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रक्‍त-आधान–कितने सुरक्षित?

रक्‍त-आधान–कितने सुरक्षित?

रक्‍त-आधान–कितने सुरक्षित?

एक विचारशील व्यक्‍ति किसी भी गम्भीर चिकित्सा प्राक्रिया को स्वीकार करने से पहले, उसके संभावित लाभ और हानियों के बारे में ज्ञान प्राप्त करेगा। रक्‍त-आधानों के विषय में क्या? चिकित्सा-शास्त्र में यह अब एक प्रामुख साधन है। बहुत से चिकित्सक जिन्हें अपने मरीज़ों में वास्तविक रुचि है, उन्हें लहू देने में थोड़ी भी झिझक नहीं होगी। इसे जीवन का उपहार कहा गया है।

लाखों लोगों ने लहू दिया या लिया है। १९८६-८७ के लिये कैन्‌डा की २ करोड़ ५० लाख आबादी में से १३ लाख रक्‍त-दाता थे। “हाल ही के वर्ष [में] जिसके आँकड़े उपलब्ध हैं, केवल अमेरीका में ही एक करोड़ २० लाख से लेकर एक करोड़ ४० लाख यूनिट लहू को रक्‍त-आधानों में प्रायोग किया गया।”—द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌, फरवरी १८, १९९०.

डॉ. लुइज़ जे. कीटिंग ने ध्यान दिया, “लहू ने हमेशा ‘जादुई’ गुण का आनन्द लिया है। प्राथम ४६ वर्षों तक, चिकित्सकों और आम जनता ने यह समझा था कि लहू-आपूर्ति, वास्तविकता से कहीं अधिक सुरक्षित है।” (क्लीवलैंड क्लिनिक जर्नल ऑफ मेड्‌सिन, मई १९८९) उस समय क्या परिस्थिति थी और अब क्या है?

तीस वर्ष पहले भी रोग-विज्ञानियों और रक्‍त-बैंक के कर्मचारियों को सलाह दी गई: “लहू डायनामाइट है! यह बहुत अधिक लाभ या बहुत अधिक हानि कर सकता है। रक्‍त-आधान की मृत्यु दर अन्य संवेदनाहारी औषध या अपेंडिक्स (उण्डुकपुच्छ) के ऑपरेशन की मृत्यु दर के तुल्य है। ऐसा कहा जाता है कि लगभग १,००० से लेकर ३,००० या संभवतः ५,००० रक्‍त-आधानों में से एक की मृत्यु हो जाती है। लंडन क्षेत्र से यह रिपोर्ट मिली है कि आधान किए हुए प्रात्येक १३,००० रक्‍त बोतलों में से एक व्यक्‍ति की मृत्यु हुई।”—न्यू यॉर्क स्टेट जर्नल ऑफ मेड्‌सिन, जनवरी १५, १९६०.

क्या उस समय से अब तक उन खतरों को हटा दिया है, जिससे रक्‍त-आधान अब सुरक्षित है? स्पष्टतः हर वर्ष लाखों व्यक्‍तियों को लहू की प्रातिकूल प्रातिक्रियाएँ होती है और बहुतों की मृत्यु हो जाती है। पूर्वगत टिप्पणियों पर विचार करते हुए, आपके ध्यान में रक्‍त-वाहित रोग आ सकते हैं। इस पहलू पर ध्यान देने से पहले, उन जोखिमों को देखें जो कम सुप्रासिद्ध है।

लहू और आपकी रोग-प्रातिरक्षा

बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में वैज्ञानिकों ने, लहू की अद्‌भुत जटिलता के विषय में मनुष्यों की समझ को और अधिक बढ़ाया। उन्होंने जाना कि लहू के विभिन्‍ना वर्ग है। रक्‍त-आधानों में, रक्‍त-दाता तथा मरीज़ के लहू का मेल मिलाना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यदि किसी वर्ग A वाले व्यक्‍ति को वर्ग B का लहू दिया जाए, तो उसे गम्भीर रक्‍त-उपघटन प्रातिक्रिया हो सकती है। इससे उसकी अधिकांश लाल कोशिकाएँ नष्ट हो सकती है और शीघ्र ही मृत्यु हो सकती है। यद्यपि आजकल रक्‍त-वर्ग-निर्धारण और परस्पर अनुरूपता का जाँच नित्यक्रम है, तो भी भूल होती है। प्रात्येक वर्ष रक्‍त-उपघटन प्रातिक्रियाओं से लोगों की मृत्यु होती है।

तथ्य यह प्राकट करते हैं कि अस्पतालों में मेल करवाए जाने वाले रूधिर वर्गों की तुलना में असंगति की समस्या कहीं अधिक है। क्यों? अपने लेख “रक्‍त-आधान: उपयोग, दुरुपयोग और ख़तरा,” में, डॉ. डगलस एच. पोसी, जूनियर. लिखते हैं: “लगभग ३० वर्ष पहले, सैम्पसन ने रक्‍त-आधान का वर्णन, एक संबद्ध रूप से संकटपूर्ण प्राक्रिया के रूप में किया था . . . (तब से) कम से कम ४०० अतिरिक्‍त लाल कोशिका ऐन्‌टिजन (ऐसे पदार्थ जिससे रक्‍त में रोगप्रातिकारक [ऐण्टी बॉडि] उत्पन्‍ना हो) की पहचान और लक्षणों की वर्णन हो चुकी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इसकी संख्या निरन्तर बढ़ती जाएगी क्योंकि लाल कोशिका झिल्ली अत्यन्त जटिल है।”—जर्नल ऑफ द नैश्‍नल मेडिकल ऐसोसिएशन. जुलाई १९८९.

वैज्ञानिक आजकल इस बात का अध्ययन कर रहें हैं कि शरीर में दिए गए लहू का शरीर के रोग-प्रातिरक्षा या रोध-क्षमता (इम्यून) तन्त्र पर क्या प्राभाव पड़ता है। इसका आप पर या आपके सम्बन्धी के लिये क्या अर्थ हो सकता है जिसे शल्यचिकित्सा की आवश्‍यकता हो?

जब डॉक्टर एक हृदय, यकृत या अन्य अंग का प्रातिरोपण (ट्रैन्स्‌प्लांट) करते हैं, तो अंग पाने वाले व्यक्‍ति का रोग-प्रातिरक्षा या रोधक्षमता तन्त्र को उस बाह्‍य ऊतक का बोध हो जाता है, और उसे अस्वीकार कर देता है। तथापि, रक्‍त-आधान एक ऊतक प्रातिरोपण है। उचित रीति से मेल करवाए हुए लहू से भी रोग-प्रातिरक्षा तन्त्र का दमन हो सकता है। रोग-वैज्ञानिकों की एक सभा में, यह बात कही गई कि सैकड़ों चिकित्सा सम्बन्धी निबन्धों में “रक्‍त-आधानों को रोग-प्रातिरक्षक अनुक्रियाओं से जोड़ा गया है।”—“आधानों के विरुद्ध विवाद बढ़ता है,” मेडिकल वर्ल्ड न्यूज़, दिसम्बर ११, १९८९.

आपके रोग-प्रातिरक्षा तन्त्र का मुख्य कार्य विषालु (कैंसर) कोशिकाओं की पहचान करके उनको नष्ट करना है। क्या निरुद्ध रोग-प्रातिरक्षा से कैंसर या मृत्यु हो सकती है? दो रिपोर्टों पर ध्यान दें।

कैंसर नामक पत्रिका (फरवरी १५, १९८७) ने नेदरलैंड्‌स में किए गए अध्ययन के परिणाम बताए: “बृहदंत्र के कैंसर वाले मरीज़ों ․ में, लम्बी अवधि जीवित रहने पर रक्‍त-आधान का एक उल्लेखनीय प्रातिकूल प्राभाव देखा गया। इस वर्ग में, कुल मिलाकर मरीज़ों की संचयी पाँच वर्ष की उत्तरजीविता आधान लिए हुए ४८% और आधान नहीं लिए हुए ७४% थी।” दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया के विश्‍वविद्यालय के चिकित्सकों ने सौ मरीज़ों पर कैंसर शल्यचिकित्सा के बाद अध्ययन किया। “स्वरयंत्र के सभी कैंसरों के रोगियों में दुबारा होने का दर १४% लहू प्राप्त न करने वालों में और ६५% लहू प्राप्त करने वालों में थी। मुख-विवर, ग्रसनी, नाक या शिरानाल (साइनस) के कैंसरों में फिर घटित होने का दर ३१% लहू नहीं लेने वालों में और ७१% लहू लेने वालों में थी।”—ऐनल्स ऑफ ऑटॉलॉजी, राइनॉलॉजी एण्ड लॅरिंगॉलॉजी, मार्च १९८९.

रक्‍त-आधानों के सम्बन्ध में ऐसे अध्ययन क्या सूचित करते हैं? “रक्‍त-आधानों और कैंसर के लिए शल्यचिकित्सा” नामक अपने लेख में डॉ. जॉन एस. स्प्रौट ने निर्णीत किया: “कैंसर सर्जन को एक रक्‍तहीन सर्जन बनने की आवश्‍यकता हो सकती है।”—द अमेरिकन जर्नल ऑफ सर्जरी, सितम्बर १९८६.

आपके रोग-प्रातिरक्षा तन्त्र का एक और मुख्य कार्य संक्रमण से बचाव करना है। इसलिये यह स्वाभाविक है, जैसे कि कुछ अध्ययन दर्शातें हैं कि जिन मरीज़ों को लहू दिया जाता है वह संक्रमण के अधिक प्रावृत्त है। डॉ. पी. आई. टार्टर ने बृहदंत्र-मलाशय सम्बन्धी शल्यचिकित्सा का अध्ययन किया। जिन मरीज़ों को लहू दिया गया उनमें से २५ प्रातिशत संक्रमण के शिकार हुए, उन ४ प्रातिशत की तुलना में जिन्हें लहू नहीं दिया गया। उन्होंने कहा: “रक्‍त-आधानों का सम्बन्ध संक्रामक समस्याओं से था जब उन्हें ऑपरेशन से पहले, ऑपरेशन के दौरान या ऑपरेशन के बाद दिया गया . . . ऑपरेशन के बाद संक्रमण का ख़तरा वैसे लगातार बढ़ता गया, जैसे लहू दी जाने वाली बोतलों की संख्या बढ़ती गई।” (द स्विटिश जर्नल ऑफ सर्जरी, अगस्त १९८८) १९८९ में अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ ब्लड़ बैंक्स की सभा में उपस्थित लोगों ने यह सीखा: लहू दिए जाने से २३ प्रातिशत व्यक्‍तियों को संक्रमण हुआ और जिन्हें लहू नहीं दिया गया उन्हें संक्रमण हुआ ही नहीं।

रक्‍त-आधानों के इस प्राभाव पर डाँ. जॉन ए. कॉलिन्स ने लिखा: “यह बात सचमूच व्यंग्यात्मक होगी, यदि एक ‘उपचार’ जिससे कोई विशेष लाभ होने का अल्प प्रामाण हो और बाद में मालूम हो कि इससे ऐसे मरीज़ों की मुख्य समस्याओं में से एक को तीव्र करता है।”—वर्ल्ड जर्नल ऑफ सर्जरी, फ़रवरी १९८७.

रोग-मुक्‍त या संकट से भरा हुआ?

रक्‍त-वाहित रोगों से कर्तव्यनिष्ठ चिकित्सकों और बहुत से मरीज़ों को चिन्ता होती है। कौनसा रोग? स्पष्ट रूप से, वह एक ही रोग नहीं है; निश्‍चय ही बहुत से रोग हैं।

सुप्रासिद्ध रोगों पर विचार-विमर्श करने के बाद, रक्‍त-आधान के तकनीक (Techniques of Blood Transfusion) (१९८२) “रक्‍त-आधान से सम्बन्धित अन्य संक्रमण रोग” को सम्बोधित करता है, जैसे उपदंश (सिफ़लिस), साइटोमेगैलोवाइरस संक्रमण और मलेरिया है। उसमें आगे कहा गया: “रक्‍त-आधानों से अन्य कई रोगों के हस्तांतरित होने की सूचना मिली है, जिनमें परिसर्प (हर्पीज़) वाइरस संक्रमण, संक्रामक मोनोन्युक्लिओसिस (एपस्टाइन-बार वाइरस), टॉक्सोप्लाज़्मोसिस (मस्तिष्क और आँखों का संक्रामक रोग), ट्रिपनोसोमिॲसिस [अफ्रीकी निद्रित रोग और शागास रोग], लीशमैनिॲसिस (काला आज़ार), ब्रूसेल्लोसिस [तरंगित ज्वर], टाइफस (तंद्रिक ज्वर), फ़ाइलेरिया रोग, खसरा, साल्मोनेल्लोसिस तथा कोलोरॅडो चीचड़ी ज्वर।”

वास्तव में, ऐसे रोगों की सूची बढ़ती ही जा रही है। आपने ऐसी शीर्षपंक्‍तियों को पढ़ा होगा “रक्‍त-आधान से लाइम रोग? यह असंभाव्य है, परन्तु विशेषज्ञ सतर्क है।” लाइम रोग से पीड़ित किसी व्यक्‍ति से लिया गया लहू कितना सुरक्षित है? स्वास्थ्य अधिकारियों के एक दल से पूछा गया कि क्या वे ऐसा लहू स्वीकार करेंगे या नहीं। “सब ने मना कर दिया, परन्तु किसी ने यह सुझाव नहीं दिया कि ऐसे दाताओं के लहू को अलग कर देना चाहिये।” रक्‍त बैंक में रखे गए ऐसे लहू के बारे में जनसाधारण के क्या विचार होने चाहिये जिसे विशेषज्ञ स्वयं स्वीकार नहीं करते हैं?—द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌, जुलाई १८, १९८९.

चिन्ता का एक दूसरा कारण है कि एक देश से एकत्रित किया गया लहू में जहाँ कोई विशेष रोग प्राचुर है, किसी दूर के देश में उपयोग किया जा सकता है, जहाँ न तो जनसाधारण और न ही चिकित्सक उस संकट से सावधान है। आज के यात्रा के वृद्धि से, जिसमें शरणार्थी और आप्रावासी भी सम्मिलित है, इस संकट की संभावना बढ़ती जा रही है कि किसी लहू पदार्थ में कोई विचित्र रोग हो।

इससे अतिरिक्‍त, संक्रामक रोग के एक विशेषज्ञ ने चेतावनी दी: “उन अनेक विकारों का प्रासारण को रोकने के लिये लहू आपूर्ति की जाँच करने की आवश्‍यकता है, जिन्हें पहले संक्रामक नहीं समझा जाता था, इनमें ल्यूकेमिया (श्‍वोतरक्‍तता), लिम्फ़ोमा एवं डिमेंशिआ [बुद्धि-शिथिलता या अल्ज़िमर रोग] भी सम्मिलित है।”—ट्रैन्स्‌फ़्यूज़न मेड्‌सिन रिव्यूज़, जनवरी १९८९.

यह संकट तो भयोत्पादक है ही, परन्तु दूसरों से और भी अधिक भय उत्पन्‍ना हुआ है।

एड्‌स विश्‍वव्यापी महामारी

“एड्‌स ने डॉक्टरों और मरीजों का लहू के बारे में विचार हमेशा के लिये बदल दिया है। और यह एक गलत विचार नहीं है, ऐसा नॅशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ पर एकत्रित डॉक्टरों ने रक्‍त-आधानों के विषय पर हूई सम्मेलन में कहा।”—वॉशिंगटन पोस्ट, जुलाई , १९८८.

एड्‌स (अक्वायर्ड इम्युनोडिफिशेन्सी सिंड्रोम या अर्जित प्रातिरक्षा-हीनता संलक्षण) विश्‍वव्यापी महामारी ने, अत्यधिक प्रातिशोध से, लहू द्वारा प्राप्त संक्रामक रोगों के संकटों के प्राति मनुष्यों को सचेत किया है। आज, लाखों लोग संक्रमण ग्रहित है। यह नियन्त्रण से बाहर फैलता जा रहा है। और इसकी मृत्यु दर वस्तुतः शत प्रातिशत है।

एड्‌स मानवी प्रातिरक्षा-हीनता विषाणु (ह्‍यूमन इम्यूनोडेफिशेन्सी वाइरस HIV) द्वारा होता है, जो लहू द्वारा फैल सकता है। आधुनिक एड्‌स महामारी १९८१ में प्राकाश मे आया था। उसके अगले वर्ष ही, स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने यह जान लिया कि यह विषाणु लहू सम्बन्धित उत्पादनों से फैल सकता है। अब इस बात को स्वीकार किया जाता है कि लहू, जिसमें एड्‌स विषाणु (HIV) ॲन्टीबॉडी (प्रातिपिण्ड) समाविष्ठ है, की पहचान करने वाले कई जाँचों की उपलब्धी के बाद भी, लहू-उद्योग ने धीमी प्रातिक्रिया दिखाई थी। रक्‍त दाताओं के लहू की जाँच अन्त में १९८५ * में आरम्भ हो गई, परन्तु फिर भी उन लहू-पदार्थों की जाँच नहीं की गई जो पहले से ही रखे हुए थे।

उसके बाद लोगों को यह आश्‍वासन दिया गया, ‘लहू आपूर्ति अब सुरक्षित है।’ परन्तु, बाद में, यह प्राकट किया गया कि एड्‌स की एक भयानक “प्रासुप्त-अवधि” है। जब एक व्यक्‍ति संक्रामित हो जाता है, तो संभव है कि कई महीनों के बीतने के बाद ही वह पता लगाने योग्य प्रातिपिण्डों को उत्पन्‍ना कर सके। इस बात से अनभिज्ञ होकर कि वह उस वाइरस को आश्रय दे रहा है, वह व्यक्‍ति लहू दान कर सकता है जो जाँच करने पर रोग अभावात्मक हो। ऐसा हुआ है। इस प्राकार के लहू दिये जाने के बाद लोगों को एड्‌स हुआ है!

स्थिति और भी कठिन हो गई है। द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेड्‌सिन (जून १, १९८९) ने “मूक एड्‌स विषाणु संक्रमणों” के विषय में रिपोर्ट दी। इस बात को प्रामाणित किया गया कि आधुनिक अप्रात्यक्ष जाँचों द्वारा पता लगाए बिना लोग कई वर्षों तक एड्‌स विषाणु को लेकर रह सकते हैं। कुछ व्यक्‍ति ऐसी स्थितियों को विरल कहकर, कम करना चाहेंगे, लेकिन वे यह साबित करते हैं कि “लहू और उसके अवयवों के द्वारा एड्‌स रोग होने के संकट को पूर्ण रूप से टाला नहीं जा सकता है।” (पेशन्ट कैर, नवम्बर ३०, १९८९) विक्षोभकारी परिणाम: एक अभावात्मक जाँच को स्वास्थ्य का एक साफ लेखा नहीं कहा जा सकता है। अब और कितने लोगों को लहू से एड्‌स हो सकता है?

अगला जूता? या जूते?

फ्लॅटों में रहने वाले कई लोगों ने अपने ऊपर के फ़र्श पर एक जूते का धमाका सुना होगा; उसके बाद वे दूसरे जूते का धमाका सुनने के लिये तनावपूर्ण हो जाते हैं। लहू की इस दुविधापूर्ण स्थिति में कोई नहीं जानता कि और कितने प्राणघातक जूतों का प्राहार हो।

एड्‌स के विषाणु को HIV नाम दिया गया था, परन्तु अब कुछ विशेषज्ञ इसे HIV-1 कहते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें एड्‌स के प्राकार का एक और विषाणु मिला है (HIV-2)। इससे, एड्‌स के लक्षण हो सकते हैं और कुछ क्षेत्रों में यह बहुत अधिक विस्तृत है। इसके अतिरिक्‍त, द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌. (जून २७, १९८९) में यह रिपोर्ट दी गई: “यहाँ प्रायोग की जाने वाली आधुनिक जाँचों में दृढ़ रूप से इसकी खोज नहीं की जा सकती है। नई खोजों से . . . रक्‍त बैंकों को इस बात से आश्‍वस्त होने में और अधिक कठिनाई होती है कि दान दिया गया रक्‍त सुरक्षित है।”

या एड्‌स वाइरस के दूर के सम्बन्धियों के विषय में क्या? एक अध्यक्षीय आयोग (यू.एस.ए) ने कहा कि एक ऐसे वाइरस “प्रौढ़ टी-कोशिका ल्यूकेमिया/लिम्फ़ोमा तथा तंत्रिका सम्बन्धी गम्भीर रोग का कारण हो सकती है।” यह वाइरस, रक्‍त दान करने वाले जन-समुदाय में पहले से ही है, और लहू द्वारा फैल सकती है। लोगों को यह सोचने का अधिकार है, ‘ऐसे दूसरे विषाणुओं के लिये रक्‍त-बैंक जाँच कितना प्राभावशाली है?’

वास्तव में, समय ही बताएगा कि लहू आपूर्ति में और कितने रक्‍त-वाहित वाइरस छिपे हुए हैं। डॉ. हेरॉल्ड टी. मेरिमन लिखते हैं, “अज्ञात विषाणु ज्ञात से अधिक चिन्ता का कारण हो सकता है। स्थानांतरणीय वाइरस जिनके उद्‌भवन काल कई वर्षों के होते हैं, उन्हें रक्‍त-आधानों के साथ मिलाना बहुत कठिन होगा और उनकी पहचान करना और भी अधिक कठिन होगा। निश्‍चय ही, इनमें से HTLV समूह सबसे पहले सामने आएँ है।” (ट्रैन्स्‌फ्यूज़न्स मेड्‌सिन रिव्यूज़, जुलाई १९८९) “जैसे कि एड्‌स महामारी की विपत्ति काफी नहीं थी, . . . १९८० के दशक में बहुत से हाल में प्रास्तावित या वर्णित रक्‍त-आधानों के संकटों ने ध्यान आकर्षित किया। ऐसी पूर्वघोषणा करने के लिये बहुत सोच-विचार करने की आवश्‍यकता नहीं है कि और भी गम्भीर वाइरस सम्बन्धी रोग अस्तित्व में है और समजातीय आधानों से इनका हस्तांतरण होता है।”—लिमिटिंग होमोलॅगस एक्स्पोज़र: ऑल्टरनेटिव स्ट्रैट्‌जीस्‌, १९८९.

बहुत से “जूते” अभी तक गिर चुके हैं कि रोग नियन्त्रण के केन्द्र ने “विश्‍वव्यापी सावधानियों” की सलाह दिया है। वे हैं, ‘स्वास्थ्य देखभाल करने वाले कर्मचारियों को यह सोचना चाहिये कि सभी मरीज़ HIV तथा अन्य रक्‍त-वाहित रोगजनकों से सांक्रामिक है।’ अच्छे कारणों से स्वास्थ्य देखभाल करने वाले कर्मचारी और जन-साधारण के सदस्य लहू के बारे में अपने दृष्टिकोण का पुनर्निधारण कर रहे हैं।

[फुटनोट]

^ अभी भी हम यह विश्‍वास नहीं कर सकते कि सारा लहू जाँचा जाता है। उदाहरण के लिये, यह रिपोर्ट मिली है कि १९८९ के शुरू में, त्त्वाज़िल के रक्‍त बैंकों में से ८० प्रातिशत सरकारी नियन्त्रण में नहीं थे और ना ही वे एड्‌स के लिये जाँच कर रहे थे।

[पेज 8 पर तसवीरें]

“ज्वर, कँपकँपी या पित्ती १०० में से लगभग एक रक्‍त-आधान के साथ होती है। . . . लगभग ६,००० में से एक लाल कोशिका, रक्‍त-आधान से रक्‍त-उपघटन आधान प्रातिक्रिया होती है। यह एक तीव्र प्रातिरक्षक प्रातिक्रिया है, जो तुरन्त या रक्‍त-आधान के कुछ दिन बाद होती है; इसके परिणाम स्वरूप अतिपाती [वृक्क] भंग [अक्यूट (किड्‌नी) फ़ेल्‌यर], आघात, अंत-संवहनी थक्का जम जाना और मृत्यु भी हो सकती है।”—नैशनल इन्‌स्टिट्यूट्‌स ऑफ हैल्थ (NIH) सम्मेलन, १९८८.

[पेज 9 पर बक्स]

डेन्मार्क के विज्ञानी नील्स जर्न, १९८४ में औषध क्षेत्र के नोबेल पुरुस्कार के सहभागी थे। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने क्यों रक्‍त-आधान के लिये मना किया था, तो उन्होंने कहा: “एक व्यक्‍ति का लहू उसकी अंगुलि-छापों के समान है—कोई भी दो प्राकार के लहू नहीं है जो बिलकुल एक जैसे है।”

[पेज 10 पर बक्स]

लहू, विध्वस्त यकृत, और . . .

वॉशिंग्टन पोस्ट ने समझाया, “व्यंगात्मक रूप से, रक्‍त-वाहित एड्‌स . . . दूसरे रोंगों से अधिक खतरनाक कभी नहीं हुआ—उदाहरण के लिये हेपॅटाइटिस (यकृत-शोथ)।”

जी हाँ, इस हेपॅटाइटिस से, जिसका कोई विशेष उपचार नहीं है, बहुतों की अति पीड़ित होकर मृत्यु हो गई है। यू.एस.न्यूज़ एण्ड वर्ल्ड रिपोर्ट (मई १, १९८९) के अनुसार, अमरीका में लहू प्राप्त मरीज़ों में से ५ प्रातिशत को हेपॅटाइटिस हो जाता है—प्राति वर्ष १,७५,००० लोग। इसमें से लगभग आधे, चिरकालिक वाहक बन जाते हैं, और कम से कम ५ में से १ को यकृत (कलेजा) का सिरोसिस (सूत्रणरोग) या कैंसर हो जाता है। अनुमान है कि ४,००० की मृत्यु हो जाती है। कल्पना कीजिये, एक जम्बो जेट विमान धमाके से गिरकर चकनाचूर हुआ और उसके सभी यात्रियों की मृत्यु हो गई ऐसा शीर्ष पंक्‍तियाँ आपने पढ़ी। परन्तु ४,००० देहांतों का अर्थ है, एक भरा जम्बो जेट हर महीने धमाके से गिरना!

काफी समय पहले से चिकित्सक एक मध्यम प्राकार का हेपॅटाइटिस (टाइप A) के बारे में जानते हैं कि वह दूषित भोजन या जल द्वारा फैलता है। फिर उन्होंने देखा कि लहू द्वारा एक और अधिक गम्भीर रूप का हेपॅटाइटिस फैल रहा है, और लहू का जाँच के लिये उनके पास कोई उपाय नहीं था। बाद में, चतुर वैज्ञानिकों ने इस वाइरस (टाइप B) के “पद-चिन्ह” की पहचान करना सीखा। १९७० के आरंभिक वर्षों से कुछ देशों में लहू को जाँचा जाने लगा। लहू आपूर्ति सुरक्षित प्रातीत आने लगा और लहू के लिये भविष्य उज्जवल दिखाई देने लगा। या क्या सचमुच ऐसा था?

कुछ समय बाद ही यह स्पष्ट हुआ कि जाँचे गए लहू देने के बाद भी हज़ारों हेपॅटाइटिस से पीड़ित हुए। दुर्बल कर देने वाली बीमारी के बाद बहुत से लागों ने जाना कि उनके यकृत नष्ठ हो चुके हैं। लेकिन यदि वह लहू जाँचा गया था, तो ऐसा क्यों हो रहा था? उस लहू में एक और प्राकार था, जिसे नॉन-A, नॉन-B हेपॅटाइटिस (NANB) कहा जाता है। एक दशक तक रक्‍त-आधानों से रोग फैलता रहा—इस्राएल, इटली, जापान, स्पेन, स्वीडन और अमेरिका में रक्‍त-आधान लेने वाले ८ से १७ प्रातिशत व्यक्‍तियों को यह रोग हुआ।

फिर ऐसी शीर्ष-पंक्‍तियाँ देखी गई, “रहस्यमयी हेपॅटाईटिस नॉन-A, नॉन-B वाइरस आखिर अलग किया गया”; “लहू के एक ज्वर को वश में करना”। फिर से संदेश था, ‘छली कर्ता मिल गया!’ अप्रैल १९८९ में जन-साधारण को बताया गया कि NANB, जो अब हेपॅटाइटिस C कहलाता है, को जाँचने के लिये एक परीक्षण उपलब्ध है।

क्या यह समाधान असामयिक है, शायद आप ऐसा सोचेंगे। वास्तव में, इटली के अनुसंधायकों ने एक और हेपॅटाइटिस वाइरस, एक उत्परिवर्ती, के बारे में बताया जो लगभग एक तिहाई रोगियों के लिये जिम्मेदार हो सकता है। हारवर्ड मेडिकल स्कूल हैल्थ लेटर (नवम्बर १९८९) ने निरीक्षण किया, “कुछ अधिकारी इस बात की चिन्ता में हैं कि हेपॅटाइटिस वाइरस की वर्ण-माला A, B, C, एवं D तक ही सीमित नहीं है; इसके अलावा और भी सामने आ सकते हैं।” द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌ (फरवरी १३, १९९०) ने कहा: “विशेषज्ञ दृढ़ता से यह अनुमान लगा रहे हैं कि दूसरे वाइरस भी हेपॅटाइटिस का कारण हो सकते हैं; यदि खोज की गई, तो उन्हें हेपॅटाइटिस E इत्यादि नाम दिये जाएँगे।”

क्या रक्‍त बैंको को लहू सुरक्षित बनाने के परीक्षणों के लिये और अधिक लम्बी खोजबीन का सामना करना पड़ रहा है? खर्च की समस्या को बताते हुए अमेरिकन रेड क्रॉस के एक निर्देशक ने यह विक्षुब्धकारी टिप्पणी की: “हम फैलने वाले प्रात्येक संक्रामक कर्ता के लिये एक के बाद एक परीक्षण नहीं जोड़ सकते।”—मेडिकल वर्ल्ड न्यूज़, मई ८, १९८९.

हेपॅटाइटिस B के लिये किया जाने वाला परीक्षण भी अविश्‍वनीय है; अभी भी बहुत से लोगों को लहू द्वारा यह रोग उत्पन्‍ना होता है। इसके अतिरिक्‍त हेपॅटाइटिस C के घोषित परीक्षण से क्या लोग सन्तुष्ट हो जाएँगे? द जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जनवरी ५, १९९०) ने दर्शाया कि परीक्षण द्वारा इस रोग के प्रातिपिण्डों (ऐण्टीबॉडीज़) की पहचान करने में एक वर्ष लग सकता है। तब तक लहू दिए जाने वाले व्यक्‍ति को विध्वस्त यकृत—और मृत्यु का सामना करना पड़ेगा।

[पेज 11 पर बक्स/तसवीर]

शागस रोग से यह प्रादर्शित होता है कि कैसे लहू द्वारा रोग दूर देश के लोगों तक पहुँच सकता है। “द मेडिकल पोस्ट” (जनवरी १६, १९९०) ने रिपोर्ट दी कि ‘लतानी अमरीका में १ करोड़ से लेकर १ करोड़ २० लाख लोगों को चिरकालिक संक्रमण है।’ इसे “दक्षिणी अमरीका के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण रक्‍त-आधान जोखिमों में से एक” कहा गया है। एक “हत्यारा खटमल” सोए हुए शिकार को मुँह में काट लेता है, खून चूसता है और घाव पर मलत्याग करता है। शागस रोग को लेकर शिकार व्यक्‍ति कई वर्षों तक रह सकता है (इस बीच हो सकता है कि वह रक्‍तदान करे) उसके बाद उसे हृदय की प्राणघातक समस्याएँ उत्पन्‍ना हो जाती है।

दूर महाद्वीपों पर रहने वाले लोगों को इससे चिन्ता करने का क्या कारण है? “द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌” (मई २३, १९८९), में, डॉ. एल. के. ऑल्टमन ने उन मरीज़ों के बारे में बताया जिन्हें रक्‍त-आधानों द्वारा शागस रोग हुआ, उनमें से एक की मृत्यु हो गई। ऑल्टमेन ने लिखा: “और भी बहुत से रोगियों में उस रोग की पहचान नहीं हो पाई होगी क्योंकि [यहाँ के चिकित्सक] शागस रोग से परिचित नहीं हैं और ना ही वे जानते हैं कि यह रक्‍त-आधानों द्वारा फैल सकता है।” जी हाँ, रक्‍त वह वाहन हो सकता है जिससे रोग दूर-दूर की यात्रा कर सकते हैं।

[पेज 12 पर बक्स]

डॉ.नूड लंड-ऑल्सन ने लिखा: “चुँकि कुछ उच्च जोखिम दल के ऐसे व्यक्‍ति स्वेच्छा से रक्‍तदान करते हैं जिस से स्वयं उनकी एड्‌स की जाँच हो जाती है, मैं सोचता हूँ कि रक्‍त-आधान को अस्वीकार करने का कारण है। यहोवा के गवाह कई वर्षों से इसके लिये मना करते आ रहे हैं। क्या उन्होंने भविष्य देखा था?”—“युगेस्क्रिफ्ट फॉर लेइजर” (डॉक्टरों का साप्ताहिक), सितम्बर २६, १९८८.

[पेज 9 पर तसवीर]

गोली लगने के बाद पोप बच गए। अस्पताल से वापस आने के बाद, “बहुत पीड़ा भुगतने” के वजह से उन्हे दो महीनों के लिए दोबारा वापस लिया गया। क्यों? उन्होंने स्वीकार किया हुआ लहू द्वारा एक संभावित प्राणघातक साइटोमेगैलोवाइरस के संक्रमण से ऐसा हुआ।

[चित्र का श्रेय]

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एड्‌स वाइरस (विषाणु)

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CDC, Atlanta, Ga.