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परमेश्‍वर किसकी उपासना को स्वीकार करता है?

परमेश्‍वर किसकी उपासना को स्वीकार करता है?

अध्याय ५

परमेश्‍वर किसकी उपासना को स्वीकार करता है?

१. एक सामरी स्त्री उपासना के बारे में क्या जानना चाहती थी?

क्या आपने कभी सोचा है, ‘परमेश्‍वर किसकी उपासना को स्वीकार करता है?’ उस स्त्री के मन में शायद यह प्रश्‍न आया हो जब उसने सामरिया में गरीज्जीम पर्वत के पास यीशु मसीह के साथ बात की। सामरियों और यहूदियों की उपासना के बीच भिन्‍नता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उसने कहा: “हमारे बापदादों ने इसी पहाड़ पर भजन [“उपासना,” NW] किया: और तुम कहते हो कि वह जगह जहां भजन [“उपासना,” NW] करना चाहिए यरूशलेम में है।” (यूहन्‍ना ४:२०) क्या यीशु ने उस सामरी स्त्री से कहा कि परमेश्‍वर सभी उपासना को स्वीकार करता है? या क्या उसने कहा कि परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करने के लिए सुनिश्‍चित बातों की आवश्‍यकता है?

२. उस सामरी स्त्री को उत्तर देते समय यीशु ने क्या कहा?

यीशु का चौंकानेवाला जवाब था: “वह समय आता है कि तुम न तो इस पहाड़ पर पिता का भजन करोगे न यरूशलेम में।” (यूहन्‍ना ४:२१) सामरी एक लम्बे अरसे से यहोवा का भय मानते और गरीज्जीम पर्वत पर अन्य ईश्‍वरों की उपासना करते थे। (२ राजा १७:३३) अब यीशु मसीह ने कहा कि न वह स्थान और न ही यरूशलेम सच्ची उपासना के लिए महत्त्वपूर्ण होता।

आत्मा और सच्चाई से उपासना कीजिए

३. (क) सामरी वास्तव में परमेश्‍वर को क्यों नहीं जानते थे? (ख) विश्‍वासी यहूदी और अन्य जन परमेश्‍वर को कैसे जान सकते थे?

यीशु ने उस सामरी स्त्री से आगे कहा: “तुम जिसे नहीं जानते, उसका भजन करते हो; और हम जिसे जानते हैं उसका भजन करते हैं; क्योंकि उद्धार यहूदियों में से है।” (यूहन्‍ना ४:२२) सामरियों की झूठी धार्मिक धारणाएँ थीं और वे बाइबल की केवल पहली पाँच पुस्तकों को ही उत्प्रेरित समझकर स्वीकार करते थे—और इन्हें भी केवल अपने संशोधित-पाठ के अनुसार जिसे सामरी पंचग्रन्थ कहा जाता है। इसलिए, वे वास्तव में परमेश्‍वर को नहीं जानते थे। लेकिन, यहूदियों को शास्त्रीय ज्ञान सौंपा गया था। (रोमियों ३:१, २) शास्त्र ने विश्‍वासी यहूदियों को और ऐसे अन्य जनों को जो सुनते, वह दिया जिसकी उन्हें परमेश्‍वर को जानने के लिए ज़रूरत थी।

४. यीशु के अनुसार, यहूदियों और सामरियों दोनों को क्या करने की ज़रूरत होती यदि उनकी उपासना को परमेश्‍वर को स्वीकार्य होना था?

असल में, यीशु ने दिखाया कि परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करने के लिए यहूदियों और सामरियों दोनों को ही अपनी उपासना के तरीक़े में समंजन करना होता। उसने कहा: “वह समय आता है, बरन अब भी है जिस में सच्चे भक्‍त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढता है। परमेश्‍वर आत्मा है, और अवश्‍य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।” (यूहन्‍ना ४:२३, २४) हमें विश्‍वास और प्रेम से भरे हृदय के द्वारा प्रेरित होकर ‘आत्मा से’ परमेश्‍वर की उपासना करने की ज़रूरत है। परमेश्‍वर के वचन बाइबल का अध्ययन करने के द्वारा, और उसकी प्रकट सच्चाई के अनुसार उसकी उपासना करने के द्वारा, “सच्चाई से” परमेश्‍वर की उपासना करना संभव है। क्या आप ऐसा करने के लिए उत्सुक हैं?

५. (क) “उपासना” का क्या अर्थ है? (ख) यदि हम चाहते हैं कि परमेश्‍वर हमारी उपासना को स्वीकार करे तो हमें क्या करने की ज़रूरत है?

यीशु ने इस पर ज़ोर दिया कि परमेश्‍वर सच्ची उपासना चाहता है। यह दिखाता है कि उपासना के ऐसे ढंग भी हैं जो यहोवा को स्वीकार्य नहीं हैं। परमेश्‍वर की उपासना करने का अर्थ है कि उसे श्रद्धापूर्ण आदर दिया जाए और उसकी पवित्र सेवा की जाए। यदि आप एक सामर्थी शासक को आदर दिखाना चाहते, तो संभवतः आप उसकी सेवा करने और उसे प्रसन्‍न करनेवाला कार्य करने के लिए उत्सुक होते। तो, निश्‍चित ही हम परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करना चाहते हैं। इसलिए मात्र यह कहने के बजाय कि ‘मेरा धर्म मेरे लिए ठीक है,’ हमें यह निश्‍चित करने की ज़रूरत है कि हमारी उपासना परमेश्‍वर की माँगों को पूरा करती है।

पिता की इच्छा पर चलना

६, ७. जो यीशु के शिष्य होने का दावा करते हैं वह उन में से कुछ लोगों को क्यों नहीं स्वीकार करता?

आइए मत्ती ७:२१-२३ पढ़ें और देखें कि क्या हम वह मूल तत्त्व अलग कर सकते हैं जो यह निर्धारित करता है कि सभी उपासना परमेश्‍वर को स्वीकार्य है या नहीं। यीशु ने कहा: “जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।”

यीशु मसीह को प्रभु के रूप में स्वीकार करना सच्ची उपासना के लिए अनिवार्य है। लेकिन यीशु के शिष्य होने का दावा करनेवाले अनेक लोगों की उपासना में किसी बात की कमी होती। उसने कहा कि कुछ लोग “बहुत अचम्भे के काम” करते, जैसे कि तथाकथित चमत्कारिक चंगाई। लेकिन, वे उस काम को करने से चूक जाते जो यीशु ने कहा कि अत्यावश्‍यक है। वे ‘उसके पिता की इच्छा पर’ नहीं ‘चलते।’ यदि हम परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करना चाहते हैं, तो हमें यह सीखना चाहिए कि पिता की इच्छा क्या है और फिर उस पर चलना चाहिए।

यथार्थ ज्ञान—एक बचाव

८. यदि हमें परमेश्‍वर की इच्छा पर चलना है तो किस बात की माँग की जाती है, और हमें कौन-सी ग़लत धारणाओं से दूर रहना है?

परमेश्‍वर की इच्छा पर चलना यहोवा परमेश्‍वर और यीशु मसीह दोनों के बारे में यथार्थ ज्ञान की माँग करता है। ऐसा ज्ञान अनन्त जीवन की ओर ले जाता है। तो, निश्‍चित ही हम सब परमेश्‍वर के वचन, बाइबल से यथार्थ ज्ञान लेने के विषय को गंभीरता से लेना चाहेंगे। कुछ लोग कहते हैं कि जब तक कि हम अपनी उपासना में निष्कपट और जोशीले हैं तब तक चिन्ता की कोई ज़रूरत नहीं। दूसरे दावा करते हैं, ‘आप जितना कम जानते हैं, आपसे उतनी कम अपेक्षा की जाती है।’ फिर भी, बाइबल हमें परमेश्‍वर और उसके उद्देश्‍यों के ज्ञान में बढ़ने का प्रोत्साहन देती है।—इफिसियों ४:१३; फिलिप्पियों १:९; कुलुस्सियों १:९.

९. यथार्थ ज्ञान हमें कैसे बचाता है, और हमें ऐसे बचाव की ज़रूरत क्यों है?

ऐसा ज्ञान हमारी उपासना को संदूषित होने से बचाता है। प्रेरित पौलुस ने एक आत्मिक प्राणी के बारे में कहा जो “ज्योतिर्मय स्वर्गदूत” होने का दिखावा करता है। (२ कुरिन्थियों ११:१४) इस प्रकार भेष बदलकर, यह आत्मिक प्राणी—शैतान—हमें वे काम करने के लिए बहकाने की कोशिश करता है जो परमेश्‍वर की इच्छा के विरुद्ध हैं। शैतान के साथ संबद्ध अन्य आत्मिक प्राणी भी लोगों की उपासना को दूषित करते रहे हैं, क्योंकि पौलुस ने कहा: “अन्यजाति जो बलिदान करते हैं, वे परमेश्‍वर के लिये नहीं, परन्तु दुष्टात्माओं के लिये बलिदान करते हैं।” (१ कुरिन्थियों १०:२०) संभवतः, अनेक लोगों ने सोचा है कि वे सही तरीक़े से उपासना कर रहे हैं, हालाँकि वे वह नहीं कर रहे थे जो परमेश्‍वर चाहता है। वे अशुद्ध झूठी उपासना करने के लिए बहकाए जा रहे थे। हम बाद में शैतान और पिशाचों के बारे में और सीखेंगे, लेकिन परमेश्‍वर के ये शत्रु मनुष्यजाति की उपासना को अवश्‍य ही दूषित करते रहे हैं।

१०. यदि कोई जानबूझकर आपकी जल-सप्लाई में ज़हर मिला देता तो आप क्या करते, और परमेश्‍वर के वचन का यथार्थ ज्ञान हमें क्या करने के लिए सुसज्जित करता है?

१० यदि आपको पता चलता कि किसी ने जानबूझकर आपकी जल-सप्लाई में ज़हर मिला दिया है, तो क्या आप उसमें से पीते जाते? निश्‍चित ही, आप सुरक्षित, शुद्ध जल के स्रोत का पता लगाने के लिए तुरन्त कार्य करते। परमेश्‍वर के वचन का यथार्थ ज्ञान हमें सच्चे धर्म को पहचानने और उस गन्दगी को ठुकराने के लिए सुसज्जित करता है जो परमेश्‍वर के प्रति हमारी उपासना को अस्वीकार्य बनाती है।

मनुष्यों की आज्ञाएँ धर्मोपदेश के रूप में

११. अनेक यहूदियों की उपासना में क्या बात ग़लत थी?

११ जब यीशु पृथ्वी पर था, उस समय अनेक यहूदी परमेश्‍वर के यथार्थ ज्ञान के अनुरूप कार्य नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने यहोवा के सामने एक स्वच्छ स्थिति रखने का अवसर खो दिया। उनके सम्बन्ध में पौलुस ने लिखा: “मैं उनकी गवाही देता हूँ कि उनको परमेश्‍वर के लिए जोश है; लेकिन यथार्थ ज्ञान के अनुसार नहीं।” (रोमियों १०:२, NW) परमेश्‍वर की सुनने के बजाय उन्होंने यह निर्णय स्वयं किया कि उसकी उपासना कैसे की जाए।

१२. किस बात ने इस्राएल की उपासना को संदूषित किया, और उसका परिणाम क्या हुआ?

१२ आरंभ में इस्राएलियों ने परमेश्‍वर-प्रदत्त शुद्ध धर्म का पालन किया, लेकिन वह मनुष्यों की शिक्षाओं और तत्त्वज्ञानों के द्वारा संदूषित हो गया। (यिर्मयाह ८:८, ९; मलाकी २:८, ९; लूका ११:५२) हालाँकि फरीसी कहलानेवाले यहूदी धार्मिक अगुवों ने सोचा कि उनकी उपासना परमेश्‍वर को स्वीकार्य थी, यीशु ने उनसे कहा: “यशायाह ने तुम कपटियों के विषय में बहुत ठीक भविष्यद्वाणी की; जैसा लिखा है; कि ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की आज्ञाओं को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं।”—मरकुस ७:६, ७.

१३. हम फरीसियों की तरह कैसे कर सकते हैं?

१३ क्या यह संभव है कि हम फरीसियों की तरह करें? ऐसा हो सकता है यदि यह जाँचने के बजाय कि परमेश्‍वर ने उपासना के बारे में क्या कहा है, हम चली आ रही धार्मिक परम्पराओं को मानते हैं। इस अति वास्तविक ख़तरे के बारे में चेतावनी देते हुए, पौलुस ने लिखा: “आत्मा स्पष्टता से कहता है, कि आनेवाले समयों में कितने लोग भरमानेवाली आत्माओं, और दुष्टात्माओं की शिक्षाओं पर मन लगाकर विश्‍वास से बहक जाएंगे।” (१ तीमुथियुस ४:१) सो सिर्फ़ यह सोच लेना ही काफ़ी नहीं है कि हमारी उपासना परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करती है। उस सामरी स्त्री की तरह जो यीशु को मिली थी, हमने शायद अपनी उपासना का तरीक़ा अपने माता-पिता से पाया हो। लेकिन हमें इस बारे में निश्‍चित होने की ज़रूरत है कि हम वे कार्य कर रहे हैं जो परमेश्‍वर को स्वीकार्य हैं।

परमेश्‍वर को अप्रसन्‍न करने से बचिए

१४, १५. यदि हमारे पास परमेश्‍वर की इच्छा का कुछ ज्ञान है तोभी हमें क्यों सावधान रहने की ज़रूरत है?

१४ यदि हम सावधान नहीं हैं तो हम कुछ ऐसा कर सकते हैं जो परमेश्‍वर को अस्वीकार्य है। उदाहरण के लिए, प्रेरित यूहन्‍ना “उसकी उपासना करने के लिए” एक स्वर्गदूत के पैरों पर गिर पड़ा। लेकिन स्वर्गदूत ने चेतावनी दी: “ऐसा न कर: मैं तो तेरा और तेरे उन भाइयों का संगी दास हूं जो यीशु की साक्षी में स्थिर हैं। परमेश्‍वर की उपासना कर।” (प्रकाशितवाक्य १९:१०, NHT) इसलिए क्या आप यह निश्‍चित करने की ज़रूरत देखते हैं कि आपकी उपासना किसी क़िस्म की मूर्तिपूजा से संदूषित तो नहीं?—१ कुरिन्थियों १०:१४.

१५ जब कुछ मसीहियों ने उन धार्मिक रिवाज़ों को मानना शुरू कर दिया जिनसे परमेश्‍वर प्रसन्‍न नहीं था, तब पौलुस ने पूछा: “उन निर्बल और निकम्मी आदि-शिक्षा की बातों की ओर क्यों फिरते हो, जिन के तुम दोबारा दास होना चाहते हो? तुम दिनों और महीनों और नियत समयों और वर्षों को मानते हो। मैं तुम्हारे विषय में डरता हूं, कहीं ऐसा न हो, कि जो परिश्रम मैं ने तुम्हारे लिये किया है, व्यर्थ ठहरे।” (गलतियों ४:८-११) उन व्यक्‍तियों ने परमेश्‍वर का ज्ञान पाया था लेकिन बाद में ऐसे धार्मिक रिवाज़ों और पवित्र दिनों को मानने के द्वारा ग़लती की जो यहोवा को अस्वीकार्य थे। जैसा पौलुस ने कहा, हमें ‘यह परखते रहने’ की ज़रूरत है कि ‘प्रभु को क्या भाता है।’—इफिसियों ५:१०.

१६. यूहन्‍ना १७:१६ और १ पतरस ४:३ कैसे यह फ़ैसला करने में हमारी मदद करते हैं कि त्योहार और रिवाज़ परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करते हैं या नहीं?

१६ हमें यह निश्‍चित करने की ज़रूरत है कि हम उन धार्मिक त्योहारों और अन्य रिवाज़ों से दूर रहें जो परमेश्‍वर के सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं। (१ थिस्सलुनीकियों ५:२१) उदाहरण के लिए, यीशु ने अपने अनुयायियों के बारे में कहा: “जैसे मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं।” (यूहन्‍ना १७:१६) क्या आपका धर्म ऐसे समारोहों और त्योहारों में भाग लेता है जो इस संसार के मामलों में तटस्थता के सिद्धान्त का उल्लंघन करते हैं? या क्या आपके धर्म को माननेवाले कभी-कभी ऐसे रिवाज़ों और उत्सवों में हिस्सा लेते हैं जिनमें शायद ऐसा व्यवहार सम्मिलित हो जो प्रेरित पतरस के वर्णन के समान है? उसने लिखा: “अन्यजातियों की इच्छा के अनुसार काम करने, और लुचपन की बुरी अभिलाषाओं, मतवालापन, लीलाक्रीड़ा, पियक्कड़पन, और घृणित मूर्त्तिपूजा में जहां तक हम ने पहिले समय गंवाया, वही बहुत हुआ।”—१ पतरस ४:३.

१७. हमें ऐसी किसी भी बात से क्यों दूर रहना चाहिए जो संसार की आत्मा को प्रतिबिम्बित करती है?

१७ प्रेरित यूहन्‍ना ने ऐसे किसी भी अभ्यास से दूर रहने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जो हमारे चारों ओर के भक्‍तिहीन संसार की आत्मा प्रतिबिम्बित करता है। यूहन्‍ना ने लिखा: “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात्‌ शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्‍वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा।” (१ यूहन्‍ना २:१५-१७) क्या आपने ध्यान दिया कि जो ‘परमेश्‍वर की इच्छा पर चलते हैं’ वे सर्वदा बने रहेंगे? जी हाँ, यदि हम परमेश्‍वर की इच्छा पर चलते हैं और उन गतिविधियों से दूर रहते हैं जो इस संसार की आत्मा प्रतिबिम्बित करती हैं, तो हम अनन्त जीवन की आशा रख सकते हैं!

परमेश्‍वर के उच्च स्तरों का पालन कीजिए

१८. आचरण के बारे में कुछ कुरिन्थियों ने कैसे भूल की थी, और हमें इससे क्या सीखना चाहिए?

१८ परमेश्‍वर उन लोगों को अपने उपासकों के रूप में चाहता है जो उसके उच्च नैतिक स्तरों का पालन करते हैं। प्राचीन कुरिन्थुस में कुछ लोगों ने यह सोचने में भूल की कि परमेश्‍वर अनैतिक व्यवहार को सहन कर लेगा। हम १ कुरिन्थियों ६:९, १० पढ़ने के द्वारा यह देख सकते हैं कि वे कितने ग़लत थे। यदि हमें स्वीकार्य रूप से परमेश्‍वर की उपासना करनी है, तो हमें अपनी कथनी और करनी दोनों से उसे प्रसन्‍न करने की ज़रूरत है। क्या आपकी उपासना का ढंग आपको ऐसा करने में समर्थ कर रहा है?—मत्ती १५:८; २३:१-३.

१९. दूसरों के साथ हमारे व्यवहार पर सच्ची उपासना कैसे प्रभाव डालती है?

१९ अन्य लोगों के साथ हमारे बर्ताव से भी परमेश्‍वर के स्तरों को प्रतिबिम्बित होना चाहिए। यीशु मसीह ने हमें प्रोत्साहित किया कि हमें दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि वे हमारे साथ करें, क्योंकि यह सच्ची उपासना का भाग है। (मत्ती ७:१२) नोट कीजिए कि उसने भाईचारे का प्रेम दिखाने के बारे में भी क्या कहा: “यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।” (यूहन्‍ना १३:३५) यीशु के शिष्यों को आपस में प्रेम रखना चाहिए, और संगी उपासकों तथा दूसरों के प्रति भलाई करनी चाहिए।—गलतियों ६:१०.

पूरे हृदय से की गयी उपासना

२०, २१. (क) परमेश्‍वर किस क़िस्म की उपासना की माँग करता है? (ख) मलाकी के दिनों में यहोवा ने इस्राएल की उपासना को क्यों अस्वीकार किया?

२० अपने हृदय में आप शायद स्वीकार्य रूप से परमेश्‍वर की उपासना करना चाहते हों। यदि ऐसा है तो आपको उपासना के बारे में यहोवा का दृष्टिकोण रखने की ज़रूरत है। शिष्य याकूब ने इस बात पर ज़ोर दिया कि परमेश्‍वर का दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण है, न कि हमारा। याकूब ने कहा: “हमारे परमेश्‍वर और पिता के निकट शुद्ध और निर्मल भक्‍ति यह है, कि अनाथों और विधवाओं के क्लेश में उन की सुधि लें, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखें।” (याकूब १:२७) परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करने की अभिलाषा के साथ, हम में से हरेक को यह निश्‍चित करने के लिए अपनी उपासना को जाँचने की ज़रूरत है कि कहीं यह भक्‍तिहीन अभ्यासों से संदूषित तो नहीं या यह कि हम किसी ऐसी बात से तो नहीं चूक रहे हैं जिसे वह अनिवार्य समझता है।—याकूब १:२६.

२१ केवल स्वच्छ, पूरे हृदय से की गयी उपासना यहोवा को प्रसन्‍न करती है। (मत्ती २२:३७; कुलुस्सियों ३:२३) जब इस्राएल जाति ने परमेश्‍वर को उससे कम दिया, तो उसने कहा: “पुत्र पिता का, और दास स्वामी का आदर करता है। यदि मैं पिता हूं, तो मेरा आदर मानना कहां है? और यदि मैं स्वामी हूं, तो मेरा भय मानना कहां?” वे परमेश्‍वर को अन्धे, लँगड़े, और रोगी पशु चढ़ाने के द्वारा उसे अप्रसन्‍न कर रहे थे, और उसने उपासना के ऐसे कृत्य अस्वीकार किए। (मलाकी १:६-८) यहोवा सबसे शुद्ध क़िस्म की उपासना के योग्य है और केवल अनन्य भक्‍ति ही स्वीकार करता है।—निर्गमन २०:५; नीतिवचन ३:९; प्रकाशितवाक्य ४:११.

२२. यदि हम चाहते हैं कि परमेश्‍वर हमारी उपासना को स्वीकार करे, तो हम किस बात से दूर रहेंगे, और हम क्या करेंगे?

२२ जिस सामरी स्त्री ने यीशु के साथ बात की थी उसे प्रतीयमानतः ईश्‍वरीय रूप से अनुमोदित तरीक़े से परमेश्‍वर की उपासना करने में दिलचस्पी थी। यदि हमारी अभिलाषा भी यही है, तो हम संदूषित करनेवाली सभी शिक्षाओं और अभ्यासों से दूर रहेंगे। (२ कुरिन्थियों ६:१४-१८) इसके बजाय, हम परमेश्‍वर का यथार्थ ज्ञान पाने और उसकी इच्छा पर चलने के लिए परिश्रम करेंगे। स्वीकार्य उपासना के लिए उसकी माँगों को हम बारीक़ी से पूरा करेंगे। (१ तीमुथियुस २:३, ४) यहोवा के साक्षी ठीक यही करने का यत्न कर रहे हैं, और वे उनके साथ “आत्मा और सच्चाई से” परमेश्‍वर की उपासना करने के लिए आपसे हार्दिक अनुरोध करते हैं। (यूहन्‍ना ४:२४) यीशु ने कहा: “पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढता है।” (यूहन्‍ना ४:२३) यह आशा की जाती है कि आप ऐसे एक व्यक्‍ति हैं। उस सामरी स्त्री की तरह, निःसंदेह आप अनन्त जीवन पाना चाहेंगे। (यूहन्‍ना ४:१३-१५) लेकिन आप लोगों को बूढ़े होते और मरते देखते हैं। अगला अध्याय समझाता है कि ऐसा क्यों होता है।

अपने ज्ञान को जाँचिए

जैसे यूहन्‍ना ४:२३, २४ में दिखाया गया है, परमेश्‍वर कैसी उपासना को स्वीकार करता है?

हम कैसे निर्धारित कर सकते हैं कि परमेश्‍वर अमुक रिवाज़ों और उत्सवों से प्रसन्‍न होता है या नहीं?

स्वीकार्य उपासना के लिए कुछ माँगें क्या हैं?

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज 44 पर बड़ी तसवीर दी गयी है]