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अध्याय 2

‘तुम मेरे बारे में गवाही दोगे’

‘तुम मेरे बारे में गवाही दोगे’

यीशु अपने प्रेषितों को तैयार करता है ताकि वे प्रचार काम की अगुवाई कर सकें

प्रेषितों 1:1-26 पर आधारित

1-3. यीशु किस तरह स्वर्ग लौटता है? इस घटना से कौन-से सवाल उठते हैं?

 कुछ हफ्ते पहले यीशु के प्रेषित उसकी मौत से बहुत दुखी थे। मगर अब उसके ज़िंदा होने पर वे खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं! पिछले 40 दिनों में यीशु कई बार उनके सामने प्रकट हुआ और इस दौरान उसने उन्हें बहुत-सी बातें सिखायीं और उनकी हिम्मत बढ़ायी। प्रेषितों को यीशु का साथ इतना अच्छा लग रहा है कि वे नहीं चाहते कि ये दिन कभी खत्म हों। लेकिन आज यीशु उनसे आखिरी बार मिलनेवाला है।

2 यीशु अपने प्रेषितों के साथ जैतून पहाड़ पर खड़ा है। वह उन्हें कुछ ज़रूरी हिदायतें देता है और प्रेषित उसकी एक-एक बात ध्यान से सुनते हैं। यीशु अपनी बात पूरी करता है और फिर अपना हाथ उठाकर उन्हें आशीष देता है। उसी वक्‍त वह ज़मीन से आसमान की तरफ उठने लगता है। प्रेषितों की नज़र उसी पर टिकी रहती है। फिर एक बादल उसे ढक लेता है और उसके बाद वह उन्हें नज़र नहीं आता। फिर भी प्रेषित वहीं खड़े आकाश की तरफ एकटक देखते रहते हैं।​—लूका 24:50; प्रेषि. 1:9, 10.

3 इस घटना से प्रेषितों की ज़िंदगी बदल गयी। लेकिन सवाल है कि अब जब उनका मालिक यीशु स्वर्ग लौट गया है, तो वे क्या करेंगे? हम यकीन रख सकते हैं कि यीशु ने जो काम शुरू किया था, उसे वे जारी रखेंगे। यीशु ने उस खास काम के लिए उन्हें कैसे तैयार किया? और प्रेषितों ने उसे कैसे पूरा किया? आज मसीही इस घटना से क्या सीखते हैं? प्रेषितों की किताब का पहला अध्याय इन सारे सवालों के जवाब देता है।

‘कई मौकों पर पक्के सबूत दिए’ (प्रेषि. 1:1-5)

4. लूका, प्रेषितों की किताब की शुरूआत कैसे करता है?

4 प्रेषितों की किताब की शुरूआत में लूका, थियुफिलुस नाम के एक आदमी से बात करता है। उसने अपनी खुशखबरी की किताब भी इसी आदमी के नाम लिखी थी। a खुशखबरी की किताब के आखिर में जिन घटनाओं के बारे में बताया गया था, उन्हीं का ज़िक्र करके वह प्रेषितों की किताब शुरू करता है। फर्क सिर्फ इतना है कि उसने अलग शब्दों का इस्तेमाल किया और उसमें कुछ जानकारी जोड़ी। इससे पता चलता है कि प्रेषितों की किताब, लूका की किताब में बतायी घटनाओं के बाद का ब्यौरा देती है।

5, 6. (क) यीशु ने क्या किया ताकि उसके चेलों का विश्‍वास मज़बूत बना रहे? (ख) आज मसीहियों का विश्‍वास भी किन ‘पक्के सबूतों’ पर आधारित है?

5 यीशु ने क्या किया ताकि उसके चेलों का विश्‍वास मज़बूत बना रहे? प्रेषितों 1:3 में हम पढ़ते हैं, “वह कई मौकों पर अपने चेलों को दिखायी दिया और उन्हें इस बात के पक्के सबूत दिए कि वह ज़िंदा हो गया है।” जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “पक्के सबूत” किया गया है, उसका इस्तेमाल पूरी बाइबल में सिर्फ ‘प्यारे वैद्य’ लूका ने ही किया है। (कुलु. 4:14) यह शब्द उस ज़माने में वैद्यों के लेखों में इस्तेमाल होता था और इसका मतलब था कि सबूत बिलकुल अचूक और भरोसेमंद हैं। यीशु ने भी अपने बारे में ऐसे ही पक्के सबूत पेश किए थे। वह मरे हुओं में से ज़िंदा होने के बाद, कई बार अपने चेलों के सामने प्रकट हुआ। कभी वह एक-दो चेलों को दिखायी दिया, तो कभी सारे प्रेषितों के सामने प्रकट हुआ। एक मौके पर तो वह 500 से भी ज़्यादा चेलों को दिखायी दिया। (1 कुरिं. 15:3-6) ये क्या ही पक्के सबूत थे कि यीशु सच में ज़िंदा हुआ था!

6 आज सच्चे मसीहियों का विश्‍वास भी ‘पक्के सबूतों’ पर आधारित है। क्या इन बातों का कोई सबूत है कि यीशु धरती पर जीया, हमारे पापों के लिए मरा और बाद में ज़िंदा हुआ? बेशक है! परमेश्‍वर के वचन में ऐसे लोगों के बयान मिलते हैं जिन्होंने खुद अपनी आँखों से इन घटनाओं को होते देखा था। इसलिए यीशु पर विश्‍वास करने के लिए हमें जितने सबूत चाहिए उससे कहीं ज़्यादा सबूत हमारे पास मौजूद हैं। अगर हम बाइबल के इन वाकयों का अच्छी तरह अध्ययन करें और उन्हें समझने के लिए परमेश्‍वर से मदद माँगें, तो हमारा विश्‍वास बहुत मज़बूत हो सकता है। याद रखिए, सच्चा विश्‍वास पक्के सबूतों पर आधारित होता है। यह आँख मूँदकर किसी बात को सच नहीं मान लेता। हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए सच्चा विश्‍वास होना बेहद ज़रूरी है।​—यूह. 3:16.

7. प्रचार करते वक्‍त यीशु ने किस विषय पर ज़ोर दिया? उससे हम क्या सीखते हैं?

7 अपने ज़िंदा होने का सबूत देने के अलावा यीशु “परमेश्‍वर के राज के बारे में [भी] बताता रहा।” उदाहरण के लिए, उसने उन भविष्यवाणियों का मतलब समझाया जिनमें बताया गया था कि मसीहा को दुख झेलना होगा और मरना होगा। (लूका 24:13-32, 46, 47) यीशु ने यह भी समझाया कि मसीहा के नाते उसने क्या-क्या किया और उसने परमेश्‍वर के राज पर खास ज़ोर दिया क्योंकि उसे उस राज का राजा ठहराया गया था। परमेश्‍वर का राज शुरू से ही यीशु के प्रचार का खास विषय था। और यही आज उसके चेलों के प्रचार का भी खास विषय है।​—मत्ती 24:14; लूका 4:43.

“दुनिया के सबसे दूर के इलाकों में” (प्रेषि. 1:6-12)

8, 9. (क) प्रेषितों के मन में कौन-सी दो गलत सोच थीं? (ख) यीशु ने किस तरह उनकी गलत सोच सुधारी? आज मसीही इससे क्या सीख सकते हैं?

8 जब जैतून पहाड़ पर प्रेषित यीशु के साथ इकट्ठा हुए, तो यह उनकी आखिरी मुलाकात थी। वे यीशु से कुछ जानने के लिए बड़े उत्सुक थे। उन्होंने पूछा, “प्रभु, क्या तू इसी वक्‍त इसराएल को उसका राज दोबारा दे देगा?” (प्रेषि. 1:6) इस सवाल से पता चलता है कि प्रेषितों के मन में कुछ गलत सोच थी। एक, उन्हें लग रहा था कि परमेश्‍वर का राज एक बार फिर इसराएल राष्ट्र के हाथ में दे दिया जाएगा। दूसरी, वे उम्मीद लगाए हुए थे कि परमेश्‍वर का राज “इसी वक्‍त” यानी तुरंत शासन करना शुरू कर देगा। यीशु ने किस तरह उनकी गलत सोच सुधारी?

9 जहाँ तक उनकी पहली सोच की बात है, यीशु जानता था कि बहुत जल्द वे खुद समझ जाएँगे कि उनकी यह सोच गलत है। और ऐसा ही हुआ! दस दिन बाद चेलों ने खुद अपनी आँखों से एक नया राष्ट्र यानी परमेश्‍वर का इसराएल बनते देखा। इसके बाद, इसराएल राष्ट्र परमेश्‍वर का चुना हुआ राष्ट्र नहीं रहा। उनकी दूसरी गलत सोच को सुधारने के लिए यीशु ने प्यार से उन्हें सलाह दी, “समय या दौर को जानने का अधिकार तुम्हें नहीं, इन्हें तय करना पिता ने अपने अधिकार में रखा है।” (प्रेषि. 1:7) सिर्फ यहोवा को यह तय करने का अधिकार है कि उसकी मरज़ी कब पूरी होगी। यीशु ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले कहा था कि वह खुद भी नहीं जानता कि अंत किस “दिन” और किस “घड़ी” आएगा, यह “सिर्फ पिता जानता है।” (मत्ती 24:36) आज भी अगर मसीही बहुत ज़्यादा चिंता करने लगें कि दुनिया का अंत कब और किस घड़ी आएगा तो वे दरअसल ऐसी बातों की चिंता कर रहे होंगे, जो उनके अधिकार में नहीं हैं।

10. प्रेषितों में एक अच्छी बात क्या थी? हमें उनके जैसा क्यों बनना चाहिए?

10 भले ही प्रेषितों की सोच गलत थी फिर भी हमें उन्हें नीची नज़रों से नहीं देखना चाहिए। वे तो विश्‍वास की बढ़िया मिसाल थे। जब उनकी गलत सोच सुधारी गयी, तो उन्होंने नम्रता से अपनी सोच बदली। इसके अलावा, उनके सवाल से एक अच्छी बात भी ज़ाहिर होती है। वे सतर्क थे और ध्यान से उन सबूतों को देख रहे थे जिनसे पता चलता कि यहोवा जल्द कदम उठानेवाला है। इस तरह उन्होंने यीशु की यह सलाह मानी जो उसने बार-बार उन्हें दी थी, “जागते रहो।” (मत्ती 24:42; 25:13; 26:41) आज हमें भी प्रेषितों की तरह जागते रहना चाहिए। खासकर “आखिरी दिनों” की इस नाज़ुक घड़ी में ऐसा करना और भी ज़रूरी है।​—2 तीमु. 3:1-5.

11, 12. (क) यीशु ने अपने प्रेषितों को कौन-सा काम सौंपा था? (ख) यीशु ने प्रचार काम का ज़िक्र करने से पहले प्रेषितों को क्या याद दिलाया और क्यों?

11 यीशु ने अपने प्रेषितों को याद दिलाया कि उनकी सबसे बड़ी चिंता क्या होनी चाहिए। उसने कहा, “जब तुम पर पवित्र शक्‍ति आएगी, तो तुम ताकत पाओगे और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, यहाँ तक कि दुनिया के सबसे दूर के इलाकों में मेरे बारे में गवाही दोगे।” (प्रेषि. 1:8) यीशु के प्रेषितों को उसके ज़िंदा होने की खबर कहाँ-कहाँ सुनानी थी? सबसे पहले यरूशलेम में, जहाँ यीशु को मार डाला गया था। फिर उन्हें यह खबर सारे यहूदिया में, सामरिया में और दूर-दूर के इलाकों तक फैलानी थी।

12 यीशु ने प्रचार काम का ज़िक्र करने से पहले प्रेषितों को याद दिलाया कि वह उनकी मदद के लिए पवित्र शक्‍ति भेजेगा। मूल भाषा में प्रेषितों की किताब में शब्द “पवित्र शक्‍ति” 40 से भी ज़्यादा बार आता है। यह किताब बार-बार ज़ोर देकर बताती है कि पवित्र शक्‍ति के बिना हम यहोवा की मरज़ी पूरी नहीं कर सकते। तो फिर, पवित्र शक्‍ति के लिए यहोवा से लगातार प्रार्थना करना कितना ज़रूरी है! (लूका 11:13) आज हमें पहले से कहीं ज़्यादा पवित्र शक्‍ति की मदद चाहिए।

13. प्रचार काम आज कितने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है? हमें इस काम में पूरी तरह क्यों लगे रहना चाहिए?

13 पहली सदी में जो इलाके ‘दुनिया के सबसे दूर के इलाके’ थे, आज उनसे भी दूर-दूर की जगहों तक लोग बसे हुए हैं। फिर भी जैसे हमने पिछले अध्याय में देखा, यहोवा के साक्षी उन इलाकों में भी जाकर खुशी-खुशी प्रचार करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि परमेश्‍वर की यही मरज़ी है कि सब किस्म के लोग राज की खुशखबरी सुनें। (1 तीमु. 2:3, 4) क्या आप जीवन बचानेवाले इस काम में पूरी तरह लगे हुए हैं? अगर हाँ, तो आपको इस काम से जितनी खुशी मिलेगी, उतनी किसी और काम से नहीं मिलेगी! इस काम को पूरा करने के लिए यहोवा आपको ताकत देगा। प्रेषितों की किताब से हम सीखेंगे कि प्रचार में अच्छे नतीजे पाने के लिए हमें कौन-से तरीके अपनाने चाहिए और इस काम की तरफ हमारा नज़रिया क्या होना चाहिए।

14, 15. (क) मसीह की वापसी के बारे में स्वर्गदूतों ने क्या कहा? उनके कहने का क्या मतलब था? (फुटनोट भी देखें।) (ख) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि मसीह ‘उसी ढंग से’ वापस आया जिस ढंग से वह स्वर्ग गया था?

14 इस अध्याय की शुरूआत में हमने देखा, यीशु जब स्वर्ग जाने लगा, तो एक बादल ने उसे ढक लिया और उसके बाद वह प्रेषितों को नज़र नहीं आया। लेकिन 11 प्रेषित वहीं खड़े आकाश की तरफ देखते रहे। तब दो स्वर्गदूत उनके पास आए और उन्हें प्यार से झिड़की दी, “हे गलीली आदमियो, तुम यहाँ खड़े आकाश की तरफ क्यों ताक रहे हो? यह यीशु, जो तुम्हारे पास से आकाश में उठा लिया गया है, वह इसी ढंग से आएगा जैसे तुमने उसे आकाश में जाते देखा है।” (प्रेषि. 1:11) कुछ धर्म सिखाते हैं कि यीशु उसी रूप में वापस आएगा जिस रूप में वह गया था। क्या स्वर्गदूत भी यही बात कह रहे थे? नहीं। आइए देखें कि हम ऐसा क्यों कहते हैं।

15 गौर कीजिए कि स्वर्गदूतों ने प्रेषितों से कहा था कि यीशु “इसी ढंग से” b वापस आएगा। उन्होंने यह नहीं कहा कि वह इसी रूप में यानी इंसानी शरीर धारण करके वापस आएगा। तो फिर यीशु किस ढंग से स्वर्ग गया था? जब वह स्वर्ग जा रहा था तो प्रेषित कुछ दूर तक उसे देख सके, फिर बादल ने उसे ढक लिया। और जब स्वर्गदूतों ने आकर प्रेषितों से बात की, तब तक यीशु उनकी आँखों से ओझल हो चुका था। उस वक्‍त वे चंद प्रेषित ही समझ पाए कि यीशु अब धरती से दूर जा चुका है और अपने पिता के पास स्वर्ग लौट रहा है। स्वर्गदूतों ने कहा कि मसीह की वापसी भी इसी ढंग से होगी और ऐसा ही हुआ। आज भी, बाइबल की समझ रखनेवाले चंद लोग ही यीशु की वापसी देख पाए हैं, यानी वे समझ पाए हैं कि यीशु आज परमेश्‍वर के राज के राजा की हैसियत से शासन कर रहा है। (लूका 17:20) हमें उन सबूतों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे पता चलता है कि यीशु शासन कर रहा है। और दूसरों को भी इनके बारे में बताना चाहिए ताकि वे भी जल्द-से-जल्द परमेश्‍वर की सेवा करने लगें।

“हमें बता कि तूने . . . किसे चुना है” (प्रेषि. 1:13-26)

16-18. (क) प्रेषितों 1:13, 14 से हम मसीही सभाओं के बारे में क्या-क्या सीखते हैं? (ख) यीशु की माँ, मरियम की मिसाल से हम क्या सीख सकते हैं? (ग) मसीही सभाएँ आज हमारे लिए ज़रूरी क्यों हैं?

16 यीशु के स्वर्ग जाने के बाद प्रेषित “खुशी-खुशी यरूशलेम लौट आए।” (लूका 24:52) मगर यीशु ने जाने से पहले उन्हें जो-जो हिदायतें दी थीं क्या उन्होंने वह सब मानीं? प्रेषितों 1:13, 14 में हम पढ़ते हैं कि वे ‘ऊपर के एक कमरे में’ इकट्ठा हुए। उन आयतों से हम इकट्ठा होने के बारे में कुछ दिलचस्प बातें सीखते हैं। उस ज़माने में पैलिस्टाइन के ज़्यादातर घरों में एक ऊपरी कमरा होता था जिसकी सीढ़ियाँ घर के बाहर से जाती थीं। चेले जिस ‘ऊपर के कमरे’ में इकट्ठा हुए थे, वह शायद मरकुस की माँ का घर था जिसका ज़िक्र प्रेषितों 12:12 में किया गया है। यह एक साधारण-सा कमरा था जहाँ लोग आराम से इकट्ठा हो सकते थे। लेकिन वहाँ कौन-कौन इकट्ठा हुए थे? और उन्होंने वहाँ क्या किया?

17 ध्यान दीजिए कि वहाँ सिर्फ प्रेषित या सिर्फ आदमी ही इकट्ठा नहीं हुए थे बल्कि “कुछ औरतें” भी थीं। उनमें से एक यीशु की माँ, मरियम थी। बाइबल में यहाँ आखिरी बार मरियम का ज़िक्र मिलता है। उस सभा में मरियम सबकी नज़रों में छाने की कोशिश नहीं करती बल्कि नम्रता से मसीही भाई-बहनों के साथ उपासना करती है। वह यह देखकर भी खुश हुई होगी कि उसके चार बेटे भी उसके साथ इकट्ठा हैं। भले ही उन्होंने यीशु के जीते-जी उस पर विश्‍वास नहीं किया था, लेकिन यीशु की मौत और उसके ज़िंदा होने के बाद से वे उस पर विश्‍वास करने लगे थे।​—मत्ती 13:55; यूह. 7:5; 1 कुरिं. 15:7.

18 चेलों ने वहाँ इकट्ठा होकर क्या किया? आयत बताती है, “वे सभी एक ही मकसद से प्रार्थना करते रहे।” (प्रेषि. 1:14) उपासना के लिए इकट्ठा होना मसीहियों के लिए हमेशा से ही ज़रूरी रहा है। सभाओं में इकट्ठा होकर हम एक-दूसरे की हिम्मत बढ़ाते हैं, हिदायतें और सलाह पाते हैं और सबसे बढ़कर, हम साथ मिलकर अपने पिता यहोवा की उपासना करते हैं। हमारी प्रार्थनाएँ और स्तुति के गीत सुनकर यहोवा को बहुत खुशी होती है और ऐसा करना हमारे लिए बेहद ज़रूरी भी है। आइए हम इन पवित्र सभाओं में इकट्ठा होना कभी ना छोड़ें जहाँ हमें बहुत हौसला मिलता है।​—इब्रा. 10:24, 25.

19-21. (क) पतरस एक बार फिर यहोवा के काम आया, उससे हम क्या सीखते हैं? (ख) यहूदा की जगह एक नए प्रेषित को क्यों चुना गया? नए प्रेषित को चुनने के लिए जो तरीका अपनाया गया, उससे हम क्या सीखते हैं?

19 मसीह के उन चेलों के आगे अब एक ज़रूरी मसला खड़ा होता है, जिसे प्रेषित पतरस सबके सामने पेश करता है। (आयत 15-26) यह वही पतरस था जिसने कुछ हफ्ते पहले यीशु को जानने से तीन बार इनकार किया था। (मर. 14:72) क्या हमें यह देखकर खुशी नहीं होती कि वह एक बार फिर यहोवा के काम आ रहा है? पाप करने की कमज़ोरी हम सबमें होती है। इसलिए हमें याद रखना चाहिए कि यहोवा भला है और जो सच्चा पश्‍चाताप करते हैं, उन्हें वह दिल से माफ कर देता है।​—भज. 86:5.

20 पतरस ने इस बात को समझा कि यहूदा इस्करियोती की जगह किसी और को प्रेषित चुनना अब ज़रूरी है। लेकिन किसे? नया प्रेषित कोई ऐसा आदमी होना चाहिए जो यीशु की सेवा के शुरू से लेकर आखिर तक उसके साथ था और जिसने यीशु को ज़िंदा होने के बाद देखा था। (प्रेषि. 1:21, 22) यह बात यीशु के इस वादे के मुताबिक थी, “तुम भी जो मेरे पीछे हो लिए हो,  12 राजगद्दियों पर बैठकर इसराएल के 12 गोत्रों का न्याय करोगे।” (मत्ती 19:28) ज़ाहिर है, यहोवा का यही मकसद था कि प्रेषितों की गिनती 12 हो और ये उन्हीं आदमियों में से हों जो यीशु की सेवा के दौरान उसके साथ रहे थे। ये 12 प्रेषित भविष्य में नयी यरूशलेम के ‘12 नींव के पत्थर’ बनते। (प्रका. 21:2, 14) इस तरह परमेश्‍वर की मदद से पतरस समझ पाया कि भजन 109:8 की भविष्यवाणी यहूदा पर लागू होती है। वहाँ लिखा है कि “उसका निगरानी का पद कोई और ले” लेगा।

21 नए प्रेषित को चुनने के लिए क्या किया गया? चिट्ठियाँ डाली गयीं, जो बाइबल के ज़माने में एक आम दस्तूर था। (नीति. 16:33) बाइबल में यहाँ आखिरी बार चिट्ठियाँ डालने का ज़िक्र मिलता है। बाद में जब चेलों पर पवित्र शक्‍ति उँडेली गयी, तब से चिट्ठियाँ डालने का तरीका शायद बंद हो गया। ध्यान दीजिए कि यहाँ नया प्रेषित चुनने के लिए चिट्ठियाँ क्यों  डाली गयीं। इसका जवाब हमें प्रेषितों की प्रार्थना से मिलता है, “हे यहोवा, तू जो सबके दिलों को जानता है, हमें बता कि तूने इन दो आदमियों में से किसे चुना है।” (प्रेषि. 1:23, 24) जी हाँ, वे चाहते थे कि नए प्रेषित को यहोवा ही चुने। चिट्ठियाँ डालने पर मत्तियाह चुना गया, जो शायद उन 70 चेलों में से था जिन्हें यीशु ने प्रचार के लिए भेजा था। तब से वह उन “12 प्रेषितों” c में गिना गया।​—प्रेषि. 6:2.

22, 23. हमें मंडली में अगुवाई करनेवालों के अधीन क्यों रहना चाहिए?

22 यह वाकया दिखाता है कि परमेश्‍वर के लोगों के लिए संगठित तरीके से काम करना कितना ज़रूरी है। आज भी, मंडली में निगरानी करने के लिए ज़िम्मेदार भाइयों को चुना जाता है। किसी भाई को चुनते वक्‍त प्राचीन इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि वह बाइबल में बतायी योग्यताओं पर खरा उतरे। और सही फैसला करने के लिए वे पवित्र शक्‍ति के लिए भी प्रार्थना करते हैं। इस तरह जो भाई निगरान ठहराए जाते हैं, उनके बारे में मंडली मानती है कि उन्हें पवित्र शक्‍ति ने ही नियुक्‍त किया है। जहाँ तक हमारी बात है, हमें प्राचीनों के अधीन रहना चाहिए और उनकी बात माननी चाहिए। ऐसा करने से हम मंडली में प्यार और एकता बनाए रखते हैं।​—इब्रा. 13:17.

हम ठहराए गए निगरानों के अधीन रहते हैं और उनकी बात मानते हैं

23 यीशु के ज़िंदा होने के बाद चेलों ने उसके साथ जो वक्‍त बिताया उससे उन्हें काफी हिम्मत मिली। साथ ही, परमेश्‍वर के लोगों को जिस तरह संगठित किया गया, यह देखकर भी उनका हौसला बढ़ा। अब वे आगे होनेवाली एक रोमांचक घटना के लिए पूरी तरह तैयार थे। अगले अध्याय में इस घटना पर चर्चा की जाएगी।

a लूका ने अपनी खुशखबरी की किताब में इस आदमी को “आदरणीय थियुफिलुस” कहा था। (लूका 1:1) इससे कुछ लोगों को लगता है कि शायद थियुफिलुस कोई बड़ा अधिकारी था और जब लूका की किताब लिखी गयी तब वह एक मसीही नहीं था। लेकिन प्रेषितों की किताब में लूका उसे “प्यारे थियुफिलुस” कहता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि थियुफिलुस लूका की खुशखबरी की किताब पढ़कर मसीही बना होगा। इसलिए वे कहते हैं कि प्रेषितों की किताब में लूका ने उसके नाम के साथ कोई उपाधि नहीं जोड़ी। इसके बजाय उसने ऐसे लिखा जैसे किसी मसीही भाई को लिख रहा हो।

b मूल भाषा में यहाँ यूनानी शब्द ट्रोपोस  इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब है “ढंग,” ना कि यूनानी शब्द मॉरफे  जिसका मतलब है “रूप।”

c हालाँकि बाद में पौलुस को “गैर-यहूदी राष्ट्रों के लिए प्रेषित” चुना गया लेकिन वह कभी-भी 12 प्रेषितों में नहीं गिना गया। (रोमि. 11:13; 1 कुरिं. 15:4-8) वह इसलिए क्योंकि धरती पर यीशु की सेवा के दौरान वह यीशु के साथ नहीं था।