अध्याय 6
“उसने . . . आज्ञा माननी सीखी”
1, 2. एक पिता अपने बेटे को उसकी आज्ञा मानते देख क्यों खुश होता है? और इससे हमें यहोवा की भावनाओं के बारे में क्या पता चलता है?
एक पिता खिड़की से बाहर देखता है कि उसका नन्हा बेटा अपने दोस्तों के साथ खेल रहा है। इतने में उनकी गेंद उछलकर सड़क पर चली जाती है। बेटा टकटकी लगाए गेंद को देखता रहता है। एक दोस्त उसे सड़क से गेंद उठा लाने को कहता है। मगर वह अपना सिर हिलाते हुए बोलता है, “नहीं, मैं नहीं जा सकता।” यह सुनकर पिता मुस्कुरा देता है।
2 वह क्यों? क्योंकि उसने अपने बेटे को सड़क पर अकेले जाने से मना किया था। बेटा नहीं जानता कि उसके पापा उसे देख रहे हैं। फिर भी जब वह उनका कहना मानता है, तो पिता को तसल्ली होती है कि उसका बेटा आज्ञा मानना सीख रहा है और इसलिए वह खतरे से महफूज़ रहेगा। यह पिता अपने बेटे के बारे में बिलकुल वैसा ही महसूस करता है, जैसा स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता हमारे बारे में महसूस करता है। यहोवा जानता है कि अगर हमें वफादार बने रहना है और वह सुनहरा भविष्य देखना है जो उसने हमारे लिए रखा है, तो हमें उस पर भरोसा करना सीखना होगा और उसकी आज्ञा माननी होगी। (नीतिवचन 3:5, 6) इसके लिए उसने हमारे पास दुनिया का सबसे महान शिक्षक भेजा।
3, 4. मिसाल देकर समझाइए कि यीशु ने कैसे ‘आज्ञा माननी सीखी’ और वह कैसे ‘परिपूर्ण किया’ गया।
3 बाइबल यीशु के बारे में एक हैरतअँगेज़ बात बताती है: “परमेश्वर का बेटा होते हुए भी उसने दुःख सह-सहकर आज्ञा माननी सीखी। और परिपूर्ण किए जाने के बाद, उसे उन सबको हमेशा का उद्धार दिलाने की ज़िम्मेदारी दी गयी जो उसकी आज्ञा मानते हैं।” (इब्रानियों 5:8, 9) परमेश्वर का यह पहलौठा बेटा अनगिनत युगों तक स्वर्ग में रहा। उसने शैतान और उसके बागी स्वर्गदूतों को परमेश्वर के खिलाफ जाते देखा, मगर उसने उनका साथ कभी नहीं दिया। ईश्वर प्रेरणा से लिखे भविष्यवाणी के ये शब्द यीशु पर लागू हुए: “मैं बागी . . . न हुआ।” (यशायाह 50:5, किताब-ए-मुकद्दस) लेकिन अगर यीशु पूरी तरह से आज्ञाकारी था तो इन शब्दों का क्या मतलब है कि ‘उसने आज्ञा माननी सीखी’? और सिद्ध होते हुए भी वह किस तरह ‘परिपूर्ण किया’ गया?
4 इसे समझने के लिए एक मिसाल लीजिए। एक सैनिक के पास लोहे की तलवार है। भले ही उस तलवार का युद्ध में कभी इस्तेमाल नहीं हुआ, लेकिन उसमें कोई खोट नहीं और वह बहुत अच्छी तरह बनायी गयी है। मगर वह सैनिक उस तलवार के बदले मज़बूत स्टील से बनी तलवार ले लेता है। इस तलवार से बहुत-से युद्ध लड़े गए हैं। क्या आपको नहीं लगता कि यह सौदा बुद्धि-भरा है? उसी तरह स्वर्ग में यीशु के आज्ञा मानने के गुण में कोई खोट नहीं था। मगर जब वह धरती पर आया तो उसे ऐसी आज़माइशों का सामना करना पड़ा जो वह स्वर्ग में कभी नहीं कर सकता था। ऐसे में उसका यह गुण परखा गया और स्टील से बनी तलवार की तरह और भी मज़बूत हुआ।
5. यीशु ने जिस तरह आज्ञा मानी, वह क्यों गौरतलब है? इस अध्याय में हम क्या देखेंगे?
5 धरती पर यीशु जिस मकसद से आया, उसे पूरा करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा मानना बेहद ज़रूरी था। यीशु ने “आखिरी आदम” के नाते वह किया जो हमारे पहले माता-पिता करने में नाकाम रहे। वह है, आज़माइशों में भी यहोवा का आज्ञाकारी रहना। (1 कुरिंथियों 15:45) फिर भी, यीशु ने सिर्फ कहने भर के लिए आज्ञा नहीं मानी। उसने पूरे दिल, पूरी जान और पूरे दिमाग से यहोवा का कहा माना। और ऐसा उसने खुशी-खुशी किया। यीशु के लिए अपने पिता की मरज़ी पूरी करना खाना खाने से ज़्यादा ज़रूरी था! (यूहन्ना 4:34) क्या बात हमें यीशु की तरह आज्ञा मानने में मदद देगी? आइए सबसे पहले देखें कि यीशु ने किन वजहों से यहोवा की आज्ञा मानी। ये वजहें हमें भी गलत काम का डटकर विरोध करने और परमेश्वर की मरज़ी पर चलने में मदद देंगी। हम यह भी देखेंगे कि मसीह की तरह आज्ञा मानने से क्या आशीषें मिलती हैं।
किन वजहों से यीशु ने आज्ञा मानी?
6, 7. यीशु ने किन वजहों से यहोवा का कहा माना?
6 यीशु के अच्छे गुणों ने उसे यहोवा का कहा मानने के लिए उभारा। जैसा कि हमने अध्याय 3 में देखा, मसीह दिल से नम्र था। अकसर देखा जाता है कि घमंड की वजह से लोग आज्ञा मानने को तुच्छ समझते हैं, जबकि नम्रता का गुण होने से हम खुशी-खुशी यहोवा की आज्ञा मान पाते हैं। (निर्गमन 5:1, 2; 1 पतरस 5:5, 6) यीशु ने जिन बातों से प्यार किया और जिन बातों से नफरत, उस वजह से भी वह यहोवा की आज्ञा मान सका।
7 यीशु ने सबसे बढ़कर अपने पिता यहोवा से प्यार किया। इस प्यार के बारे में अध्याय 13 में खुलकर चर्चा की जाएगी। इस प्यार ने यीशु के अंदर परमेश्वर का डर पैदा किया। यहोवा के लिए उसका प्यार इतना ज़बरदस्त और उसकी श्रद्धा इतनी गहरी थी कि वह अपने पिता का दिल दुखाने से डरता था। परमेश्वर का डर मानने की वजह से यीशु की प्रार्थनाएँ सुनी गयीं। (इब्रानियों 5:7) यही डर मसीहाई राजा, यीशु की हुकूमत की खास पहचान होगा।—यशायाह 11:3.
8, 9. भविष्यवाणी के मुताबिक यीशु ने सच्चाई और बुराई के बारे में कैसा महसूस किया? और उसने अपनी भावनाएँ कैसे ज़ाहिर कीं?
8 यहोवा से प्यार करने में यह भी शामिल है कि हम उन बातों से नफरत करें जिनसे वह नफरत करता है। मिसाल के लिए, इस भविष्यवाणी पर गौर कीजिए जो मसीहाई राजा के बारे में कही गयी थी: “तू ने धार्मिकता से प्रेम और दुष्टता से बैर किया है, इसीलिए परमेश्वर तेरे परमेश्वर ने तेरे साथियों से बढ़कर तुझे हर्ष के तेल से अभिषिक्त किया है।” (भजन 45:7, NHT) इस भविष्यवाणी के मुताबिक यीशु के ‘साथी,’ दाविद के वंश से आनेवाले दूसरे राजा थे। जब यीशु का अभिषेक किया गया, तो उसके पास उन राजाओं से बढ़कर खुशी मनाने की वजह थी। क्यों? क्योंकि यीशु को उनसे कहीं बड़ा इनाम मिलेगा और उसकी बादशाहत से बड़े पैमाने पर लोगों को फायदे पहुँचेंगे। उसे इसलिए इनाम दिया जाएगा क्योंकि सच्चाई से प्यार और बुराई से नफरत ने उसे हर बात में यहोवा की आज्ञा मानने के लिए उकसाया।
9 यीशु ने कैसे ज़ाहिर किया कि वह सच्चाई से प्यार और बुराई से नफरत करता है? जब प्रचार में उसके चेलों ने उसकी हिदायतें मानी और बदले में अच्छे नतीजे पाए, तो यीशु आनंद से भर गया। (लूका 10:1, 17, 21) दूसरी तरफ, जब यरूशलेम के लोगों ने बार-बार आज्ञा न मानने का रवैया दिखाया और यीशु की प्यार-भरी मदद ठुकरा दी, तो उसने कैसा महसूस किया? वह उनका बगावती रवैया देखकर रोने लगा। (लूका 19:41, 42) इससे पता चलता है कि अच्छे और बुरे व्यवहार का यीशु की भावनाओं पर गहरा असर होता था।
10. हमें अपने अंदर अच्छे और गलत कामों के लिए कैसी भावनाएँ पैदा करनी चाहिए? ऐसा करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
10 यीशु की भावनाओं पर मनन करने से हम खुद की जाँच कर पाते हैं कि हम किन वजहों से यहोवा की आज्ञा मान रहे हैं। असिद्ध होते हुए भी हम अच्छे कामों के लिए सच्चा प्यार और गलत कामों के लिए ज़बरदस्त नफरत पैदा कर सकते हैं। हमें यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें उसके और उसके बेटे के जैसी भावनाएँ पैदा करने में मदद दे। (भजन 51:10) इसके साथ-साथ, हमें उन बातों से दूर रहना चाहिए जो हमारे अंदर इन भावनाओं को कमज़ोर कर सकती हैं। इसलिए मनोरंजन और दोस्तों का सोच-समझकर चुनाव करना ज़रूरी है। (नीतिवचन 13:20; फिलिप्पियों 4:8) अगर हम उन्हीं वजहों से यहोवा का कहा मानें जिन वजहों से यीशु ने माना था, तो आज्ञा मानना हमारे लिए महज़ दिखावा नहीं होगा। जो सही है हम वही करेंगे क्योंकि हमें ऐसा करना पसंद है। हम गलत कामों से दूर रहेंगे, इसलिए नहीं कि हमें पकड़े जाने का डर है बल्कि इसलिए कि हमें ऐसे कामों से सख्त नफरत है।
“उसने कोई पाप नहीं किया”
11, 12. (क) यीशु की सेवा की शुरूआत में उसके साथ क्या हुआ? (ख) शैतान ने यीशु को फुसलाने के लिए सबसे पहले क्या कहा? इस तरह उसने कौन-सी धूर्त चाल अपनायी?
11 यीशु को पाप से कितनी नफरत है, इस बात की परख उसकी सेवा की शुरूआत में ही हो गयी। बपतिस्मे के बाद, वह 40 दिन और 40 रात वीराने में रहा और इस दौरान उसने कुछ नहीं खाया। फिर, शैतान उसे फुसलाने आया। ध्यान दीजिए कि शैतान कितना धूर्त था।—मत्ती 4:1-11.
12 शैतान ने सबसे पहले कहा: “अगर तू सचमुच परमेश्वर का बेटा है, तो इन पत्थरों से बोल कि ये रोटियाँ बन जाएँ।” (मत्ती 4:3) इतने लंबे उपवास के बाद यीशु कैसा महसूस कर रहा था? बाइबल बताती है: “उसे भूख लगी।” (मत्ती 4:2) शैतान ने भूख जैसी स्वाभाविक इच्छा का नाजायज़ फायदा उठाया। उसने जानबूझकर उस वक्त का इंतज़ार किया जब यीशु शारीरिक रूप से कमज़ोर था। शैतान के इस ताने पर भी गौर कीजिए: “अगर तू सचमुच परमेश्वर का बेटा है।” शैतान अच्छी तरह जानता था कि यीशु “सारी सृष्टि में पहलौठा है,” फिर भी उसने यीशु को भड़काने और उसे यहोवा के खिलाफ करने के लिए ऐसा कहा। (कुलुस्सियों 1:15) मगर यीशु उसके झाँसे में नहीं आया। वह जानता था कि यह परमेश्वर की मरज़ी नहीं कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करे। यीशु ने पत्थरों को रोटियों में बदलने से इनकार कर दिया। इस तरह उसने दिखाया कि वह नम्र है और अपने खाने-पीने की ज़रूरतों और मार्गदर्शन के लिए यहोवा पर निर्भर रहता है।—मत्ती 4:4.
13-15. (क) शैतान ने कैसे दूसरी और तीसरी बार यीशु को फुसलाने की कोशिश की? और हर बार यीशु ने क्या किया? (ख) यीशु को शैतान के खिलाफ हमेशा चौकन्ना क्यों रहना था?
13 शैतान ने यीशु को दूसरी बार फुसलाने के लिए उसे मंदिर की चारदीवारी के ऊपर लाकर खड़ा किया। और उसे वहाँ से छलाँग लगाने को कहा। शैतान ने बड़ी चालाकी से शास्त्र को तोड़-मरोड़कर कहा कि अगर यीशु ऐसा करे, तो स्वर्गदूत उसे बचा लेंगे। ज़रा सोचिए, अगर मंदिर में मौजूद भीड़ यह चमत्कार देखती, तो क्या किसी की मजाल होती कि वह यीशु को वादा किया गया मसीहा मानने से इनकार कर दे? और अगर वह इस दिखावे की बिनाह पर यीशु को मसीहा कबूल कर लेती, तो क्या यीशु ढेरों तकलीफों और मुश्किलों से बच नहीं जाता? शायद ऐसा हो सकता था। मगर यीशु जानता था कि यहोवा की यही मरज़ी है कि मसीहा बिना कोई दिखावा किए अपना काम करे, न कि हैरतअँगेज़ कारनामे कर लोगों को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कायल करे। (यशायाह 42:1, 2) इस बार भी यीशु ने यहोवा की आज्ञा तोड़ने से साफ मना कर दिया। नामो-शोहरत पाने का लालच यीशु को न ललचा सका।
14 लेकिन अधिकार पाने के लालच के बारे में क्या? शैतान ने अपनी तीसरी कोशिश में यीशु के सामने इस दुनिया के तमाम राज्य देने की पेशकश रखी। और बदले में उससे कहा कि वह बस एक बार गिरकर उसकी उपासना करे। क्या यीशु ने शैतान की पेशकश के बारे में गंभीरता से सोचा? गौर कीजिए कि यीशु ने क्या जवाब दिया: “दूर हो जा शैतान! क्योंकि यह लिखा है, ‘तू सिर्फ अपने परमेश्वर यहोवा की उपासना कर और उसी की पवित्र सेवा कर।’” (मत्ती 4:10) कोई भी बात यीशु को किसी दूसरे ईश्वर की उपासना करने के लिए नहीं लुभा सकती। चाहे उसके सामने दुनिया-जहान का अधिकार रख दिया जाए, वह कभी यहोवा की आज्ञा नहीं तोड़ेगा।
15 क्या शैतान ने हार मान ली? हालाँकि यीशु के हुक्म पर उसने उसे अकेला छोड़ दिया। लेकिन लूका की खुशखबरी की किताब बताती है कि शैतान “कोई और सही मौका मिलने तक उसके पास से चला गया।” (लूका 4:13) इसमें कोई शक नहीं कि शैतान ने दूसरे मौकों पर भी उसे आज़माइश में डालने और लुभाने की कोशिश की। वह यीशु की मौत तक हाथ धोकर उसके पीछे पड़ा रहा। बाइबल बताती है कि यीशु की “सब बातों में परीक्षा हुई।” (इब्रानियों 4:15) वाकई, यीशु को शैतान के खिलाफ हमेशा चौकन्ना रहना था और हमें भी रहना चाहिए।
16. शैतान आज परमेश्वर के सेवकों को गलत काम के लिए कैसे लुभाता है? और हम उसकी चालों को कैसे नाकाम कर सकते हैं?
16 शैतान आज भी परमेश्वर के सेवकों को गलत काम करने के लिए लुभाता है। अफसोस कि हम अपनी असिद्धताओं की वजह से अकसर शैतान का आसानी से निशाना बन बैठते हैं। शैतान हमारे अंदर स्वार्थ, घमंड या अधिकार पाने की कमज़ोरी का फायदा उठाता है। यहाँ तक कि धन-दौलत का जाल बिछाकर वह एक-साथ हमारी इन तीनों कमज़ोरियों का फायदा उठाता है। इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि हम समय-समय पर ईमानदारी से खुद की जाँच करें। हमें 1 यूहन्ना 2:15-17 के शब्दों पर मनन करना चाहिए। ऐसा करते वक्त हम खुद से पूछ सकते हैं कि शरीर की ख्वाहिशें, ऐशो-आराम की चीज़ों की तमन्ना और अपनी चीज़ों का दिखावा करने की इच्छा कहीं यहोवा के लिए हमारे प्यार का गला तो नहीं घोंट रही हैं? हमें याद रखना चाहिए कि यह दुनिया अपने अंतिम कगार पर है और उसका शासक शैतान भी मिटनेवाला है। आइए हम शैतान की धूर्त चालों को नाकाम करें, जो वह हमें पाप के फंदे में फसाने के लिए चलता है। और अपने मालिक, यीशु के नक्शे-कदम पर चलें जिसने “कोई पाप नहीं किया।”—1 पतरस 2:22.
“मैं हमेशा वही करता हूँ जिससे वह खुश होता है”
17. अपने पिता का कहा मानने में यीशु कैसा महसूस करता था? मगर कुछ लोग शायद क्या कहें?
17 आज्ञा मानने में सिर्फ पाप से दूर रहना ही नहीं बल्कि यहोवा की हर बात का पालन करना भी शामिल है। मसीह ने ऐसा ही किया। उसने कहा: “मैं हमेशा वही करता हूँ जिससे वह खुश होता है।” (यूहन्ना 8:29) अपने पिता का कहा मानने से यीशु को बेइंतिहा खुशी मिली। मगर कुछ लोग शायद कहें कि यीशु के लिए आज्ञा मानना आसान था क्योंकि उसे सिर्फ यहोवा को जवाब देना था जो सिद्ध है। जबकि हमें अकसर अधिकार के पद पर बैठे ऐसे लोगों को जवाब देना पड़ता है जो असिद्ध हैं। लेकिन सच तो यह है कि यीशु अधिकार रखनेवाले असिद्ध इंसानों के भी अधीन रहा।
18. आज्ञा मानने में जवान यीशु ने क्या मिसाल रखी?
18 जब यीशु बड़ा हो रहा था, तो वह अपने असिद्ध माता-पिता यूसुफ और मरियम के अधिकार के अधीन रहा। बाकी बच्चों के मुकाबले वह अपने माता-पिता में ज़्यादा कमियाँ देख सकता था। लेकिन क्या वह उनके खिलाफ गया? क्या वह परिवार में अपनी मर्यादा भूलकर उन्हें यह सिखाने लगा कि घर कैसे चलाया जाता है? ध्यान दीजिए कि 12 साल के यीशु के बारे में लूका 2:51 क्या कहता है: “वह . . . लगातार उनके अधीन रहा।” इस तरह आज्ञा मानने में यीशु ने मसीही जवानों के लिए बहुत उम्दा मिसाल रखी। ये जवान अपने माता-पिता की आज्ञा मानने की भरसक कोशिश करते हैं और उन्हें वह आदर देते हैं जिसके वे हकदार हैं।—इफिसियों 6:1, 2.
19, 20. (क) असिद्ध इंसानों की आज्ञा मानने में यीशु ने कौन-सी चुनौतियों का सामना किया? (ख) सच्चे मसीहियों को अगुवाई लेनेवाले भाइयों की आज्ञा क्यों माननी चाहिए?
19 जब असिद्ध इंसानों की आज्ञा मानने की बात आती है, तो यीशु के सामने ऐसी चुनौतियाँ आयीं जिनका सामना आज सच्चे मसीहियों को नहीं करना पड़ता है। ध्यान दीजिए कि यीशु किस मुश्किल समय में जीया था। बरसों से यहोवा, यहूदियों की धार्मिक व्यवस्था को मंज़ूर करता आया था, जिसमें यरूशलेम में उनका मंदिर और याजकवर्ग शामिल था। लेकिन अब यहोवा उसे ठुकरानेवाला था और उसकी जगह मसीही मंडली का इंतज़ाम ठहरानेवाला था। (मत्ती 23:33-38) इस बीच कई धर्मगुरु यूनानी फलसफों से झूठी शिक्षाएँ देने लगे थे। मंदिर में भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया था कि यीशु ने उसे “लुटेरों का अड्डा” कहा। (मरकुस 11:17) मगर क्या यीशु ने मंदिर और सभा-घरों में जाना छोड़ दिया? बिलकुल नहीं! यहोवा अब भी उन इंतज़ामों का इस्तेमाल कर रहा था। और जब तक यहोवा ने उन्हें बदलने के लिए कोई कदम नहीं उठाया, तब तक यीशु सभा-घरों और त्योहारों के वक्त मंदिर में जाता रहा।—लूका 4:16; यूहन्ना 5:1.
20 अगर यीशु ने उन हालात में आज्ञा मानी, तो आज हम सच्चे मसीहियों को और भी कितना आज्ञाकारी होना चाहिए? आखिरकार, हम बहुत अलग समय में जी रहे हैं। यह वह दौर है जब भविष्यवाणी के मुताबिक सच्ची उपासना को बहाल किया गया है। परमेश्वर वादा करता है कि वह कभी शैतान को अपने बहाल किए लोगों को भ्रष्ट नहीं करने देगा। (यशायाह 2:1, 2; 54:17) माना कि मसीही मंडली में हमें पाप और असिद्धताओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन क्या हमें दूसरों की खामियाँ देखकर सभाओं में जाना बंद कर देना चाहिए या प्राचीनों की नुक्ताचीनी करनी चाहिए? हरगिज़ नहीं! इसके बजाय, हम मंडली में अगुवाई लेनेवाले भाइयों को दिल से सहयोग देते हैं। यहोवा की आज्ञा मानते हुए हम मसीही सभाओं और सम्मेलनों में हाज़िर होते हैं और वहाँ बाइबल से मिलनेवाली सलाह पर चलते हैं।—इब्रानियों 10:24, 25; 13:17.
21. जब यीशु पर इंसानों ने परमेश्वर की आज्ञा तोड़ने का दबाव डाला, तो उसने क्या किया? इस तरह उसने हमारे लिए क्या मिसाल रखी?
21 यहोवा की आज्ञा मानने में यीशु का इरादा इतना पक्का था कि उसने किसी को भी, अपने दोस्तों को भी यह इरादा कमज़ोर करने नहीं दिया। मिसाल के लिए, प्रेषित पतरस ने अपने मालिक को समझाने की कोशिश की कि उसके लिए दुख सहना और मरना ज़रूरी नहीं। भले ही पतरस ने नेक इरादे से यीशु को खुद पर दया करने की सलाह दी, मगर उसकी सलाह गलत थी। इसलिए यीशु ने सख्ती से उसकी बात ठुकरा दी। (मत्ती 16:21-23) आज मसीह के चेलों को भी अकसर ऐसे रिश्तेदारों का सामना करना पड़ता है, जो शायद उनका भला चाहने के लिए उन्हें परमेश्वर के नियमों और सिद्धांतों को मानने से रोकें। यीशु के पहली सदी के चेलों की तरह, हमारा भी यही कहना है कि “इंसानों के बजाय परमेश्वर को अपना राजा जानकर उसकी आज्ञा मानना ही हमारा कर्तव्य है।”—प्रेषितों 5:29.
मसीह के जैसे आज्ञाकारी बनने की आशीषें
22. यीशु ने किस सवाल का जवाब दिया? और कैसे?
22 शैतान ने यीशु की सबसे बड़ी परीक्षा तब ली जब उसे मौत का सामना करना पड़ा। जिस दिन यीशु ने दम तोड़ा, उस दिन उसने “आज्ञा माननी सीखी।” उसने अपने पिता की मरज़ी पूरी की, न कि अपनी। (लूका 22:42) वह इस परीक्षा में खरा उतरा और उसने हमारे लिए एक सिद्ध मिसाल कायम की। (1 तीमुथियुस 3:16) इस तरह यीशु ने उस सवाल का जवाब दिया जो शैतान ने बरसों पहले उठाया था। वह सवाल था: क्या एक सिद्ध इंसान आज़माइशों के बावजूद यहोवा का आज्ञाकारी रह सकता है? आदम और हव्वा ने तो यहोवा की आज्ञा नहीं मानी। लेकिन फिर यीशु आया और उसने अपने जीने के तरीके से दिखाया कि शैतान झूठा है। यहोवा की सबसे महान सृष्टि, यीशु दुख झेलकर और मौत सहकर भी यहोवा का आज्ञाकारी रहा।
23-25. (क) आज्ञा मानना का खराई से क्या नाता है? उदाहरण देकर समझाइए। (ख) अगले अध्याय का विषय क्या है?
23 यहोवा की आज्ञा मानने से हम दिखा रहे होंगे कि हम अपनी खराई बनाए रखते हैं यानी तन-मन से यहोवा की भक्ति करते हैं। यीशु ने यहोवा की आज्ञा मानी, इसलिए वह अपनी खराई बनाए रख सका और पूरी मानवजाति को फायदा पहुँचा सका। (रोमियों 5:19) यहोवा ने यीशु को बेशुमार आशीषें दीं। अगर हम भी अपने मालिक यीशु का कहा मानें, तो यहोवा हमें भी ढेरों आशीषें देगा। मसीह की आज्ञा मानने से हमें “हमेशा का उद्धार” मिलेगा।—इब्रानियों 5:9.
24 इसके अलावा, खराई बनाए रखना अपने-आप में एक आशीष है। नीतिवचन 10:9 कहता है: “जो खराई से चलता है वह निडर चलता है।” अगर खराई की तुलना एक आलीशान घर से की जाए, तो हर मामले में आज्ञा मानने की तुलना उस घर की एक-एक ईंट से की जा सकती है। हमें शायद लगे कि एक अकेली ईंट का कोई मोल नहीं, लेकिन एक-एक ईंट को जोड़कर ही पूरा घर बनता है। उसी तरह, जब हम दिन-ब-दिन और साल-दर-साल आज्ञाकारी रहते हैं, तो हम मानो अपनी खराई का खूबसूरत घर खड़ा कर रहे हैं।
25 लंबे समय तक आज्ञा मानते रहने में एक और गुण शामिल है। और वह है, धीरज का गुण। यीशु की ज़िंदगी का यह पहलू हमारे अगले अध्याय का विषय है।