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अध्ययन लेख 43

हार मत मानिए!

हार मत मानिए!

“आओ हम बढ़िया काम करने में हार न मानें।”​—गला. 6:9.

गीत 68 राज का बीज बोएँ

लेख की एक झलक *

1. (क) हमें कौन-सा सम्मान मिला है? (ख) हमें किस बात से खुशी मिलती है?

यह हमारे लिए बहुत सम्मान की बात है कि हम यहोवा के साक्षी हैं! और साक्षी होने के नाते हम लोगों को परमेश्‍वर के बारे में प्रचार करते हैं। जब भी हम किसी ऐसे व्यक्‍ति को चेला बनने में मदद देते हैं, ‘जो हमेशा की ज़िंदगी पाने के लायक अच्छा मन रखता है,’ तो हमें बहुत खुशी होती है, ठीक जैसे यीशु को हुई थी। (प्रेषि. 13:48) जब यीशु के चेलों ने उसे बताया कि उन्हें प्रचार में कितने अच्छे नतीजे मिले हैं, तो वह “खुशी से फूला नहीं समाया।”​—लूका 10:1, 17, 21.

2. हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम प्रचार काम को हलके में नहीं लेते?

2 प्रेषित पौलुस ने तीमुथियुस से कहा था, “खुद पर और अपनी शिक्षा पर लगातार ध्यान देता रह . . . ऐसा करने से तू अपना और तेरी बात सुननेवालों का भी उद्धार करेगा।” (1 तीमु. 4:16) हमें प्रचार-सेवा को हलके में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि लोगों की जान दाँव पर लगी है। हम परमेश्‍वर के राज की प्रजा हैं, इसलिए हमें ‘खुद पर लगातार ध्यान देना चाहिए।’ हमें हमेशा ऐसे काम करने चाहिए, जिनसे यहोवा की महिमा हो। और इस तरह ज़िंदगी जीनी चाहिए, जिससे पता चले कि हम जो प्रचार करते हैं, उसे मानते भी हैं। (फिलि. 1:27) हमें ‘अपनी शिक्षा पर भी ध्यान देना चाहिए।’ कैसे? प्रचार में जाने से पहले हमें अच्छी तैयारी करनी चाहिए और प्रार्थना करके यहोवा से मदद माँगनी चाहिए।

3. क्या सब लोग सच्चाई में दिलचस्पी लेंगे? एक उदाहरण दीजिए।

3 कभी-कभार ऐसा होता है कि हम बहुत मेहनत करते हैं, फिर भी हमारे इलाके में कोई भी सच्चाई में दिलचस्पी नहीं लेता। भाई गेऑर्ग लिंडाल का उदाहरण लीजिए। उन्होंने 1929 से लेकर 1947 तक, आइसलैंड के अलग-अलग इलाकों में अकेले प्रचार किया। उन्होंने हज़ारों किताबें-पत्रिकाएँ बाँटीं, लेकिन एक व्यक्‍ति ने भी सच्चाई में दिलचस्पी नहीं ली। उन्होंने कहा, “कुछ लोग सच्चाई का विरोध करते थे, लेकिन बहुत-से ऐसे थे जिन्हें सच्चाई में कोई दिलचस्पी नहीं थी।” बाद में कुछ मिशनरियों को वहाँ भेजा गया। उन्होंने भी काफी सालों तक प्रचार किया, लेकिन किसी ने भी बपतिस्मा नहीं लिया। नौ साल बाद जाकर कुछ लोग यहोवा के साक्षी बने।

4. जब लोग सच्चाई पर ध्यान नहीं देते, तो हमें कैसा लगता है?

4 ज़रा पौलुस के उदाहरण पर ध्यान दीजिए। जब ज़्यादातर यहूदियों ने यीशु को मसीहा मानने से इनकार कर दिया था, तो पौलुस ने कहा, “मुझे गहरा दुख है और मेरे दिल में ऐसा दर्द उठता है जो थमने का नाम नहीं लेता।” (रोमि. 9:1-3) जब लोग प्रचार में हमारी नहीं सुनते, तो हमें भी कुछ ऐसा ही लग सकता है। या हमें तब ऐसा लग सकता है, जब हम अपने विद्यार्थी को सिखाने में बहुत मेहनत करते हैं, उसके लिए प्रार्थनाएँ करते हैं, लेकिन फिर भी वह खुद में कोई बदलाव नहीं करता और हमें उसका अध्ययन रोकना पड़ता है। या तब जब हमारा कोई भी विद्यार्थी बपतिस्मा नहीं लेता। क्या ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि हम अपनी प्रचार सेवा में नाकाम हो गए हैं और यहोवा हमसे खुश नहीं है? इस लेख में हम दो सवालों पर चर्चा करेंगे: (1) कौन-सी बात हमारी प्रचार सेवा को कामयाब बनाती है? (2) प्रचार करते वक्‍त हमें कौन-सी बातें याद रखनी चाहिए?

कौन-सी बात प्रचार सेवा को कामयाब बनाती है?

5. कई बार बातें वैसी क्यों नहीं होतीं, जैसा हम चाहते हैं?

5 बाइबल में लिखा है कि जो व्यक्‍ति परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करता है, वह “अपने हर काम में कामयाब होगा।” (भज. 1:3) लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हर बार बातें वैसी होंगी जैसा हम चाहते हैं। हम अपरिपूर्ण हैं और हमारी ज़िंदगी “दुखों से भरी” रहती है। इस वजह से शायद हम यहोवा की सेवा में उतना न कर पाएँ जितना हम चाहते हैं। (अय्यू. 14:1) इसके अलावा, विरोध करनेवाले भी हमारे प्रचार काम को रोकने की पूरी कोशिश करते हैं। (1 कुरिं. 16:9; 1 थिस्स. 2:18) इसलिए आइए जानें कि यहोवा की नज़र में कौन-सी बात हमें कामयाब बनाती है।

हम घर-घर जाकर प्रचार करें या फिर फोन या खत के ज़रिए, यहोवा हमारी मेहनत की कदर करता है (पैराग्राफ 6 देखें)

6. यहोवा की नज़र में हम कब कामयाब होते हैं?

6 यहोवा हमारी मेहनत और लगन पर ध्यान देता है।  वह देखता है कि हमें उससे कितना प्यार है और हम उसकी सेवा में कितनी मेहनत कर रहे हैं। इसलिए भले ही लोग हमारे संदेश पर ध्यान न दें, फिर भी उसकी नज़र में हम कामयाब हैं। पौलुस ने कहा था, “परमेश्‍वर अन्यायी नहीं कि तुम्हारे काम  और उस प्यार  को भूल जाए जो तुम्हें उसके नाम के लिए है, यानी कैसे तुमने पवित्र जनों की सेवा की है और अब भी कर रहे हो।” (इब्रा. 6:10) भले ही हमारा बाइबल विद्यार्थी बपतिस्मा न ले, फिर भी यहोवा हमारी कोशिशों को नहीं भूलता। हो सकता है कि हमारी मेहनत रंग न लाए, लेकिन हम पौलुस के ये शब्द याद रख सकते हैं, “प्रभु में तुम्हारी कड़ी मेहनत  बेकार नहीं है।”​—1 कुरिं. 15:58.

7. प्रेषित पौलुस ने जो कहा, उससे हम क्या सीखते हैं?

7 प्रेषित पौलुस एक बहुत अच्छा मिशनरी था। उसने कई सारे शहरों में नयी-नयी मंडलियाँ शुरू कीं। लेकिन जब कुछ लोगों ने उस पर आरोप लगाया कि वह एक अच्छा शिक्षक नहीं है, तो उसने सफाई में यह नहीं कहा कि उसने कितने लोगों को मसीही बनाया है। इसके बजाय उसने कहा, “मैंने ज़्यादा मेहनत  की है।” (2 कुरिं. 11:23) हमें भी याद रखना चाहिए कि यहोवा के लिए हमारी मेहनत और लगन ज़्यादा मायने रखती है।

8. हमें कौन-सी बात याद रखनी चाहिए?

8 हमारी प्रचार सेवा से यहोवा खुश होता है।  जब यीशु ने अपने 70 चेलों को प्रचार करने के लिए भेजा था, तो वे “खुशी-खुशी लौटे।” उन्होंने कहा, “प्रभु, तेरा नाम लेने से दुष्ट स्वर्गदूत भी हमारे अधीन हो रहे हैं।” लेकिन यीशु ने उनकी सोच सुधारी और कहा, “इस बात से खुश मत हो कि स्वर्गदूत तुम्हारे अधीन किए जा रहे हैं, मगर इस बात पर खुशी मनाओ कि तुम्हारे नाम स्वर्ग में लिखे गए हैं।” (लूका 10:17-20) यीशु जानता था कि उन्हें प्रचार में हमेशा अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे। हमें तो यह भी नहीं पता कि चेलों ने जिन लोगों को प्रचार किया था, उनमें से कितने लोग मसीही बने। इससे हम सीखते हैं कि हमें सबसे ज़्यादा इस बात से खुश होना चाहिए कि यहोवा हमारी सेवा से खुश है।

9. गलातियों 6:7-9 के मुताबिक, जब हम प्रचार में लगे रहते हैं, तो क्या होता है?

9 अगर हम प्रचार काम में लगे रहें, तो हमें हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी।  जब हम दिल लगाकर सच्चाई का बीज बोते हैं, तो हम ‘पवित्र शक्‍ति के लिए भी बोते हैं।’ यानी हम पवित्र शक्‍ति को खुद पर असर करने देते हैं। इसका नतीजा होता है कि हम जोश के साथ प्रचार में लगे रहते हैं। यहोवा वादा करता है कि अगर हम “हार न मानें” तो वह हमें हमेशा की ज़िंदगी देगा, फिर चाहे हम किसी को सच्चाई में ला पाए हों या न ला पाए हों।​—गलातियों 6:7-9 पढ़िए।

प्रचार करते वक्‍त कौन-सी बातें याद रखनी चाहिए?

10. लोग सुनेंगे या नहीं, यह किस बात पर निर्भर करता है?

10 लोग सुनेंगे या नहीं, यह उन पर निर्भर करता है।  यही बात समझाने के लिए यीशु ने एक उदाहरण दिया। एक बीज बोनेवाला अलग-अलग मिट्टी में बीज बोता है। लेकिन सिर्फ एक मिट्टी में बीज फल देता है। (लूका 8:5-8) बीज “परमेश्‍वर का वचन” है और मिट्टी, लोगों का दिल। (लूका 8:11-15) एक बीज बढ़ेगा या नहीं, यह बीज बोनेवाले के हाथ में नहीं है। उसी तरह, कोई हमारा संदेश सुनेगा या नहीं, यह हमारे हाथ में नहीं है। लेकिन हमें फिर भी लोगों को प्रचार करना है। प्रेषित पौलुस ने कहा था, “हर कोई अपनी मेहनत  का इनाम पाएगा,” न कि अपनी मेहनत के फल  का इनाम पाएगा।​—1 कुरिं. 3:8.

हालाँकि नूह ने सालों तक प्रचार किया, लेकिन उसके परिवारवालों के सिवा कोई भी जहाज़ में नहीं गया। फिर भी, यहोवा की नज़र में नूह कामयाब था क्योंकि उसने यहोवा की बात मानी (पैराग्राफ 11 देखें)

11. भले ही लोगों ने नूह की नहीं सुनी, फिर भी यहोवा उससे क्यों खुश था? (बाहर दी तसवीर देखें।)

11 दुनिया की शुरूआत से यहोवा के ऐसे कई सेवक थे, जिनकी लोगों ने नहीं सुनी। उनमें से एक था, नूह। उसने 40-50 सालों तक प्रचार किया। (2 पत. 2:5) उसे उम्मीद थी कि लोग उसकी बात पर ज़रूर ध्यान देंगे। लेकिन यहोवा जानता था कि ऐसा नहीं होगा। यहोवा ने पहले ही नूह से कहा था, “तू जहाज़ के अंदर जाना, तेरे साथ तेरी पत्नी, तेरे बेटे और तेरी बहुएँ भी जाएँ।” (उत्प. 6:18) जहाज़ जितना बड़ा था, उससे नूह ने अंदाज़ा लगाया होगा कि ज़्यादा तो नहीं, लेकिन कुछ लोग उसका संदेश सुनकर जहाज़ में आएँगे। (उत्प. 6:15) इसलिए वह प्रचार करता रहा। लेकिन एक व्यक्‍ति ने भी उसकी बात नहीं सुनी। (उत्प. 7:7) क्या इसका यह मतलब था कि नूह नाकाम था? बिलकुल नहीं। यहोवा की नज़र में नूह कामयाब था, क्योंकि उसने सबकुछ वैसा ही किया, जैसा यहोवा ने उससे कहा था।​—उत्प. 6:22.

12. यिर्मयाह खुशी-खुशी प्रचार काम क्यों कर पाया?

12 चलिए भविष्यवक्‍ता यिर्मयाह का उदाहरण लें। वह करीब 40 सालों तक प्रचार करता रहा, जबकि लोग उसकी सुनते नहीं थे और उसका विरोध करते थे। उन्होंने इस हद तक उसकी ‘बेइज़्ज़ती की और हँसी उड़ायी’ कि उसने सोचा कि वह अब से प्रचार नहीं करेगा। (यिर्म. 20:8, 9) लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह खुशी-खुशी प्रचार काम करता रहा। क्यों? उसने दो बातें याद रखीं। पहली, वह जो संदेश सुना रहा था, उससे लोगों को “एक अच्छा भविष्य और एक आशा” मिल रही थी। (यिर्म. 29:11) दूसरी, यहोवा ने उसे अपना संदेश सुनाने के लिए चुना था। (यिर्म. 15:16) हम भी आज लोगों को एक अच्छे भविष्य का संदेश सुनाते हैं और इसके लिए यहोवा ने हमें चुना है। अगर हम भी इन दोनों बातों को याद रखें, तो हम खुश रहेंगे, फिर चाहे लोग हमारी सुनें या न सुनें।

13. यीशु की दी मिसाल से हम क्या सीखते हैं? (मरकुस 4:26-29)

13 बाइबल विद्यार्थी को तरक्की करने में वक्‍त लगता है।  यह बात समझाने के लिए, यीशु ने एक ऐसे किसान का उदाहरण दिया, जो बीज बोने के बाद सो जाता है। (मरकुस 4:26-29 पढ़िए।) वह बीज धीरे-धीरे बढ़ता है और शुरू-शुरू में किसान को पता भी नहीं चलता। उसी तरह, एक बाइबल विद्यार्थी भी धीरे-धीरे खुद में बदलाव करता है। हम उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं कर सकते। और वह जो बदलाव करता है, शायद वह हमें कुछ समय बाद नज़र आए। इसलिए हमें हार नहीं माननी चाहिए, न ही निराश होना चाहिए, बल्कि सब्र रखना चाहिए।​—याकू. 5:7, 8.

14. एक उदाहरण देकर समझाइए कि लोगों को सच्चाई पर ध्यान देने में वक्‍त लग सकता है।

14 कुछ इलाके ऐसे होते हैं, जहाँ बहुत सालों तक प्रचार करने के बाद भी कोई बपतिस्मा नहीं लेता। कनाडा का एक छोटा-सा शहर भी ऐसा ही था। सन्‌ 1959 में दो सगी बहनें, ग्लेडस और रूबी ऎलन वहाँ पायनियर सेवा करती थीं। * वहाँ के लोगों को अपने पड़ोसियों और पादरियों का इतना खौफ था कि वे उन दोनों की सुनते ही नहीं थे। बहन ग्लेडस ने कहा, “हम हर दिन आठ घंटे प्रचार करते थे और ऐसा हमने दो सालों तक किया। लेकिन किसी ने भी हमारी नहीं सुनी। फिर भी हमने हार नहीं मानी।” बाद में वहाँ के लोग बदल गए। उन्होंने साक्षियों के संदेश पर ध्यान दिया। आज वहाँ तीन मंडलियाँ हैं।​—यशा. 60:22.

15. पहला कुरिंथियों 3:6, 7 से हम चेला बनाने के काम के बारे में क्या सीखते हैं?

15 बहुत लोगों की मेहनत से एक व्यक्‍ति सच्चाई अपनाता है।  मंडली का हर प्रचारक, एक व्यक्‍ति को बपतिस्मा लेने में मदद कर सकता है। (1 कुरिंथियों 3:6, 7 पढ़िए।) हो सकता है कि एक प्रचारक किसी को कोई परचा या पत्रिका दे। लेकिन जब किसी वजह से वह उस व्यक्‍ति से मिल नहीं पाता, तो वह किसी और प्रचारक को उसके पास भेजता है। वह प्रचारक उस व्यक्‍ति के साथ बाइबल अध्ययन शुरू करता है और अध्ययन पर अलग-अलग भाई-बहनों को ले जाता है। जो भी भाई-बहन उसके अध्ययन पर आते हैं, वे सभी उसका हौसला बढ़ाते हैं और उसका विश्‍वास मज़बूत करते हैं। बाद में जब वह विद्यार्थी बपतिस्मा लेता है, तो उन सबको खुशी होती है जिन्होंने उसकी मदद की।​—⁠यूह. 4:⁠35-⁠38.

16. अगर हम पहले की तरह प्रचार नहीं कर पा रहे हैं, तो खुश रहने के लिए हमें क्या करना होगा?

16 हो सकता है कि हम पहले जितना प्रचार काम न कर पा रहे हों, क्योंकि हममें ताकत नहीं रही या हम बहुत बीमार रहते हैं। लेकिन फिर भी हम खुश रह सकते हैं। इसे समझने के लिए दाविद और उसके आदमियों का उदाहरण लेते हैं। अमालेकी लोग उनका सबकुछ लूटकर चले गए, यहाँ तक कि उनके बीवी-बच्चों को भी उठाकर ले गए। इसलिए दाविद और उसके आदमी उनसे लड़ने गए। लेकिन 200 आदमी बहुत थक गए थे इसलिए वे दाविद के साथ नहीं गए। उन्होंने रुककर सैनिकों के सामान की रखवाली की। लेकिन युद्ध जीतने के बाद जब दाविद लौटा, तो उसने लूट का माल उन 200 आदमियों के साथ भी बाँटा। (1 शमू. 30:21-25) दाविद की कहानी से हम सीखते हैं कि हमसे जो भी हो पाता है, उसे हमें जी-जान से करना चाहिए। फिर जब एक व्यक्‍ति बपतिस्मा लेगा, तो हमें खुशी होगी।

17. हमें किस बात की खुशी है?

17 हम बहुत खुश हैं कि यहोवा हमारी मेहनत पर ध्यान देता है और उसके लिए इनाम देता है। वह जानता है कि हम किसी को ज़बरदस्ती सच्चाई में नहीं ला सकते। जब हम उसकी सेवा में उतना नहीं कर पाते जितना हम करना चाहते हैं, तो वह हमें खुश रहना सिखाता है। (यूह. 14:12) इसलिए आइए हम हार न मानें और यहोवा को खुश करते रहें।

गीत 67 “वचन का प्रचार कर”

^ पैरा. 5 अकसर जब लोग अध्ययन करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो हमें खुशी होती है। लेकिन जब वे मना कर देते हैं, तो हमें दुख होता है। कई बार अध्ययन तो शुरू हो जाता है, लेकिन विद्यार्थी खुद में कोई बदलाव नहीं करता। कई बार हम बहुत-से अध्ययन चलाते हैं, लेकिन एक भी विद्यार्थी बपतिस्मा नहीं लेता। क्या इसका यह मतलब है कि हम अपनी प्रचार सेवा में नाकाम हो गए हैं? इस लेख में हम सीखेंगे कि हम इन सबके बावजूद कामयाब हो सकते हैं और खुश रह सकते हैं।

^ पैरा. 14 1 सितंबर, 2002 की प्रहरीदुर्ग  में बहन ग्लेडस ऎलन की जीवन कहानी पढ़ें, “मैं कुछ भी नहीं बदलना चाहूँगी!