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त्रियेक का धर्मसिद्धांत किस तरह विकसित हुआ?

त्रियेक का धर्मसिद्धांत किस तरह विकसित हुआ?

त्रियेक का धर्मसिद्धांत किस तरह विकसित हुआ?

इस समय आप शायद पूछेंगे: ‘अगर त्रियेक का धर्मसिद्धांत एक बाइबलीय उपदेश नहीं, तो फिर यह ईसाईजगत्‌ का एक धर्मसिद्धांत किस तरह बन गया?’ अनेक सोचते हैं कि यह सामान्य युग३२५ में निकेइया की परिषद्‌ में प्रतिपादित किया गया।

परंतु, वह पूर्ण रूप से सच नहीं। निकेइया की परिषद्‌ में दृढ़तापूर्वक कहा तो गया कि मसीह परमेश्‍वर के समान तत्त्व का था, जिस से बाद के त्रित्ववादी धर्मविज्ञान के लिए आधार-कार्य तैयार हुआ। लेकिन उस में त्रियेक का धर्मसिद्धांत स्थापित नहीं हुआ, इसलिए कि उस परिषद्‌ में पवित्र आत्मा का त्रियेक ईश्‍वरत्व के तीसरे व्यक्‍ति के तौर से कोई ज़िक्र न था।

निकेइया में कौंस्टेंटाइन की भूमिका

अनेक वर्षों से, बाइबलीय आधार पर इस विकासशील कल्पना का बहुत विरोध रहा था कि यीशु परमेश्‍वर था। इस विवाद को सुलझने की कोशिश में, रोमी सम्राट्‌ कौंस्टेंटाइन ने सभी बिशपों को निकेइया बुला भेजा। लगभग ३०० ही, कुल संख्या का एक अंश, वास्तव में उपस्थित हुए।

कौंस्टेंटाइन मसीही न था। कल्पना के अनुसार, उसने ज़िन्दगी में बाद में धर्म-परिवर्तन किया, लेकिन जब तक वह मरणासन्‍न न था उसका बपतिस्मा नहीं किया गया। उसके बारे में, हेन्री चॅडविक्‌ दी अर्ली चर्च  में कहता है: “कौंस्टेंटाइन, अपने पिता के समान, अविजेय सूर्य की पूजा करता था; . . . उसके धर्म-परिवर्तन को अनुग्रह के एक आन्तरिक अनुभव के तौर से नहीं समझना चाहिए . . . यह एक सैन्य मामला था। मसीही धर्मसिद्धांत की उसकी समझ कभी भी बिल्कुल स्पष्ट न थी, लेकिन वह कायल था कि युद्ध में विजय पाना मसीहियों के परमेश्‍वर की देन में स्थित था।”

निकेइया की परिषद्‌ में इस बपतिस्मा-रहित सम्राट्‌ ने कैसी भूमिका अदा की? एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटॅनिका  बताती है: “कौंस्टेंटाइन ने खुद संचालन किया, विचार-विमर्शों को सक्रिय रूप से मार्गदर्शित किया, और . . . परिषद्‌ द्वारा जारी किए गए धर्ममत में परमेश्‍वर से मसीह का रिश्‍ता, कि वह ‘पिता के साथ एक ही तत्त्व है,’ व्यक्‍त करनेवाले उस निर्णायक सूत्र का प्रस्ताव ज़ाती तौर से किया . . . सम्राट्‌ के रोब में आकर, सिर्फ़ दो ही अपवादों सहित, सभी बिशपों ने उस धर्ममत पर हस्ताक्षर किए, जिन में के अनेकों ने अपनी प्रवृत्ति के बिल्कुल ख़िलाफ़ जाकर ऐसा किया।”

इसलिए, कौंस्टेंटाइन की भूमिका निर्णायक थी। दो महीनों के प्रचंड धार्मिक वाद-विवाद के बाद, इस मूर्तिपूजक राजनीतिज्ञ ने हस्तक्षेप करके उन लोगों के पक्ष में निर्णय दिया जिन्होंने कहा कि यीशु परमेश्‍वर था। पर क्यों? निश्‍चय ही कोई बाइबलीय दृढ़ धारणा की वजह से तो नहीं। “कौंस्टेंटाइन को बुनियादी तौर पर यूनानी धर्मविज्ञान में पूछे जा रहे प्रश्‍नों का ज़रा सा भी ज्ञान न था,” अ शॉर्ट हिस्टरी ऑफ क्रिस्‌चियन डॉक्ट्रिन  नामक किताब कहती है। जो उसने समझा वह यही था कि धार्मिक फूट उसके साम्राज्य को एक ख़तरा थी, और वह अपनी रियासत दृढ़ करना चाहता था।

परंतु, निकेइया के एक भी बिशप ने एक त्रियेक का प्रवर्तन नहीं किया। उन्होंने केवल यीशु के तत्त्व को ही निश्‍चित किया लेकिन पवित्र आत्मा की भूमिका को नहीं। अगर त्रियेक एक सुस्पष्ट बाइबल सत्य रहा होता, तो क्या उन्हें उसी समय उसे प्रस्तावित करना नहीं चाहिए था?

अधिक विकास

निकेइया के बाद, इस विषय पर वाद-विवाद दशकों तक जारी रहे। जिन लोगों ने माना कि यीशु परमेश्‍वर का समानाधिकारी न था, उन्हें कुछ समय के लिए फिर से अनुग्रह प्राप्त हुआ। लेकिन बाद में सम्राट्‌ थिओडोसियस ने उनके ख़िलाफ़ निर्णय लिया। उसने अपने राज्य के लिए एक आदर्श के तौर से निकेइया की परिषद्‌ का धर्ममत स्थापित किया और सा.यु. ३८१ में उस सूत्र को स्पष्ट करने के लिए कौंस्टेंटिनोपल की परिषद्‌ आयोजित की।

वह परिषद्‌ परमेश्‍वर और यीशु के समान स्तर पर पवित्र आत्मा को रखने के लिए सहमत हुई। पहली बार, ईसाईजगत्‌ का त्रियेक फ़ोकस में आना शुरू हुआ।

फिर भी, कौंस्टेंटिनोपल की परिषद्‌ के बाद भी, त्रियेक एक व्यापक रूप से स्वीकृत धर्ममत नहीं बना। अनेकों ने उसका विरोध किया और इस प्रकार खुद पर हिंसात्मक उत्पीड़न ले आए। यह सिर्फ़ बाद वाली सदियों में था कि त्रियेक को निर्धारित धर्ममतों में सूत्रबद्ध किया गया। दी एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना  ग़ौर करती है: “त्रित्ववाद का पूरा विकास पश्‍चिम में, मध्ययुगीन दर्शन पद्धति में हुआ, जब कोई भी व्याख्या तत्त्वज्ञान और मनोविज्ञान के शब्दों में की जाती थी।”

ॲथानेशियन धर्ममत

त्रियेक की परिभाषा ॲथानेशियन धर्ममत में अधिक पूर्ण रूप से की गयी। ॲथानेसियस एक पादरी था जिस ने निकेइया में कौंस्टेंटाइन का समर्थन किया। जिस धर्ममत पर उसका नाम है, उस में कहा गया है: “हम त्रियेक में एक परमेश्‍वर की उपासना करते हैं . . . पिता परमेश्‍वर है, पुत्र परमेश्‍वर है, और पवित्र आत्मा परमेश्‍वर है; और फिर भी ये तीन परमेश्‍वर नहीं, बल्कि एक ही परमेश्‍वर है।”

परंतु, बहुश्रुत विद्वान सहमत हैं कि ॲथानेसियस ने इस धर्ममत की रचना नहीं की। द न्यू एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटॅनिका  टिप्पणी करती है: “१२वीं सदी तक पूर्वी चर्च के लिए यह धर्ममत अनजाना था। १७वीं सदी से, विद्वान आम तौर से सहमत हुए हैं कि ॲथानेसियस (मृत्यु ३७३) ने ॲथानेशियन धर्ममत नहीं लिखा पर उसकी रचना संभवतः ५वीं सदी के दौरान दक्षिण फ्रांस में की गयी। . . . प्रतीत होता है कि धर्ममत का प्रभाव मुख्यतः दक्षिण फ्रांस और स्पेन में ६ठीं और ७वीं सदी में रहा। ९वीं सदी में यह जर्मनी में चर्च की उपासना-पद्धति में इस्तेमाल किया गया और रोम में कुछ समय बाद।”

तो त्रियेक को ईसाईजगत्‌ में व्यापक रूप से स्वीकृत होने के लिए मसीह के समय से सदियाँ लग गयीं। और इन सारी बातों में, निर्णय किस से नियंत्रित हुए? क्या ये परमेश्‍वर के वचन से नियंत्रित हुए, या क्या पुरोहिती और राजनीतिक प्रयोजन से? ऑरिजिन ॲन्ड एवॉल्यूशन ऑफ रिलिजियन  में, ई. डब्ल्यू. हॉप्किन्स जवाब देता है: “त्रियेक की सुनिश्‍चित परम्परागत परिभाषा अधिकांशतः चर्च की राजनीति की ही बात थी।”

धर्मत्याग पूर्वबतलाया गया

त्रियेक का यह अपकीर्तिकर इतिहास उन बातों से अनुकूल है जो यीशु और उसके प्रेरितों ने पूर्वबतलाया था कि उनके समय के बाद होनेवाली थीं। उन्होंने कहा कि उस समय से लेकर यीशु के प्रत्यागमन तक एक धर्मत्याग, एक विचलन, सच्ची उपासना से एक अवनति घटनेवाली थी, जिस के बाद परमेश्‍वर के इस रीति-व्यवस्था के नाश के दिन से पहले सच्ची उपासना पुनःस्थापित की जाती।

उस “दिन” के संबंध में, प्रेरित पौलुस ने कहा: “वह दिन तब तक नहीं आ सकता, जब तक पहले धर्मत्याग न हो ले, और वह अधर्म-पुरुष प्रगट न हो जाए।” (२ थिस्सलुनीकियों २:३, ७; न्यू.व.) बाद में, उसने भविष्यवाणी की: “मेरे जाने के बाद खूँखार भेड़िए तुम में घुस आएँगे जो झुण्ड पर कोई दया नहीं करेंगे। तुम्हारे ही बीच में से भी ऐसे ऐसे मनुष्य सामने आएँगे, जो चेलों को अपने पीछे हो लेने को फुसलाने के लिए सत्य की विलक्षण अनुकृति करनेवाली बातें कहेंगे।” (प्रेरितों के काम २०:२९, ३०; जे.बी.) यीशु के अन्य चेलों ने भी, उसके ‘अधर्म’ पादरी वर्ग समेत, इस धर्मत्याग के बारे में लिखा।—उदाहरणार्थ, २ पतरस २:१; १ यूहन्‍ना ४:१-३; यहूदा ३, ४ देखें।

पौलुस ने यह भी लिखा: “ऐसा समय निश्‍चय ही आएगा जब, विश्‍वस्त उपदेश से संतुष्ट होना तो दूर, लोग नवीनतम अनूठी चीज़ के लिए उत्सुक होंगे और खुद के लिए अपनी अपनी रुचि के अनुसार शिक्षकों की पूरी क्रमावली जमा करेंगे; और फिर, सत्य की ओर ध्यान देने के बजाय, वे कल्पित बातों की ओर मुड़ेंगे।”—२ तीमुथियुस ४:३, ४, जे.बी.

खुद यीशु ने समझाया कि सच्ची उपासना से इस अवनति के पीछे क्या था। उसने कहा कि उसने अच्छे बीज बोए थे लेकिन कि दुश्‍मन, शैतान, बोए हुए खेत पर जंगली बीज बोता। तो गेहूँ के पौधे की पहली पत्तियों के साथ साथ जंगली बीज के पौधों की पत्तियाँ भी दिखायी दीं। इस प्रकार, फ़सल आने तक शुद्ध मसीहियत से एक विचलन की अपेक्षा की जा सकती थी, जिस के बाद यीशु मामलों को ठीक कर देता। (मत्ती १३:२४-४३) दी एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना  टिप्पणी करती है: “चौथी सदी के त्रित्ववाद ने परमेश्‍वर के तत्त्व से संबंधित प्रारंभिक मसीही उपदेश को ठीक-ठीक प्रतिबिंबित नहीं किया; उलटे, वह इस उपदेश से एक विचलन था।” तो फिर, यह विचलन का आरंभ कहाँ से हुआ?—१ तीमुथियुस १:६.

उस पर किस बात ने असर किया

प्राचीन दुनिया भर में, बाबेलोनिया के समय से, तीन-तीन, या त्रिकों में समूहित विधर्मी देवताओं की उपासना सामान्य थी। वह असर मिस्र, यूनान और रोम में यीशु से पहले, उसके जीवनकाल के दौरान और उसके बाद वाली सदियों में भी प्रचलित था। और प्रेरितों की मृत्यु के बाद ऐसे विधर्मी विचार मसीहियत में घुसने लगे।

इतिहासकार विल ड्यूरॅन्ट ने ग़ौर किया: “मसीहियत ने विधर्म को नष्ट नहीं किया; उसने उसे ग्रहण किया। . . . मिस्र से एक दैवी त्रियेक के विचार आए।” और इजिप्‌शियन रिलिजियन  नामक किताब में, सीग्‌फ्रीड़ मोरेंज़ टीका करता है: “मिस्री धर्मविज्ञानी मुख्य रूप से त्रियेक में ध्यानमग्न थे . . . तीन देवताओं को जोड़ा जाता है और उन्हें एक ही व्यक्‍ति समझकर, एकवचन रूप में संबोधित किया जाता है। इस तरह मिस्री धर्म की आध्यात्मिक शक्‍ति ईसाई धर्मविज्ञान के साथ एक सीधा संबंध दिखाती है।”

इस प्रकार, सिकंदरिया, मिस्र, में उत्तर तीसरी और आद्य चौथी सदी के पादरियों, जैसे कि ॲथानेसियस, ने इस असर को प्रतिबिंबित किया जब उन्होंने त्रियेक के धर्मसिद्धांत में परिणामित होनेवाले विचारों को सूत्रबद्ध किया। उनका खुद का असर इतना फैल गया कि मोरेंज़ “सिकंदरियाई धर्मविज्ञान को मिस्री धार्मिक परम्परा और ईसाईयत के बीच एक मध्यस्थ” समझता है।

एड्‌वर्ड गिब्बनस्‌ के हिस्टरी ऑफ क्रिस्‌चिॲनिटी  की प्रस्तावना में, हम पढ़ते हैं: “यदि विधर्म ईसाईयत से मात खा गया, तो यह उतना ही सच है कि ईसाईयत विधर्म से दूषित हो गयी। रोम की गिरजा ने, पहले मसीहियों का शुद्ध देववाद . . . त्रियेक के अबोध्य मत में बदल दिया। अनेक विधर्मी सिद्धांत, जिन की कल्पना मिस्रियों ने की और जिन्हें प्लेटो ने आदर्श रूप में प्रस्तुत किया, वे विश्‍वास के योग्य होने के तौर से रख लिए गए।”

अ डिक्शनरी ऑफ रिलिजियस नॉलेज  ग़ौर करती है कि अनेक कहते हैं कि त्रियेक “काफ़िर धर्मों से उधार लिया जाकर, मसीही धर्म पर रोपा जानेवाला विकार है।” और द पेगनिज़्म इन आवर क्रिस्‌चिॲनिटी  कहती है: “[त्रियेक] का मूल पूर्ण रूप से विधर्मी है।”

इसीलिए, एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजियन ॲन्ड एथिक्स  में, जेम्स हेर्स्टिग्‌स ने लिखा: “मिसाल के तौर पर, भारतीय धर्म में हम ब्रह्‍मा, शिव और विष्णु का त्रित्ववादी समूह पाते हैं; और मिस्री धर्म में ओसाइरिस, आइसिस और होरस का त्रित्ववादी समूह पाते हैं . . . और ऐसा भी नहीं कि हम सिर्फ़ ऐतिहासिक धर्मों में ही परमेश्‍वर का विचार एक त्रियेक के रूप में होता देखते हैं। ख़ास तौर से हम सर्वश्रेष्ठ और परम तत्त्व का वह नव्य प्लेटोवादी विचार याद करते हैं,” जो कि “त्रिकात्मक रूप में चित्रित किया जाता है।” लेकिन त्रियेक से यूनानी तत्त्वज्ञानी प्लेटो का क्या संबंध?

प्लेटोवाद

माना जाता है कि प्लेटो यीशु के पूर्व ४२८ से ३४७ तक जीवित रहा। जबकि उसने उसके वर्तमान रूप में त्रियेक नहीं सिखाया, उसके तत्त्वज्ञान ने उसका रास्ता तैयार किया। बाद में, त्रिकात्मक विश्‍वासों को समाविष्ट करनेवाले तात्त्विक संप्रदाय उठ खड़े हुए, और ये परमेश्‍वर और प्रकृति के बारे में प्लेटो के विचारों से प्रभावित हुए।

फ्रांसीसी भाषा का नूवो दिक्सिओनेर यूनीवर्सेल  (नया विश्‍व शब्दकोश) प्लेटो के असर के बारे में कहता है: “प्रतीत होता है कि प्लेटोनिक त्रियेक,  जो कि स्वयं प्रारंभिक लोगों के समय के प्राचीन त्रियेकों  का सिर्फ़ एक पुनर्विन्यास ही है, गुणों का वह तर्कसंगत तात्त्विक त्रियेक  है जिस में से ईसाई गिरजाओं द्वारा सिखाए गए तीन तत्त्व या व्यक्‍तियों का उपदेश उत्पन्‍न हुआ। . . . इस यूनानी तत्त्वज्ञानी की दैवी त्रियेक  की धारणा . . . सभी प्राचीन [विधर्मी] धर्मों में पायी जा सकती है।”

द न्यू शॅफ़-हरज़ॉग एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजियस नॉलेज इस यूनानी तत्त्वज्ञान का असर दिखाती है: “लोगॉस और त्रियेक के धर्मसिद्धांतों ने उनका आकार यूनानी फादरों से प्राप्त किया, जो . . . सीधे या फिर अप्रत्यक्ष रूप से, प्लेटोवादी तत्त्वज्ञान से बहुत ही प्रभावित थे . . . यह बात इन्कार नहीं की जा सकती कि ग़लतियाँ और विकार इस स्रोत से गिरजा में घुस आयीं।”

द चर्च ऑफ द फर्स्ट थ्री सेंच्यूरीज़  नामक किताब कहती है: “त्रियेक का धर्मसिद्धांत क्रमिक और अपेक्षया हाल की रचना थी; . . . उसका मूल यहूदी और मसीही शास्त्रों से एक बिल्कुल ही पराए स्रोत में था; . . . वह बढ़ गया, और प्लेटोवादी फादरों के ज़रिए, मसीहियत पर रोपा गया।”

सा.यु. तीसरी सदी के अंत तक, “मसीहियत” और नए प्लेटोवादी तत्त्वज्ञान अविभाज्य रूप से एक हो गए। जैसा ॲडोल्फ हारनॅक आउटलाइन्स ऑफ द हिस्टरी ऑफ डॉग्‌मा  में कहता है, चर्च धर्मसिद्धांत “यूनानीवाद [विधर्मी यूनानी मत] की मिट्टी में पक्की तरह जम गया। उसके द्वारा वह अधिकांश मसीहियों के लिए एक रहस्य बन गया।”

चर्च ने दावा किया कि उसके नए धर्मसिद्धांत बाइबल पर आधारित थे। लेकिन हारनॅक कहता है: “असल में उस ने अपने बीच के यूनानी अनुमान मात्र, अँधविश्‍वासी विचार और विधर्मी रहस्य-पूजा की प्रथाओं को वैध बना दिया।”

अ स्टेटमेन्ट ऑफ रीज़न्स  नामक किताब में, ॲन्ड्‌रूज़ नॉर्टन त्रियेक के बारे में कहता है: “हम इस धर्मसिद्धांत के इतिहास का पता लगाकर उसका स्रोत, मसीही प्रकटन में नहीं बल्कि प्लेटोवादी तत्त्वज्ञान में पा सकते हैं . . . त्रियेक मसीह और उसके प्रेरितों का धर्मसिद्धांत नहीं, बल्कि बाद के प्लेटोवादियों की विचारधारा की एक कल्पित कहानी है।”

इस प्रकार, सा.यु. चौथी सदी में, यीशु और प्रेरितों द्वारा पूर्वबतलाया गया धर्मत्याग पूर्ण रूप से खिल गया। त्रियेक का विकास इसका बस एक ही प्रमाण था। धर्मत्यागी गिरजाएँ नरकाग्नि, आत्मा की अमरता और मूर्तिपूजा जैसे अन्य विधर्मी विचार भी अपनाने लगे। आध्यात्मिक रूप से ईसाईजगत्‌ ने अपने पूर्वबतलाए गए अँधकार-युग में प्रवेश किया था, जिस में एक बढ़ते हुए “अधर्मी-पुरुष” पादरी वर्ग की प्रधानता थी।—२ थिस्सलुनीकियों २:३, ७.

परमेश्‍वर के भविष्यद्वक्‍ताओं ने यह क्यों नहीं सिखाया?

ऐसा क्यों है कि हज़ारों साल तक, परमेश्‍वर के कोई भविष्यद्वक्‍ता ने उसके लोगों को त्रियेक के बारे में नहीं सिखाया? अधिक से अधिक, क्या महान्‌ शिक्षक के रूप में यीशु अपने अनुयायियों को त्रियेक स्पष्ट करने के लिए अपनी क़ाबिलियत इस्तेमाल न करता? अगर यह विश्‍वास का “मुख्य धर्मसिद्धांत” होता, तो क्या परमेश्‍वर शास्त्रों के सैंकड़ों पन्‍ने प्रेरित करके भी इस में से कुछ उपदेश त्रियेक सिखाने के लिए इस्तेमाल न करता?

क्या मसीहियों को विश्‍वास करना चाहिए कि मसीह के आने और बाइबल का लेखन प्रेरित करने के सदियों बाद, परमेश्‍वर एक ऐसे धर्मसिद्धांत के सूत्रीकरण का समर्थन करता जिस से उसके सेवक हज़ारों साल तक अपरिचित थे, एक ऐसा धर्मसिद्धांत जो कि एक “अबोधगम्य रहस्य” है, “मानवी तर्क की समझ से परे,” एक ऐसा धर्मसिद्धांत जिसकी पृष्ठभूमि सर्वसम्मति से विधर्मी थी और “मुख्यतः गिरजे की राजनीति का ही मामला था”?

इतिहास का साक्ष्य स्पष्ट है: त्रियेक का उपदेश सच्चाई से एक विचलन, उस से एक धर्मत्याग है।

[पेज ८ पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

‘चौथी सदी का त्रित्ववाद प्रारंभिक मसीही उपदेश से एक विचलन था।’—दी एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना

[पेज ९ पर बक्स]

“महान्‌ देवताओं का त्रिक”

मसीह के समय से कई सदियों पहले, प्राचीन बाबेलोनिया और अश्‍शूर में देवताओं के त्रिक, या त्रियेक, थे। फ्रांसीसी-भाषा की “लारूस एन्साइक्लोपीडिया ऑफ मिथॉलॉजी” उस मसोपोटामियाई क्षेत्र में ऐसे ही एक त्रिक पर ग़ौर करती है: “ब्रह्‍मांड तीन क्षेत्रों में बाँटा गया जिन में से प्रत्येक एक देवता का अधिकार-क्षेत्र बन गया। आकाश अनु नामक देवता का हिस्सा था। पृथ्वी एन्लिल को दी गयी। ईया पानियों का शासक बन गया। मिलकर वे महान्‌ देवताओं का त्रिक बने।”

[पेज १२ पर बक्स]

हिन्दू त्रियेक

मसीह के सदियों पहले विद्यमान एक हिन्दू त्रियेक के बारे में “द सिंबॉलिज़म्स ऑफ हिन्दू गॉडस्‌ ॲन्ड रिच्यूअल्स” नामक किताब कहती है: “शिव, त्रियेक का एक देवता है। कहा जाता है कि वह विनाश का देवता है। बाक़ी के दो देवता हैं ब्रह्‍मा, सृष्टी का देवता, और विष्णु, पालन का देवता। . . . यह सूचित करने के लिए कि ये तीनों प्रक्रियाएँ एक ही हैं, इन तीन देवताओं को एक ही रूप में सम्मिलित किया गया है।” —ए. पार्थसारथी, बम्बई, द्वारा प्रकाशित

[पेज ८ पर तसवीर]

“कौंस्टेंटाइन को बुनियादी तौर पर यूनानी धर्मविज्ञान में पूछे जा रहे प्रश्‍नों का ज़रा सा भी ज्ञान न था।”—अ शॉर्ट हिस्टरी ऑफ क्रिस्‌चियन डॉक्ट्रिन

[पेज १० पर तसवीरें]

१. मिस्र. होरस, ओसाइरिस, आइसिस का त्रिक, सा.यु.पू. २री सहस्राब्दी

२.बाबेलोन. इश्‍तार, सिन, शामाश का त्रिक, सा.यु.पू. २री सहस्राब्दी

३. पालमाइरा. चंद्र देवता, स्वर्ग के प्रभु, सूर्य देवता का त्रिक, सा.यु. लगभग १ली सदी

४. भारत. त्रियेक हिन्दू ईश्‍वरत्व, सा.यु. लगभग ७वीं सदी

५. कैंपूचिया. त्रियेक बौद्ध ईश्‍वरत्व, सा.यु. लगभग १२वीं सदी

६. नॉरवे. त्रियेक (पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा) सा.यु. लगभग १३वीं सदी

७. फ्रांस. त्रियेक, सा.यु. लगभग १४वीं सदी

८. इटली. त्रियेक, सा.यु. लगभग १५वीं सदी

९. जर्मनी. त्रियेक, सा.यु. लगभग १९वीं सदी

१०. जर्मनी. त्रियेक, सा.यु. २०वीं सदी