अध्याय 13
“मैं पिता से प्यार करता हूँ”
1, 2. प्रेषितों ने यीशु के साथ जो आखिरी शाम बितायी, उसके बारे में प्रेषित यूहन्ना ने क्या बताया?
एक बुज़ुर्ग आदमी पुरानी यादों को फिर से ताज़ा कर रहा है और उन्हें लिखने के लिए अपनी कलम स्याही में डुबोता है। उसका नाम है यूहन्ना। यीशु मसीह के प्रेषितों में अब वही अकेला ज़िंदा बचा है। वह लगभग 100 साल का हो गया है और करीब 70 साल पहले की सबसे यादगार शाम को हुई घटनाएँ याद कर रहा है। उस वक्त सारे प्रेषित यीशु के साथ थे। वह शाम यीशु की मौत से पहले की आखिरी शाम थी। परमेश्वर की पवित्र शक्ति की मदद से यूहन्ना उस शाम की घटनाओं को याद कर पाता है और उन्हें बारीकी से लिखता है।
2 उस रात, यीशु ने साफ-साफ कहा कि जल्द ही उसे मार डाला जाएगा। यीशु ने यह क्यों कहा कि वह एक दर्दनाक मौत मरने के लिए तैयार है, इसकी वजह सिर्फ यूहन्ना बताता है। यीशु ने कहा: “ताकि दुनिया जान जाए कि मैं पिता से प्यार करता हूँ, इसलिए ठीक जैसे पिता ने मुझे आज्ञा दी है, मैं वैसे ही कर रहा हूँ। उठो, आओ हम यहाँ से चलें।”—यूहन्ना 14:31.
3. यीशु ने कैसे दिखाया कि वह अपने पिता से प्यार करता है?
3 “मैं पिता से प्यार करता हूँ।” यीशु के लिए इससे बढ़कर और कोई बात मायने नहीं रखती थी। लेकिन वह यह बार-बार नहीं दोहराता था। देखा जाए तो बाइबल में यूहन्ना 14:31 ही वह जगह है जहाँ यीशु ने अपने पिता के लिए इतने सीधे शब्दों में अपना प्यार ज़ाहिर किया। भले ही यीशु ने यह बात हर बार नहीं कही, लेकिन उसने अपनी पूरी ज़िंदगी से दिखाया कि वह अपने पिता से प्यार करता है। यहोवा के लिए उसका प्यार हर दिन झलकता था। उसने जिस तरह हिम्मत दिखायी, परमेश्वर की आज्ञा मानी और धीरज धरा, उससे ज़ाहिर हुआ कि वह परमेश्वर से प्यार करता है। उसने जो प्रचार काम किया, उसकी वजह भी यह प्यार था।
4, 5. बाइबल किस तरह के प्यार का बढ़ावा देती है? यीशु को यहोवा से जितना प्यार था उसके बारे में क्या कहा जा सकता है?
4 आज कुछ लोग शायद कहें कि प्यार कमज़ोर लोग ही करते हैं। प्यार शब्द सुनते ही शायद उन्हें उस पर लिखी कविताएँ और गीत याद आएँ और वह एहसास जो दो लोगों को प्यार होने पर होता है। बाइबल इस तरह के प्यार की बात करती है, लेकिन वैसे नहीं जैसे आज की दुनिया करती है। बाइबल में इस तरह के प्यार को बड़े आदर के साथ बयान किया गया है। (नीतिवचन 5:15-21) परमेश्वर के वचन में एक दूसरे तरह के प्यार पर ज़्यादा चर्चा की गयी है। यह प्यार सिर्फ वासना नहीं और न ही यह बदलता रहता है। न ही यह ऐसा प्यार है जिसमें जज़्बात न हों और जो सिर्फ किताबी हो। यह प्यार दिल और दिमाग, दोनों से किया जाता है। यह एक इंसान के अंदर से पैदा होता है, ऊँचे सिद्धांतों पर आधारित होता है और अच्छे कामों से ज़ाहिर किया जाता है। इस तरह का प्यार कोई खेल नहीं होता। परमेश्वर का वचन कहता है: “प्यार कभी नहीं मिटता।”—1 कुरिंथियों 13:8.
5 अब तक इस धरती पर जितने भी इंसान जीए हैं, उनमें यीशु ही वह शख्स है जिसने सबसे ज़्यादा यहोवा से प्यार किया। यीशु ने कहा कि परमेश्वर की दी आज्ञाओं में सबसे बड़ी आज्ञा है: “तुझे अपने परमेश्वर यहोवा से अपने पूरे दिल, अपनी पूरी जान, अपने पूरे दिमाग और अपनी पूरी ताकत से प्यार करना है।” (मरकुस 12:30) इस आज्ञा के मुताबिक जीने में कोई भी यीशु की बराबरी नहीं कर सका है। यीशु ने यह प्यार कैसे पैदा किया? जब वह धरती पर था तो उसने परमेश्वर के लिए अपना प्यार कैसे मज़बूत बनाए रखा? हम उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
प्यार का सबसे पुराना और सबसे मज़बूत बंधन
6, 7. हम कैसे जानते हैं कि नीतिवचन 8:22-31 में बुद्धि के गुण का नहीं बल्कि परमेश्वर के बेटे का वर्णन किया गया है?
6 क्या आपने कभी अपने दोस्त के साथ मिलकर किसी प्रोजेक्ट पर काम किया है और पाया कि साथ काम करने से आप दोनों एक-दूसरे के और भी अच्छे और जिगरी दोस्त बन गए हैं? इस अच्छे अनुभव से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यहोवा और उसके इकलौते बेटे के बीच कितना प्यार होगा। हमने नीतिवचन 8:30 का कई बार ज़िक्र किया है, लेकिन आइए हम इसके आस-पास की आयतों को ध्यान में रखकर इसकी और भी गहराई से जाँच करें। आयत 22 से 31 में परमेश्वर की प्रेरणा से बुद्धि के साकार रूप का वर्णन किया गया है। लेकिन हम यह कैसे जानते हैं कि यहाँ लिखे शब्द परमेश्वर के बेटे पर लागू होते हैं?
7 आयत 22 में बुद्धि कहती है: “यहोवा ने मुझे काम करने के आरम्भ में, वरन अपने प्राचीनकाल के कामों से भी पहिले उत्पन्न किया।” यहाँ बुद्धि की नहीं शायद किसी और की बात की गयी है, क्योंकि बुद्धि को तो कभी “उत्पन्न” नहीं किया गया। इसकी कोई शुरूआत नहीं क्योंकि यहोवा हमेशा से वजूद में रहा है और वह हमेशा से बुद्धिमान है। (भजन 90:2) लेकिन परमेश्वर का बेटा “सारी सृष्टि में पहलौठा है।” उसे उत्पन्न किया गया था, यानी उसकी सृष्टि की गयी थी। उसे यहोवा ने अपने प्राचीनकाल के सभी कामों से पहले उत्पन्न किया था। (कुलुस्सियों 1:15) जैसा कि नीतिवचन में बताया गया है, यह बेटा धरती और स्वर्ग के बनाए जाने से पहले वजूद में था। परमेश्वर उसके ज़रिए अपनी बातें लोगों तक पहुँचाता था, इसलिए उसे वचन कहा गया है। वह यहोवा की बुद्धि का सबसे बेहतरीन उदाहरण है।—यूहन्ना 1:1.
8. धरती पर आने से पहले बेटे ने क्या किया? जब हम सृष्टि को निहारते हैं तो हमें कौन-सी बात याद आनी चाहिए?
8 धरती पर आने से पहले परमेश्वर का बेटा युगों तक स्वर्ग में था। इतने लंबे समय तक उसने क्या किया? आयत 30 बताती है कि वह एक “कुशल कारीगर,” (NHT) के तौर पर परमेश्वर के साथ था। इसका क्या मतलब है? कुलुस्सियों 1:16 में समझाया गया है: “उसी के ज़रिए स्वर्ग में और धरती पर बाकी सब चीज़ें सिरजी गयीं, . . . बाकी सब चीज़ें उसके ज़रिए और उसी के लिए सिरजी गयी हैं।” इसका मतलब सृष्टिकर्ता यहोवा ने सृष्टि की बाकी सारी चीज़ें अपने बेटे यानी कुशल कारीगर के ज़रिए बनायीं: स्वर्ग के सारे आत्मिक प्राणी, विशाल अंतरिक्ष की सारी चीज़ें, धरती और उस पर तरह-तरह के खूबसूरत पेड़-पौधे और जानवर और धरती की सबसे बेहतरीन रचना इंसान। पिता और बेटे ने जिस तरह साथ मिलकर काम किया, उसकी तुलना हम कुछ-कुछ एक आर्किटेक्ट (इमारतों या मकानों का नक्शा बनानेवाला) और ठेकेदार से कर सकते हैं। ठेकेदार, आर्किटेक्ट के बनाए एक-से-बढ़कर-एक नक्शों के मुताबिक इमारतें खड़ी करता है। जब हम सृष्टि की कोई चीज़ देखकर हैरान होते हैं, तो हम दरअसल सबसे महान आर्किटेक्ट की महिमा कर रहे होते हैं। (भजन 19:1) लेकिन उस वक्त हमें यह भी याद आना चाहिए कि सृष्टिकर्ता और उसके “कुशल कारीगर” ने किस तरह लंबे समय तक साथ मिलकर खुशी-खुशी काम किया।
9, 10. (क) यहोवा और उसके बेटे का बंधन कैसे मज़बूत हुआ? (ख) स्वर्ग में रहनेवाले पिता और आपके बीच जो प्यार का बंधन है वह कैसे मज़बूत हो सकता है?
9 जब दो असिद्ध इंसान साथ मिलकर काम करते हैं, तो कभी-कभी उनके रिश्ते में खटास पैदा हो जाती है और उनके लिए साथ मिलकर काम करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन यहोवा और उसके बेटे के साथ ऐसा नहीं हुआ। बेटे ने युगों-युगों तक अपने पिता के साथ काम किया और वह ‘हर समय उसके सामने आनंदित रहता था।’ (नीतिवचन 8:30) जी हाँ, उसे पिता के साथ रहने में बहुत खुशी होती थी और उसके पिता को भी ऐसा ही महसूस होता था। ज़ाहिर है कि इस तरह बेटा अपने पिता के जैसा बनता गया और पिता में जो गुण हैं उन्हें अपने अंदर बढ़ाता गया। कोई ताज्जुब नहीं कि पिता और बेटे के बीच का रिश्ता इतना मज़बूत बन गया! इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके बीच जो प्यार का रिश्ता है, वह पूरे विश्व में सबसे पुराना और सबसे मज़बूत है।
10 इसका हम पर क्या असर हो सकता है? आप शायद सोचें कि हम यहोवा के साथ ऐसा रिश्ता कभी नहीं बना सकते। माना कि बेटे का जो ऊँचा ओहदा है, वह हममें से किसी के पास नहीं है। लेकिन हम सबके पास एक सुनहरा मौका ज़रूर है। याद कीजिए, यीशु का अपने पिता के साथ रिश्ता इसलिए मज़बूत हो पाया क्योंकि उसने पिता के साथ काम किया। यहोवा ने प्यार से हमें भी उसके “सहकर्मी” होने का सम्मान दिया है। (1 कुरिंथियों 3:9) जब हम यीशु की मिसाल पर चलते हुए प्रचार काम करते हैं तो हमें यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि हम परमेश्वर के सहकर्मी हैं। इस तरह यहोवा और हमारे बीच जो प्यार का बंधन है वह और भी मज़बूत होता जाएगा। परमेश्वर के सहकर्मी होने से बड़ा सम्मान और क्या हो सकता है?
यीशु ने यहोवा के लिए अपना प्यार कैसे मज़बूत बनाए रखा
11-13. (क) प्यार को एक जीवित चीज़ समझना क्यों मददगार हो सकता है? जब यीशु छोटा था, उसने यहोवा के लिए अपने प्यार को कैसे मज़बूत बनाए रखा? (ख) परमेश्वर के बेटे ने धरती पर आने से पहले और बाद में कैसे दिखाया कि वह यहोवा से सीखने के लिए तैयार है?
11 हमारे दिल में जो प्यार है, उसे अगर हम एक जीवित चीज़ समझें तो यह कई तरह से मददगार हो सकता है। एक खूबसूरत पौधे की तरह प्यार को भी बढ़ने और फलने-फूलने के लिए पोषण और देखभाल की ज़रूरत होती है। अगर ऐसा न किया जाए, तो प्यार कमज़ोर होकर मर सकता है। यीशु ने यहोवा के लिए अपने प्यार को कभी कम नहीं आँका और न ही उसे नज़रअंदाज़ किया। वह जब तक इस धरती पर रहा, उसने इसे मज़बूत बनाए रखा और इसे बढ़ाता गया। आइए देखें कि उसने यह कैसे किया।
12 ज़रा उस घटना को दोबारा याद कीजिए जब छोटा यीशु यरूशलेम के मंदिर में यहोवा के साथ अपने रिश्ते के बारे में दिल-से तुरंत ही बोल पड़ा। ध्यान दीजिए कि उसने अपने परेशान माता-पिता को क्या जवाब दिया: “तुम मुझे यहाँ-वहाँ क्यों ढूँढ़ते रहे? क्या तुम्हें मालूम नहीं था कि मैं अपने पिता के घर में होऊँगा?” (लूका 2:49) बचपन में यीशु को शायद धरती पर आने से पहले की बातें याद नहीं थीं। फिर भी अपने पिता यहोवा से उसे बहुत गहरा प्यार था। वह जानता था कि इस तरह का प्यार उपासना के ज़रिए ज़ाहिर किया जा सकता है। इसलिए उसे अपने पिता के घर से अच्छी और कोई जगह नहीं लगती थी, क्योंकि वहाँ सच्ची उपासना की जाती थी। वहाँ जाने के लिए वह बेताब रहता था, वहाँ से वापस जाना उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि वह वहाँ चुपचाप नहीं बैठा रहता था। वह यहोवा के बारे में सीखने और जो बातें उसे मालूम थीं वे दूसरों को बताने के लिए तैयार रहता था। ये भावनाएँ उसके अंदर 12 साल की उम्र में ही नहीं पैदा हुईं और न ही उसी उम्र में खत्म हो गयीं।
13 इस धरती पर आने से पहले भी यह बेटा मन लगाकर अपने पिता से सीखता था। यशायाह 50:4-6 में दर्ज़ एक भविष्यवाणी ज़ाहिर करती है कि यहोवा ने अपने बेटे को मसीहा के तौर पर उसकी भूमिका के बारे में खास शिक्षा दी थी। हालाँकि इस शिक्षा में यीशु को यह भी सीखना पड़ा कि यहोवा के अभिषिक्त जन के तौर पर उसे कौन-सी मुश्किलें सहनी पड़ेंगी, फिर भी उसने बहुत ही ध्यान से सीखा। बाद में जब वह इस धरती पर आया और बड़ा हुआ, वह अपने पिता के घर जाने और वहाँ उपासना में भाग लेने और वह शिक्षा देने के लिए हमेशा तैयार रहता था जो यहोवा चाहता था कि वहाँ दी जाए। बाइबल बताती है कि यीशु मंदिर और सभा-घर में बिना नागा हाज़िर होता था। (लूका 4:16; 19:47) अगर हम यहोवा के लिए अपने प्यार को जीवित और फलता-फूलता बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें भी बिना नागा मसीही सभाओं में हाज़िर होने की ज़रूरत है। क्योंकि वहाँ हम यहोवा की उपासना करते हैं, उसके बारे में अपना ज्ञान और कदरदानी बढ़ाते हैं।
14, 15. (क) यीशु क्यों कभी-कभी अकेले रहना चाहता था? (ख) यीशु की प्रार्थनाओं से कैसे ज़ाहिर होता है कि उसका पिता के साथ करीबी रिश्ता था और वह पिता का आदर करता था?
14 यीशु ने नियमित तौर पर प्रार्थना करने के ज़रिए भी यहोवा के लिए अपना प्यार मज़बूत बनाए रखा। वह दोस्ताना स्वभाव का और सबके साथ मेल-जोल रखनेवाला व्यक्ति था। मगर गौर करने लायक बात है कि वह अकेलेपन का भी मोल समझता था। उदाहरण के लिए लूका 5:16 में लिखा है: “वह वीरान इलाकों में ही रहा और प्रार्थना में लगा रहा।” उसी तरह मत्ती 14:23 में बताया गया है: “आखिरकार, भीड़ को भेज देने के बाद, वह खुद प्रार्थना करने के लिए पहाड़ पर चला गया। हालाँकि बहुत रात बीत चुकी थी, फिर भी वह वहाँ अकेला था।” यीशु ने इन और दूसरे मौकों पर अकेले रहना चाहा, लेकिन इसलिए नहीं कि उसने संन्यास ले लिया था या वह दूसरों के साथ रहना पसंद नहीं करता था। असल में उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह यहोवा के साथ अकेले में कुछ वक्त बिताना चाहता था, ताकि वह अपने पिता से प्रार्थना में खुलकर बात कर सके।
15 प्रार्थना करते वक्त यीशु ने कई बार “हे अब्बा, हे पिता” शब्द इस्तेमाल किए। (मरकुस 14:36) यीशु के दिनों में “पिता” को प्यार से “अब्बा” बुलाया जाता था। यह उन शब्दों में से एक था जो एक छोटा बच्चा शुरू-शुरू में बोलना सीखता था। लेकिन इसमें प्यार के साथ आदर भी झलकता था। जब यीशु ने पिता को अब्बा कहकर बुलाया, तो इससे ज़ाहिर होता है कि उसका अपने पिता के साथ कितना करीबी रिश्ता था, साथ ही यह भी कि पिता के रूप में यहोवा का जो अधिकार है, उसका वह गहरा आदर करता है। बाइबल में यीशु की जितनी भी प्रार्थनाएँ दर्ज़ हैं, उनमें हम यही नज़दीकी और आदर पाते हैं। मिसाल के लिए, यीशु ने अपनी ज़िंदगी की आखिरी रात काफी देर तक प्रार्थना की, जिसमें उसने अपने दिल की सारी बातें यहोवा से कह दीं। यह प्रार्थना हम प्रेषित यूहन्ना की लिखी खुशखबरी की किताब के 17वें अध्याय में पाते हैं। जब हम इस प्रार्थना को पढ़ते हैं, तो यह वाकई हमारे दिल को छू जाती है और ज़रूरी है कि हम भी यीशु की तरह प्रार्थना करें। लेकिन हमें यीशु के कहे शब्द दोहराने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि जब भी मौका मिलता है हमें स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता से दिल से प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा करने से हम यहोवा के लिए अपने प्यार को जीवित और मज़बूत बनाए रख पाएँगे।
16, 17. (क) यीशु ने अपनी बातों से कैसे दिखाया कि वह अपने पिता से प्यार करता है? (ख) यीशु ने कैसे दिखाया कि उसका पिता बहुत दरियादिल है?
16 जैसा कि हमने शुरू में देखा था यीशु ने बार-बार ये शब्द नहीं कहे कि “मैं पिता से प्यार करता हूँ।” फिर भी कई बार उसने अपनी बातों से दिखाया कि वह अपने पिता से प्यार करता है। कैसे? उसने खुद कहा: “हे पिता, स्वर्ग और पृथ्वी के मालिक, मैं सबके सामने तेरी बड़ाई करता हूँ।” (मत्ती 11:25) इस किताब के भाग 2 में हमने पढ़ा था कि यीशु लोगों को खुशी-खुशी अपने पिता के बारे में सिखाता था क्योंकि वह जानता था कि इससे पिता की महिमा होगी। उदाहरण के लिए, उसने यहोवा की तुलना एक ऐसे पिता से की जो अपने उड़ाऊ बेटे को माफ करने के लिए इतना बेकरार था कि वह उसके पश्चाताप करने और वापस आने का इंतज़ार करता है। और जब वह दूर से ही अपने बेटे को वापस आते देखता है, तो दौड़कर उसे गले लगा लेता है। (लूका 15:20) क्या यीशु की इस मिसाल से साफ पता नहीं चलता कि यहोवा हम इंसानों से बहुत प्यार करता है और हमें माफ करने के लिए तैयार रहता है?
17 यीशु अकसर अपने पिता यहोवा की दरियादिली के लिए उसकी बड़ाई करता था। उसने असिद्ध माता-पिता का उदाहरण देकर हमें इस बात का यकीन दिलाया कि अगर हम परमेश्वर से पवित्र शक्ति माँगें, तो वह हमारी ज़रूरत के मुताबिक हमें पवित्र शक्ति ज़रूर देगा। (लूका 11:13) यीशु ने यह भी बताया कि उसका पिता दिल खोलकर सबको आशा देता है। उसने खुशी-खुशी बताया कि उसे अपने पिता के साथ दोबारा स्वर्ग में जीने की आशा है। (यूहन्ना 14:28; 17:5) यीशु ने अपने चेलों को उस आशा के बारे में भी बताया जो यहोवा ने मसीह के “छोटे झुंड” को दी है। उन्हें स्वर्ग में जीने और मसीहाई राजा के साथ राज करने की आशा दी गयी है। (लूका 12:32; यूहन्ना 14:2) इसके अलावा यीशु ने एक दूसरी आशा के बारे में भी बताया। उसने अपने साथ सूली पर लटके एक अपराधी को दिलासा दिया कि उसके पास फिरदौस में जीने की आशा है। (लूका 23:43) इस तरह अपने पिता की दरियादिली के बारे में बात करने से यीशु यहोवा के लिए अपना प्यार मज़बूत रख पाया। मसीह के बहुत से चेलों ने पाया है कि यहोवा के लिए अपना प्यार और उस पर अपना विश्वास मज़बूत बनाए रखने का सबसे बढ़िया तरीका है लोगों को उसके बारे में और उसने जो आशा दी है, उस बारे में बताना।
क्या यीशु की तरह आप यहोवा से प्यार करते रहेंगे?
18. यीशु के पीछे चलने का सबसे अहम तरीका क्या है और क्यों?
18 हमें कई तरीकों से यीशु के पीछे चलने की ज़रूरत है, लेकिन सबसे अहम तरीका है: पूरे दिल, पूरी जान, पूरे दिमाग और पूरी ताकत से यहोवा से प्यार करना। (लूका 10:27) यह प्यार सिर्फ इस बात से नहीं आँका जाता कि हमारे दिल में यहोवा के लिए कितना प्यार है, बल्कि इस बात से भी कि हम इसे किस हद तक अपने कामों से ज़ाहिर करते हैं। यीशु सिर्फ इस बात से संतुष्ट नहीं था कि उसके दिल में पिता के लिए प्यार है, न ही वह सिर्फ इतना कहना चाहता था कि “मैं पिता से प्यार करता हूँ।” उसने कहा: “ताकि दुनिया जान जाए कि मैं पिता से प्यार करता हूँ, इसलिए ठीक जैसे पिता ने मुझे आज्ञा दी है, मैं वैसे ही कर रहा हूँ।” (यूहन्ना 14:31) शैतान ने इलज़ाम लगाया कि किसी भी इंसान को यहोवा से सच्चा प्यार नहीं है, हर कोई सिर्फ अपने मतलब के लिए यहोवा की सेवा करता है। (अय्यूब 2:4, 5) शैतान के इस आरोप का मुँह-तोड़ जवाब देने के लिए यीशु ने हिम्मत के साथ कदम उठाया और दुनिया को यह दिखा दिया कि वह अपने पिता से कितना प्यार करता है। वह अपनी मौत तक परमेश्वर का आज्ञाकारी रहा। क्या आप यीशु की मिसाल पर चलेंगे? क्या आप दुनिया को यह दिखाएँगे कि आप यहोवा परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं?
19, 20. (क) मसीही सभाओं में नियमित तौर पर हाज़िर होने की हमारे पास क्या अहम वजह हैं? (ख) हमें निजी अध्ययन, मनन और प्रार्थना को किस नज़र से देखना चाहिए?
19 परमेश्वर के साथ हमारा रिश्ता मज़बूत बने, इसके लिए बेहद ज़रूरी है कि हम यहोवा के लिए प्यार दिखाएँ। इसलिए यहोवा ने हमारे लिए उपासना का ऐसा इंतज़ाम किया है, जिससे उसके लिए हमारा प्यार बढ़े और मज़बूत हो। जब आप मसीही सभाओं में हाज़िर होते हैं, तो यह याद रखिए कि आप वहाँ परमेश्वर की उपासना के लिए आए हैं। जब आप वहाँ दिल से की जानेवाली प्रार्थना में शामिल होते हैं, यहोवा की महिमा में गाए जानेवाले गीत गाते हैं, बतायी जानेवाली बातें ध्यान से सुनते हैं और जब मुमकिन होता है सभा में हिस्सा लेते हैं तो आप यहोवा की उपासना कर रहे होते हैं। ये सभाएँ हमें अपने संगी मसीहियों की हिम्मत बँधाने का मौका भी देती हैं। (इब्रानियों 10:24, 25) मसीही सभाओं में नियमित तौर पर हाज़िर होकर यहोवा की उपासना करने से परमेश्वर के लिए आपका प्यार मज़बूत होता जाएगा।
20 उसी तरह निजी अध्ययन, मनन और प्रार्थना करने से भी परमेश्वर के लिए हमारा प्यार मज़बूत होता है। ये वे तरीके हैं, जिनसे हम यहोवा के साथ अकेले में कुछ वक्त बिताते हैं। जब आप परमेश्वर के वचन का अध्ययन और उस पर मनन करते हैं, तो यहोवा अपने विचार आपको बता रहा होता है। और जब आप प्रार्थना करते हैं तो आप उसे अपने दिल की बात बता रहे होते हैं। लेकिन प्रार्थना करने का मतलब सिर्फ यहोवा से कुछ माँगते रहना नहीं है। प्रार्थना में आप यहोवा की आशीषों के लिए उसका धन्यवाद कर सकते हैं और उसके शानदार कामों के लिए उसकी महिमा कर सकते हैं। (भजन 146:1) इसके अलावा, यहोवा को धन्यवाद देने और उसके लिए अपना प्यार दिखाने का सबसे बढ़िया तरीका है खुशी-खुशी और जोश के साथ लोगों के सामने यहोवा की महिमा करना।
21. यहोवा के लिए प्यार दिखाना कितना ज़रूरी है? आगे के अध्यायों में हम किस बात पर गौर करेंगे?
21 अगर हम हमेशा की खुशी पाना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम परमेश्वर से प्यार करें। आदम और हव्वा के लिए यही एक बात ज़रूरी थी। अगर वे परमेश्वर से प्यार करते तो वे उसकी आज्ञा ज़रूर मानते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अगर आप विश्वास की किसी परीक्षा का सामना करने, किसी प्रलोभन को ठुकराने या किसी आज़माइश में धीरज धरने में कामयाब होना चाहते हैं, तो आपके लिए सबसे ज़रूरी है परमेश्वर से प्यार करना। यीशु के पीछे चलनेवालों के लिए यह निहायत ज़रूरी है। बेशक अगर हम परमेश्वर से प्यार करते हैं तो हम इंसानों से भी प्यार करेंगे। (1 यूहन्ना 4:20) आगे के अध्यायों में हम इस बात पर गौर करेंगे कि यीशु ने लोगों के लिए अपना प्यार कैसे दिखाया। फिलहाल अगले अध्याय में हम देखेंगे कि क्यों बहुत-से लोग बेझिझक यीशु के पास आते थे।