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लहू जो वास्तव में जीवन की रक्षा करता है

लहू जो वास्तव में जीवन की रक्षा करता है

लहू जो वास्तव में जीवन की रक्षा करता है

पूर्वोलिखित जानकारी से कुछेक बात स्पष्ट है। यद्यपि, रक्‍त-आधानों को लोग जीवन रक्षक समझते है, परन्तु यह जोखिमों से पूर्ण है। प्रत्येक वर्ष रक्‍त-आधानों के फलस्वरूप हज़ारों की मृत्यु हो जाती है; कई लाखों लोग बहुत अधिक रोगग्रस्त हो जाते हैं और दीर्घकालीन परिणामों का सामना करते है। इसलिये एक शारीरिक दृष्टिकोण से भी, बाइबल के आदेश ‘लहू से परे रहो’ को मानना अभी भी बुद्धिमानी की बात है।—प्रेरितों के काम १५:२८, २९

यदि मरीज़ अरक्‍तीय औषधीय उपचार के लिये निवेदन करें तो बहुत से जोखिमों से बचे रह सकते हैं। ऐसे चिकित्सक जिन्होंने इस को यहोवा के गवाहों पर लागू करने का चुनौती को स्वीकार किया है, उन्होंने उस कायप्रणाली के स्तर को विकसित किया है जो सुरक्षित और प्रभावशाली है जैसा कि अनेक चिकित्सीय सम्बन्धी रिपोर्टों में प्रमाणित हो चूका है। बिना लहू के उच्च कोटिय उपचार करने वाले चिकित्सक मूल्यवान औषधीय सिद्धांतों से समझौता नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत, वह मरीज़ के जोखिम और लाभों को जानने के अधिकार के प्रति गहरा आदर रखते हैं, जिससे मरीज़ अपने शरीर और जीवन को क्या किया जाना है उसके लिये एक सूचित चुनाव कर सकते हैं।

इस विषय में हम भोले नहीं बन रहे हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि इस उपगमन से सभी सहमत नहीं होंगे। लोगों के विवेक, आचारनीति एवं औषधीय दृष्टिकोण में भिन्‍नाता पाई जाती है। इस कारण, कुछ अन्य लोग, जिनमें कुछ डॉक्टर भी शामिल है, शायद मरीज़ के लहू न लेने के निर्णय को मानने में कठिनाई पाएँगे। न्यु यॉर्क के एक शल्यचिकित्सक ने लिखा: “मैं वह १५ साल पुरानी घटना कभी नहीं भूलूँगा, जब मैं एक अंतरंग डॉक्टर था और एक यहोवा के गवाह के पलंग के पास खड़ा था जो ग्रहणी-व्रण के रक्‍तस्राव से मर गया। मरीज़ की इच्छाओं का आदर करके उसे रक्‍त-आधान नहीं दिए गए थे, लेकिन एक चिकित्सक होने के नाते जिस कुण्ठा को मैंनें महसूस किया था मैं अभी तक याद कर सकता हूँ।”

इसमें संदेह नहीं कि वह यह विश्‍वास करता था कि लहू से जीवन की रक्षा हो सकता था। इस बात को लिखने के एक वर्ष बाद ही, द स्विटिश जर्नल ऑफ सर्जरी (अक्‍तूबर १९८६) ने विवरण दिया कि रक्‍त-आधानों के आविष्कार से पहले, अमाशय-आंत्र के रक्‍तस्राव से “मृत्यु दर केवल २.५ प्रतिशत थी।” जबसे रक्‍त-आधान देने का रिवाज़ हुआ है, ‘कई प्रमुख अध्ययन १० प्रतिशत मृत्यु दर की रिपोर्ट देते हैं।’ क्यों मृत्यु का दर चौगुनी है? शोध-कताओं ने सुझाया: “आरम्भिक रक्‍त-आधान रक्‍तस्राव द्वारा उत्पन्‍ना हुई अधिक थक्का जमने की प्रतिक्रिया को उल्टा करता है जिसके परिणामस्वरूप पुनःरक्‍तस्राव को प्रोत्साहन मिलता है।” जब व्रण के रक्‍तस्राव से पीड़ित उस गवाह ने लहू को इन्कार किया, तो वास्तव में उसके इस चुनाव से उसके जीवित रहने की प्रत्याशा उच्चतम सीमा तक बढ़ गई होगी।

इसी शल्यचिकित्सक ने आगे कहा: “समय बीतने के साथ-साथ और बहुत से मरीज़ों का उपचार करने से परिप्रोक्ष्य बदलने की प्रवृति होती है, और आज मैं पाता हूँ कि एक रोगी और उसके चिकित्सक के मध्य विश्‍वास, और रोगी की इच्छाओं का आदर करने का कर्तव्य, अपने चारों ओर की उस नई औषधीय तकनीकी से कहीं अधिक आवश्‍यक है। . . . यह बात रूचिकर है कि उस कुण्ठा ने अब उस रोगी के दृढ़ विश्‍वास के प्रति विष्मय एवं आदर लिया है।” चिकित्सक ने अन्त में कहा: ‘यह मुझे याद दिलाता है कि मुझे हमेशा एक रोगी की व्यक्‍तिगत और धार्मिक इच्छाओं का आदर करना चाहिये, चाहे मेरी अपनी भावनाएँ या उसके परिणाम कुछ भी हों।’

आप शायद पूर्णरुप से इस बात को समझ सकते हैं जो कई चिकित्सक “समय बीतने तथा बहुत से रोगियों का इलाज करने के बाद” मुल्यांकन करने लगते हैं। सबसे बढिया अस्पतालों की सर्वोत्तम चिकित्सा के होते हुए भी, एक स्थिति पर आकर सब लोग मर जाते हैं। रक्‍त-आधान या बिना रक्‍त-आधान के वे मरते हैं। हम सब वृद्धावस्था में आते हैं और जीवन का अंत निकट है। यह भाग्यवादीय नहीं है। यह वास्तविक है। मृत्यु, जीवन की एक सच्चाई है।

परिणाम दर्शाते है कि वह लोग जो परमेश्‍वर का लहू के विषय में नियम का निरादर करते हैं, उन्हें बहुधा तात्कालिक या विलमबित हानि का अनुभव होता है; कुछों को तो उस लहु से मृत्यु भी हो जाती है। जो बच जाते हैं उन्हें अनन्त जीवन नहीं मिला है। इसलिये रक्‍त-आधानों से जीवन हमेशा के लिये नहीं बचाए जा सकता है।

बहुत से लोग जो धार्मिक और/या औषधीय कारणों से लहू नहीं लेते, लेकिन विकल्प औषधीय उपचार स्वीकार करते हैं वे अच्छे रहते है। इससे वे अपने जीवन को कुछ और वर्षों के लिये और बढ़ा लेते हैं। लेकिन सदा के लिये नहीं।

सब मनुष्य असिद्ध है और धीर-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रहे हैं, यह बात हमें लहू के विषय में बाइबल की केन्द्रीय सच्चाई की ओर ले जाती है। यदि हम इस सत्य को समझेंगे और मुल्यांकन करेंगे, हम देख सकते हैं कि कैसे लहू जीवन बचा सकता है—हमारा जीवन—सदा के लिये।

एक मात्र जीवन-रक्षक लहू

जैसा हमने पहले देखा, परमेश्‍वर ने सम्पूर्ण मानव जाति को लहू खाने से मना किया था। क्यों? क्योंकि लहू जीवन का प्रतिनिधत्व है। (उत्पत्ति ९:३-६) उन्होंने इसे इस्राएल को दी गई नियम संहिता में अधिक समझाया। नियम संहिता को अनुसमर्थित करने के समय पर, बलि पशुओं का लहू वेदी पर उपयोग किया जाता था। (निर्गमन २४:३-८) उस संहिता के नियम इस तथ्य की ओर संकेत करते थे कि सभी मानव असिद्ध हैं; वे पापी है, जैसे बाइबल कहती है। परमेश्‍वर ने इस्राएलियों से कहा कि उनके द्वारा किए गए पशु बलिदानों से वे अपने पापों को ढँके जाने की आवश्‍यकता को स्वीकार कर सकते हैं। (लैव्यव्यवस्था ४:४-७, १३-१८, २२-३०) यह स्वीकृत है कि परमेश्‍वर ने तब उन लोगों से यह माँग की थी, आज सच्चे उपासकों से वह ऐसी माँग नहीं करते है। लेकिन आज भी इसमें हमारे लिये अत्यावश्‍यक अर्थ है।

उन बलिदानों के आधारभूत सिद्धांत को परमेश्‍वर ने स्वयं समझाया: “क्योंकि शरीर का प्राण [या जीवन] लहू में रहता है, और उसको मैंने तुम लोगों को वेदी पर चढ़ाने के लिये दिया है, कि तुम्हारे प्राणों के लिये प्रायश्‍चित किया जाए; क्योंकि प्राण के कारण लहू ही से प्रायश्‍चित होता है। इस कारण, मैं इस्राएलियों से कहता हूँ: ‘तुम में से कोई प्राणी लहू न खाए।’”—लैव्यव्यवस्था १७:११, १२.

प्रायश्‍चित दिन नामक प्राचीन पर्व पर, इस्राएल का महायाजक बलि किए हुए पशुओं का लहू मन्दिर के अति पवित्र भाग, परमेश्‍वर की उपासना का केन्द्र, में ले जाता था। ऐसा करना लाक्षणिक रूप से परमेश्‍वर से लोगों के पापों को ढाँक देने की माँग करना था। (लैव्यव्यवस्था १६:३-६, ११-१६) उन बलिदानों से वस्तुतः सभी पाप समाप्त नहीं हो जाते थे, इसलिये उसे हर साल दोहराया जाता था। फिर भी, लहू के इस उपयोग ने एक अर्थपूर्ण नमूना रखा।

बाइबल की एक प्रमुख शिक्षा है कि आखिरकार परमेश्‍वर एक सिद्ध बलिदान का प्रबन्ध करेंगे, जो सभी विश्‍वासियों के पापों का पूर्ण रूप से प्रायश्‍चित कर सकेगा। यह छुड़ौती कहलाता है, और यह पूर्वकथित मसीहा या क्रीस्त के बलिदान पर केन्द्रित है।

बाइबल मसीह की भूमिका को प्रायश्‍चित दिन पर होने वाली घटनाओं से तुलना करती है: “परन्तु जब मसीह आने वाली अच्छी अच्छी वस्तुओं का महायाजक होकर आया, तो उसने और भी बड़े और सिद्ध तम्बू से होकर जो हाथ का बनाया हुआ नहीं . . . और बकरों और बछड़ों के लहू के द्वारा नहीं, पर अपने ही लहू के द्वारा एक ही बार पवित्र स्थान [स्वर्ग] में प्रवेश किया, और अनन्त छुटकारा प्राप्त किया। और व्यवस्था के अनुसार प्रायः सब वस्तुएँ लहू के द्वारा शुद्ध की जाती है, और बिना लहू बहाए क्षमा नहीं होती।”—इब्रानियों ९:११, १२, २२.

इसलिये अब यह समझना आसान है कि क्यों हमें लहू के परमेश्‍वरीय दृष्टिकोण की आवश्‍यकता है। सृष्टिकर्ता होने के अधिकार के अनुरुप, उन्होंने उसकी एक मात्र लाभदायकता को निश्‍चित किया है। प्राचीन इस्राएलियों ने पशु या मानव लहू न लेने से स्वास्थ्य लाभ उठाए होंगे, परन्तु वह सबसे आवश्‍यक सूत्र नहीं था। (यशायाह ४८:१७) उन्हें अपने जीवन पोषण के लिये लहू के उपयोग से बचना था, प्रमुख रूप से इसलिये नहीं कि ऐसा न करना अस्वास्थ्यकर था, परन्तु इसलिये कि यह परमेश्‍वर के लिये अपवित्र था। उन्हें लहू से परे रहना था, इसलिए नहीं क्यों कि वह दूषित था, परन्तु इसलिये कि वह क्षमा प्राप्त करने के लिये बहुमूल्य था।

छुड़ौती के विषय में प्रोरित पौलुस ने समझाया: “हम को उस में उसके [मसीह के] लहू के द्वारा छुटकारा, अर्थात अपराधों की क्षमा, उसके उस अनुग्रह के धन के अनुसार मिला है।” (इफ़िसियों १:७) वहाँ पाए जाने वाले मूल यूनानी शब्द का सही अनूवाद है “लहू” लेकिन, बहुत से बाइबल अनुवादों में त्रुटिपूर्वक उस शब्द के स्थान पर “मृत्यु” शब्द लिख दिया गया है। इस कारण सृष्टिकर्ता का लहू के विषय में दृष्टिकोण और उसमें उनके द्वारा जोड़ा गया बलिदानी मुल्य के महत्त्व को पाठक शायद खो दें।

बाइबल की विषय-वस्तु इस तथ्य के आस पास घूमती है कि मसीह एक सिद्ध छुड़ौती बलिदान के जैसे मरा किन्तु वह ऐसे अवस्था में हमेशा नहीं रहे। परमेश्‍वर द्वारा निर्धारित प्रायश्‍चित दिन के नमूने पर, यीशु को स्वर्ग में जाने के लिए उठाया गया ताकि वह “हमारे लिये परमेश्‍वर के सामने दिखाई दे।” वहाँ उन्होंने अपने बलिदानी लहू के मूल्य को प्रस्तुत किया। (इब्रानियों ९:२४) बाइबल इस बात पर ज़ोर देती है कि हमें कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना है जो, ‘परमेश्‍वर के पुत्र को पाँवों से रौदा और उसके लहू को अपवित्र जानने’ के, तुल्य हो। केवल तब ही हम परमेश्‍वर के साथ एक अच्छा सम्बन्ध और शान्ति बनाए रख सकते हैं।—इब्रानियों १०:२९; कुलुस्सियों १:२०.

लहू द्वारा सुरक्षित जीवन का आनन्द लें

लहू के विषय में परमेश्‍वरीय कथन को जब हम समझ जाते हैं, तो हम उसके जीवन-रक्षक मूल्य का अत्याधिक आदर करने लगते है। पवित्र-शास्त्र यीशु का वर्णन ऐसे व्यक्‍ति के रूप में करती है जो ‘हम से प्रोम रखता है और जिस ने अपने लहू के द्वारा हमें पापों से छुड़ाया है।’ (प्रकाशितवाक्य १:५; यूहन्‍ना ३:१६) जी हाँ, यीशु के लहू द्वारा हम अपने पापों की संपूर्ण एवं स्थायी क्षमा प्राप्त कर सकते हैं। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “सो जब कि हम अब उस लहू के कारण धर्मी ठहरे, तो उसके द्वारा क्रोध से क्यों न बचेंगे?” इस तरह लहू द्वारा अनन्त जीवन बचाया जा सकता है।—रोमियों ५:९; इब्रानियों ९:१४.

यहोवा परमेश्‍वर ने बहुत पहले यह आश्‍वासन दिया था कि मसीह के द्वारा ‘पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को धन्य मानेगी।’ (उत्पत्ति २२:१८) उस आशीष में, इस पृथ्वी को पुनः एक परादीस बनाना शामिल है। उसके बाद विश्‍वसी मानवजाति रोग, बूढ़ापा, या मृत्यु से भी पीड़ित नहीं होगी; वे ऐसी आशीषों का आनन्द उठाएँगे जो चिकित्सा कर्मचारियों द्वारा अभी उपलब्ध अस्थायी सहायता से कहीं अधिक होगी। हमारे पास यह अद्‌भुत प्रतिज्ञा है: “और वह उन की आँखो से सब आँसू पोंछ डालेगा; और इसके बाद मृत्यु न रहेगी और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहली बातें जाती रही।”—प्रकाशितवाक्य २१:४.

फिर, हमारे लिये यह कितनी बुद्धिमानी की बात होगी कि हम परमेश्‍वर की सभी माँगों को मन में बिठाए! लहू के बारे में उनकी आज्ञाओं का पालन करना, चिकित्सीय परिस्थितियों में भी उसका दुरूपयोग नहीं करना, यह सब इसमें सम्मिलित है। इस तरह से हम केवल अभी के लिये ही नहीं जीएँगे। बल्कि, जीवन के लिये हम अपना उच्च सम्मान दर्शाएँगे, जिसमें मानव सिद्धता प्राप्त अनन्त जीवन की भावी प्रत्याशा भी सम्मिलित है।

[पेज 25 पर बक्स]

परमेश्‍वर के लोगों ने लहू द्वारा अपने जीवन का पोषण करने से इन्कार किया, इसलिये नहीं कि ऐसा करना अस्वास्थ्यकर था, परन्तु इसलिये कि ऐसा करना अपवित्र था, इस कारण नहीं कि लहू दूषित था, लेकिन इसलिये कि वह बहुमूल्य था।

[पेज 24 पर तसवीर]

“हम को उस में उसके [यीशु के] लहू के द्वारा छुटकारा, अर्थात अपराधों की क्षमा, उसके उस अनुग्रह के धन के अनुसार मिला है।”—इफ़िसियों १:७

[पेज 26 पर तसवीर]

यीशु के लहू द्वारा जीवन को बचाने से पार्थिव परादीस पर अनन्त काल तक स्वस्थ्य जीवन का मार्ग खुल जाता है।