अध्याय 21
यीशु, ‘परमेश्वर की ओर से बुद्धि’ ज़ाहिर करता है
1-3. यीशु के पुराने पड़ोसियों पर उसकी शिक्षाओं का क्या असर हुआ, और वे उसके बारे में क्या समझने से चूक गए?
सुननेवाले हैरान थे। नौजवान यीशु आराधनालय में उनके सामने खड़ा होकर उन्हें सिखा रहा था। वह उनके लिए कोई अजनबी नहीं था। वह उन्हीं के नगर में बड़ा हुआ था और उनके बीच कई सालों तक उसने बढ़ई का काम किया था। शायद उनमें से कई लोगों के घरों को यीशु ने बनाया था, या शायद वे अपने खेतों में जिन हलों और जूओं का इस्तेमाल करते थे वे उसी के बनाए हुए थे। * पहले बढ़ई का काम करनेवाले इस इंसान की शिक्षाओं को सुनकर उन पर क्या असर हुआ?
2 ज़्यादातर लोगों को तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था और वे पूछने लगे: ‘इसे यह बुद्धि कहां से प्राप्त हुई?’ मगर उन्होंने यह भी कहा: ‘क्या यह वही बढ़ई नहीं जो मरियम का पुत्र है?’ (मत्ती 13:54-58, नयी हिन्दी बाइबिल; मरकुस 6:1-3) अफसोस कि यीशु के ये पुराने पड़ोसी आपस में कहने लगे, ‘यह बढ़ई तो यहीं का रहनेवाला है और हम जैसा ही है।’ बुद्धि भरे उसके वचनों को सुनने के बाद भी, उन्होंने उसे ठुकरा दिया। उन्हें रत्ती भर भी इस बात का एहसास नहीं था कि बुद्धि की जो बातें वह उन्हें बता रहा था वे उसकी अपनी नहीं थीं।
3 यीशु को यह बुद्धि आखिर कहाँ से मिली? उसने बताया: “मेरा उपदेश मेरा नहीं, परन्तु मेरे भेजनेवाले का है।” (यूहन्ना 7:16) प्रेरित पौलुस ने समझाया कि यीशु “परमेश्वर की ओर से हमारे लिये ज्ञान [“बुद्धि,” NW] ठहरा” है। (1 कुरिन्थियों 1:30) यहोवा ने अपने बेटे यीशु के ज़रिए अपनी बुद्धि ज़ाहिर की। यह इस कदर सच था कि यीशु कह सका: “मैं और पिता एक हैं।” (यूहन्ना 10:30) आइए हम ऐसी तीन बातों पर गौर करें जिनमें यीशु ने ‘परमेश्वर की ओर से बुद्धि’ ज़ाहिर की।
उसने जो सिखाया
4. (क) यीशु के संदेश का विषय क्या था, और क्यों इसकी बहुत अहमियत थी? (ख) यीशु की सलाह हमेशा व्यावहारिक और सुननेवालों के फायदे के लिए क्यों होती थी?
4 आइए पहले देखें कि यीशु ने क्या सिखाया। उसके संदेश का विषय था, “राज्य का सुसमाचार।” (लूका 4:43) राज्य के इस संदेश की बहुत अहमियत थी, क्योंकि यहोवा की हुकूमत को बुलंद करने और इंसानों को हमेशा की आशीषें दिलाने में यह राज्य बहुत बड़ी भूमिका अदा करनेवाला था। यीशु ने अपनी शिक्षाओं में रोज़मर्रा ज़िंदगी के बारे में बुद्धिमानी भरी सलाह भी दी। उसने भविष्यवाणी के मुताबिक खुद को “अद्भुत् परामर्श दाता” साबित किया। (यशायाह 9:6, नयी हिन्दी बाइबिल) आखिर, उसकी सलाह अद्भुत कैसे न होती? यीशु को परमेश्वर के वचन और उसकी इच्छा का पूरा-पूरा ज्ञान था, इंसान के स्वभाव की उसे सूक्ष्म समझ थी और लोगों के लिए उसके दिल में गहरा प्यार था। इसलिए, उसकी सलाह हमेशा व्यावहारिक और उसके सुननेवालों के अपने फायदे के लिए होती थी। यीशु ने “अनन्त जीवन की बातें” बतायीं। जी हाँ, अगर उसकी सलाह मानी जाए, तो हमें ज़रूर उद्धार मिल सकता है।—यूहन्ना 6:68.
5. यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में कौन-से कुछ विषयों पर सलाह दी?
5 यीशु की शिक्षाओं में पायी जानेवाली बेजोड़ बुद्धि की एक बढ़िया मिसाल है, उसका पहाड़ी उपदेश। यह उपदेश मत्ती 5:3–7:27 में दर्ज़ है और इसे देने में शायद सिर्फ 20 मिनट लगें। मगर, इसकी सलाह किसी एक वक्त या ज़माने के लिए नहीं है, यह आज भी हमारे लिए उतनी ही फायदेमंद है जितनी तब थी जब यह उपदेश पहली बार दिया गया था। यीशु ने तरह-तरह के विषयों पर सलाह दी, जैसे कि दूसरों के साथ रिश्तों में कैसे सुधार लाया जाए (5:23-26, 38-42; 7:1-5, 12), कैसे नैतिक मामलों में शुद्ध रहा जाए (5:27-32), और कैसे अपनी ज़िंदगी को सफल बनाया जाए (6:19-24; 7:24-27) मगर यीशु ने अपने सुननेवालों को सिर्फ बताया ही नहीं बल्कि उन्हें समझाकर, तर्क करके और सबूत देकर यह दिखाया भी कि बुद्धिमानी का मार्ग क्या है।
6-8. (क) यीशु ने चिंता न करने के कौन-से ठोस कारण बताए? (ख) क्या बात दिखाती है कि यीशु की सलाह ऊपर से आयी बुद्धि का सबूत है?
मत्ती अध्याय 6 में दर्ज़ है। यीशु हमें सलाह देता है: “अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे? और क्या पीएंगे? और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे?” (आयत 25) रोटी-कपड़ा हमारी बुनियादी ज़रूरतें हैं, इसलिए इन्हें हासिल करने के बारे में चिंता करना लाज़मी है। मगर यीशु कहता है कि इन चीज़ों के लिए “चिन्ता न करना।” * क्यों?
6 मसलन, रोटी-कपड़ा-मकान की चिंता से कैसे निपटा जाए, इस बारे में यीशु की बुद्धि भरी सलाह पर गौर कीजिए जो7 आइए सुनें कि यीशु कैसी ठोस दलीलों से लोगों को कायल कर रहा है। जिस यहोवा ने हमें जीवन और शरीर दिया है, क्या वह इस जीवन को कायम रखने के लिए खाना और इस तन को ढकने के लिए कपड़ा नहीं दे सकता? (आयत 25) जब परमेश्वर पक्षियों को खाना खिला सकता है और फूलों को खूबसूरती का ओढ़ना ओढ़ा सकता है, तो क्या वह अपने इंसानी उपासकों के लिए इससे कहीं ज़्यादा नहीं करेगा! (आयत 26, 28-30) वाकई, बेवजह चिंता करने से कोई फायदा नहीं। चिंता करके हम अपनी ज़िंदगी में एक घड़ी तक नहीं बढ़ा सकते। * (आयत 27) हम चिंता से कैसे दूर रह सकते हैं? यीशु हमें सलाह देता है: परमेश्वर की उपासना को अपनी ज़िंदगी में लगातार पहला स्थान देते रहो। जो ऐसा करते हैं, वे यकीन रख सकते हैं कि उनके स्वर्गीय पिता से उन्हें वे सारी चीज़ें “मिल जाएंगी” जो उनकी रोज़मर्रा ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं। (आयत 33) आखिर में, यीशु एक बहुत ही व्यावहारिक सलाह देता है, एक दिन में उसी दिन की चिंता करो। कल की चिंता करके आज की चिंताओं को क्यों बढ़ाना? (आयत 34) और फिर, उन बातों के बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता क्यों करना जो शायद कभी न घटें? ऐसी बुद्धिमानी भरी सलाह पर अमल करके हम तनाव से भरे इस संसार में बहुत-से दुःखों से बच सकते हैं।
8 साफ है कि यीशु की सलाह आज भी उतनी ही कारगर है जितनी करीब 2,000 साल पहले थी। क्या यह ऊपर से आनेवाली बुद्धि का सबूत नहीं? इंसानी सलाहकारों से मिलनेवाली बेहतरीन सलाह भी कुछ वक्त के बाद पुरानी पड़ जाती है और जल्द ही इसमें या तो फेर-बदल करना पड़ता है या फिर इसे पूरी तरह बदलना पड़ता है। मगर यीशु की शिक्षाएँ हर दौर में फायदेमंद रही हैं और आज भी हैं। लेकिन, हमें ताज्जुब नहीं होना चाहिए क्योंकि वह अद्भुत परामर्शदाता, “परमेश्वर की बातें” बोलता था।—उसके सिखाने का तरीका
9. कुछ सिपाहियों ने यीशु की शिक्षाओं के बारे में क्या कहा, और क्यों यह बढ़ा-चढ़ाकर बोलना नहीं था?
9 दूसरी बात, यीशु ने अपने सिखाने के तरीके से भी परमेश्वर की बुद्धि ज़ाहिर की। एक मौके पर, यीशु को गिरफ्तार करने के लिए कुछ सिपाहियों को भेजा गया मगर वे खाली हाथ लौट आए और उन्होंने उसकी वजह बताते हुए कहा: “आज तक ऐसी बातें किसी ने कभी नहीं कहीं जैसी वह कहता है।” (यूहन्ना 7:45, 46, NHT) वे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बोल रहे थे। इस धरती पर पैदा होनेवाले तमाम इंसानों में से, सिर्फ यीशु ही “ऊपर का” यानी स्वर्ग से था, इसलिए उसके पास ज्ञान और अनुभव का इतना अपार भंडार था जितना किसी के पास नहीं हो सकता। (यूहन्ना 8:23) सचमुच, उसने जिस तरह सिखाया वैसे कोई इंसान नहीं सिखा सकता। आइए इस बुद्धिमान शिक्षक के सिखाने के तरीकों में से सिर्फ दो पर गौर करें।
“भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई”
10, 11. (क) यीशु दृष्टांतों का जिस तरह इस्तेमाल करता था, उससे हम क्यों दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं? (ख) नीतिकथाएँ क्या हैं, और कौन-सी मिसालें दिखाती हैं कि यीशु की नीतिकथाएँ बहुत ही असरदार थीं?
10 दृष्टांतों का असरदार तरीके से इस्तेमाल करना। हमें बताया गया है: “सब बातें यीशु ने दृष्टान्तों में लोगों से कहीं, और बिना दृष्टान्त वह उन से कुछ न कहता था।” (मत्ती 13:34) रोज़मर्रा की ज़िंदगी से उदाहरण लेकर लोगों को गूढ़ सच्चाइयाँ सिखाने की यीशु की लाजवाब काबिलीयत देखकर हम दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं। खेत में बीज बोते किसान, रोटी बनाने की तैयारी करती स्त्रियाँ, बाज़ार में खेलते बच्चे, जाल खींचते मछुआरे, खोयी हुई भेड़ों को ढूँढ़ते चरवाहे—ये ऐसे नज़ारे थे जो उसके सुननेवालों ने बहुत बार देखे थे। जब अहम सच्चाइयों को जानी-पहचानी चीज़ों के साथ जोड़कर बताया जाता है, तो इन्हें समझते देर नहीं लगती और ये फौरन दिलो-दिमाग में गहराई तक उतर जाती हैं।—मत्ती 11:16-19; 13:3-8, 33, 47-50; 18:12-14.
11 यीशु अकसर नीतिकथाएँ इस्तेमाल करता था। ये ऐसी छोटी-छोटी कहानियाँ होती हैं, जिनसे नैतिक या आध्यात्मिक सच्चाइयाँ सीखने को मिलती हैं। विचारों के मुकाबले, कहानियों को समझना और याद रखना ज़्यादा आसान होता है, इसलिए नीतिकथाओं ने यीशु की शिक्षाओं को याद रखने में मदद दी। बहुत-सी नीतिकथाओं में यीशु ने अपने पिता की ऐसी जीती-जागती तसवीर पेश की जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। मिसाल के लिए, कौन उड़ाऊ बेटे की नीतिकथा का मतलब नहीं समझेगा—कि अगर गलत राह पर जानेवाला इंसान सच्चा पश्चाताप दिखाए, तो यहोवा उस पर ज़रूर दया करेगा और बड़ी कोमलता दिखाते हुए उसे फिर से स्वीकार करेगा?—लूका 15:11-32.
12. (क) यीशु ने किस तरह अपनी शिक्षाओं में सवालों का इस्तेमाल किया? (ख) यीशु ने उसके अधिकार पर उँगली उठानेवालों के मुँह कैसे बंद कर दिए?
12 सवालों को कुशलता से इस्तेमाल करना। यीशु अपने सुननेवालों से सवाल पूछता था ताकि वे खुद नतीजे पर पहुँचें, अपने मन की भावनाओं को जाँचें या फैसले ले पाएँ। (मत्ती 12:24-30; 17:24-27; 22:41-46) जब धर्मगुरुओं ने सवाल पूछा कि यीशु जो काम करता है, उसका अधिकार उसे परमेश्वर की तरफ से मिला है या नहीं, तो उसने जवाब दिया: “यूहन्ना का बपतिस्मा क्या स्वर्ग की ओर से था वा मनुष्यों की ओर से था?” उसका सवाल सुनकर वे हक्के-बक्के रह गए और आपस में मशविरा करने लगे: “यदि हम कहें, स्वर्ग की ओर से, तो वह कहेगा; फिर तुम ने उस की प्रतीति क्यों नहीं की? और यदि हम कहें, मनुष्यों की ओर से तो लोगों का डर है, क्योंकि सब जानते हैं कि यूहन्ना सचमुच भविष्यद्वक्ता है।” आखिर में उन्होंने जवाब दिया: “हम नहीं जानते।” (मरकुस 11:27-33; मत्ती 21:23-27) एक सीधा-सा सवाल पूछकर यीशु ने उनके मुँह बंद कर दिए और यह ज़ाहिर कर दिया कि उनके दिल में कितना कपट भरा है।
13-15. दयालु सामरी की नीतिकथा से यीशु की बुद्धि कैसे ज़ाहिर होती है?
13 यीशु कभी-कभी सिखाने के लिए कई तरीकों को एक-साथ इस्तेमाल करता था। उसने अपने दृष्टांतों में ऐसे सवाल भी पूछे कि इंसान सोचने पर मजबूर हो जाए। जब एक यहूदी व्यवस्थापक ने यीशु से पूछा कि उसे अनंत जीवन पाने के लूका 10:25-37.
लिए क्या करना चाहिए, तो यीशु ने उसे मूसा की व्यवस्था की याद दिलायी जिसमें परमेश्वर और पड़ोसी से प्यार करने की आज्ञा दी गयी है। खुद को धर्मी ठहराने की कोशिश करते हुए, उस आदमी ने पूछा: “तो मेरा पड़ोसी कौन है?” यीशु ने एक कहानी सुनाकर इसका जवाब दिया। एक यहूदी अकेले सफर कर रहा था। तभी डाकुओं ने उस पर हमला किया, उसे मारा-पीटा और अधमरा छोड़कर चले गए। उसी रास्ते से दो यहूदी गुज़रे, पहला एक याजक था और दूसरा एक लेवी। दोनों उससे कतराकर चले गए। लेकिन तब एक सामरी वहाँ से गुज़रा। उसने उस घायल आदमी पर तरस खाकर बड़ी कोमलता से उसके घावों की मरहम-पट्टी की और बहुत प्यार से और संभालकर उसे एक सराय तक ले गया ताकि वहाँ उसकी देखभाल की जा सके। कहानी खत्म करते हुए, यीशु ने सवाल करनेवाले से पूछा: “अब तेरी समझ में जो डाकुओं में घिर गया था, इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा?” वह आदमी यह कहने के लिए मजबूर हो गया: “वही जिस ने उस पर तरस खाया।”—14 इस नीतिकथा से यीशु की बुद्धि कैसे दिखायी देती है? यीशु के ज़माने में, यहूदियों के लिए “पड़ोसी” सिर्फ वही थे जो उनकी परंपराओं का पालन करते थे—बेशक सामरी उन लोगों में शामिल नहीं थे। (यूहन्ना 4:9) अगर यीशु ने इस कहानी में घायल होनेवाले को सामरी कहा होता और मदद करनेवाले को यहूदी, तो क्या वह उनके अंदर समायी भेदभाव की भावना को दूर कर पाता? यीशु ने बुद्धिमानी से कहानी इस तरह बनायी कि इसमें एक सामरी को यहूदी की मदद करते बताया गया। इसके अलावा, उस सवाल पर भी गौर कीजिए जो यीशु ने कहानी के आखिर में पूछा। उसने “पड़ोसी” शब्द के मायने ही बदल दिए। व्यवस्थापक ने दरअसल उससे पूछा था: ‘कौन है जो एक पड़ोसी के नाते मेरे प्यार के काबिल है?’ मगर यीशु ने उससे पूछा: “तेरी समझ में . . . इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा?” यीशु ने मदद पानेवाले घायल इंसान पर नहीं, बल्कि दया दिखानेवाले सामरी पर ध्यान दिलाया। एक सच्चा पड़ोसी, दूसरों को प्यार दिखाने में पहल करता है और इस बात की परवाह नहीं करता कि वे किस जाति के हैं। यह बात कहने का, यीशु के लिए इससे बढ़िया तरीका और क्या हो सकता था।
15 तो क्या इसमें ताज्जुब करना चाहिए कि लोग यीशु का “उपदेश” देने का तरीका देखकर दंग रह जाते थे और उसकी ओर खिंचे चले आते थे? (मत्ती ) एक मौके पर तो एक “बड़ी भीड़” उसके पास बिना कुछ खाए तीन दिन तक रही!— 7:28, 29मरकुस 8:1, 2.
उसके जीने का तरीका
16. यीशु ने किस तरह इस बात का “व्यावहारिक सबूत” दिया कि वह परमेश्वर की बुद्धि के चलाए चलता है?
16 तीसरी बात जिसमें यीशु ने यहोवा की बुद्धि ज़ाहिर की, वह है उसके जीने का तरीका। बुद्धि व्यावहारिक होती है; इससे कामयाबी मिलती है। शिष्य याकूब ने पूछा: “तुममें से बुद्धिमान कौन है?” फिर उसने अपने सवाल का खुद जवाब देते हुए कहा: “उसका सही चालचलन इसका व्यावहारिक सबूत दे।” (याकूब 3:13, द न्यू इंग्लिश बाइबल) यीशु ने अपने चालचलन से इस बात का “व्यावहारिक सबूत” दिया कि वह परमेश्वर की बुद्धि के चलाए चलता है। आइए देखें कि अपनी ज़िंदगी में और दूसरों के साथ पेश आते वक्त उसने कैसे समझ-बूझ से काम लिया।
17. कैसे पता चलता है कि यीशु ने अपनी ज़िंदगी में अचूक संतुलन बनाए रखा?
17 क्या आपने देखा है कि जिन लोगों के पास सही समझ-बूझ नहीं होती वे अकसर अपनी हदें पार कर जाते हैं? जी हाँ, संतुलन बनाए रखने के लिए बुद्धि ज़रूरी है। यीशु ने परमेश्वर की बुद्धि का सबूत देते हुए, अचूक संतुलन बनाए रखा। उसने अपनी ज़िंदगी में बाकी सब चीज़ों से बढ़कर आध्यात्मिक बातों को पहली जगह दी। वह दिन-रात सुसमाचार सुनाने के काम में लगा रहता था। उसने कहा: “मैं इसी लिये निकला हूं।” (मरकुस 1:38) बेशक, धन-दौलत को उसने अपनी ज़िंदगी में कोई खास अहमियत नहीं दी; ऐसा लगता है कि उसके पास धन के नाम पर करीब-करीब कुछ भी नहीं था। (मत्ती 8:20) मगर, वह कोई बैरागी नहीं था। अपने पिता और “आनन्दित परमेश्वर” की तरह, यीशु भी एक हँसमुख इंसान था और वह दूसरों की खुशियों को और भी बढ़ा देता था। (1 तीमुथियुस 1:11; 6:15) एक बार वह शादी की दावत में गया, जहाँ लाज़मी है कि संगीत, नाचना-गाना और मौज-मस्ती होती है। वह खुशी के मौके का मज़ा किरकिरा करने नहीं गया। इसके बजाय, जब दावत में दाखमधु खत्म हो गया, तो उसने पानी को उम्दा किस्म का दाखमधु बना दिया, जिसे पीने से “मनुष्य का मन आनन्दित होता है।” (भजन 104:15; यूहन्ना 2:1-11) यीशु ने कई लोगों के यहाँ खाने की दावत भी स्वीकार की, और अकसर वह इन मौकों को परमेश्वर के वचन सिखाने के लिए इस्तेमाल करता था।—लूका 10:38-42; 14:1-6.
18. यीशु ने अपने चेलों के साथ व्यवहार करते वक्त कैसे दिखाया कि वह आदमी को सही-सही परख सकता है?
यूहन्ना 6:44) उनकी कमज़ोरियों के बावजूद, यीशु ने उन पर भरोसा किया। इसलिए उसने अपने चेलों को एक बहुत भारी ज़िम्मेदारी सौंपी। उसने उन्हें सुसमाचार प्रचार करने का काम सौंपा और उसे यकीन था कि वे इस काम को पूरा करने के काबिल हैं। (मत्ती 28:19, 20) प्रेरितों की किताब इस बात की गवाही देती है कि जिस काम की यीशु ने उन्हें आज्ञा दी थी उन्होंने वफादारी के साथ उसे पूरा किया। (प्रेरितों 2:41, 42; 4:33; 5:27-32) तो फिर, साफ ज़ाहिर है कि यीशु ने उन पर भरोसा करके बुद्धिमानी का सबूत दिया।
18 यीशु ने दूसरों के साथ व्यवहार करते वक्त दिखाया कि वह आदमी को बिलकुल सही-सही परख सकता है। इंसानी स्वभाव की गहरी समझ रखने की वजह से वह अपने चेलों को बिलकुल सही तरीके से समझ सका। वह जानता था कि वे सिद्ध नहीं, फिर भी उसने उनके अच्छे गुणों को पहचाना। और वह देख सका कि इन लोगों में जिन्हें यहोवा उस तक खींचकर लाया है, क्या-क्या काबिलीयतें हैं। (19. यीशु ने कैसे दिखाया कि वह ‘नर्मदिल और मन में दीन’ है?
19 जैसा हमने अध्याय 20 में देखा, बाइबल नम्रता और नर्मदिली का नाता बुद्धि के साथ जोड़ती है। बेशक, यहोवा ने इस मामले में सबसे बेहतरीन मिसाल कायम की है। मगर यीशु के बारे में क्या कहा जा सकता है? यीशु ने अपने चेलों के साथ व्यवहार करते वक्त जो नम्रता दिखायी वह हमारे दिल को छू जाती है। सिद्ध इंसान होने की वजह से वह उनसे श्रेष्ठ था। फिर भी, उसने अपने चेलों को कभी तुच्छ नहीं समझा। उसने कभी उन्हें यह एहसास दिलाने की कोशिश नहीं की कि मरकुस 14:34-38; यूहन्ना 16:12) क्या यह बड़ी बात नहीं कि छोटे बच्चों को भी यीशु के पास आना अच्छा लगता था? बेशक, वे इसलिए उसके पास खिंचे चले आते थे, क्योंकि वे महसूस कर सकते थे कि वह “नम्र [“नर्मदिल,” NW] और मन में दीन” है।—मत्ती 11:29; मरकुस 10:13-16.
वे उससे कमतर हैं या नाकाबिल हैं। इसके उलटे, वह उनकी हदों को पहचानता था और उसने धीरज दिखाते हुए उनकी कमज़ोरियों को सहा। (20. अन्यजाति की जिस स्त्री की बेटी दुष्टात्मा के वश में थी, उसके साथ व्यवहार करते वक्त यीशु ने कैसे कोमलता दिखायी?
20 एक और अहम तरीके से यीशु ने परमेश्वर जैसी नम्रता दिखायी। जब दया इसकी माँग करती थी, तो वह कोमलता से पेश आता था और दूसरों की मानने के लिए तैयार रहता था। मिसाल के लिए, वह वक्त याद कीजिए जब अन्यजाति की एक स्त्री ने यीशु से बिनती की कि वह उसकी बेटी को चंगा कर दे जिसे दुष्टात्मा बुरी तरह सता रही थी। शुरू में यीशु ने तीन अलग-अलग तरीकों से यह ज़ाहिर किया कि वह उसकी मदद नहीं करेगा। पहला, उसने उसे जवाब ही नहीं दिया; दूसरा, उसने साफ-साफ कह दिया कि उसे अन्यजातियों के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ यहूदियों के लिए भेजा गया है; और तीसरा, उसने दृष्टांत देकर यही बात नरमी के साथ समझायी। तो भी उस स्त्री ने हार नहीं मानी, अपने ज़बरदस्त विश्वास का सबूत देते हुए वह बिनती करती रही। इन अनोखे हालात के मद्देनज़र यीशु ने क्या किया? उसने ठीक वही किया जो पहले उसने कहा था कि वह नहीं करेगा। उसने उस स्त्री की बेटी को चंगा कर दिया। (मत्ती 15:21-28) क्या यह लाजवाब नम्रता नहीं? और याद है ना, सच्ची बुद्धि की बुनियाद नम्रता ही है।
21. क्यों हमें यीशु की शख्सियत, उसकी बोली और व्यवहार की नकल करने की कोशिश करनी चाहिए?
21 हमें कितना शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि सुसमाचार की किताबों में हम धरती के सबसे बुद्धिमान मनुष्य के वचन और उसके कामों के बारे में पढ़ सकते हैं! हम यह हमेशा याद रखें कि यीशु ने हू-ब-हू अपने पिता की तरह काम किया था। इसलिए जब हम यीशु की शख्सियत, उसकी बोली और व्यवहार की नकल करने की कोशिश करेंगे, तो असल में हम ऊपर से मिलनेवाली बुद्धि पैदा कर रहे होंगे। अगले अध्याय में, हम देखेंगे कि कैसे हम परमेश्वर की बुद्धि को अपनी ज़िंदगी में लागू कर सकते हैं।
^ पैरा. 1 बाइबल के ज़माने में, लोग अपना मकान, फर्नीचर या खेती-बाड़ी में इस्तेमाल होनेवाले उपकरणों को बनाने के लिए बढ़इयों को काम पर लगाते थे। सामान्य युग दूसरी सदी के जस्टिन मार्टर ने यीशु के बारे में लिखा: “जब वह लोगों के बीच था तब बढ़ई का काम किया करता था। वह उनके लिए हल और जूए बनाता था।”
^ पैरा. 6 जिस यूनानी क्रिया का अनुवाद ‘चिन्ता करना’ किया गया है, उसका मतलब है “मन को भटकाना।” जैसे मत्ती 6:25 में इस्तेमाल हुआ है, इसका मतलब वह चिंता और डर है जिससे हमारा मन भटक जाता या बँट जाता है और हमारी ज़िंदगी का सुख-चैन छिन जाता है।
^ पैरा. 7 दरअसल, विज्ञान की खोज से पता चला है कि हद-से-ज़्यादा चिंता और तनाव से दिल की बीमारी और दूसरी कई बीमारियाँ होने का खतरा बढ़ जाता है, जो हमारी ज़िंदगी को कम कर सकती हैं।