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अध्याय 8

“मुझे इसीलिए भेजा गया है”

“मुझे इसीलिए भेजा गया है”

1-4. (क) यीशु ने किस तरह सूझ-बूझ से एक सामरी स्त्री को गवाही दी और इसका क्या नतीजा निकला? (ख) उसके प्रेषितों ने कैसा रवैया दिखाया?

 यीशु और उसके प्रेषित यहूदिया से उत्तर की तरफ गलील जा रहे थे। उन्हें पैदल चलते-चलते कई घंटे हो गए। गलील जाने का जो सबसे छोटा रास्ता था, उससे भी करीब तीन दिन लगते थे। रास्ते में सामरिया से गुज़रना पड़ता था। जब सूरज सिर पर चढ़ आया, तब वे सूखार नाम के एक छोटे शहर के करीब पहुँचे। वहाँ वे थोड़ी देर सुस्ताने और खाने-पीने के लिए रुक गए।

2 यीशु के प्रेषित खाना खरीदने के लिए चले गए, लेकिन यीशु शहर के बाहर एक कुएँ के पास बैठ गया। तभी वहाँ एक स्त्री पानी भरने आयी। यीशु चाहता तो उसे नज़रअंदाज़ कर सकता था। अगर वह अपनी आँखें मूँदकर कुछ देर आराम कर लेता और उस सामरी स्त्री से कोई बात न करता, तो उसमें कुछ गलत नहीं होता। आखिर वह “सफर से थका-माँदा” जो था। (यूहन्‍ना 4:6) जैसा कि हमने इस किताब के अध्याय 4 में देखा, वह स्त्री किसी यहूदी से यह उम्मीद नहीं करती कि वह उसके साथ अच्छी तरह पेश आएगा। लेकिन यीशु ऐसा नहीं था। उसने उस स्त्री से बात की।

3 उसने अपनी बातचीत एक ऐसे उदाहरण से शुरू की, जो उस स्त्री की रोज़मर्रा ज़िंदगी से ताल्लुक रखता था। यीशु ने उस स्त्री से पानी के विषय में बात की। और यह बिलकुल सही भी था क्योंकि वह स्त्री वहाँ पानी भरने ही आयी थी। यीशु ने उससे जीवन देनेवाले पानी के बारे में बात की जो उसकी आध्यात्मिक प्यास बुझाता। उस स्त्री ने ऐसे कई सवाल किए, जिनसे उन दोनों के बीच बहस छिड़ सकती थी। a यीशु ने समझदारी दिखाते हुए उन सवालों को नज़रअंदाज़ कर दिया और बातचीत को मुद्दे पर बनाए रखा। वह आध्यात्मिक बातों यानी सच्ची उपासना और यहोवा परमेश्‍वर के बारे में बात करता रहा। उस बातचीत के बहुत अच्छे नतीजे निकले। उस स्त्री ने यीशु से जो सुना उसके बारे में उसने जाकर अपने शहर के लोगों को बताया। तब वे लोग भी यीशु की बातें सुनने के लिए आए।—यूहन्‍ना 4:3-42.

4 जब चेले वापस आए, तो उन्होंने देखा कि यीशु उस स्त्री को गवाही दे रहा है। उन्हें इस बेमिसाल गवाही के बारे में कैसा लगा? उन्हें इस बात की कोई खुशी नहीं थी। बल्कि उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि यीशु एक सामरी स्त्री से बात कर रहा है। और शायद उन्होंने उस स्त्री से कोई बात नहीं की। स्त्री के चले जाने के बाद चेलों ने यीशु से बार-बार गुज़ारिश की कि वह खाना खा ले। लेकिन यीशु ने उनसे कहा: “मेरे पास खाने के लिए ऐसा खाना है जिसके बारे में तुम नहीं जानते।” चेले उलझन में पड़ गए और उन्हें लगा कि यीशु सचमुच के खाने की बात कर रहा है। लेकिन फिर यीशु ने उन्हें समझाया: “मेरा खाना यह है कि मैं अपने भेजनेवाले की मरज़ी पूरी करूँ और उसका काम पूरा करूँ।” (यूहन्‍ना 4:32, 34) इस तरह यीशु ने उन्हें सिखाया कि उसकी ज़िंदगी में जो अहम काम है, वह उसके लिए खाना खाने से ज़्यादा ज़रूरी है। वह चाहता था कि उसके चेले भी इस काम के बारे में ऐसा ही महसूस करें। यह कौन-सा काम था?

5. यीशु ने अपनी ज़िंदगी में किस काम को सबसे पहली जगह दी? हम इस अध्याय में किन बातों पर गौर करेंगे?

5 यीशु ने एक बार कहा था: “मुझे . . . परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी सुनानी है, क्योंकि मुझे इसीलिए भेजा गया है।” (लूका 4:43) जी हाँ, यीशु को परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी का प्रचार करने और उसके बारे में सिखाने के लिए भेजा गया था। b आज यीशु के चेलों को भी यह काम करना है। इसलिए ज़रूरी है कि हम यह गौर करें कि यीशु ने क्यों प्रचार किया, क्या प्रचार किया और अपने काम की तरफ कैसा रवैया दिखाया।

यीशु प्रचार क्यों करता था

6, 7. ‘हर उपदेशक’ को दूसरों के साथ खुशखबरी बाँटने के बारे में कैसा महसूस करना चाहिए, इस बारे में यीशु क्या चाहता था? मिसाल देकर समझाइए।

6 आइए देखें कि यीशु जो सच्चाइयाँ सिखाता था, उनके बारे में वह कैसा महसूस करता था। फिर हम देखेंगे कि वह जिन लोगों को सिखाता था, उनकी तरफ उसका रवैया कैसा था। यहोवा ने उसे जो सच्चाई सिखायी थी उसे दूसरों को बताने में वह कैसा महसूस करता था, यह समझाने के लिए उसने एक शानदार मिसाल दी। उसने कहा: “हर वह उपदेशक जो लोगों को सिखाता है और जिसने स्वर्ग के राज की शिक्षा पायी है, वह ऐसे घर-मालिक की तरह है जो अपने खज़ाने के भंडार से नयी और पुरानी चीज़ें बाहर लाता है।” (मत्ती 13:52) इस मिसाल में दिया घर-मालिक अपने खज़ाने के भंडार से चीज़ें क्यों बाहर लाता है?

7 घर-मालिक अपनी शेखी बघारने के लिए अपनी चीज़ें नहीं दिखाता, जैसा कि इसराएल के राजा हिज़किय्याह ने किया था, जिसके उसे भयानक अंजाम भुगतने पड़े। (2 राजा 20:13-20) तो फिर घर-मालिक क्यों अपनी चीज़ें बाहर निकालता है? एक उदाहरण पर गौर कीजिए: आप अपने मनपसंद टीचर से मिलने उसके घर जाते हैं। टीचर अपनी दराज़ से दो चिट्ठियाँ निकालता है। एक चिट्ठी बहुत पुरानी है जो समय के साथ पीली पड़ गयी है और दूसरी नयी है। वे चिट्ठियाँ उसके पापा ने उसे लिखी थीं। एक चिट्ठी सालों पहले की है, जब वह लड़का था और दूसरी हाल ही में लिखी गयी थी। जब वह आपको बताता है कि वे चिट्ठियाँ उसके लिए कितनी अनमोल हैं और उनमें दी सलाहों ने कैसे उसकी ज़िंदगी बदल दी और वे सलाहें आपके लिए भी काफी मददगार साबित हो सकती हैं, तो उसकी आँखों में खुशी की चमक साफ दिखायी देती है। आपका टीचर वाकई उन चिट्ठियों को अनमोल समझता है और उन्हें हमेशा सँजोकर रखना चाहता है। (लूका 6:45) चिट्ठियाँ दिखाने का उसका मकसद डींग मारना नहीं है और न ही इससे उसे कुछ फायदा होगा। बल्कि वह इसलिए आपको चिट्ठियाँ दिखाता है क्योंकि वह आपका भला चाहता है और चाहता है कि आपको पता चले कि वे कितनी अनमोल हैं।

8. हम क्यों यकीन के साथ कह सकते हैं कि परमेश्‍वर के वचन से हम जो सच्चाइयाँ सीखते हैं, वे खज़ाने के समान हैं?

8 महान शिक्षक यीशु भी इसी इरादे से दूसरों को परमेश्‍वर के बारे में सच्चाइयाँ सिखाता था। उसके लिए वे सच्चाइयाँ बेशकीमती खज़ाने से कम नहीं थीं। वह उनसे प्यार करता था और दूसरों के साथ उन्हें बाँटने के लिए हरदम तैयार रहता था। वह चाहता था कि उसके सभी चेले, यानी ‘हर उपदेशक’ ऐसा ही महसूस करे। क्या हम ऐसा महसूस करते हैं? परमेश्‍वर के वचन से हम जो भी सच्चाई सीखते हैं, हमें उससे प्यार करना चाहिए और ऐसा करने का वाजिब कारण है। सच्चाई के इन नगीनों को हम बहुत कीमती समझते हैं, फिर चाहे ये सालों पहले सीखी सच्चाइयाँ हों या हाल ही में मिली नयी समझ। दूसरों को इनके बारे में जोश से बताकर और यहोवा ने हमें जो सिखाया है उसके लिए अपना प्यार बनाए रखकर, हम लोगों को इन नगीनों से प्यार करना सिखा पाएँगे, ठीक जैसे यीशु ने किया था।

9. (क) यीशु जिन लोगों को सिखाता था, उनके बारे में वह कैसा महसूस करता था? (ख) यीशु लोगों के लिए जैसा रवैया रखता था, हम उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?

9 यीशु जिन लोगों को सिखाता था, उनसे भी वह प्यार करता था। इस बारे में हम भाग 3 में और ज़्यादा सीखेंगे। बाइबल में भविष्यवाणी की गयी थी कि मसीहा “कंगाल और दरिद्र पर तरस खाएगा।” (भजन 72:13) जी हाँ, यीशु को वाकई लोगों की परवाह थी। वह उनके विचारों को समझता और भावनाओं का खयाल रखता था। वह जानता था कि वे किन परेशानियों के बोझ तले दबे हुए हैं और क्या बातें सच्चाई सीखने में उनके आड़े आ रही हैं। (मत्ती 11:28; 16:13; 23:13, 15) जैसे कि उस सामरी स्त्री को याद कीजिए। इसमें कोई शक नहीं कि जब यीशु ने उसके लिए परवाह दिखायी, तो उसे बहुत अच्छा लगा। यीशु उसके हालात जानता और समझता था। इस वजह से उस स्त्री ने यीशु को एक भविष्यवक्‍ता माना और दूसरों को जाकर उसके बारे में बताया। (यूहन्‍ना 4:16-19, 39) माना कि आज यीशु के चेले प्रचार में लोगों का दिल नहीं पढ़ सकते। लेकिन हम यीशु की तरह लोगों में दिलचस्पी ज़रूर ले सकते हैं। हम उन्हें दिखा सकते हैं कि हम उनकी परवाह करते हैं। हम उनकी चुनौतियों, ज़रूरतों और उन्हें दिलचस्प लगनेवाले विषयों को ध्यान में रखकर उनसे बात कर सकते हैं।

यीशु ने क्या प्रचार किया

10, 11. (क) यीशु ने क्या प्रचार किया? (ख) परमेश्‍वर के राज की ज़रूरत क्यों पड़ी?

10 यीशु ने क्या प्रचार किया? आज कई चर्च यीशु के बारे में सच्चाई सिखाने का दावा करते हैं। लेकिन अगर आप उनकी शिक्षाओं में खोजबीन करें तो आप पाएँगे कि उनके हिसाब से यीशु ने बस इतना बताया कि समाज की बुराइयों को कैसे खत्म किया जा सकता है। या उसने सरकार में फेरबदल करने के बारे में बताया या यह बताया कि खुद का उद्धार सबसे ज़रूरी है। लेकिन जैसे कि इस किताब में हमने सीखा, यीशु ने साफ-साफ कहा: “मुझे . . . परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी सुनानी है।” इसमें क्या-क्या शामिल था?

11 याद कीजिए कि जब पहली बार शैतान ने यहोवा की हुकूमत को चुनौती दी थी, तो उस वक्‍त यीशु स्वर्ग में मौजूद था। ज़रा सोचिए यीशु को कितना दुख हुआ होगा जब उसने देखा कि सबका भला चाहनेवाले उसके पिता को बदनाम किया जा रहा है और उस पर झूठा इलज़ाम लगाया जा रहा है कि वह अच्छा शासक नहीं है और अपनी सृष्टि को अच्छी चीज़ों से महरूम रखता है! सोचिए, उस वक्‍त परमेश्‍वर का बेटा कितना दुखी हुआ होगा, जब उसने देखा कि आदम और हव्वा जो पूरी मानवजाति के माता-पिता बननेवाले थे, शैतान की झूठी बातों में आ गए! परमेश्‍वर के बेटे ने देखा कि उनकी बगावत की वजह से सारे इंसानों पर पाप और मौत का शिकंजा कस गया। (रोमियों 5:12) लेकिन यह जानकर उसे कितनी खुशी हुई होगी कि एक दिन उसका पिता अपने राज के ज़रिए इन सारे मसलों को सुलझा देगा!

12, 13. परमेश्‍वर का राज किन मसलों को सुलझाएगा? यीशु ने कैसे परमेश्‍वर के राज को अपने प्रचार का मुख्य विषय बनाया?

12 किस मसले को सुलझाना सबसे ज़रूरी है? शैतान और उसका साथ देनेवालों ने यहोवा के पवित्र नाम पर जो कलंक लगाया है और जो इलज़ाम लगाए हैं, उन्हें मिटाने की ज़रूरत है। यह भी साबित करने की ज़रूरत है कि इस विश्‍व पर हुकूमत करने का अधिकार सिर्फ यहोवा का है और उसका तरीका ही सही है। इन अहम मुद्दों को यीशु से बेहतर दूसरा कोई इंसान नहीं समझ सकता। आदर्श प्रार्थना में उसने अपने चेलों को सिखाया कि वे पहले उसके पिता के नाम को पवित्र किए जाने, उसके पिता का राज आने और फिर धरती पर परमेश्‍वर की मरज़ी पूरी होने के बारे में प्रार्थना करें। (मत्ती 6:9, 10) परमेश्‍वर का राज जिसका राजा मसीह यीशु होगा, जल्द ही धरती पर से शैतान की भ्रष्ट व्यवस्था को हटा देगा और हमेशा के लिए यहोवा की सही हुकूमत कायम करेगा।—दानिय्येल 2:44.

13 यही राज यीशु के प्रचार का मुख्य विषय था। उसने अपनी बातों और कामों से साफ दिखाया कि राज क्या है और वह कैसे यहोवा का मकसद पूरा करेगा। यीशु ने किसी भी चीज़ को राज की खुशखबरी सुनाने के काम में रुकावट बनने नहीं दिया। उसके दिनों में कई सामाजिक मुद्दों को सुलझाया जाना था, लोगों के साथ अन्याय हो रहा था, लेकिन उसने अपना ध्यान अपने संदेश और काम पर लगाए रखा। क्या इसका मतलब यीशु को सिर्फ अपने काम की पड़ी रहती थी, दूसरों की भावनाओं की कोई परवाह नहीं थी और एक ही तरह से अपनी बात बताता रहता था? यह नामुमकिन है।

14, 15. (क) यीशु कैसे “सुलैमान से भी बड़ा” साबित हुआ? (ख) प्रचार के मामले में हम यीशु के नक्शे-कदम पर कैसे चल सकते हैं?

14 जैसा कि हम इस पूरे भाग में देखेंगे, यीशु ने अपनी शिक्षाओं को दिलचस्प और मज़ेदार बनाया। उसकी बातें लोगों के दिल तक पहुँचती थीं। इसी बात पर शायद हमें बुद्धिमान राजा सुलैमान की याद आए, जो मनभावने और सच्चाई के सही शब्द खोजता था, ताकि वह उन विचारों को लिख सके जिसकी प्रेरणा यहोवा ने उसे दी थी। (सभोपदेशक 12:10) यहोवा ने उस असिद्ध इंसान को ‘हृदय में अनगिनित गुण दिए’ ताकि वह कई चीज़ों, जैसे पंछियों, मछलियों, पेड़ों और जानवरों के बारे में लिख सके। लोग सुलैमान की बातें सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे। (1 राजा 4:29-34) लेकिन यीशु “सुलैमान से भी बड़ा” था। (मत्ती 12:42) वह सुलैमान से कहीं ज़्यादा बुद्धिमान था और उसके ‘हृदय में अनगिनित गुण’ सुलैमान से भी बढ़कर थे। यीशु को परमेश्‍वर के वचन साथ ही पंछियों, जानवरों, मछलियों, खेती-बाड़ी, मौसम, हाल की घटनाओं, इतिहास और लोगों के रहन-सहन के बारे में बेहिसाब ज्ञान था, जिसका इस्तेमाल वह लोगों को सिखाने में करता था। लेकिन यीशु ने दूसरों को शीशे में उतारने के लिए कभी-भी अपने ज्ञान का बखान नहीं किया। उसने अपना संदेश सीधा और सरल रखा। यही वजह थी कि लोगों को उसकी बातें सुनने में मज़ा आता था!—मरकुस 12:37; लूका 19:48.

15 आज मसीही, यीशु के दिखाए रास्ते पर चलने की कोशिश करते हैं। हमारे पास उसके जितनी बुद्धि और ज्ञान नहीं है, लेकिन थोड़ा-बहुत ज्ञान और तजुरबा हम सभी के पास है, जिसकी मदद से हम लोगों को परमेश्‍वर के वचन में दी सच्चाई सिखा सकते हैं। मिसाल के लिए माता-पिताओं को बच्चों की परवरिश करने का तजुरबा होता है, जिसके आधार पर वे लोगों को सिखा सकते हैं कि यहोवा अपने बच्चों से कितना प्यार करता है। दूसरे मसीही, काम की जगह, स्कूल या इंसानों और दुनिया की हाल की घटनाओं के बारे में अपनी जानकारी से कुछ उदाहरण या मिसाल देकर लोगों को समझा सकते हैं। लेकिन साथ-साथ हम यह भी खयाल रखते हैं कि हमारा ध्यान हमारे संदेश, यानी परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी से न हटे।—1 तीमुथियुस 4:16.

प्रचार की तरफ यीशु का रवैया

16, 17. (क) यीशु ने अपने प्रचार काम की तरफ कैसा रवैया दिखाया? (ख) यीशु ने कैसे दिखाया कि प्रचार काम ही उसकी ज़िंदगी का खास काम है?

16 यीशु प्रचार सेवा को एक बेशकीमती खज़ाना समझता था। स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता के बारे में सच्चाई सिखाने में यीशु को बड़ी खुशी मिलती थी। इस सच्चाई पर इंसानी शिक्षाओं और परंपराओं का परदा नहीं पड़ा था। लोगों को यहोवा के करीब लाना और हमेशा की ज़िंदगी की आशा देना भी उसे अच्छा लगता था। लोगों को खुशखबरी सुनाकर उन्हें दिलासा देने के काम को भी वह दिल से करता था। उसने अपनी इन भावनाओं को कैसे ज़ाहिर किया? तीन तरीकों पर गौर कीजिए।

17 सबसे पहला, यीशु ने प्रचार काम को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दी। उसने अपनी सारी ज़िंदगी राज के बारे में बताने में लगा दी, यह उसके जीवन का सबसे अहम और मुख्य काम था। इसीलिए जैसा कि हमने अध्याय 5 में देखा कि यीशु ने बुद्धिमानी दिखाते हुए सादगी-भरी ज़िंदगी बितायी। दूसरों को सलाह देते वक्‍त भी उसने अपनी नज़र ज़रूरी बातों पर टिकाए रखी। वह जानता था कि चीज़ों का अंबार लगाने से उसका ध्यान आसानी से बँट सकता है। इसके अलावा उन चीज़ों के रख-रखाव, मरम्मत, साथ ही उनके पुराने हो जाने पर नयी खरीदने में पैसा खर्च करना पड़ेगा, जिसकी वजह से उसका ध्यान प्रचार काम से हट सकता। इसलिए उसने अपना जीवन सादा ही रखा।—मत्ती 6:22; 8:20.

18. किन बातों से ज़ाहिर होता है कि यीशु ने खुद को प्रचार काम में लगा दिया?

18 दूसरा तरीका, यीशु ने प्रचार काम में खुद को पूरी तरह लगा दिया। उसने इस काम में अपनी पूरी ताकत लगा दी। लोगों को खुशखबरी सुनाने के लिए वह पूरे इसराएल देश में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चला। वह लोगों से उनके घरों में, चौराहों पर, बाज़ारों में और खुले मैदानों में बात करता था। जब उसे आराम या खाने-पीने की ज़रूरत होती या जब वह अपने करीबी दोस्तों के साथ कुछ वक्‍त अकेले बिताना चाहता था, तब भी वह लोगों को प्रचार करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता था। यहाँ तक कि जब वह सूली पर लटका था, अपने जीवन की आखिरी घड़ी में भी उसने दूसरों को परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी सुनायी!—लूका 23:39-43.

19, 20. यीशु ने कौन-सी मिसाल देकर समझाया कि प्रचार काम जल्द-से-जल्द किया जाना है?

19 तीसरा तरीका, यीशु ने प्रचार काम को सबसे ज़रूरी समझा। सूखार शहर के बाहर कुँए के पास सामरी स्त्री से हुई यीशु की बातचीत को याद कीजिए। यीशु के प्रेषितों को लगा कि उस समय खुशखबरी सुनाने की कोई खास ज़रूरत नहीं थी, यह काम बाद में भी किया जा सकता था। लेकिन यीशु ने उनसे कहा: “तुम कहते हो न कि फसल की कटाई के लिए अभी चार महीने बाकी हैं? देखो! मैं तुमसे कहता हूँ: अपनी आँखें उठाओ और खेतों पर नज़र डालो कि वे कटाई के लिए पक चुके हैं।”—यूहन्‍ना 4:35.

20 यीशु ने यह मिसाल उस वक्‍त के मौसम को ध्यान में रखते हुए दी। यह शायद किस्लेव (नवंबर/दिसंबर) का महीना था। जौ की कटाई निसान 14 को फसह के पर्व के दिन से शुरू होती थी और उसमें अभी चार महीने बाकी थे। इसलिए इस वक्‍त किसानों को कटाई की कोई हड़बड़ी नहीं थी, बहुत समय बाकी था। लेकिन यहाँ यीशु फसल की नहीं बल्कि लोगों की बात कर रहा था। कई लोग मसीह की बात सुनने, सीखने, उसका चेला बनने और वह शानदार आशा पाने के लिए तैयार थे जो यहोवा ने इंसानों के लिए रखी है। यह ऐसा था मानो यीशु इन लाक्षणिक खेतों को देख सकता था और जानता था कि फसल पक चुकी है और लहलहा रही है, जो इस बात की निशानी थी कि उसकी कटाई का वक्‍त आ गया है। यही सही वक्‍त था और यह काम जल्द-से-जल्द किया जाना था! यही वजह थी कि जब एक शहर के लोगों ने यीशु को अपने यहाँ रोकने की कोशिश की, तो उसने उनसे कहा: “मुझे दूसरे शहरों में भी परमेश्‍वर के राज की खुशखबरी सुनानी है, क्योंकि मुझे इसीलिए भेजा गया है।”—लूका 4:43.

21. हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?

21 अभी हमने जिन तीन तरीकों पर चर्चा की, उन्हें लागू करने से हम यीशु की मिसाल पर चल पाएँगे। हमें प्रचार काम को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देनी चाहिए। हालाँकि हम पर परिवार की और दूसरी ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, लेकिन इनके बावजूद अगर हम प्रचार में जोश के साथ और नियमित तौर पर हिस्सा लें तो हम दिखा सकते हैं कि यीशु की तरह हम भी प्रचार काम को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह देते हैं। (मत्ती 6:33; 1 तीमुथियुस 5:8) हम इस काम में अपना ज़्यादा-से-ज़्यादा समय, ताकत और साधन लगाकर खुद को पूरी तरह लगा सकते हैं। (लूका 13:24) और हम हमेशा ध्यान में रख सकते हैं कि यह काम जल्द-से-जल्द किया जाना है। (2 तीमुथियुस 4:2) हमें हर मौके का फायदा उठाकर प्रचार करना चाहिए!

22. अगले अध्याय में हम किस विषय पर चर्चा करेंगे?

22 यीशु ने इस बात का खयाल रखा कि प्रचार काम उसकी मौत के बाद भी जारी रहे। इस तरह भी उसने दिखाया कि वह इस काम को ज़रूरी समझता है। उसने अपने चेलों को आज्ञा दी कि वे प्रचार और सिखाने का काम करते रहें। अगले अध्याय में हम इस आज्ञा पर चर्चा करेंगे।

a उदाहरण के लिए, उस स्त्री ने यीशु से पूछा कि एक यहूदी होते हुए वह क्यों एक सामरी से बात कर रहा है। इस तरह उसने इन दोनों जातियों के बीच बरसों से चली आ रही रंजिश का मुद्दा उठाया। (यूहन्‍ना 4:9) उसने यह भी दावा किया कि उसकी जाति के लोग याकूब के वंशज हैं, लेकिन यह बात उसके दिनों के यहूदी बिलकुल नहीं मानते थे। (यूहन्‍ना 4:12) वे सामरियों को कूतेही पुकारते थे, यह जताने के लिए कि वे विदेशियों की संतान हैं।

b प्रचार करने का मतलब है किसी संदेश का ऐलान करना या उसके बारे में बताना। सिखाने का भी कुछ-कुछ यही मतलब होता है, लेकिन उसमें संदेश के बारे में अच्छी तरह और गहराई से समझाना भी शामिल होता है। अच्छी तरह शिक्षा देने के लिए विद्यार्थी के दिल तक पहुँचने की ज़रूरत होती है ताकि वह जो सीखता है, उसके मुताबिक काम कर सके।