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‘पहले राज्य की खोज में लगे रहो’

‘पहले राज्य की खोज में लगे रहो’

ग्यारहवाँ अध्याय

‘पहले राज्य की खोज में लगे रहो’

1. (क) यीशु ने अपने सुननेवालों से क्यों आग्रह किया कि वे राज्य को पहली जगह दें? (ख) हमें खुद से क्या सवाल पूछना चाहिए?

एक हज़ार नौ सौ साल पहले, यीशु ने गलील में उपदेश देते वक्‍त अपने सुननेवालों से आग्रह किया: “तुम पहले परमेश्‍वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो।” मगर यीशु ने इस काम को पहला स्थान देने पर क्यों इतना ज़ोर दिया? आखिर, उसे राज्य का अधिकार तो सदियों बाद मिलनेवाला था। यह बात सच है, लेकिन मसीहाई राज्य ही वह ज़रिया है जिससे यहोवा अपनी हुकूमत को बुलंद करेगा और धरती के बारे में अपना शानदार मकसद पूरा करेगा। पहली सदी में रहनेवाले जो भी इन मुद्दों की अहमियत समझते, वे अपनी ज़िंदगी में राज्य को ही पहला स्थान देते। अगर उस वक्‍त राज्य को ज़िंदगी में पहला स्थान देना ज़रूरी था, तो आज ऐसा करना हमारे लिए और भी कितना ज़रूरी है क्योंकि अब तो मसीह, राजा बनकर सिंहासन पर विराजमान है! इसलिए हममें से हरेक के सामने सवाल उठता है कि क्या मेरे जीने का तरीका दिखाता है कि मैं अपनी ज़िंदगी में परमेश्‍वर के राज्य को ही पहली जगह दे रहा हूँ?—मत्ती 6:33, NHT.

2. आज ज़्यादातर लोग किन चीज़ों के पीछे भाग रहे हैं?

2 आज संसार में ऐसे लाखों लोग हैं जो वाकई अपनी ज़िंदगी में राज्य को पहला स्थान दे रहे हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित कर दी है और उसकी मरज़ी पूरी करने को अहमियत देकर वे दिखाते हैं कि वे परमेश्‍वर की हुकूमत के पक्ष में हैं। दूसरी तरफ, ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों पर दुनियावी चीज़ें पाने का जुनून सवार है। उन्हें बस पैसा और पैसे से हासिल होनेवाली ऐशो-आराम की हर चीज़ और सुख-विलास चाहिए। या फिर वे बढ़िया-से-बढ़िया करियर बनाने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं। उनके जीने का तरीका दिखाता है कि उन्हें बस अपना स्वार्थ पूरा करने की चिंता है, दौलत कमाना और मौज-मस्ती करना ही उनकी ज़िंदगी है। अगर उनमें से कुछ लोग परमेश्‍वर को मानते भी हैं, तो वे उसे ज़िंदगी में दूसरी जगह देते हैं।—मत्ती 6:31,32.

3. (क) यीशु ने अपने चेलों को किस तरह का धन इकट्ठा करने का बढ़ावा दिया, और क्यों? (ख) हमें खाने-पीने की ज़रूरतों के बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता क्यों नहीं करनी चाहिए?

3 मगर यीशु ने अपने चेलों को यह सलाह दी: “अपने लिये पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो” क्योंकि दुनिया की कोई भी चीज़ हमेशा नहीं बनी रहेगी। उसने आगे कहा कि इसके बजाय यहोवा की सेवा करके “अपने लिये स्वर्ग में धन इकट्ठा करो।” यीशु ने अपने चेलों से आग्रह किया कि वे अपनी आँख “निर्मल” रखें यानी अपना ध्यान और अपनी सारी ताकत, परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करने में लगा दें। उसने उनसे कहा: “तुम परमेश्‍वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।” अगर ऐसा है तो वे अपने लिए रोटी, कपड़े और मकान जैसी ज़रूरी चीज़ों का इंतज़ाम कैसे करते? इस बारे में यीशु ने उन्हें सलाह दी: “चिन्ता न करना।” उसने अपने चेलों को पक्षियों की मिसाल देकर बताया कि कैसे परमेश्‍वर उनका भी पेट भरता है। यीशु ने उनसे यह भी कहा कि वे फूलों को देखकर सबक सीखें जिनको परमेश्‍वर वस्त्र पहनाता है। तो क्या यहोवा की नज़रों में उसकी सेवा करनेवाले बुद्धिमान इंसान, इन सारी चीज़ों से ज़्यादा मोल नहीं रखते? इसलिए यीशु ने उनसे कहा: “तुम पहले परमेश्‍वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो तो ये सब [ज़रूरी] वस्तुएं तुम्हें दे दी जाएंगी।” (मत्ती 6:19-34, NHT) क्या आपके जीने का तरीका दिखाता है कि आप यीशु की इस बात पर यकीन करते हैं?

राज्य की सच्चाई को दबने न दें

4. अगर एक इंसान, भौतिक चीज़ों से बहुत ज़्यादा लगाव रखे, तो क्या नतीजा हो सकता है?

4 अपने और अपने परिवार के लिए खाने-पीने जैसी बुनियादी ज़रूरतों का अच्छा इंतज़ाम करने के बारे में फिक्रमंद होना लाज़िमी है। लेकिन अगर एक इंसान भौतिक चीज़ों के बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता करने लगे, तो इसका अंजाम भयानक हो सकता है। राज्य की आशा पर विश्‍वास रखने का दावा करने के बावजूद अगर वह अपने दिल में राज्य के बजाय दूसरी चीज़ों को पहला स्थान दे तो राज्य की सच्चाई दब सकती है। (मत्ती 13:18-22) मिसाल के लिए, एक बार एक अमीर युवा शासक ने यीशु से पूछा: “अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?” वह जवान नैतिक उसूलों पर चलनेवाला था और दूसरों के साथ अच्छा बर्ताव करता था, लेकिन उसमें कमी यह थी कि उसे अपनी दौलत से बहुत ज़्यादा लगाव था। वह मसीह का चेला बनने के लिए अपनी दौलत त्यागने को तैयार नहीं था। इसलिए उसने वह मौका गँवा दिया जिससे वह बाद में स्वर्गीय राज्य में मसीह का संगी वारिस बन सकता था। उस जवान से बात करने के अवसर पर यीशु ने कहा: “धनवानों को परमेश्‍वर के राज्य में प्रवेश करना कैसा कठिन है!”—मरकुस 10:17-23.

5. (क) पौलुस ने तीमुथियुस को किन चीज़ों पर संतोष करने को कहा, और क्यों? (ख) शैतान “रुपये का लोभ” देकर कैसे नाश की ओर ले जाता है?

5 सालों बाद, प्रेरित पौलुस ने तीमुथियुस को एक खत लिखा। उस वक्‍त, तीमुथियुस इफिसुस शहर में रहता था, जो व्यापार का एक फलता-फूलता केंद्र था। पौलुस ने उसे याद दिलाया: “न हम जगत में कुछ लाए हैं और न कुछ ले जा सकते हैं। और यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर सन्तोष करना चाहिए।” अपने और अपने परिवार के “खाने और पहिनने” की ज़रूरतें पूरी करने के लिए मेहनत करना गलत नहीं है। लेकिन पौलुस ने चेतावनी दी: “जो धनी होना चाहते हैं, वे ऐसी परीक्षा, और फंदे और बहुतेरे व्यर्थ और हानिकारक लालसाओं में फंसते हैं, जो मनुष्यों को बिगाड़ देती हैं और विनाश के समुद्र में डूबा देती हैं।” शैतान बहुत चालाक है। एक इंसान को वह शुरू-शुरू में छोटी-छोटी चीज़ें पाने के लिए लुभा सकता है। फिर वह शायद उसे बड़ी-बड़ी चीज़ें हासिल करने का लालच देगा, जैसे प्रमोशन या ऐसी नौकरी की पेशकश, जिसमें मोटी तनख्वाह मिलेगी मगर उसमें वह समय भी लगेगा जो वह पहले आध्यात्मिक कामों के लिए देता था। अगर हम चौकस न रहें, तो “रुपये का लोभ” राज्य के कामों को दबा सकता है, जो दूसरे कामों की तुलना में बेहद ज़रूरी हैं। इस बात को पौलुस ने इन शब्दों में बताया: ‘इसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए कितनों ने विश्‍वास से भटककर अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना लिया है।’—1 तीमुथियुस 6:7-10.

6. (क) धन-दौलत की मोह-माया में न फँसने के लिए हमें क्या करना चाहिए? (ख) महँगाई आसमान छूने के बावजूद, हम क्या भरोसा रख सकते हैं?

6 पौलुस को अपने मसीही भाई, तीमुथियुस से सच्चा प्यार था इसलिए उसने तीमुथियुस से आग्रह किया: “इन बातों से भाग” और “विश्‍वास की अच्छी कुश्‍ती लड़।” (1 तीमुथियुस 6:11,12) अगर हम दुनिया के लोगों की तरह धन-दौलत की मोह-माया में नहीं फँसना चाहते हैं, तो हमें बहुत सावधान रहने की ज़रूरत है। और अगर हम अपने विश्‍वास के मुताबिक ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए खूब मेहनत करेंगे, तो यहोवा हमें कभी नहीं छोड़ेगा। चाहे महँगाई आसमान छूने लगे और नौकरी के लाले पड़ जाएँ, फिर भी यहोवा ज़रूर इस बात का ध्यान रखेगा कि हमें जिन चीज़ों की सचमुच ज़रूरत है वह हमें मिलती रहें। पौलुस ने लिखा: “तुम्हारा स्वभाव लोभरहित हो, और जो तुम्हारे पास है, उसी पर सन्तोष करो; क्योंकि [परमेश्‍वर] ने आप ही कहा है, मैं तुझे कभी न छोड़ूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा। इसलिये हम बेधड़क होकर कहते हैं, कि प्रभु, मेरा सहायक है; मैं न डरूंगा; मनुष्य मेरा क्या कर सकता है।” (इब्रानियों 13:5,6) और राजा दाऊद ने लिखा: “मैं लड़कपन से लेकर बुढ़ापे तक देखता आया हूं; परन्तु न तो कभी धर्मी को त्यागा हुआ, और न उसके वंश को टुकड़े मांगते देखा है।”—भजन 37:25.

शुरू के चेले एक मिसाल हैं

7. यीशु ने अपने चेलों को प्रचार के बारे में कौन-सी हिदायतें दीं और ये हिदायतें क्यों सही थीं?

7 यीशु ने अपने प्रेरितों को ज़रूरी तालीम देने के बाद, उन्हें इस्राएल देश में सुसमाचार का प्रचार करने और यह ऐलान करने के लिए भेजा: “स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।” वह क्या ही सनसनीखेज़ खबर थी! मसीहाई राजा, यीशु खुद लोगों के बीच मौजूद था। प्रेरितों ने अपने आप को परमेश्‍वर की सेवा में पूरी तरह लगा दिया था, इसलिए यीशु ने उनको भरोसा दिलाया कि परमेश्‍वर उनकी देखभाल करेगा। उसने उनसे कहा: “मार्ग के लिये कुछ न लेना: न तो लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपये और न दो दो कुरते। और जिस किसी घर में तुम उतरो, वहीं रहो; और वहीं से विदा हो।” (मत्ती 10:5-10; लूका 9:1-6) यहोवा इस बात का ध्यान रखता कि उन चेलों की ज़रूरतें, उनके जाति भाई यानी इस्राएली पूरी करते जिनमें अजनबियों की खातिरदारी करने का रिवाज़ था।

8. (क) अपनी मौत से कुछ ही समय पहले, यीशु ने प्रचार के बारे में अलग तरह की हिदायतें क्यों दीं? (ख) बाद में भी यीशु के चेलों को ज़िंदगी में किसे पहला स्थान देना था?

8 मगर बाद में यीशु ने अपनी मौत से कुछ ही समय पहले, प्रेरितों को आगाह किया कि भविष्य में हालात बदल जाएँगे और वे एक अलग माहौल में प्रचार करेंगे। सरकार उनके काम का विरोध करेगी और इस वजह से इस्राएल देश में शायद पहले की तरह दिल खोलकर उनकी खातिरदारी नहीं की जाएगी। इसके अलावा, बहुत जल्द वे अन्यजातियों के इलाकों में भी राज्य का संदेश सुनाने जाएँगे। इसलिए अब उनमें से हरेक को अपने साथ एक “बटुआ” और एक “झोली” ले जानी थी। लेकिन अपनी ज़रूरतों का इंतज़ाम करने के लिए थोड़ी-बहुत मेहनत करने के बावजूद, उन्हें यहोवा के राज्य और उसकी धार्मिकता को ही जीवन में पहला स्थान देना था। और यह भरोसा रखना था कि खाने-पहनने की ज़रूरतें पूरी करने में उनकी मेहनत पर यहोवा आशीष देगा।—लूका 22:35-37.

9. पौलुस ने अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के साथ-साथ राज्य को पहला स्थान कैसे दिया और इस मामले में उसने दूसरों को क्या सलाह दी?

9 यीशु की सलाह मानने में प्रेरित पौलुस ने एक बढ़िया मिसाल कायम की। उसके जीवन में प्रचार काम ही सबसे पहली जगह पर था। (प्रेरितों 20:24,25) वह प्रचार के लिए जहाँ कहीं भी जाता, अपनी रोज़ी-रोटी खुद कमाता था। यहाँ तक कि उसने तंबू बनाने का काम भी किया। वह कभी दूसरों पर निर्भर नहीं रहा। (प्रेरितों 18:1-4; 1 थिस्सलुनीकियों 2:9) मगर जब कोई प्यार से उसे तोहफे देता और उसकी खातिरदारी करता तो वह एहसान भरे दिल से कबूल करता था। (प्रेरितों 16:15,34; फिलिप्पियों 4:15-17) पौलुस ने मसीहियों को उकसाया कि वे प्रचार करने के लिए अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ न करें बल्कि अपनी अलग-अलग ज़िम्मेदारियों के बीच संतुलन बिठाएँ। उसने उन्हें मेहनत करने, परिवार के सदस्यों से प्यार करने और दरियादिली दिखाने की सलाह दी। (इफिसियों 4:28; 2 थिस्सलुनीकियों 3:7-12) उसने उनसे आग्रह किया कि वे धन-दौलत पर नहीं बल्कि परमेश्‍वर पर भरोसा रखें और अपने जीने के तरीके से दिखाएँ कि वे सचमुच समझते हैं कि कौन-सी बातें उत्तम-से-उत्तम या बेहद ज़रूरी हैं। यीशु की शिक्षाओं के मुताबिक उनके लिए बेहद ज़रूरी काम था, परमेश्‍वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहना।—फिलिप्पियों 1:9-11.

अपनी ज़िंदगी में राज्य को पहली जगह दीजिए

10. राज्य की खोज पहले करने का मतलब क्या है?

10 दूसरों को राज्य की खुशखबरी सुनाने में हममें से हरेक कितना समय बिताता है? यह कुछ हद तक इस बात पर निर्भर है कि हमारे हालात कैसे हैं और हमारे दिल में एहसानमंदी की भावना कितनी गहरी है। याद रखिए कि यीशु ने यह नहीं कहा था, ‘जब तुम्हारे पास कोई काम न हो, तब राज्य की खोज करना।’ वह राज्य की अहमियत जानता था इसलिए उसने अपने पिता की मरज़ी ज़ाहिर करते हुए कहा: “उसके राज्य की खोज में रहो।” (लूका 12:31) हालाँकि हममें से ज़्यादातर लोग अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतें पूरी करने के लिए काम करते हैं, लेकिन अगर हममें विश्‍वास होगा, तो हम ज़िंदगी के सभी कामों से ज़्यादा परमेश्‍वर से मिले राज्य के काम को ही महत्व देंगे। साथ ही, हम अपने परिवार की ज़िम्मेदारियाँ भी पूरी करेंगे।—1 तीमुथियुस 5:8.

11. (क) यीशु ने कौन-सा दृष्टांत देकर बताया कि राज्य का संदेश फैलाने में सभी बराबर फल नहीं ला पाएँगे? (ख) एक इंसान कितने फल लाएगा, यह किन बातों पर निर्भर करता है?

11 हममें से कुछ लोग, राज्य का सुसमाचार सुनाने में दूसरों से ज़्यादा वक्‍त बिता पाते हैं। लेकिन यीशु ने अलग-अलग तरह की ज़मीन के दृष्टांत में दिखाया कि जितने लोगों का हृदय उपजाऊ ज़मीन की तरह है, वे सभी अच्छे फल लाएँगे। कितने फल? यह उनके हालात पर निर्भर करता है क्योंकि उम्र, सेहत और परिवार की ज़िम्मेदारियों के मुताबिक सबके हालात एक-जैसे नहीं होते। लेकिन जिसके दिल में राज्य के सुसमाचार के लिए सच्ची कदरदानी है, वह बहुतायत में फल लाएगा।—मत्ती 13:23.

12. खासकर जवानों को कौन-सा बढ़िया आध्यात्मिक लक्ष्य रखने का बढ़ावा दिया जाता है?

12 अपने सामने ऐसे लक्ष्य रखना अच्छा होगा जिनसे हमें सेवकाई में ज़्यादा हिस्सा लेने की प्रेरणा मिलेगी। जवानों को तीमुथियुस की बढ़िया मिसाल पर गहराई से सोचना चाहिए, जो जोश से सेवा करनेवाला एक जवान मसीही था। (फिलिप्पियों 2:19-22) उनके लिए स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद, पूरे समय की सेवा शुरू करने से बेहतर और क्या लक्ष्य हो सकता है? उसी तरह, उम्र में बड़े मसीहियों के लिए भी अच्छे आध्यात्मिक लक्ष्य रखना फायदेमंद होगा।

13. (क) हममें से हरेक राज्य का प्रचार करने में कितना हिस्सा ले सकता है, इसका फैसला कौन करेगा? (ख) अगर हम सचमुच पहले राज्य की खोज करेंगे, तो हम क्या साबित कर रहे होंगे?

13 कुछ लोगों के बारे में शायद हमें लगे कि वे जितना प्रचार कर सकते हैं, उतना नहीं कर रहे हैं। लेकिन हमें उनकी नुक्‍ताचीनी करने के बजाय, अपने विश्‍वास से प्रेरणा मिलनी चाहिए कि हम सेवकाई में तरक्की करें ताकि हम अपने हालात के मुताबिक परमेश्‍वर की सेवा ज़्यादा-से-ज़्यादा कर पाएँ। (रोमियों 14:10-12; गलतियों 6:4,5) जैसे अय्यूब के किस्से से ज़ाहिर होता है, शैतान का यह दावा है कि हम धन-दौलत कमाने, सुख-चैन पाने और अपनी भलाई के बारे में ही सबसे ज़्यादा फिक्रमंद रहते हैं और परमेश्‍वर की सेवा कुछ पाने के इरादे से करते हैं। लेकिन अगर हम सचमुच पहले राज्य की खोज करते हैं, तो हम भी यह साबित कर रह रहे होंगे कि शैतान सबसे बड़ा झूठा है। हम यही दिखाएँगे कि हमारी ज़िंदगी में परमेश्‍वर की सेवा सबसे पहले स्थान पर आती है। इस तरह अपनी बातों और अपने कामों से हम यहोवा के लिए गहरा प्यार, उसकी हुकूमत के लिए वफादारी और लोगों के लिए प्यार दिखाएँगे।—अय्यूब 1:9-11; 2:4,5; नीतिवचन 27:11.

14. (क) प्रचार के लिए एक समय-सारणी बनाना क्यों फायदेमंद होगा? (ख) बहुत-से साक्षी प्रचार में कितना वक्‍त बिताते हैं?

14 प्रचार के लिए एक समय-सारणी बनाने से, हम आम तौर पर जितना प्रचार करते हैं, उससे ज़्यादा कर पाएँगे। यहोवा भी अपना मकसद पूरा करने के लिए ‘एक समय ठहराता’ है। (निर्गमन 9:5; मरकुस 1:15) हो सके तो, हर हफ्ते एक या उससे ज़्यादा बार, प्रचार में जाने के लिए समय तय करना अच्छा होगा। संसार-भर में हज़ारों यहोवा के साक्षी, ऑक्ज़लरी पायनियरिंग करते हैं यानी वे दिन में करीब दो घंटे सुसमाचार का प्रचार करते हैं। इसके अलावा, हज़ारों साक्षी रेग्युलर पायनियरिंग करते हैं, यानी राज्य का संदेश सुनाने में दिन में दो-ढाई घंटे का समय बिताते हैं। स्पेशल पायनियर और मिशनरी, उससे भी ज़्यादा समय सेवा करते हैं। हम घर-घर जाने के अलावा, दूसरे मौकों पर भी ऐसे लोगों को राज्य की आशा के बारे में बता सकते हैं जो सुनने को राज़ी होंगे। (यूहन्‍ना 4:7-15) हमारी यह इच्छा होनी चाहिए कि हम अपने हालात के मुताबिक इस काम में ज़्यादा-से-ज़्यादा हिस्सा लें, क्योंकि यीशु ने भविष्यवाणी की थी: “राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जाएगा, कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।”—मत्ती 24:14; इफिसियों 5:15-17.

15. आपकी राय में हमारी सेवा के बारे में 1 कुरिन्थियों 15:58 में दी गयी सलाह क्यों आज के लिए बिलकुल सही है?

15 दुनिया के सभी भागों में रहनेवाले यहोवा के साक्षी, एक-जुट होकर इस अनमोल सेवा में भाग ले रहे हैं। वे ईश्‍वर-प्रेरणा से लिखी, बाइबल की इस सलाह को मानकर चलते हैं: “दृढ़ और अटल रहो, और प्रभु के काम में सर्वदा बढ़ते जाओ, क्योंकि यह जानते हो, कि तुम्हारा परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है।”—1 कुरिन्थियों 15:58.

आइए याद करें

• जब यीशु ने कहा, ‘पहले राज्य की खोज में लगे रहो,’ तो वह किन बातों को दूसरी जगह देने के लिए बता रहा था?

• अपने और अपने परिवार की खाने-पहनने की ज़रूरतें पूरी करने के बारे में हमें कैसा नज़रिया रखना चाहिए? परमेश्‍वर हमें क्या मदद देगा?

• हम किन-किन तरीकों से राज्य का प्रचार कर सकते हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 107 पर तसवीर]

अंत आने से पहले यहोवा के साक्षी आज हर देश में सुसमाचार सुना रहे हैं