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भाग 7

ज़िंदगी में संतोष पाना—इतना मुश्‍किल क्यों?

ज़िंदगी में संतोष पाना—इतना मुश्‍किल क्यों?

आज क्यों ज़्यादातर लोग ज़िंदगी की कश्‍मकश में उलझे हुए हैं और उन्हें ज़िंदगी का सही मकसद नज़र नहीं आता? “मनुष्य जो स्त्री से उत्पन्‍न होता है, वह थोड़े दिनों का और दुख से भरा रहता है। वह फूल की नाईं खिलता, फिर तोड़ा जाता है; वह छाया की रीति पर ढल जाता, और कहीं ठहरता नहीं।” (अय्यूब 14:1, 2) फिरदौस में पहले जोड़े के साथ एक ऐसी घटना हुई थी, जिसने सारी मानवजाति के सुनहरे भविष्य की आशा पर पानी फेर दिया।

2 मानव परिवार को सच्ची खुशी तभी मिल सकती थी जब वह परमेश्‍वर के साथ एक गहरा रिश्‍ता कायम करता। और यह रिश्‍ता उन्हें खुशी-खुशी कायम करना था, किसी के दबाव में आकर नहीं। (व्यवस्थाविवरण 30:15-20; यहोशू 24:15) यहोवा चाहता है कि एक इंसान, दिल में सच्चे प्यार की वजह से उसकी आज्ञा माने और उसकी उपासना करे। (व्यवस्थाविवरण 6:5) इसीलिए यहोवा ने अदन की वाटिका में पहले पुरुष पर एक ऐसी रोक लगायी थी, जिससे यह ज़ाहिर हो जाता कि वह वाकई दिल से यहोवा का वफादार है या नहीं। परमेश्‍वर ने आदम से कहा: “तू बाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है: पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्‍य मर जाएगा।” (उत्पत्ति 2:16, 17) यह एक छोटी-सी परीक्षा थी। यहोवा ने आदम को वाटिका के सभी पेड़ों में से सिर्फ एक पेड़ का फल खाने से मना किया था। वह पेड़ इस बात की निशानी थी कि भले-बुरे का फैसला करने का हक सिर्फ सिरजनहार को है, जो सर्व-ज्ञानी है। आदम ने यहोवा की यह आज्ञा अपनी पत्नी को भी बताया जिसे यहोवा ने उसे एक “सहायक” के तौर पर दिया था। (उत्पत्ति 2:18) वे दोनों इस इंतज़ाम में बेहद सुखी थे—उन्हें परमेश्‍वर के राज्य शासन के अधीन रहकर खुशी-खुशी उसकी इच्छा पूरी करनी थी और इस तरह सिरजनहार और जीवन-दाता के लिए अपना प्यार दिखाना था।

3 फिर एक दिन एक साँप हव्वा के पास आया और उससे पूछा: “क्या सच है, कि परमेश्‍वर ने कहा, कि तुम इस बाटिका के किसी वृक्ष का फल न खाना?” हव्वा ने बताया कि उन्हें सिर्फ भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष से खाना मना है जो “बाटिका के बीच में है” ताकि वे ‘मर न जाए।’—उत्पत्ति 3:1-3.

4 यह साँप कौन था? बाइबल की प्रकाशितवाक्य किताब इसकी पहचान देते हुए कहती है कि यह वही “पुराना सांप” है जो “इब्‌लीस और शैतान कहलाता है, और सारे संसार का भरमानेवाला है।” (प्रकाशितवाक्य 12:9) तो क्या खुद परमेश्‍वर ने ही एक प्राणी को इब्‌लीस या शैतान करके रचा था? ऐसा हरगिज़ नहीं है, क्योंकि यहोवा का हर काम खरा और सिद्ध है। (व्यवस्थाविवरण 32:4) दरअसल एक आत्मिक प्राणी खुद अपनी मरज़ी से इब्‌लीस यानी “निंदक” और शैतान यानी “विरोधी” बना। वह ‘अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर फंस गया।’ उसकी अभिलाषा थी कि उसे परमेश्‍वर का दर्जा मिले इसलिए उसने सिरजनहार के खिलाफ बगावत करने की ठान ली।—याकूब 1:14.

5 शैतान ने हव्वा से आगे कहा: “तुम निश्‍चय न मरोगे, वरन परमेश्‍वर आप जानता है, कि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे उसी दिन तुम्हारी आंखें खुल जाएंगी, और तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्‍वर के तुल्य हो जाओगे।” (उत्पत्ति 3:4, 5) शैतान ने हव्वा को यकीन दिलाया कि भले-बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल एक चाहने योग्य चीज़ है। चंद शब्दों में कहें तो उसने यह दलील दी: ‘परमेश्‍वर तुमसे कोई अच्छी चीज़ छिपा रहा है। ज़रा उस पेड़ का फल खाकर तो देखो, फिर तुम परमेश्‍वर की तरह बन जाओगे और भले-बुरे के बारे में अपने आप ही फैसला कर पाओगे।’ आज शैतान बहुत-से लोगों को परमेश्‍वर की सेवा से दूर ले जाने के लिए ऐसी ही दलीलें पेश करता है। वह उनसे कहता है, ‘तुम्हारे मन को जो भाए, वही करो। इस बात की फिक्र मत करना कि तुम्हें अपने जीवन-दाता को क्या जवाब देना पड़ेगा।’—प्रकाशितवाक्य 4:11.

6 शैतान की बात सुनने के बाद हव्वा को वह फल अचानक बड़ा मनभाऊ लगने लगा, वह खुद को रोक नहीं पा रही थी! उसने वह फल तोड़कर खा लिया और फिर अपने पति को भी दिया। आदम को अच्छी तरह मालूम था कि इसका नतीजा क्या होगा मगर फिर भी उसने अपनी पत्नी की बात सुनी और वह फल खा लिया। अंजाम क्या हुआ? यहोवा ने यह कहते हुए स्त्री को इसकी सज़ा दी: “मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दुःख को बहुत बढ़ाऊंगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्‍न करेगी: और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” और पुरुष को क्या सज़ा दी गयी? “भूमि तेरे कारण शापित है; तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा और वह तेरे लिये कांटे और ऊंटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी में फिर मिल जाएगा।” अब आदम और हव्वा को अपनी मरज़ी पूरी करने के लिए आज़ाद छोड़ दिया गया कि अपने जीवन को सुखी बनाने और खुशियों से भरने के लिए जो कुछ उनके बस में है वो कर लें। जब इंसान ने परमेश्‍वर के मकसद से दूर होकर ज़िंदगी में सुख पाने की कोशिश की तो क्या वो कामयाब हो सका? एक खूबसूरत बगीचे जैसे फिरदौस की देखभाल करने और उसे धरती के कोने-कोने तक फैलाने का मज़ेदार काम करने के बजाय अब उन्हें खून-पसीना एक करके मेहनत करनी थी, और यह सब सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए। अब वो अपने सिरजनहार की महिमा के लिए कुछ नहीं कर सकते थे।—उत्पत्ति 3:6-19.

7 जिस दिन पहले जोड़े ने भले-बुरे के ज्ञान के पेड़ का फल खाया, परमेश्‍वर की नज़रों में वे उसी दिन मर गए और उनका शरीर मौत की तरफ बढ़ता गया। आखिर में जब वे मर गए तो उनका क्या हुआ? मरे हुओं की असली हालत के बारे में बाइबल बताती है: “जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उनको कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है।” (सभोपदेशक 9:5; भजन 146:4) इंसान में “आत्मा” जैसी कोई चीज़ नहीं होती जो मरने पर उसके शरीर में से निकल जाती है। पाप की सज़ा मौत है, किसी नरक की आग में हमेशा के लिए तड़पते रहना नहीं है। और न ही मौत स्वर्ग लोक जाने का एक द्वार है जहाँ इंसान परम-सुख का आनंद ले सके। *

8 मान लीजिए कि केक बनानेवाला एक बरतन कहीं से मुड़ा हुआ है तो उसमें बनाए जानेवाले हर केक पर उसका निशान ज़रूर होगा। ठीक उसी तरह जब पहला पुरुष और स्त्री असिद्ध हो गए तो वे सिर्फ असिद्ध संतान ही पैदा कर सकते थे। इसके बारे में बाइबल यूँ समझाती है: “एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया।” (रोमियों 5:12) इस तरह हम सभी पाप में पैदा हुए और हमारी ज़िंदगी दुःख-तकलीफों से भर गयी। आदम की संतानों के लिए ज़िंदगी एक बोझ बन गयी और सिर्फ निराशा ही उनके हाथ लगी है। मगर क्या छुटकारा पाने का कोई रास्ता है?

^ पैरा. 7 मरे हुओं की हालत के बारे में दिलचस्प जानकारी आपको ब्रोशर, मरने पर हमारा क्या होता है? (अँग्रेज़ी) में मिलेगी, जिसे वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी ने प्रकाशित किया है।