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अध्याय 7

धीरज धरने में यीशु की मिसाल पर गौर कीजिए

धीरज धरने में यीशु की मिसाल पर गौर कीजिए

1-3. (क) गतसमनी के बाग में यीशु किस भयंकर वेदना से गुज़र रहा था और इसकी वजह क्या थी? (ख) धीरज धरने के मामले में यीशु ने कैसी मिसाल रखी और इससे क्या सवाल खड़े होते हैं?

 यीशु के लिए यह पीड़ा सहने से बाहर थी। वह जिस मानसिक वेदना से गुज़र रहा था, वैसी उसने पहले कभी नहीं सही थी। कुछ ही घंटों में उसकी मौत होनेवाली थी। इस वक्‍त वह अपने प्रेषितों के साथ गतसमनी के बाग में आया, जो उनकी जानी-पहचानी जगह थी। वह अकसर यहाँ उनके साथ आता था। लेकिन इस रात वह कुछ वक्‍त अकेले बिताना चाहता था। उसने अपने प्रेषितों को वहीं छोड़ दिया और बाग में काफी अंदर चला गया। फिर वह घुटने टेककर प्रार्थना करने लगा। उसने इस कदर गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की और वह इतनी पीड़ा से गुज़रा कि उसका पसीना ‘खून की बूँदें बनकर ज़मीन पर गिरने’ लगा।—लूका 22:39-44.

2 यीशु क्यों इतना परेशान था? वह अच्छी तरह जानता था कि जल्द ही उसे बुरी तरह तड़पाया जाएगा, मगर यह उसके परेशान होने की वजह नहीं थी। कुछ और अहम बातें थीं जिनकी वजह से वह इतना परेशान था। उसे अपने पिता के नाम की चिंता खाए जा रही थी। वह यह भी जानता था कि उसके वफादार रहने पर ही पूरी मानवजाति का भविष्य टिका हुआ है। यीशु जानता था कि धीरज धरना बहुत ज़रूरी है। अगर उससे चूक हो गयी तो यहोवा के नाम पर बहुत बड़ा कलंक लग जाएगा। लेकिन यीशु नहीं चूका। धीरज धरने के मामले में उसने पूरी मानवजाति के सामने सबसे बेहतरीन मिसाल रखी। उसी दिन अपनी आखिरी साँस लेने से पहले वह ज़ोर से चिल्ला उठा: “पूरा हुआ!”—यूहन्‍ना 19:30.

3 बाइबल हमसे गुज़ारिश करती है: ‘यीशु पर ध्यान दो और गौर करो’ जिसने धीरज धरा। (इब्रानियों 12:3) इससे कुछ ज़रूरी सवाल खड़े होते हैं: यीशु ने कौन-सी परीक्षाएँ सहीं? इस दौरान किस बात ने उसे धीरज धरने में मदद दी? हम कैसे उसकी मिसाल पर चल सकते हैं? इन सवालों के जवाब जानने से पहले आइए देखें कि धीरज धरने में क्या शामिल है।

धीरज क्या है?

4, 5. (क) “धीरज” धरने का मतलब क्या है? (ख) हम कैसे बता सकते हैं कि धीरज धरने का मतलब सिर्फ मुश्‍किल सहना नहीं है?

4 समय-समय पर हम सभी “तरह-तरह की परीक्षाओं की वजह से दुःख” झेलते हैं। (1 पतरस 1:6) क्या सिर्फ परीक्षाओं से गुज़रने का मतलब है कि हम धीरज धर रहे हैं? नहीं। जिस यूनानी संज्ञा का अनुवाद “धीरज” किया गया है, उसका मतलब है “मुश्‍किलों के दौर को सहने या उसका सामना करने की काबिलीयत।” बाइबल लेखकों ने जिस धीरज की बात की है उसके बारे में एक विद्वान ने कहा: “धीरज धरने का मतलब है किसी भी मुसीबत को सहना, लेकिन हिम्मत हारते हुए नहीं बल्कि साहस के साथ मुस्कराते हुए, अच्छे कल की आशा रखते हुए। . . . यह गुण आदमी को मुसीबत के दौर में डटे रहने और बिना डरे उसका सामना करने की ताकत देता है। यह ऐसा गुण है जिससे इंसान बड़े-से-बड़ा संकट भी आसानी से पार कर जाता है, क्योंकि वह सिर्फ अभी की तड़प या तकलीफ नहीं देखता बल्कि उसकी नज़रें बाद में मिलनेवाले इनाम पर टिकी रहती हैं।”

5 इससे साफ हो जाता है कि धीरज धरने का मतलब यह नहीं है कि जिस मुसीबत से हम बच नहीं सकते, उसे सहते रहना। बाइबल के मुताबिक धीरज धरने में डटे रहना, सही रवैया रखना और परीक्षा की घड़ी में आशा रखना शामिल है। एक उदाहरण पर गौर कीजिए: दो आदमियों को अलग-अलग कारणों से जेल में डाल दिया जाता है। पहला एक अपराधी है जो अपने जुर्म की सज़ा कुड़कुड़ाकर काट रहा है और उसे अपने हालात के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन दूसरा एक सच्चा मसीही है जो अपनी वफादारी की वजह से जेल में है। वह अपने इरादे पर अटल रहता है और अच्छा रवैया रखता है क्योंकि वह जानता है कि इस परीक्षा को सहकर वह अपना विश्‍वास दिखा पाएगा। जेल में बंद अपराधी को कोई भी धीरज धरने का अच्छा उदाहरण नहीं मानेगा। लेकिन दूसरी तरफ वह वफादार मसीही धीरज धरने में एक अच्छी मिसाल है।—याकूब 1:2-4.

6. हम धीरज का गुण कैसे पैदा कर सकते हैं?

6 अगर हम उद्धार पाना चाहते हैं तो हमें धीरज धरना होगा। (मत्ती 24:13) लेकिन यह गुण हमारे अंदर पैदाइशी नहीं होता। यह हमें पैदा करना होता है। यह हम कैसे कर सकते हैं? रोमियों 5:3 में लिखा है: “दुःख-तकलीफों से धीरज पैदा होता है।” जी हाँ, अगर हम वाकई अपने अंदर धीरज का गुण पैदा करना चाहते हैं तो हम उन परीक्षाओं से भाग नहीं सकते, जिनसे हमारे विश्‍वास की परख होती है। हमें उन परीक्षाओं का सामना करना ही होगा। जब हम हर दिन आनेवाली छोटी-बड़ी परीक्षाओं का सामना करते हैं तब हम धीरज धरना सीखते हैं। हर परीक्षा हमें अगली परीक्षा सहने के लिए मज़बूत करती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि हम अपनी ताकत से धीरज नहीं धर सकते। हम ‘उस शक्‍ति पर निर्भर रहते हैं जो परमेश्‍वर देता है।’ (1 पतरस 4:11) परीक्षाओं के दौरान अडिग बने रहने में यहोवा ने हमें सबसे बेहतरीन मदद दी है और वह मदद है उसके बेटे की मिसाल। आइए गौर करें कि यीशु ने कैसे हर आज़माइश में धीरज धरा।

यीशु ने क्या-क्या सहा

7, 8. धरती पर अपने जीवन के आखिरी वक्‍त यीशु ने क्या-क्या सहा?

7 धरती पर अपने जीवन के आखिरी वक्‍त यीशु ने एक-के-बाद-एक कई अत्याचार सहे। वह भयंकर मानसिक वेदना से तो गुज़र ही रहा था, लेकिन गौर कीजिए कि आखिरी रात उसे कितनी निराशा और ज़िल्लत सहनी पड़ी। उसके एक दोस्त ने उसे दगा दिया, उसके सबसे करीबी दोस्त उसे छोड़कर भाग गए। और-तो-और उस पर झूठा मुकदमा चलाया गया, जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत के सदस्यों ने उसका मज़ाक उड़ाया, उसके मुँह पर थूका और उसे घूँसे मारे। इतना सब सहकर भी उसने उफ तक नहीं की और धीरज धरे रहा।—मत्ती 26:46-49, 56, 59-68.

8 अपने जीवन के आखिरी कुछ घंटों में उसे बहुत ही भयंकर शारीरिक तकलीफें सहनी पड़ीं। उस पर कोड़े बरसाए गए, वह भी इतनी बुरी तरह से कि कहा जाता है: “जहाँ-जहाँ कोड़े की मार पड़ती, वहाँ से मांस फट जाता था। शरीर पर गहरी रेखाएँ बन जाती थीं और उनसे काफी सारा खून बहने लगता था।” उसे इस तरह सूली पर लटकाया गया जिससे वह “तिल-तिल, तड़प-तड़पकर मरे और उसे हद से ज़्यादा दर्द हो।” ज़रा सोचिए, जब उसके हाथों और पैरों में बड़े-बड़े कीले ठोके गए, तो वह दर्द के मारे किस कदर तड़प उठा होगा। (यूहन्‍ना 19:1, 16-18) उस सिहरन भरे दर्द का अंदाज़ा लगाने की कोशिश कीजिए जो यीशु को उस वक्‍त हुआ जब सूली को खड़ा किया गया और उसके शरीर का पूरा वज़न उन कीलों पर आ गया जिनसे उसे ठोका गया था और उसकी घायल पीठ सूली से रगड़ने लगी। उसने यह सारी तड़प सही, साथ ही वह वेदना भी जिसका ज़िक्र इस अध्याय की शुरूआत में किया गया है।

9. अपनी “यातना की सूली” उठाने और यीशु के पीछे चलते रहने में क्या शामिल है?

9 मसीह के चेले होने के नाते हमें क्या सहना पड़ सकता है? यीशु ने कहा: “अगर कोई मेरे पीछे आना चाहता है, तो वह . . . अपनी यातना की सूली उठाए और मेरे पीछे चलता रहे।” (मत्ती 16:24) यहाँ “यातना की सूली” का इस्तेमाल लाक्षणिक तौर पर किया गया है और इसका मतलब है दुख-तकलीफ या ज़िल्लत सहना, यहाँ तक कि मौत भी। यीशु के पीछे चलते रहना आसान नहीं है। हमारे मसीही स्तर दुनिया के स्तरों से बिलकुल अलग हैं। यह दुनिया हमसे नफरत करती है क्योंकि हम इसका भाग नहीं हैं। (यूहन्‍ना 15:18-20; 1 पतरस 4:4) फिर भी हम यातना की सूली उठाने के लिए तैयार हैं। जी हाँ, हम हर तरह की मुसीबत यहाँ तक कि मौत को गले लगाने के लिए तैयार हैं मगर हम अपने आदर्श यीशु के पीछे चलना कभी नहीं छोड़ेंगे।—2 तीमुथियुस 3:12.

10-12. (क) यह क्यों कहा जा सकता है कि इंसानों की असिद्धता की वजह से यीशु के धीरज की परीक्षा हुई? (ख) ऐसी कुछ परीक्षा की घड़ियाँ बताइए जिनमें यीशु को धीरज धरना पड़ा।

10 धरती पर सेवा के दौरान यीशु पर और भी कई परीक्षाएँ आयीं जिसकी वजह लोगों की असिद्धता थी। याद कीजिए वह “कुशल कारीगर” (NHT) था, जिसे यहोवा ने इस धरती और सभी जीवित प्राणियों की सृष्टि करने के लिए इस्तेमाल किया था। (नीतिवचन 8:22-31) इसलिए यीशु अच्छी तरह जानता था कि मानवजाति के लिए यहोवा का मकसद क्या है। इंसानों को परमेश्‍वर के गुण ज़ाहिर करने और सेहतमंद ज़िंदगी का मज़ा लेने के लिए बनाया गया था। (उत्पत्ति 1:26-28) जब यीशु धरती पर था तो उसने पाप के बुरे अंजामों को एक अलग नज़र से देखा। अब वह खुद एक इंसान था और वह इंसानों की भावनाओं को महसूस कर सकता था। जब उसने खुद अपनी आँखों से देखा कि इंसान उस सिद्धता से कोसों दूर चला गया है, जिस सिद्धता के साथ यहोवा ने आदम और हव्वा को बनाया था, तो उसका दिल रो पड़ा होगा! यह वाकई उसके धीरज की परीक्षा थी। लेकिन अब सवाल है कि क्या इंसानों की असिद्धता देखकर यीशु निराश हो गया और हिम्मत हार गया कि अब इंसानों के बचने की कोई आशा नहीं है? आइए देखते हैं।

11 यीशु की बातों पर यहूदी लोग बिलकुल ध्यान नहीं देते थे। यह देखकर यीशु को इतना दुख होता था कि एक बार तो वह सबके सामने रो पड़ा। लेकिन उनके इस रवैये की वजह से क्या उसके जोश में कोई कमी आयी या उसने प्रचार काम बंद कर दिया? नहीं। इसके बजाय “वह हर दिन मंदिर में सिखाता रहा।” (लूका 19:41-44, 47) वह फरीसियों के दिलों की कठोरता देखकर “बेहद दुःखी हुआ” क्योंकि वे इस ताक में थे कि वह सब्त के दिन फलाँ आदमी की बीमारी ठीक करेगा या नहीं। लेकिन क्या खुद को धर्मी दिखाने की कोशिश करनेवाले उन ढोंगियों की वजह से यीशु डर गया? बिलकुल नहीं! वह अपने इरादे पर अटल रहा और उसने बीच सभा-घर में उस आदमी को ठीक किया!—मरकुस 3:1-5.

12 यीशु के लिए अपने सबसे करीबी चेलों की कमज़ोरियों को बरदाश्‍त करना भी मुश्‍किल हुआ होगा। जैसा कि हमने तीसरे अध्याय में सीखा, उन्होंने बार-बार दिखाया कि वे दूसरों से बड़ा बनना चाहते हैं। (मत्ती 20:20-24; लूका 9:46) यीशु ने उन्हें कई बार समझाया कि उन्हें नम्र बनने की ज़रूरत है। (मत्ती 18:1-6; 20:25-28) फिर भी उन्होंने कोई खास बदलाव नहीं किया। यहाँ तक कि यीशु की आखिरी रात को भी चेलों में “गरमा-गरम बहस छिड़ गयी” कि उनमें सबसे बड़ा कौन है! (लूका 22:24) क्या यीशु ने यह सोचकर उम्मीद छोड़ दी कि अब कुछ नहीं हो सकता? नहीं, यीशु ने ऐसा नहीं किया। हमेशा की तरह इस वक्‍त भी उसने सब्र से काम लिया और उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा, बल्कि उनकी अच्छाइयों को देखता रहा। वह जानता था कि वे यहोवा से बहुत प्यार करते हैं और वाकई उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हैं।—लूका 22:25-27.

क्या विरोध की वजह से हम प्रचार में ठंडे पड़ जाएँगे या जोश के साथ प्रचार करते रहेंगे?

13. यीशु की तरह हमें भी किन परीक्षाओं का सामना करना पड़ सकता है?

13 यीशु जिन परीक्षाओं से गुज़रा, हमें भी शायद ऐसी ही कुछ परीक्षाओं का सामना करना पड़े। उदाहरण के लिए, प्रचार के दौरान हो सकता है कि हमारा सामना ऐसे लोगों से हो, जो राज संदेश का विरोध करते हैं या उसमें ज़रा भी दिलचस्पी नहीं लेते। क्या लोगों के बुरे रवैए की वजह से हम प्रचार में ठंडे पड़ जाएँगे या पूरे जोश के साथ प्रचार काम करते रहेंगे? (तीतुस 2:14) इसके अलावा हमारे मसीही भाई-बहनों की असिद्धता की वजह से भी हमें परीक्षा का सामना करना पड़ सकता है। बिना सोचे- समझे किए गए काम या कही बातें हमारी भावनाओं को ठेस पहुँचा सकती हैं। (नीतिवचन 12:18) क्या हम उनकी खामियों की वजह से हार मान लेंगे या उनकी खामियों को नज़रअंदाज़ करके उनमें अच्छाई ढूँढ़ेंगे?—कुलुस्सियों 3:13.

यीशु कैसे धीरज धर पाया

14. कौन-सी दो बातों ने यीशु को परीक्षाओं के दौर में अटल बने रहने में मदद दी?

14 किस बात ने यीशु को अटल बने रहने और अपमान, निराशा और तकलीफों के बावजूद अपनी खराई बनाए रखने में मदद दी? दो खास बातों ने यीशु को सँभाले रखा। सबसे पहली बात यह कि वह स्वर्ग की तरफ देखकर ‘धीरज देनेवाले परमेश्‍वर’ से बिनती करता था। (रोमियों 15:5) दूसरी बात, यीशु ने उस इनाम पर ध्यान लगाए रखा जो धीरज धरने के बाद उसे मिलनेवाला था। आइए एक-एक करके इन दोनों बातों पर गौर करें।

15, 16. (क) किस बात से पता चलता है कि धीरज धरने में यीशु खुद की ताकत पर निर्भर नहीं था? (ख) यीशु को अपने पिता पर क्या भरोसा था और क्यों?

15 हालाँकि यीशु परमेश्‍वर का सिद्ध बेटा था मगर परीक्षाओं को सहने में वह खुद की ताकत पर निर्भर नहीं रहा। इसके बजाय वह पूरी तरह स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता पर निर्भर रहा और मदद के लिए उससे प्रार्थना की। प्रेषित पौलुस ने लिखा: ‘मसीह ने ऊँची आवाज़ में पुकार-पुकारकर और आँसू बहा-बहाकर उससे गिड़गिड़ाकर मिन्‍नतें और बिनतियाँ कीं जो उसे मौत से बचा सकता था। और उसकी सुनी गयी क्योंकि वह परमेश्‍वर का डर मानता था।’ (इब्रानियों 5:7) ध्यान दीजिए यीशु ने सिर्फ बिनती ही नहीं की बल्कि गिड़गिड़ाकर मिन्‍नतें भी कीं। “गिड़गिड़ाकर मिन्‍नतें” करने का मतलब है दिल की गहराइयों से प्रार्थना करना। जी हाँ, एक तरह से कहें तो मदद की भीख माँगना। यहाँ शब्द “मिन्‍नतें” बहुवचन में है जिससे पता चलता है कि यीशु ने यहोवा से एक बार नहीं बल्कि कई बार गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की। गतसमनी के बाग में भी यीशु ने कई बार दिल से यहोवा से प्रार्थना की।—मत्ती 26:36-44.

16 यीशु को पूरा भरोसा था कि यहोवा उसकी मिन्‍नत ज़रूर सुनेगा, क्योंकि वह जानता था कि उसका पिता ‘प्रार्थना का सुननेवाला’ है। (भजन 65:2) धरती पर आने से पहले इस पहलौठे बेटे ने देखा होगा कि उसका पिता अपने वफादार सेवकों की प्रार्थनाओं का जवाब कैसे देता है। उदाहरण के लिए, इस बेटे ने स्वर्ग से देखा कि जब भविष्यवक्‍ता दानिय्येल ने दिल से प्रार्थना की, तो यहोवा ने उसकी प्रार्थना खत्म होने से पहले ही मदद के लिए एक स्वर्गदूत को भेजा। (दानिय्येल 9:20, 21) तो फिर यहोवा अपने प्यारे इकलौते बेटे की प्रार्थना का जवाब कैसे नहीं देता जिसने “ऊँची आवाज़ में पुकार-पुकारकर और आँसू बहा-बहाकर” प्रार्थना में परमेश्‍वर के सामने अपने दिल की सारी बातें कह दीं? यहोवा ने अपने प्यारे बेटे की पुकार सुनी और परीक्षा की घड़ी में उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए एक स्वर्गदूत भेजा।—लूका 22:43.

17. धीरज धरने के लिए हमें क्यों स्वर्ग की ओर ताकना चाहिए? हम ऐसा कैसे कर सकते हैं?

17 धीरज धरने के लिए हमें स्वर्ग की ओर ताकना चाहिए यानी अपने परमेश्‍वर से प्रार्थना करनी चाहिए जो “ताकत देता है।” (फिलिप्पियों 4:13) अगर परमेश्‍वर के सिद्ध बेटे ने यहोवा से मिन्‍नत करने की ज़रूरत महसूस की, तो सोचिए हमें मदद के लिए और भी कितनी प्रार्थना करने की ज़रूरत है! यीशु की तरह हमें भी यहोवा से बार-बार गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने की ज़रूरत पड़ सकती है। (मत्ती 7:7) हालाँकि हम यह उम्मीद नहीं करते कि यहोवा हमारी मदद के लिए स्वर्गदूत को भेजेगा, मगर इस बात का यकीन रख सकते हैं कि हमारा प्यारा परमेश्‍वर अपने वफादार मसीही की पुकार ज़रूर सुनेगा जो “रात-दिन मिन्‍नतों और प्रार्थनाओं” में लगा रहता है। (1 तीमुथियुस 5:5) हम पर कोई भी परीक्षा क्यों न आए, चाहें हम बीमार हों, हमारे किसी अज़ीज़ की मौत हो जाए या हमें विरोधियों के अत्याचार का सामना करना पड़े, इस तरह के हालात में अगर बुद्धि, हिम्मत और धीरज धरने में ताकत के लिए हम यहोवा से लगातार प्रार्थना करते रहें तो वह हमारी ज़रूर सुनेगा।—2 कुरिंथियों 4:7-11; याकूब 1:5.

धीरज धरने के लिए अगर हम गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करते रहें, तो यहोवा उनका जवाब ज़रूर देगा

18. यीशु ने किस तरह अपनी नज़र भविष्य पर टिकाए रखी?

18 दूसरी बात जिसकी वजह से यीशु धीरज धर पाया वह यह थी कि उसने अपनी नज़र उस इनाम पर टिकाए रखी जो उसे परीक्षाएँ सहने के बाद मिलनेवाला था। यीशु के बारे में बाइबल कहती है: “उसने उस खुशी के लिए जो उसके सामने थी, यातना की सूली पर मौत सह ली।” (इब्रानियों 12:2) यीशु की ज़िंदगी से पता चलता है कि आशा, खुशी और धीरज कैसे एक-दूसरे से जुड़े हैं। इसका निचोड़ इस तरह दिया जा सकता है: आशा से खुशी और खुशी से धीरज मिलता है। (रोमियों 15:13; कुलुस्सियों 1:11) यीशु के सामने एक शानदार भविष्य था। वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि उसके वफादार रहने से यह साबित होगा कि विश्‍व पर हुकूमत करने का अधिकार सिर्फ उसके पिता का है, साथ ही मानवजाति को पाप और मौत की गिरफ्त से आज़ाद कराया जा सकता है। यीशु के सामने राजा के तौर पर शासन करने और महायाजक के तौर पर आज्ञाकारी मानवजाति पर आशीषों की बौछार करने की आशा थी। (मत्ती 20:28; इब्रानियों 7:23-26) शानदार भविष्य पर नज़र टिकाए रखने और इस आशा को थामे रखने की वजह से यीशु को बेहिसाब खुशी मिली और इसी खुशी ने उसे परीक्षाओं के दौरान धीरज धरने में मदद दी।

19. विश्‍वास की परीक्षा के दौर में हम आशा, खुशी और धीरज को कैसे एक साथ हमारी ज़िंदगी में काम करने दे सकते हैं?

19 यीशु की तरह हमें भी आशा, खुशी और धीरज को हमारी ज़िंदगी में काम करने देना चाहिए। पौलुस ने कहा: “आशा की वजह से खुशी मनाओ।” फिर उसने कहा: “संकट में धीरज धरो।” (रोमियों 12:12) क्या आप इस वक्‍त अपने विश्‍वास की किसी बड़ी परीक्षा का सामना कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो भविष्य की ओर ताकिए। यह कभी मत भूलिए कि आपके धीरज धरने से यहोवा के नाम की महिमा होगी। राज की अनमोल आशा को धूमिल मत होने दीजिए। खुद को परमेश्‍वर की आनेवाली नयी दुनिया में देखिए और कल्पना कीजिए कि आप फिरदौस में मिलनेवाली आशीषों का लुत्फ उठा रहे हैं। जब आप उन शानदार चीज़ों की राह देखेंगे जिनका वादा यहोवा ने किया है, जैसे कि उसके नाम पर से कलंक हटा दिया गया है, धरती से दुष्टता, बीमारी और मौत का नामो-निशान मिटा दिया गया है, तो आपका दिल खुशी से भर जाएगा। और वह खुशी आपको इस व्यवस्था में आनेवाली हर परीक्षा के दौरान धीरज धरने में मदद देगी। जब हम राज में मिलनेवाली आशीषों पर ध्यान देंगे तो इस दुनिया की बड़ी-से-बड़ी मुसीबत भी “पल-भर के लिए और हल्की” लगेगी।—2 कुरिंथियों 4:17.

“उसके नक्शे-कदम पर नज़दीकी से चलो”

20, 21. धीरज धरने के मामले में यहोवा हमसे क्या उम्मीद करता है? और हमें क्या ठान लेना चाहिए?

20 यीशु जानता था कि उसका चेला बनना आसान नहीं है। उसके चेलों को बहुत-सी मुश्‍किलों का सामना करना पड़ेगा, जिस दौरान उन्हें धीरज धरना होगा। (यूहन्‍ना 15:20) वह दूसरों को रास्ता दिखाने के लिए तैयार था क्योंकि वह जानता था कि उसकी मिसाल से दूसरों को हिम्मत मिलेगी। (यूहन्‍ना 16:33) माना कि यीशु ने धीरज धरने के मामले में सिद्ध यानी सबसे बेहतरीन मिसाल रखी, लेकिन हम सिद्धता से कोसों दूर हैं। यहोवा हमसे क्या उम्मीद करता है? पतरस ने समझाया: “मसीह ने भी तुम्हारी खातिर दुःख उठाया और तुम्हारे लिए एक आदर्श छोड़ गया ताकि तुम उसके नक्शे-कदम पर नज़दीकी से चलो।” (1 पतरस 2:21) यीशु ने जिस तरह परीक्षाओं का सामना किया वह हमारे लिए “एक आदर्श” है, एक नमूना जिसकी हम नकल कर सकते हैं। a धीरज धरने के मामले में उसने जो मिसाल रखी, उसकी तुलना “नक्शे-कदम” या पदचिन्हों से की जा सकती है। हम यीशु के पदचिन्हों पर पूरी तरह से तो नहीं, मगर हाँ “नज़दीकी से” ज़रूर चल सकते हैं।

21 आइए हम यीशु की मिसाल पर चलने के लिए अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश करें। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम जितना ज़्यादा नज़दीकी से उसके नक्शे-कदम पर चलेंगे, उतना ज़्यादा हम “अंत तक” धीरज धरने के काबिल बनेंगे। फिर चाहे यह अंत इस पुरानी व्यवस्था का हो या इस व्यवस्था में हमारी ज़िंदगी का। हम नहीं जानते कि पहले किसका अंत होगा। लेकिन हम यह ज़रूर जानते हैं कि धीरज धरने के लिए यहोवा हमें हमेशा की आशीषें देगा।—मत्ती 24:13.

a यहाँ जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “आदर्श” किया गया है उसका शाब्दिक अर्थ है “रूप-रेखा।” मसीही यूनानी शास्त्र में प्रेषित पतरस ने ही इस शब्द का इस्तेमाल किया। इसका मतलब है “बच्चे की अभ्यास पुस्तिका में दिया अक्षरों का नमूना, जिसकी बच्चों को हू-ब-हू नकल करनी होती है।”