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अध्याय 4

“देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है”

“देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है”

“मैं वही हूँ”

1-3. यीशु ने किस खतरे का सामना किया? ऐसे में उसने क्या किया?

 यीशु को ढूँढ़ने के लिए एक भीड़ निकल पड़ी है। इनमें कई सैनिक भी हैं, जो हाथों में तलवारें और सोंटे लिए हुए चले आ रहे हैं। उनका एक ही मकसद है, यीशु को गिरफ्तार करना। वे यरूशलेम की अँधेरी सड़कों से गुज़रते हैं और किद्रोन घाटी पार कर जैतून पहाड़ की तरफ जाते हैं। पूर्णिमा की रात है, फिर भी ये लोग मशालें और दीपक लिए हुए हैं। क्या इसलिए कि चाँद बादलों से घिरा हुआ है? या क्या इसलिए कि उन्हें लगता है कि यीशु कहीं छिपा होगा? वजह चाहे जो भी हो, लेकिन एक बात पक्की है: अगर यीशु को कोई डरपोक समझ रहा है तो वह उसे अच्छी तरह नहीं जानता।

2 यीशु आनेवाले खतरे को पहले ही भाँप चुका है। मगर डर के मारे भाग जाने के बजाय, वह वहीं भीड़ का इंतज़ार करता है। तभी भीड़ यीशु को आ घेरती है। भीड़ को यीशु के पास लानेवाला कोई और नहीं बल्कि यहूदा है, जो एक समय पर उसका भरोसेमंद दोस्त था। वह यीशु के पास आता है और नमस्कार कह उसे चूमता है, जिससे सैनिकों को पता चल जाए कि यही यीशु है। कितनी गिरी हुई हरकत! लेकिन यीशु के चेहरे पर शिकन तक नहीं आती। वह भीड़ के सामने आता है और पूछता है: “तुम किसे ढूँढ़ रहे हो?” भीड़ जवाब देती है: “यीशु नासरी को।”

3 हथियारों से लैस इतनी बड़ी भीड़ के सामने ज़्यादातर लोगों की तो हवाइयाँ उड़ जाएँगी। शायद भीड़ को भी लगा हो कि यीशु उन्हें देखकर थर-थर काँपने लगेगा। लेकिन यीशु डरा नहीं। वह वहाँ से न तो भागता है, न ही उतावली में कोई झूठ बोल बैठता है। इसके बजाय, वह उनके मुँह पर कहता है: “मैं वही हूँ।” वह इतना शांत और बेखौफ है कि लोग हक्के-बक्के रह जाते हैं। वे पीछे हट जाते हैं और ज़मीन पर गिर पड़ते हैं।—यूहन्‍ना 18:1-6; मत्ती 26:45-50; मरकुस 14:41-46.

4-6. (क) परमेश्‍वर के बेटे की तुलना किससे की गयी है? और क्यों? (ख) यीशु ने किन तीन तरीकों में हिम्मत दिखायी?

4 इतना बड़ा खतरा आने पर यीशु ज़रा-भी नहीं घबराया और न ही उसने अपना आपा खोया। क्यों? क्योंकि उसमें साहस था। यह वह गुण है जो एक अगुवे में होना निहायत ज़रूरी है और जिस अगुवे में यह गुण है वह लोगों का दिल जीत लेता है। यह गुण दिखाने में आज तक यीशु की टक्कर का कोई नहीं आया, उससे बढ़कर साहस दिखाना तो दूर की बात है। पिछले अध्याय में हमने सीखा कि यीशु कितना नम्र और दीन है। इसलिए उसे “मेम्ना” कहा गया है। (यूहन्‍ना 1:29) लेकिन यीशु की हिम्मत की वजह से उसका वर्णन एक और तरीके से किया गया है जो मेम्ने से बिलकुल अलग है। परमेश्‍वर के इस बेटे के बारे में बाइबल कहती है: “देख! यह यहूदा के गोत्र का . . . शेर है।”—प्रकाशितवाक्य 5:5.

5 शेर को अकसर साहस का प्रतीक माना जाता है। क्या आपका कभी किसी शेर से आमना-सामना हुआ है? अगर हुआ भी होगा तो शायद चिड़ियाघर में, जहाँ वह पिंजरे में बंद होता है। फिर भी, जब आपने इस विशाल और ताकतवर जानवर को देखा और उसने भी आपको घूरकर देखा, तो ज़रूर आपके रोंगटे खड़े हो गए होंगे। आप सोच भी नहीं सकते कि इस जानवर को किसी बात का डर हो सकता है। बाइबल बताती है कि “सिंह . . . सब पशुओं में पराक्रमी है, और किसी के डर से नहीं हटता।” (नीतिवचन 30:30) मसीह में ऐसा ही साहस और हिम्मत है।

6 आइए अब हम चर्चा करें कि कैसे यीशु ने इन तीन तरीकों में शेर जैसा साहस दिखाया: सच्चाई की पैरवी करने, न्याय का साथ देने और विरोध का सामना करने में। हम यह भी देखेंगे कि हम यीशु की तरह हिम्मत कैसे दिखा सकते हैं, फिर चाहे हम स्वभाव से साहसी हों या न हों।

उसने हिम्मत के साथ सच्चाई की पैरवी की

7-9. (क) यीशु जब 12 साल का था तो क्या हुआ? वह जिस माहौल में था, उसमें अगर आप होते, तो सहमा हुआ महसूस क्यों करते? (ख) मंदिर में शिक्षकों से बात करते वक्‍त, यीशु ने किस तरह साहस दिखाया?

7 दुनिया पर शैतान यानी ‘झूठ के पिता’ की हुकूमत है। इसलिए सच्चाई के पक्ष में खड़े होने के लिए अकसर साहस की ज़रूरत होती है। (यूहन्‍ना 8:44; 14:30) यीशु जब छोटा था तब से उसने सच्चाई की पैरवी की। उस घटना को लीजिए जब वह 12 साल का था और यरूशलेम में अपने माता-पिता के साथ फसह का त्योहार मनाने आया था। त्योहार के बाद वह यरूशलेम में ही रह गया। यूसुफ और मरियम ने तीन दिन तक उसे कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ़ा। आखिरकार, यीशु उन्हें मंदिर में मिला। वह वहाँ क्या कर रहा था? “वह शिक्षकों के बीच बैठा उनकी सुन रहा था और उनसे सवाल कर रहा था।” (लूका 2:41-50) ज़रा उस माहौल पर गौर कीजिए जिसमें यह बातचीत चल रही थी।

8 इतिहासकारों का कहना है कि उस ज़माने के कुछ जाने-माने धर्मगुरुओं का दस्तूर था कि वे त्योहारों के बाद मंदिर के एक बड़े आँगन में बैठकर शिक्षा देते थे। लोग आकर उनके पैरों के पास बैठते थे और उनसे सवाल पूछते थे। ये शिक्षक बड़े विद्वान थे। उन्हें मूसा के कानून का बहुत ज्ञान था। साथ ही, इंसान के बनाए ढेरों पेचीदा कानून और परंपराओं से भी वे अच्छी तरह वाकिफ थे। अगर आप उन बड़े-बड़े विद्वानों के बीच बैठे होते तो कैसा महसूस करते? सहमे हुए से? ऐसा महसूस करना लाज़िमी है। और अगर आप सिर्फ 12 साल के होते तब कैसा महसूस करते? अकसर देखा जाता है कि कई जवान शर्मीले होते हैं। (यिर्मयाह 1:6) कुछ जवान तो पूरी-पूरी कोशिश करते हैं कि स्कूल में टीचरों का ध्यान उन पर न जाए। वे डरते हैं कि कहीं टीचर उन्हें कुछ कहने या करने के लिए न बुला ले और उन्हें सबके सामने शर्मिंदा होना पड़े। या वे टीचरों के चहेते न बन जाएँ जिससे उनका अच्छा-खासा मज़ाक उड़ाया जाए।

9 लेकिन ज़रा यीशु को देखिए। वह उन विद्वानों के बीच बैठा है और बेखौफ उनसे गहरे सवाल पूछ रहा है। मगर वह सिर्फ सवाल ही नहीं कर रहा है। बाइबल बताती है कि “जितने लोग उसकी सुन रहे थे, वे सभी उसकी समझ और उसके जवाबों से रह-रहकर दंग हो रहे थे।” (लूका 2:47) बाइबल यह तो नहीं बताती कि उस मौके पर यीशु ने क्या कहा। लेकिन हम यकीन रख सकते हैं कि उसने उन झूठी शिक्षाओं को नहीं दोहराया होगा जो धर्मगुरुओं को बेहद पसंद थीं। (1 पतरस 2:22) इसके बजाय, उसने परमेश्‍वर के वचन से सच्चाइयाँ बतायीं। और सुननेवाले यह देखकर दंग रह गए कि एक 12 साल का लड़का भी इतनी समझ और हिम्मत के साथ बोल सकता है।

कई मसीही जवान हिम्मत से अपने विश्‍वास के बारे में दूसरों को बताते हैं

10. आज जवान मसीही, यीशु के जैसा साहस कैसे दिखाते हैं?

10 आज बहुत-से जवान मसीही, यीशु के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं। माना कि वे यीशु के जैसे सिद्ध नहीं हैं। लेकिन उसकी तरह वे भी छोटी उम्र से ही सच्चाई के पक्ष में खड़े होते हैं। स्कूल में या अपने मुहल्ले में, वे सोच-समझकर लोगों से सवाल पूछते, उनकी सुनते और फिर आदर के साथ उन्हें गवाही देते हैं। (1 पतरस 3:15) इन जवानों की मेहनत की वजह से इनकी क्लास के बच्चों, टीचरों और पड़ोसियों को मसीह का चेला बनने में मदद मिली है। उनकी दिलेरी देख यहोवा का दिल गद्‌गद्‌ हो उठता है! उसके वचन में ऐसे जवानों को ओस की बूँदें कहा गया है जो न सिर्फ बड़ी तादाद में होती हैं बल्कि खुशियाँ और ताज़गी भी बिखेरती हैं।—भजन 110:3.

11, 12. बड़े होने पर, यीशु ने सच्चाई की पैरवी करने में हिम्मत कैसे दिखायी?

11 जब यीशु बड़ा हुआ तब उसने सच्चाई की पैरवी करने में कई बार हिम्मत दिखायी। दरअसल उसकी सेवा की शुरूआत में ही एक ऐसी घटना घटी जो कई लोगों को दिल दहलानेवाली लग सकती है। यहोवा के सबसे ताकतवर और खतरनाक दुश्‍मन शैतान के साथ उसका आमना-सामना हुआ। उस वक्‍त यीशु शक्‍तिशाली प्रधान स्वर्गदूत नहीं बल्कि एक मामूली इंसान था। मगर उसने डटकर शैतान का विरोध किया और शास्त्र का गलत अर्थ निकालने के लिए शैतान को मुँहतोड़ जवाब दिया। आखिर में यीशु ने बड़ी निडरता से कहा: “दूर हो जा शैतान!”—मत्ती 4:2-11.

12 इस तरह यीशु ने दिखाया कि जो उसके पिता के वचन को तोड़-मरोड़कर पेश करेगा या उसका गलत अर्थ निकालेगा, यीशु उसका बेधड़क विरोध करेगा। आज की तरह उसके ज़माने में धर्म के नाम पर पाखंड होना बहुत आम था। उसने अपने दिनों के धर्मगुरुओं से कहा: “तुम अपनी ठहरायी हुई परंपरा की वजह से परमेश्‍वर के वचन को रद्द कर देते हो।” (मरकुस 7:13) लोग इन धर्मगुरुओं को सिर आँखों पर बिठाते थे, मगर यीशु ने पूरी दिलेरी से उन्हें धिक्कारते हुए अंधे अगुवे और कपटी कहा। a (मत्ती 23:13, 16) यीशु ने अपनी सेवा में साहस का जो नमूना रखा, उस पर हम कैसे चल सकते हैं?

13. यीशु के नक्शे-कदम पर चलते वक्‍त हमें क्या याद रखना चाहिए? फिर भी हमें क्या सम्मान मिला है?

13 बेशक हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे पास न तो यीशु की तरह लोगों का दिल पढ़ने की काबिलीयत है, न ही उन्हें धिक्कारने का अधिकार। लेकिन हम उसकी तरह निडरता से सच्चाई की पैरवी ज़रूर कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, शैतान ने झूठी शिक्षाओं से इस दुनिया को अंधकार में रखा है। वह परमेश्‍वर, उसके मकसदों और उसके वचन के बारे में झूठ फैलाता है। जब हम इन झूठी शिक्षाओं का परदाफाश करते हैं तो हम मानो अंधकार में रौशनी चमकाते हैं। (मत्ती 5:14; प्रकाशितवाक्य 12:9, 10) हम लोगों को उन झूठी शिक्षाओं से आज़ाद होने में मदद देते हैं जो उनके दिल में दहशत बिठातीं और उन्हें परमेश्‍वर से दूर ले जाती हैं। वाकई, यीशु के इस वादे को सच होते देखने का हमें क्या ही सम्मान मिला है: “सच्चाई तुम्हें आज़ाद करेगी।”—यूहन्‍ना 8:32.

उसने निडरता से न्याय का साथ दिया

14, 15. (क) एक तरीका बताइए जिससे यीशु ने साफ-साफ दिखाया कि “सच्चा न्याय क्या होता है।” (ख) सामरी स्त्री से बात करते वक्‍त यीशु ने किस भेदभाव को नहीं माना?

14 बाइबल में भविष्यवाणी की गयी है कि मसीहा राष्ट्रों को साफ-साफ दिखाएगा कि “सच्चा न्याय क्या होता है।” (मत्ती 12:18; यशायाह 42:1) धरती पर रहते वक्‍त यीशु ने यह भविष्यवाणी पूरी की। वह लोगों के साथ हमेशा न्याय से और बिना किसी पक्षपात के पेश आया। इस तरह उसने बड़ी हिम्मत दिखायी। मिसाल के लिए, उसके ज़माने में नफरत और भेदभाव का बोलबाला था। मगर यीशु ने इस गलत रवैए को नहीं अपनाया।

15 जब यीशु सूखार शहर के कुँए के पास एक सामरी स्त्री से बात कर रहा था तो उसके चेले हैरान रह गए। क्यों? क्योंकि उन दिनों, सामरी यहूदियों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे। नफरत का यह सिलसिला यीशु के धरती पर आने से बहुत पहले शुरू हुआ था। (एज्रा 4:4) इसके अलावा कुछ रब्बी, औरतों को पैरों की जूती समझते थे। रब्बियों के बनाए नियम-कानून, आगे चलकर पोथियों में लिखे गए। उनमें से एक नियम के तहत आदमियों का औरतों से बात करना सख्त मना था। उनके नियमों में इस बात का भी इशारा मिलता है कि एक स्त्री इस लायक नहीं कि उसे परमेश्‍वर का कानून सिखाया जाए। स्त्रियों को, खासकर सामरी स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता था। लेकिन यीशु ने इस तरह के भेदभाव को नहीं माना। उसने खुलेआम उस सामरी स्त्री को सिखाया (जो उस वक्‍त एक अनैतिक ज़िंदगी जी रही थी) और यह भी बताया कि वह वादा किया गया मसीहा है।—यूहन्‍ना 4:5-27.

16. भेदभाव के मामले में लोगों से अलग नज़रिया रखने के लिए मसीहियों को हिम्मत की ज़रूरत क्यों है?

16 क्या आपने कभी खुद को ऐसे लोगों के बीच पाया है जो कुछ इसी तरह का भेदभाव करते हैं? शायद वे किसी दूसरी जाति या राष्ट्र के लोगों के बारे में बेहूदा मज़ाक करें, विपरीत लिंग के लोगों के बारे में इज़्ज़त से बात न करें और उन लोगों को तुच्छ समझें जो गरीब हैं या जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं। मसीह के चेले इस तरह के नज़रिए को धिक्कारते हैं और अगर उनके मन में ज़रा-भी भेदभाव है, तो वे उसे उखाड़ फेंकने की पूरी कोशिश करते हैं। (प्रेषितों 10:34) वाकई, भेदभाव न करने के लिए हमारे अंदर हिम्मत होना ज़रूरी है।

17. यीशु ने मंदिर में क्या किया? और क्यों?

17 साहस ने यीशु को उकसाया कि वह परमेश्‍वर की उपासना और उसके लोगों की शुद्धता को बनाए रखे। अपनी सेवा की शुरूआत में जब यीशु यरूशलेम के मंदिर गया, तो यह देखकर दंग रह गया कि सौदागरों और पैसा बदलनेवालों ने परमेश्‍वर के घर को बाज़ार बना दिया है। उसका खून खौल उठा और उसने उन लालची लोगों को उनके सामान समेत वहाँ से खदेड़ डाला। (यूहन्‍ना 2:13-17) कुछ ऐसा ही काम उसने अपनी सेवा के आखिर में भी किया। (मरकुस 11:15-18) हालाँकि ऐसा कर कुछ लोग उसके जानी दुश्‍मन बन बैठे, मगर यीशु उनके डर से पीछे नहीं हटा। क्यों? क्योंकि बचपन से ही उसने मंदिर को अपने पिता का घर कहा और वह दिल से यह मानता भी था। (लूका 2:49) मंदिर में की जानेवाली शुद्ध उपासना को अशुद्ध करना सरासर अन्याय था और यीशु यह अन्याय होता देख चुप नहीं बैठ सका। उसके जोश ने उसे सही काम करने की हिम्मत दी।

18. मंडली की शुद्धता बनाए रखने में आज मसीही किस तरह साहस दिखा सकते हैं?

18 उसी तरह आज भी, मसीह के चेलों को सच्ची उपासना और परमेश्‍वर के लोगों की शुद्धता की गहरी चिंता है। अगर वे देखते हैं कि कोई संगी मसीही गंभीर पाप कर रहा है, तो वे आँख नहीं फेर लेते। वे हिम्मत के साथ या तो उस मसीही से या प्राचीनों से बात करते हैं। (1 कुरिंथियों 1:11) प्राचीन उन लोगों की मदद कर सकते हैं जिनका रिश्‍ता परमेश्‍वर के साथ कमज़ोर पड़ गया है। इतना ही नहीं, वे यहोवा की मंडली को शुद्ध बनाए रखने के लिए ज़रूरी कदम भी उठा सकते हैं।—याकूब 5:14, 15.

19, 20. (क) यीशु के दिनों में चारों तरफ कैसा अन्याय हो रहा था? यीशु पर क्या दबाव आया? (ख) मसीह के चेले क्यों राजनीति में हिस्सा नहीं लेते और हिंसा से दूर रहते हैं? ऐसा करने का उन्हें क्या इनाम मिला है?

19 तो क्या हम यह मान लें कि यीशु दुनिया में होनेवाली हर नाइंसाफी के खिलाफ लड़ता रहा? इसमें कोई शक नहीं कि उसके चारों तरफ अन्याय हो रहा था। उसके अपने देश पर पराए देश का कब्ज़ा था। रोमी अपनी शक्‍तिशाली सेना तैनात कर यहूदियों पर ज़ुल्म ढाते, उन पर भारी कर लगाते और उनके धार्मिक रिवाज़ों में भी दखलअंदाज़ी करते। तभी इसमें कोई हैरत नहीं कि बहुत-से यहूदी चाहते थे कि यीशु सत्ता में आ जाए। (यूहन्‍ना 6:14, 15) इस मामले में भी यीशु को अपने साहस का सबूत देना पड़ा।

20 यीशु ने समझाया कि उसका राज इस दुनिया का नहीं है। अपने उदाहरण से उसने चेलों को सिखाया कि उन्हें राजनीतिक झगड़ों में नहीं उलझना चाहिए। बल्कि अपना पूरा ध्यान परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी सुनाने में लगा देना चाहिए। (यूहन्‍ना 17:16; 18:36) निष्पक्ष रहने के मामले में यीशु ने एक ज़बरदस्त सबक तब सिखाया जब भीड़ उसे गिरफ्तार करने आयी। उस वक्‍त पतरस ने आव देखा न ताव, अपनी तलवार चला दी और एक आदमी को घायल कर दिया। शायद हमें पतरस का ऐसा करना सही लगे। अगर कभी हिंसा को जायज़ माना जाता, तो उस रात माना जाता जब परमेश्‍वर के निर्दोष बेटे को पकड़वाया जा रहा था। लेकिन यीशु ने जो सबक दिया वह आज भी उसके चेलों पर लागू होता है। उसने कहा: “अपनी तलवार म्यान में डाल ले, इसलिए कि वे सभी जो तलवार उठाते हैं, तलवार ही से नाश होंगे।” (मत्ती 26:51-54) मसीह के चेलों को ऐसी शांति बनाए रखने के लिए, उस वक्‍त भी हिम्मत की ज़रूरत थी और आज भी है। अपनी निष्पक्षता की बदौलत उन्होंने युद्धों, हत्याकांड, दंगे-फसादों वगैरह में हिस्सा न लेकर एक बेदाग रिकॉर्ड कायम किया है। यह बढ़िया रिकॉर्ड उनके साहस का इनाम है।

उसने साहस के साथ विरोध का सामना किया

21, 22. (क) अपनी ज़िंदगी की सबसे कठिन परीक्षा का सामना करने से पहले यीशु को क्या मदद मिली? (ख) यीशु ने मरते दम तक साहस कैसे दिखाया?

21 यहोवा के बेटे को पहले से पता था कि धरती पर उसे कड़े-से-कड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा। (यशायाह 50:4-7) उसे कई बार जान से मार डालने की कोशिश की गयी। ऐसी ही एक कोशिश आखिरकार तब कामयाब हुई जब उसे गिरफ्तार किया गया, जिसके बारे में हमने इस अध्याय की शुरूआत में देखा था। इन खतरों का सामना करते वक्‍त यीशु ने अपना साहस कैसे बरकरार रखा? इसके लिए हमें जानना होगा कि भीड़ के आने से पहले वह क्या कर रहा था। वह सच्चे दिल से यहोवा से प्रार्थना कर रहा था। यहोवा ने क्या किया? बाइबल बताती है कि यीशु की “सुनी गयी।” (इब्रानियों 5:7) जी हाँ, यहोवा ने एक स्वर्गदूत भेजा ताकि वह उसके बहादुर बेटे की हिम्मत बँधा सके।—लूका 22:42, 43.

22 हिम्मत पाने के थोड़े ही समय बाद, यीशु ने अपने प्रेषितों से कहा: “उठो, आओ चलें।” (मत्ती 26:46) ज़रा इन शब्दों में उसकी जाँबाज़ी तो देखिए! उसे पता था कि वह भीड़ से गुज़ारिश करेगा कि उसके दोस्तों को जाने दे, उसके दोस्त उसे छोड़ वहाँ से भाग निकलेंगे और उसे अपनी ज़िंदगी की सबसे कठिन परीक्षा का सामना अकेले ही करना होगा। फिर भी उसने कहा, “आओ चलें।” उसे अकेले क्या-क्या नहीं सहना पड़ा। बेकसूर होते हुए भी उस पर गैर-कानूनी मुकदमा चलाया गया, उसकी खिल्ली उड़ायी गयी, उसे तड़पाया गया और एक दर्दनाक मौत दी गयी। इन सबके बावजूद उसका साहस नहीं टूटा।

23. यीशु ने जिस तरह खतरों और मौत का सामना किया, उसका यह मतलब नहीं कि उसे अपनी जान की परवाह नहीं थी। समझाइए क्यों?

23 क्या इसका मतलब यीशु को अपनी जान की कोई परवाह नहीं थी? ऐसी बात नहीं है। अपनी जान खाहमखाह जोखिम में डालने का सच्ची हिम्मत दिखाने से कोई नाता नहीं है। दरअसल, यीशु ने अपने चेलों को सतर्क रहना और खतरे को आते देख उससे बचना सिखाया ताकि वे परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी करते रहें। (मत्ती 4:12; 10:16) लेकिन यीशु जानता था कि उसके मामले में खतरे को टाला नहीं जा सकता क्योंकि परमेश्‍वर की यही मरज़ी है कि वह अपनी जान दे दे। यीशु हर हाल में अपनी वफादारी बनाए रखना चाहता था। और ऐसा करने का सिर्फ एक ही रास्ता था कि वह आगे बढ़कर हिम्मत के साथ आज़माइश का सामना करे।

यहोवा के साक्षियों ने ज़ुल्म सहने पर भी हिम्मत दिखायी

24. हम क्यों यकीन रख सकते हैं कि चाहे कोई भी आज़माइश आए, हम हिम्मत से काम ले सकेंगे?

24 यीशु के चेलों ने न जाने कितनी बार अपने गुरू के नक्शे-कदम पर चलते हुए साहस दिखाया है। ठट्ठा, ज़ुल्म, गिरफ्तारी, कैद, यातनाएँ, यहाँ तक कि मौत भी उनमें से कइयों को अपने विश्‍वास से हिला न सकी। असिद्ध इंसानों को इतना साहस कहाँ से मिलता है? यह अपने आप तो नहीं आ सकता! जैसे यीशु को परमेश्‍वर से मदद मिली थी वैसे ही उसके चेलों को भी मदद देनेवाला परमेश्‍वर है। (फिलिप्पियों 4:13) इसलिए इस बात से कभी मत डरिए कि भविष्य में क्या होगा। ठान लीजिए कि आप अपनी खराई बनाए रखेंगे और यहोवा आपको वह हिम्मत देगा जिसकी आपको ज़रूरत है। हमारे अगुवे यीशु की मिसाल से हौसला पाते रहिए, जिसने कहा: “हिम्मत रखो! मैंने इस दुनिया पर जीत हासिल की है।”—यूहन्‍ना 16:33.

a इतिहासकारों ने गौर किया कि रब्बियों की कब्रों को उतना ही आदर और सम्मान दिया जाता था, जितना कि भविष्यवक्‍ताओं और कुलपिताओं की कब्रों को दिया जाता था।