं था। इसलिए हार्वी हर महीने एक ही हफ्ते में शाखा दफ्तर से जुड़े काम निपटा लेते थे और बाकी के तीन हफ्ते आमिस भाइयों के साथ प्रचार करते थे। बीच-बीच में वे ज़िला निगरान की ज़िम्मेदारी भी सँभालते थे और सम्मेलनों में भाषण देते थे। हार्वी चाहते तो जापानी में भाषण दे सकते थे और आमिस भाइयों को समझ में भी आ जाता। लेकिन वहाँ की सरकार का यह कानून था कि धार्मिक सभाएँ सिर्फ चीनी भाषा में होनी चाहिए। इसलिए हार्वी ने जैसे-तैसे चीनी में भाषण दिए और एक भाई ने आमिस भाषा में उनका अनुवाद किया।

उस वक्‍त ताइवान में सैन्य शासन (मार्शल लॉ) था, इसलिए भाइयों को सम्मेलन रखने के लिए पुलिस से परमिट लेना पड़ता था। परमिट लेने के लिए काफी चक्कर काटने पड़ते थे। अगर पुलिसवाले सम्मेलन के हफ्ते तक परमिट नहीं देते थे, तो हार्वी पुलिस स्टेशन में जाकर बैठ जाते थे। और तब तक नहीं हिलते थे जब तक कि उन्हें परमिट नहीं मिल जाता। एक विदेशी को पुलिस स्टेशन में बैठा देखकर पुलिसवाले शर्म के मारे परमिट दे देते थे। हार्वी की यह तरकीब हमेशा काम आती थी।

मेरी पहली चढ़ाई

ताइवान में प्रचार करने के लिए हम एक नदी पार कर रहे हैं, जो इतनी गहरी नहीं है

जब हम भाइयों के साथ प्रचार करते थे, तो हम घंटों पैदल चलते थे, पहाड़ चढ़ते थे और नदियाँ पार करते थे। मुझे आज भी वह दिन याद है जब मैंने पहली बार पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। उस दिन सुबह-सुबह हमने फटाफट नाश्‍ता किया और दूर के एक गाँव जाने के लिए साढ़े पाँच बजे की बस पकड़ी, एक चौड़ी नदी पार की और एक खड़ी पहाड़ी पर चढ़ाई की। यह इतनी खड़ी थी कि मुझे सामने चढ़ाई करनेवाले भाई के पैर नज़र आ रहे थे।

ऊपर पहुँचने के बाद हार्वी कुछ भाइयों के साथ प्रचार करने लगे और मैं अकेली एक छोटे-से गाँव में प्रचार करने लगी जहाँ जापानी बोलनेवाले लोग रहते थे। करीब एक बजे भूख के मारे मुझे चक्कर आने लगे। जब मैं हार्वी से मिली, तो बाकी भाई उनके साथ नहीं थे। हार्वी ने प्रचार में कुछ पत्रिकाएँ दी थीं जिनके बदले उन्हें मुर्गी के तीन अंडे मिले। उन्होंने एक अंडा लिया और मुझे दिखाया कि उसे कैसे खाना है। उन्होंने उसके दोनों तरफ छोटे-से छेद किए और उसे चूसा। हालाँकि उसे कच्चा खाने का मेरा मन नहीं कर रहा था, लेकिन मैंने एक खाकर देखा। फिर हार्वी ने मुझे एक और अंडा दिया क्योंकि उन्हें लगा कि अगर मैं बेहोश हो गयी, तो वे मुझे उठाकर नीचे नहीं उतर पाएँगे।

नहाने का एक अलग तरीका

एक बार जब सर्किट सम्मेलन की तैयारियाँ चल रही थीं, तो एक अजीब-सी बात हुई। हम एक भाई के घर रुके थे, उसका घर राज-घर के बिलकुल बगल में था। आमिस लोग नहाना बहुत ज़रूरी समझते थे। इसलिए सर्किट निगरान की पत्नी ने हमारे नहाने की सारी तैयारियाँ कीं। हार्वी को बहुत काम था, तो उन्होंने मुझे पहले नहाने को कहा। मैंने देखा कि एक बाल्टी में ठंडा पानी रखा है, एक में गरम और एक चौड़े मुँहवाला खाली बरतन रखा है। मैं यह देखकर हैरान रह गयी कि सर्किट निगरान की पत्नी ने यह सब घर के बाहर रखा था। और पास में ही भाई सम्मेलन की तैयारियाँ कर रहे थे। मैंने बहन से एक परदा माँगा, वह प्लास्टिक का कुछ लेकर आयी, पर उससे सबकुछ आर-पार दिख रहा था। मैंने सोचा कि मैं घर के पीछे जाकर नहा लेती हूँ, लेकिन वहाँ बत्तख थे और उनके पास जाते ही वे चोंच मारते थे। मैं अजीब दुविधा में थी। फिर मैंने सोचा, “अगर मैं नहीं नहायी, तो यहाँ के भाई-बहन बुरा मान जाएँगे। चलो किसी तरह नहा लेती हूँ, वैसे भी सभी अपने काम में लगे हुए हैं। उन्हें पता नहीं चलेगा।” और मैंने नहा लिया।

आमिस लोगों की पोशाक जो खास मौके पर पहनी जाती है

आमिस भाषा में प्रकाशन

हार्वी को एहसास हुआ कि आमिस भाइयों का विश्‍वास उतना मज़बूत नहीं था। वह इसलिए कि ज़्यादातर भाई पढ़े-लिखे नहीं थे और उनकी भाषा में हमारा कोई प्रकाशन भी नहीं था। इसी बीच आमिस भाषा की लिपि तैयार हुई थी। हमने फैसला किया कि हम भाइयों को उनकी भाषा पढ़ना-लिखना सिखाएँगे। यह काम आसान नहीं था, इसमें बहुत मेहनत लगी। लेकिन हमारी मेहनत का अच्छा नतीजा निकला। पढ़ना-लिखना सीखने के बाद भाई-बहन खुद यहोवा के बारे में अध्ययन करने लगे। सन्‌ 1966 के आस-पास आमिस भाषा में प्रकाशन उपलब्ध होने लगे। और 1968 से प्रहरीदुर्ग  पत्रिका छापी जाने लगी।

लेकिन सरकार सिर्फ चीनी भाषा में प्रकाशन छापने की इजाज़त देती थी। इसलिए भाइयों तक आमिस भाषा में प्रहरीदुर्ग  पहुँचाने के लिए हमने अलग-अलग तरीके आज़माएँ। जैसे कुछ वक्‍त के लिए हमने प्रहरीदुर्ग  की ऐसी पत्रिकाएँ निकालीं जिनमें मैंडरिन और आमिस दोनों भाषाओं में लेख होते थे। अगर कोई ज़्यादा पूछताछ करता, तो हमारे पास यह कहने का बहाना होता था कि हम आमिस लोगों को चीनी भाषा सिखा रहे हैं। तब से यहोवा का संगठन लगातार आमिस भाषा में किताबें-पत्रिकाएँ प्रकाशित कर रहा है। इन प्रकाशनों की मदद से हमारे प्यारे भाई-बहन बाइबल की सच्चाइयाँ सीख पा रहे हैं।​—प्रेषि. 10:34, 35.

मंडलियों को शुद्ध किया गया

सन्‌ 1960 और 1970 के दशक में आमिस भाषा बोलनेवाले बहुत-से भाई-बहन परमेश्‍वर के स्तरों के मुताबिक नहीं जी रहे थे। वे बाइबल सिद्धांतों को पूरी तरह नहीं समझ पाए थे। इस वजह से कुछ लोग अनैतिक ज़िंदगी जी रहे थे, बहुत ज़्यादा शराब पी रहे थे और सुपारी और तंबाकू ले रहे थे। हार्वी अलग-अलग मंडलियों में जाते थे और भाइयों की मदद करते थे ताकि वे इन मामलों में यहोवा की सोच अपना सकें। एक बार हम इसी काम से किसी मंडली में जा रहे थे कि तभी वह घटना हुई जिसके बारे में मैंने शुरू में बताया था।

जो भाई नम्र थे वे खुद को बदलने के लिए तैयार थे। लेकिन दुख की बात है कि बहुत-सारे खुद को बदलना नहीं चाहते थे। सिर्फ 20 साल के अंदर ताइवान में प्रचारकों की गिनती 2,450 से गिरकर 900 हो गयी। यह देखकर हमें बहुत दुख हुआ। लेकिन हम जानते थे कि अगर संगठन में किसी तरह की अशुद्धता हो, तो यहोवा की आशीष नहीं रहेगी। (2 कुरिं. 7:1) कुछ समय बाद, सभी मंडलियाँ शुद्ध तरीके से यहोवा की उपासना करने लगीं। यहोवा की आशीष से आज ताइवान में 11,000 से ज़्यादा प्रचारक हैं।

सन्‌ 1980 के बाद से आमिस बोलनेवाली मंडलियाँ विश्‍वास में मज़बूत होती गयीं। अब हार्वी चीनी भाषा बोलनेवाले भाइयों के साथ प्रचार में और वक्‍त बिताने लगे। ऐसी बहुत-सी बहनें थीं जिनके पति सच्चाई में नहीं थे। उन्हें सच्चाई सिखाने में हार्वी को बहुत अच्छा लगा। जब एक बहन के पति ने पहली बार यहोवा से प्रार्थना की, तो मुझे याद है कि हार्वी को कितनी खुशी हुई थी। जब मैंने कई नेकदिल लोगों को यहोवा के बारे में सच्चाई सिखायी, तो मुझे भी यह खुशी मिली। मुझे अपनी एक विद्यार्थी के बेटे और बेटी के साथ ताइवान के शाखा दफ्तर में सेवा करने का मौका भी मिला।

उन्हें खोने का गम

हार्वी के साथ 59 साल बिताने के बाद 1 जनवरी, 2010 को कैंसर से उनकी मौत हो गयी। उन्होंने करीब 60 साल तक पूरे समय की सेवा की। मुझे उनकी बहुत याद आती है। पर मुझे इस बात की खुशी है कि दो रोमांचक देशों में मैं उनके साथ सेवा कर पायी। हमने एशिया की दो सबसे मुश्‍किल भाषाएँ सीखीं और हार्वी ने तो उन भाषाओं में लिखना भी सीखा।

हार्वी की मौत के करीब चार साल बाद, शासी निकाय ने मेरी ढलती उम्र की वजह से यह फैसला किया कि मुझे वापस ऑस्ट्रेलिया जाना चाहिए। पहले तो मैंने सोचा कि मैं ताइवान छोड़कर नहीं जाऊँगी। पर मैंने हार्वी से सीखा कि जब यहोवा का संगठन हमें कुछ करने के लिए कहता है, तो हमें उसे मना नहीं करना चाहिए। इसलिए मैं वापस ऑस्ट्रेलिया गयी। बाद में मुझे एहसास हुआ कि यह फैसला कितना सही था।

जापानी और चीनी भाषा बोलनेवाले लोगों को बेथेल घुमाना मुझे बहुत अच्छा लगता है

आज मैं ऑस्ट्रलेशिया शाखा दफ्तर में सेवा करती हूँ और शनिवार-रविवार के दिन मंडली के साथ प्रचार में जाती हूँ। बेथेल में मेरा काम चीनी और जापानी भाषा बोलनेवालों को टूर कराना है। मुझे इस काम से बहुत खुशी मिलती है। फिर भी मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार है जब यहोवा अपना वादा पूरा करेगा और हमारे अज़ीज़ों को ज़िंदा करेगा। मुझे पूरा यकीन है कि यहोवा अपने सेवक हार्वी को भी ज़िंदा करेगा, जिन्होंने कभी यहोवा को “ना” नहीं कहा।​—यूह. 5:28, 29.

^ पैरा. 14 आज भले ही ताइवान की मुख्य भाषा चीनी है, लेकिन सालों से जापानी मुख्य भाषा थी। इसलिए ताइवान की कई जातियाँ जापानी भाषा बोलती थीं।