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मृत्यु पर विजय—क्या यह आपके लिए संभव है?

मृत्यु पर विजय—क्या यह आपके लिए संभव है?

मृत्यु पर विजय—क्या यह आपके लिए संभव है?

१. मृत्यु पर विजय के विचार के प्रति हम कैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं?

मृत्यु पर विजय! कितनी ख़ुशी की बात है! मात्र यह विचार ही मनुष्यों के दिल को ख़ुश कर देता है। परन्तु अतिप्राचीन काल से स्थिति बिलकुल विपरीत रही है। मृत्यु ने मानवजाति पर विजयी होकर शासन किया है। अतः, इसको कैसे पलटा जा सकता है? कौन यह कर सकता है? क्या मृत्यु पर विजय आपके लिए संभव है?

मृत्यु का उद्‌गम

२, ३. ऋगवेद के अनुसार, मानवजाति पर मृत्यु कैसे आई?

मृत्यु एक वास्तविकता है। यह कोई दंतकथा नहीं, जैसे हमारा शोक-संतप्त मानव परिवार अच्छी तरह जानता है। मृत्यु के उद्‌गम का जहाँ तक सवाल है, हिन्दू ऋगवेद यम का वर्णन पहले मरनेवाले व्यक्‍ति के तौर पर करता है। ऋगवेद संकेत करता है कि यम पहले मनुष्य का एक और नाम है, और कि उसकी एक जुड़वा बहन यमी थी, जो पहली स्त्री थी। हम पढ़ते हैं: “पृथ्वी और आनेवाले दिनों को ध्यान में रखते हुए, एक पुत्र प्राप्त करो, अर्थात्‌ अपने पिता की संतान। जी हाँ, आपसे अमर लोग यही लालसा से माँगते हैं, एकमात्र जीवित नश्‍वर की संतान।” (ऋग. १०. १. ३)⁠ इस प्रकार, ऋगवेद यम को “एकमात्र जीवित नश्‍वर,” अतः, प्रथम मनुष्य के तौर पर चित्रित करता है, और बताता है कि यह परमेश्‍वर की इच्छा थी कि वह “पृथ्वी और आनेवाले दिनों” के लिए संतान उत्पन्‍न करे।

मानवजाति में मृत्यु के उद्‌गम के बारे में ऋगवेद बताता है: “उसने [यम ने], परमेश्‍वर की ख़ातिर मृत्यु को अपना भाग चुना। उसने मनुष्य की भलाई के लिए अनन्त जीवन नहीं चुना।” (ऋगवेद १०. १३. ४) यह दिलचस्पी की बात है कि यम का अर्थ है “समाप्ति।”⁠ एक ऐसे व्यक्‍ति के लिए उचित अर्थ जिसे पृथ्वी पर अनन्त जीवन को समाप्त करने का श्रेय दिया गया है।

४. (क) ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि ऋगवेद मृत्यु के उद्‌गम के बाइबल अभिलेख की याद दिलाता है? (ख) मृत्यु के कारण को परमेश्‍वर ने आदम को कैसे समझाया?

ये ऋगवेद उद्धरण प्रथम पुरुष और स्त्री के बारे में, और वे कैसे मानव परिवार पर मृत्यु लाए, पहले बाइबल में बताए गए अभिलेख का स्मरण कराते प्रतीत होते हैं। उदाहरण के लिए, बाइबल वृत्तांत बताता है कि प्रथम पुरुष और स्त्री का नज़दीकी रिश्‍ता था। जैसे आदम ने कहा: “अब यह मेरी हड्डियों में की हड्डी और मेरे मांस में का मांस है।” (उत्पत्ति २:२३) साथ ही, परमेश्‍वर की यह भी इच्छा थी कि प्रथम मानव जोड़ा ‘फूले-फले, और पृथ्वी में भर जाए।’ (उत्पत्ति १:२८) इसके अलावा, अपने स्वैच्छिक अवज्ञाकारी कार्य से, प्रथम मनुष्य, आदम ने जीवन तज दिया और मृत्यु को चुना। यह मनुष्यों की भलाई के लिए नहीं था क्योंकि यह परमेश्‍वर के न्याय द्वारा, जो अनुवंशिकता के प्राकृतिक नियम द्वारा कार्यान्वित हुआ, उसके सभी वंशजों के अनन्त जीवन को खोने में परिणित हुआ। अतः बाइबल बताती है: “और आदम से उस ने कहा, तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना उसको तू ने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है: तू उसकी उपज जीवन भर दुःख के साथ खाया करेगा: और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा, और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा; क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।”—उत्पत्ति ३:१७, १९.

५. इसका आदम की संतान पर कैसा असर हुआ, और क्यों?

पहले मनुष्य के कार्यों का उसकी संतान पर कैसा असर हुआ, इस बारे में समझाते हुए बाइबल कहती है: “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया।” यह स्पष्टतः दिखाता है कि मृत्यु परमेश्‍वर, अर्थात्‌ सृष्टिकर्ता के प्रति अवज्ञाकारिता के दंड के तौर पर आयी। परमेश्‍वर के प्रति अवज्ञाकारिता पाप है। और “पाप की मजदूरी तो मृत्यु है।”—रोमियों ५:१२; ६:२३.

६. (क) क्या ऋगवेद इस बात से सहमत है कि पाप की मज़दूरी मृत्यु है? (ख) ऋगवेद के लेखकों ने परमेश्‍वर के प्रति क्या बाध्यता महसूस की?

ऋगवेद बताता है कि पाप ईश्‍वरीय नियम का उल्लंघन है जिसकी सज़ा मृत्यु थी। हम पढ़ते हैं: “हे परमेश्‍वर, हे वरुण, मनुष्य होने के कारण दिन-प्रति-दिन तेरे जो भी नियम का हम उल्लंघन करते हैं, हमें मृत्यु के शिकार न बना, कि तू हमें क्रोध में नाश न करे।” (ऋग. १. २५. १, २) वैदिक लेखकों ने स्पष्टतः पाप का बोध महसूस किया और मृत्यु को पाप का दंड माना, और उन्होंने अपने ईश्‍वरों को प्रार्थनाओं और बलिदानों से ख़ुश करने की कोशिश की। ऋगवेद के अनेक भजन पाप को हटाने की प्रार्थनाएँ और उनके ईश्‍वरों को ख़ुश करने के लिए किए गए बलिदानों के विवरणों से भरे हुए हैं। प्रतीयमानतः परमेश्‍वर के प्रति कुछ विधिवत्‌ बाध्यता महसूस करते हुए उन्होंने अपने ईश्‍वर वरुण को नैतिक नियम का समर्थक भी बनाया।⁠

मृत्यु का डर

७. मानवजाति पर मृत्यु के विचार का क्या प्रभाव पड़ता है?

मृत्यु निश्‍चित ही हमारे मानव परिवार के अनुभवों में एक शोक उत्पन्‍न करनेवाला तत्त्व है। यह शोकित उत्तरजीवियों द्वारा दुःखद अभाव और पूर्ण असहायता की भावना से संबंधित है। आम तौर पर मनुष्यजाति मृत्यु के प्रति मैत्रीपूर्ण भावनाएँ नहीं रखती। ऋगवेद मृत्यु  को एक व्यक्‍ति के तौर पर और भय  के पुत्र के रूप में चित्रित करता है। यह मृत्यु और भय के बीच एक नज़दीकी संबंध को सूचित करता है। वास्तव में, प्राचीन वैदिक लेखों में मृत्यु के उल्लेख स्पष्ट बताते हैं कि मृत्यु को भय की नज़र से देखा जाता था।⁠

८. मृत्यु के डर के बारे में क्या स्वीकार किया गया है?

हिन्दू लेखक रोहित मेहता स्वीकार करता है कि मृत्यु अनेक मनुष्यों में भय उत्पन्‍न करती है।⁠ हिन्दू कथा-उपनिषद्‌  की एक रूपक-कथा की चर्चा करते हुए श्री. मेहता ने लिखा: “मृत्यु उस युवा और निडर प्रश्‍नकर्ता को अपना राज़ बताने के लिए अनिच्छुक क्यों थी? शायद यम ने सोचा यदि नश्‍वर मृत्यु का राज़ जान जाएगा तो निश्‍चय ही उसे मृत्यु का भय नहीं होगा।”

९. (क) मृत्यु के डर ने मानवजाति को कैसे दास बनाया है? (ख) कौन-सी बात इस भय को हटाने में मदद करेगी?

मृत्यु के इस भय ने मानवजाति को सब प्रकार के अंधविश्‍वास और शकुनों के मानसिक दासत्व में जकड़ रखा है। बाइबल उन लोगों के बारे में बात करती है जो “मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फंसे थे।” (इब्रानियों २:१५) मनुष्य मृत्यु के भय से दासत्व में कैसे रखे गए हैं? यह अनेकानेक प्रतिबन्धक शकुनों, रिवाज़ों, और अंधविश्‍वासों के द्वारा है जो जीवन की गतिविधियों को सीमित करते हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दू पुस्तिका “शकुनों का ज्ञान” विशेषतः ज्योतिष-विद्या से सम्बन्धित है।⁠ शकुनों की एक संहिता थी जिसे “छिपकली का नियम” कहा जाता था।⁠ सबसे बुरा अपशकुन था बिल्ली का रास्ता काटना। यह मृत्यु को सूचित करता था। शकुनों से इस प्रकार का सारा भय मृत्यु के डर से उत्पन्‍न होता है, जिसका एक व्यक्‍ति की जीवन-रीति पर गहरा असर होता है। निःसंदेह, मृत्यु वास्तव में क्या है, इस बात की समझ निश्‍चय ही ऐसे भय को हटाने में बहुत कुछ करेगी।

प्राण और आत्मा—वे क्या हैं?

१०. (क) मृत्यु के बारे में कौन-से प्रश्‍न पूछे गए हैं? (ख) हम सच्चे जवाब कैसे पाते हैं?

१० मृतजन कहाँ हैं? जो मर जाते हैं उनकी स्थिति क्या है? वास्तव में, मृत्यु होने पर क्या घटित होता है? मृतजनों की स्थिति के बारे में अधिकांश अनिश्‍चितता शब्द “प्राण” और शब्द “आत्मा” की समझ पर केंद्रित है। उपरोक्‍त सवालों की सच्चाइयों को पाने के लिए, इन दो शब्दों के मूल अर्थ और धार्मिक टीकाकारों ने तत्पश्‍चात्‌ इनकी जो व्याख्या की है उसमें भिन्‍नता को पहचानना ज़रूरी है। इन विषयों की सच्चाइयों को जानने के लिए, एक व्यक्‍ति को अदना मानव व्याख्याकारों के अनुमानों पर आधारित पूर्वनिर्धारित धारणाओं से सावधान रहना चाहिए। अकसर, मानवी धार्मिक शिक्षक ऐसी व्याख्याएँ देते हैं जो दूसरों से भिन्‍न होती हैं। इसलिए कुछ व्याख्याएँ शब्द “प्राण” और “आत्मा” के मूल अर्थ से निश्‍चित ही भिन्‍न हैं।

११, १२. (क) “स्पिरिट” के लिए संस्कृत शब्द क्या है, और इसका क्या अर्थ है? (ख) परमेश्‍वर को एक आत्मा क्यों कहा गया है?

११ उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी शब्द “सोल” संस्कृत शब्द आत्मा  का अनुवाद करने के लिए अकसर इस्तेमाल किया जाता है। क्या यह सही है? कुछ लोग इस संस्कृत शब्द को अन  से निकालते हैं, जिसका अर्थ है “साँस लेना”; अन्य लोग इसे अत्‌  से निकालते हैं, जिसका अर्थ है “फिरना”; और अन्य लोग इसे वा  से निकालते है, जिसका अर्थ हैं “फूँकना।” सबसे पुरानी व्युत्पत्ति एक मूल शब्द से मानी जाती है जिसका अर्थ है “साँस लेना।”⁠ यह दिलचस्पी की बात है जब हम इसकी तुलना “आत्मा” के लिए उन भाषाओं में इस्तेमाल किए गए शब्दों से करते हैं जिनमें मूलतः बाइबल लिखी गई थी, इब्रानी और यूनानी। इब्रानी शब्द (रूआख) और यूनानी शब्द (नूमा) दोनों मूलतः “साँस” या “हवा” का अर्थ रखते हैं। और अंग्रेज़ी शब्द स्पिरिट (आत्मा) लतीनी स्पिरिटस्‌  से आता है, जिसका अर्थ है “साँस।”

१२ “आत्मा” के लिए ये इब्रानी, यूनानी, और अंग्रेज़ी शब्द विभिन्‍न तरीक़ों से इस्तेमाल किए जाते हैं। परन्तु उनके सभी प्रयोगों में उनमें⁠ कुछ समान बात है: वे सभी किसी ऐसी चीज़ को सूचित करते हैं जो मनुष्यों के लिए अदृश्‍य है और जो कार्यशील शक्‍ति का प्रमाण देते हैं—बिलकुल साँस या हवा के समान। तो फिर, स्पष्टतः, संस्कृत शब्द आत्मा  को अधिक उचित रूप से “प्राण” (सोल) के बजाय “आत्मा” (स्पिरिट) अनुवादित किया जाएगा। अतः, जब वाक्य “परमेश्‍वर आत्मा (स्पिरिट) है,” का संस्कृत में अनुवाद किया गया था तो इसे: “ईश्‍वर आत्मा”  अनुवादित किया गया था। (यूहन्‍ना ४:२४) यह इसलिए है क्योंकि परमेश्‍वर दोनों, अदृश्‍य और शक्‍तिशाली है, जैसे शब्द “आत्मा” और स्पिरिट सूचित करते हैं। परन्तु, परमेश्‍वर एक देह-मुक्‍त आत्मा नहीं है और न ही वह कभी ऐसा था। परमेश्‍वर हमेशा एक परम-आत्मा रहा है, और वह हमेशा ऐसा ही रहेगा!

१३, १४. “सोल” का अनुवाद करने के लिए कौन-सा संस्कृत शब्द प्रयोग किया गया है? इसका क्या अर्थ है?

१३ बाइबल में उत्पत्ति २:७ में हम यह कथन पाते हैं: “आदम जीवता प्राणी [“प्राण,” NW] बन गया।” यहाँ शब्द “प्राण” आता है, और यह इब्रानी शब्द नेफ़ेश  से अनुवादित है। यह इब्रानी शब्द उस मूल शब्द से आता है जिसका अर्थ है “साँस लेना।” लेकिन यह “एक जीवित वस्तु, एक शख़्स, एक व्यक्‍ति” को सूचित करता है। जब इस आयत का संस्कृत में अनुवाद हुआ था, तब वाक्यांश “जीवित प्राण” का अनुवाद “स सात्मप्राणी बभूव”  किया गया था। सात्मप्राणी  में तीन शब्द हैं: स-आत्म-प्राणी।⁠१० का अर्थ है “के साथ”; आत्म११ “आत्मा” है; और प्राण  “सजीवता, जीवन, और अनिवार्य साँस”⁠१२ को सूचित करता है। संस्कृत प्राणी१३ का अर्थ है “एक जीवित या सचेतन जीव, एक शख़्स, एक व्यक्‍ति।” यह इब्रानी शब्द नेफ़ेश  के समान है।

१४ संस्कृत में, शाब्दिक अर्थ में, एक प्राण,  “एक साँस लेनेवाले को,”⁠१४ ऐसे किसी व्यक्‍ति या वस्तु को सूचित कर सकता है जो साँस लेता है। इब्रानी नेफ़ेश  का वही तात्पर्य है। जानवर भी साँस लेनेवाले हैं; वे भी साँस लेते हैं। सो, संस्कृत बाइबल अनुवादकों ने उत्पत्ति २:१९ में, जहाँ “प्राण” का इब्रानी शब्द मनुष्यों का नहीं, जानवरों का ज़िक्र करता है, नेफ़ेश  को प्राणी  अनुवादित किया है। अतः, संस्कृत बाइबल में इब्रानी नेफ़ेश  और प्राण के लिए यूनानी शब्द, साइखी  का अनुवाद करने के लिए अकसर प्राण  का इस्तेमाल किया गया है।

१५. बाइबल में “प्राण” के लिए संस्कृत शब्द उत्पत्ति २:७ और १ कुरिन्थियों १५:४५ के अनुवाद में कैसे इस्तेमाल किया गया है?

१५ अतः वाक्यांश “[मनुष्य] जीवता प्राणी [प्राण] बन गया,” के संस्कृत अनुवाद (स सात्मप्राणी बभूव) को शब्दशः हिन्दी में “[मनुष्य] आत्मा सहित प्राण बना” अनुवादित किया जा सकता है। (उत्पत्ति २:७) यह उचित ही कहा जा सकता है: “[मनुष्य] एक ‘आत्मा-युक्‍त’ प्राण,” या “एक सजीव प्राण बना।” उत्पत्ति के इस कथन का बाइबल में बाद में १ कुरिन्थियों १५:४५ में ज़िक्र किया गया है। यहाँ लेखक उत्पत्ति को उद्धृत करता है और कहता है: “प्रथम मनुष्य, अर्थात्‌ आदम, जीवित प्राणी [“प्राण,” NW] बना।” इसके संस्कृत अनुवाद में हम पढ़ते हैं: “पुरुष आदम्‌ जीवत्प्राणी बभूव।”  वाक्यांश “जीवित प्राण” का अनुवाद जीवत्प्राणी  किया गया है। शब्द जीव१५ “जीवित” को सूचित करता है जबकि प्राणी  शब्द “प्राण” का अनुवाद करने के लिए इस्तेमाल किया गया है।

१६. “प्राण” और “आत्मा” के अर्थ के बारे में उलझन क्यों है? ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए?

१६ उलझन इसलिए पैदा होती है क्योंकि कुछ भारतीय भाषाओं में “प्राण” और “आत्मा” को अंतर्बदल करके इस्तेमाल किया जाता है।⁠१६ बाइबल का अन्य भाषाओं में अनुवाद करते वक़्त, विद्वानों ने पूर्वनिर्धारित विश्‍वासों को इन शब्दों के उनके इस्तेमाल पर प्रभाव डालने दिया।⁠१६ लेकिन, बाइबल भाषाओं और संस्कृत में शब्द “प्राण” (नेफ़ेश, सोल) और “आत्मा” (रूआख, स्पिरिट) का अंतर्बदल नहीं किया जा सकता। *

१७. “प्राण” और “आत्मा” के बारे में सच्चाई हम मात्र कैसे सीख सकते हैं?

१७ “प्राण” और “आत्मा” के बारे में सच्चाई जानने के लिए हमें उनके दो भिन्‍न अर्थों और सुस्पष्ट प्रयोगों में फ़र्क देखना चाहिए। इन दोनों के बीच भिन्‍नता है यह बाइबल में इब्रानियों ४:१२ में स्पष्ट दिखता है, जहाँ यह कहती है: “क्योंकि परमेश्‍वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव (प्राण,  सं.), और आत्मा (आत्मा,  सं.) को . . . वार पार छेदता है।” यह भिन्‍नता १ थिस्सलुनीकियों ५:२३ में भी प्रकट है।

१८. (क) किस सवाल ने शताब्दियों से मनुष्यजाति को सताया है? (ख) वैदिक समयों में कौन-सी विभिन्‍न धारणाएँ थीं?

१८ तो फिर, वह क्या वस्तु है जिसे प्राण कहा जाता है? क्या यह मृत्यु के पश्‍चात्‌ उत्तरजीवी रहता है? इस सवाल ने मनुष्यों को शताब्दियों से सताया है। कथा-उपनिषद्‌१७  मृत्यु के एक हिन्दू देवता और नचिकेता  नामक एक युवक के बीच की विचित्र बातचीत का वर्णन करता है। नचिकेता  ने कहा: “कुछ लोग कहते हैं कि प्राण (सोल) मृत्यु के पश्‍चात्‌ अस्तित्त्व में रहता है, अन्य लोग कहते हैं कि वह नहीं रहता। मैं अपने तीसरे वरदान के रूप में निवेदन करता हूँ कि आप मुझे इस सवाल का सही जवाब प्रदान करें।” अतः, यह उपनिषद्‌  मृत्यु के पश्‍चात्‌ उत्तरजीविता के विषय पर कुछ संदेह प्रकट करता है। वेदों  के लिखे जाने के पश्‍चात्‌ भी मृतजनों की स्थिति के बारे में विभिन्‍न धारणाएँ थीं। तो फिर, उपनिषद्‌  ने इस सर्वसामान्य सवाल का जवाब कैसे दिया? उसमें लिखा है: “इस मुद्दे पर पहले देवताओं को भी संदेह होता था। इसे समझना आसान नहीं है। यह विषय गूढ़ है। हे नचिकेता, कोई और वरदान चुन, मुझ से ज़िद्द न कर, और मुझे उस वरदान से मुक्‍त कर।”⁠१८ अतः, कुछ धार्मिक समुदायों में इस सवाल पर अनिश्‍चितता रही है।

१९. मृत्यु के बाद उत्तरजीविता के बारे में कुछ धार्मिक लोगों की क्या भिन्‍न मनोवृत्तियाँ हैं?

१९ लेकिन, अधिकांश लोगों ने मृत्यु के बाद एक व्यक्‍ति की उत्तरजीविता को सच मान लिया है।⁠१९ लेकिन विचारशील व्यक्‍ति मात्र दावों में दिलचस्पी नहीं रखते। उन्हें विश्‍वासोत्पादक सबूत चाहिए। कुछ ऐसे लोग हैं जो जीवन की अल्पता के विरुद्ध लड़ते हैं। कुछ लोग यह भी विश्‍वास करते हैं कि मृत्यु के पश्‍चात्‌ उत्तरजीविता को मात्र अपनी असुरक्षा की भावना पर क़ाबू पाने के एक तरीक़े के रूप में धार्मिक लोगों ने ढूँढ निकाला है। कुछ लोगों के लिए, उनका हृदय इस विचार से घृणा करता है कि मृत्यु जीवन को ख़त्म कर देती है⁠२० तथापि, उनका मन⁠२१ दिए गए पुष्टिकरणों से संतुष्ट नहीं है। मृत्यु होने पर वास्तव में क्या घटित होता है?

मृत्यु होने पर क्या घटित होता है?

२०. (क) प्रथम मानव प्राण की सृष्टि का बाइबल कैसे वर्णन करती है? (ख) एक जीवित मानव प्राण किससे बना है, और इसका उदाहरण कैसे दिया जा सकता है?

२० बाइबल प्राण  पर काफ़ी स्पष्टीकरण प्रदान करती है। इसमें मृतजनों की अवस्था के बारे में सांत्वनादायक और प्रोत्साहक जानकारी भी है, और यह हमारे मृत प्रियजनों के लिए आशा प्रदान करती है। मानव प्राण के बारे में बाइबल का वर्णन उत्पत्ति २:७ में पाया गया है, “यहोवा परमेश्‍वर ने आदम को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्‍वास फूंक दिया; और आदम जीवता प्राणी [“जीवित प्राण,” NW; सात्मप्राणी,  संस्कृ.] बन गया।” कृपया ध्यान दीजिए, मनुष्य को एक प्राण प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि, वह एक प्राण बन गया।  अतः, मनुष्य एक प्राण है।  इसलिए, आपके पास एक प्राण नहीं है, परन्तु आप स्वयं एक प्राण हैं। एक जीवित मानव प्राण में दो अनिवार्य तत्त्व हैं: शारीरिक देह और जीवन-शक्‍ति (आत्मा)। जीवन-शक्‍ति को देह से अलग करिए, और वह जीवित प्राण नहीं रहता। प्राण का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। मनुष्य तत्पश्‍चात्‌ एक “साँस लेनेवाला” नहीं हैं, और इसलिए वह उसके बाद एक प्राण नहीं रहता। यह पानी के समान है जो दो गैसों से बना है, हाइड्रोजन और ऑक्सिजन। इन दोनों गैसों को सही अनुपात में मिलाने से पानी बनता है। उस यौगिक मिश्रण से किसी एक गैस को निकाल दीजिए और पानी का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है।

२१. (क) मृत्यु एक व्यक्‍ति को देह-मुक्‍त प्राण (सोल) क्यों नहीं बनाती? (ख) मृत्यु होने पर मनुष्य देह-मुक्‍त आत्मा (स्पिरिट) क्यों नहीं बनता? उदाहरण देकर समझाइए।

२१ इसी तरह, मृत्यु होने पर आप एक देहमुक्‍त प्राण नहीं बन जाते। नहीं, महज इसलिए क्योंकि आपकी शारीरिक देह आपके प्राण का भाग है। जब देह मरती है, तब प्राण मरता है, उसका अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। आप एक देह-मुक्‍त आत्मा (स्पिरिट) भी नहीं बनते। क्यों नहीं? क्योंकि आत्मा व्यक्‍तित्त्वहीन जीवन-शक्‍ति है जो जीवित प्राण को सजीव बनाती है, और जो प्राण को सोचने, चलने-फिरने और जीने की शक्‍ति देती है। जब जीवन-शक्‍ति, या आत्मा  जीवित प्राण में ख़त्म होती है तो उसका असर ऐसा होता है जैसा बल्ब से बिजली की सप्लाई बन्द करने पर होता है। प्रकाश ख़त्म हो जाता है। प्रकाश कहाँ जाता है? उसका अस्तित्त्व मात्र समाप्त हो जाता है। इसीलिए मृत्यु जीवन के बिलकुल विपरीत है। और इसीलिए जीवन के सृजनहार के प्रति अवज्ञाकारिता की सज़ा के तौर पर मानवजाति को मृत्यु प्राप्त हुई।

२२. (क) बाइबल क्या कहती है जो यह प्रदर्शित करता है कि प्राण मरता है? (ख) बाइबल मृतजनों की अवस्था का कैसे वर्णन करती है?

२२ अतः, मानव प्राण अमर नहीं, परन्तु नश्‍वर है—मृत्यु और विलुप्ति के प्रभावाधीन। इसकी पुष्टि करते हुए बाइबल कहती है: “देखो, सभों के प्राण तो मेरे हैं; जैसा पिता का प्राण, वैसा ही पुत्र का भी प्राण है; दोनों मेरे ही हैं। इसलिये जो प्राणी [“प्राण,” NW; प्राणी,  सं.] पाप करे वही मर जाएगा।”  (तिरछे टाइप हमारे) (यहेजकेल १८:४) परिणामस्वरूप, मानव ऋषियों, या धार्मिक मुनियों और गुरूओं ने जिसका अनुमान लगाया है, उससे मृतजनों की स्थिति काफ़ी भिन्‍न है। परमेश्‍वर के वचन के तौर पर बाइबल आधिकारिक रूप से कहती है: “तुम प्रधानों पर भरोसा न रखना, न किसी आदमी पर, क्योंकि उस में उद्धार करने की भी शक्‍ति नहीं। उसका भी प्राण निकलेगा, वह भी मिट्टी में मिल जाएगा; उसी दिन उसकी सब कल्पनाएं नाश हो जाएंगी।” “जीवते तो इतना जानते हैं कि वे मरेंगे, परन्तु मरे हुए कुछ भी नहीं जानते, और न उनको कुछ और बदला मिल सकता है, क्योंकि उनका स्मरण मिट गया है। जो काम तुझे मिले उसे अपनी शक्‍ति भर करना, क्योंकि अधोलोक में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्‍ति न ज्ञान और न बुद्धि है।”—भजन १४६:३, ४; सभोपदेशक ९:५, १०.

२३. (क) अतः मृत्यु के बारे में हमने क्या पता किया है? (ख) क्या मृत्यु के बारे में हमारे विचारों में बदलाहट करना संभव है? उदाहरण देकर समझाइए।

२३ अतः, बाइबल सिखाती है कि मृत्यु एक व्यक्‍ति के विचार और सचेतना को पूर्णतः समाप्त करती है। मृत्यु गतिविधि, काम, युक्‍ति, ज्ञान, और बुद्धि समाप्त करती है। मृत्यु अस्तित्त्वहीनता है। निश्‍चित ही, मृत्यु के पश्‍चात्‌ कोई जीवन नहीं है! मानव प्राण और मृतजनों की स्थिति के इस स्पष्टीकरण से अनेक लोगों को शायद धक्का लगे। लेकिन पृथ्वी के आकार के बारे में, जब पता चला कि यह गोलाकार है तब भी ऐसा ही हुआ था। मानवजाति को सत्य स्वीकार करना पड़ा था। उसी प्रकार, जब जापान के सम्राट ने अपनी मानवीयता स्वीकार की और अपना देवत्व त्याग दिया, तब लाखों लोगों के विचारों को तथ्यों के अनुसार पुनःसमंजित होना पड़ा। और जब वैज्ञानिकों ने मनुष्यों को चाँद पर उतारा, तब लाखों लोगों को विश्‍व के बारे में अपने धार्मिक विचारों को बदलना पड़ा। वैसे ही, इस २०वीं शताब्दी में, संसार भर में लाखों लोगों ने नश्‍वर प्राण और अचेतन मृतजनों के बारे में बाइबल की शिक्षाओं की अपनी खोज के अनुसार अपने विश्‍वासों को समंजित कर लिया है।

२४. मृतजनों की अवस्था के बारे में यह जानकारी सांत्वनादायक क्यों है?

२४ लेकिन मृतजनों के बारे में यह ज्ञान सांत्वनादायक और प्रोत्साहक कैसे है? यह जानना सांत्वनादायक है कि हमारे मृत प्रियजन और कहीं दर्द नहीं झेल रहे हैं। वे निर्वाण⁠२२ की एक अर्ध-सजीव, निश्‍चल अवस्था में नहीं हैं। न ही वे पुनर्जन्म या संसारों⁠२३ की एक पश्‍चाताप रहित और निर्दयी श्रंखला में संघर्ष कर रहे हैं। न ही एक व्यक्‍तित्वहीन विश्‍व आत्मा (परमात्मन)⁠२४ में विलीन (मोक्ष)⁠२५ होकर उन्होंने अपनी पहचान हमेशा के लिए खो दी। परन्तु मृतजन मृत हैं। वे अस्तित्त्वहीनता की एक स्थिति में हैं। इसके अलावा, हमारे मृत प्रियजनों के लिए एक उज्जवल आशा है। इसीलिए मृतजनों के बारे में पूर्वबताई गई जानकारी सांत्वनादायक और प्रोत्साहक है। लेकिन अब हम पूछते हैं: मृतजनों के लिए जीवन के पुनःआरम्भ की कौन-सी आशा हो सकती है, जी हाँ, और जीवित लोगों के लिए क्या आशा है?

एक क़ानूनी समस्या

२५. हम एक क़ानूनी समस्या का सामना क्यों कर रहे है, और वह क्या है?

२५ आपको याद होगा कि परमेश्‍वर के धर्मी आदेशानुसार हमारी मानवजाति पाप और मृत्यु की दास बन गयी। यह आदेश अनुवंशिकता की प्रक्रिया के ज़रिए क़ायम रखा गया था। सो यह समस्या उठ खड़ी होती है: न्यायी के तौर पर परमेश्‍वर अपनी विधि या निर्णय को कैसे पूरा कर सकता है और उसी समय सच्चे न्याय का उल्लंघन किए बिना हमारी जाति को पाप और मृत्यु से कैसे छुड़ा सकता है? क्योंकि ईश्‍वरीय क़ानून और धार्मिकता यह माँग करती है कि एक क़ानून के अपराधी को मृत्यु की सज़ा दी जाए, तो न्याय के उल्लंघन के बिना पापी कैसे दोषमुक्‍त किए जा सकते थे और मृत्यु कैसे ख़त्म की जा सकती थी? परमेश्‍वर न केवल प्रेम और दया में परन्तु न्याय में भी परिपूर्ण है। परमेश्‍वर स्वेच्छाचारी नहीं है। अपने वचन का समर्थन करने और परमेश्‍वर तथा सर्वसत्ताधिकारी के अपने पद को बनाए रखने के लिए परमेश्‍वर अपने ही अनुल्लंघनीय नियम को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।

२६. समस्या को सुलझाने के लिए क्या ज़रूरी है, और क्यों?

२६ विश्‍व न्यायी के अपने स्थान को बनाए रखने के लिए परमेश्‍वर को अपने निर्णय के दाता और प्रवर्तक के तौर पर अपने निर्णय का पालन करना चाहिए। एक विधि-भंजक को किसी क़ानूनी आधार के बिना दया दिखाना न्याय को बिगाड़ना होगा। न्याय को सच्चा होने के लिए, पापियों के प्रति ईश्‍वरीय दया को न्यायसंगत होना ज़रूरी है। अतः, इससे पहले कि पापी दोषमुक्‍त किए जा सकें और वास्तविक जीवन को पुनःप्राप्त कर सकें, परमेश्‍वर को एक संतोषजनक समतुल्य, या एक अनुरूप छुड़ौती दी जानी चाहिए। (१ तीमुथियुस २:५, ६) इस तरह, परमेश्‍वर सारे विश्‍व से आदर और आज्ञाकारिता उचित रूप से प्राप्त करता रहता।

२७, २८. (क) हमारे प्रथम पूर्वपिता द्वारा हमने क्या खोया? (ख) सचित्रित कीजिए कि यह कैसे पुनःप्राप्त किया जा सकता है। (ग) प्राचीन हिन्दुओं ने अपने देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए क्या किया, और इसका कारण क्या हो सकता है?

२७ हमारे प्रथम सामान्य पूर्वज, आदम ने अपनी स्वतंत्र इच्छा के स्वार्थी प्रयोग के बदले अपना परिपूर्ण मानव जीवन और अनन्त जीवन का हक़ खो दिया। ऐसा करने से, उसने अपनी सारी भावी संतान को—जिसमें हम भी शामिल हैं—पाप और मृत्यु के दासत्व में बेच दिया। अनन्त जीवन का हमारा अवसर खो गया—जिसे हमारे प्रथम पूर्वज ने खो दिया। सो उदाहरणार्थ, यह कुछ ऐसा ही है जब एक परिवार दुःखद परिस्थितियों में पड़ जाता है और पिता परिवार का सोना एक साहूकार या एक बैंक को दे देता है। अब परिवार अपने सोने के बिना जीवन बिताता है, और बच्चे भी इसे उत्तराधिकार में प्राप्त करने से चूक जाते हैं। लेकिन बाद में बच्चे छुड़ौती क़ीमत देकर, जिसे वह साहूकार न्याय को पूरा करने के लिए पर्याप्त समझता है, साहूकार से अपना पारिवारिक सोना छुड़ाने में समर्थ होते हैं।

२८ उसी प्रकार, न्याय को पूरा करने के लिए हमारी मानवजाति को छुड़ौती की, या एक क़ीमत की ज़रूरत थी जो उन्हें पाप और मृत्यु से छुड़ाकर उनके जन्मसिद्ध अधिकार को पुनःस्थापित करती। ऋगवेद में बलिदानों पर ज़ोर शायद पूर्वजों के बलिदान-सम्बन्धी अभ्यासों की यादों पर आधारित हो। (उत्पत्ति ४:४; ८:२० से तुलना कीजिए।) भारतीय बुद्धि  नामक किताब बताती है कि वैदिक समयों में घोड़ों, बैलों, भेड़ों, और बकरियों के बलिदान चढ़ाए जाते थे। और वह कहती है: “ऐसे बलिदान प्रायश्‍चित्तिक माने जाते थे।”⁠२६ यह महत्त्वपूर्ण है कि प्राचीन हिन्दुओं ने महसूस किया कि अपने देवताओं का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के लहू का बलिदान चढ़ाया जाना चाहिए था।

२९. (क) पशु बलियाँ ज़रूरी क़ीमत क्यों नहीं चुका सकतीं? (ख) क्या मानवजाति ज़रूरी क़ीमत प्रस्तुत कर सकती है?

२९ लेकिन जैसे एक प्राचीन प्राधिकारी ने कहा: “क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लोहू पापों को दूर करे।” (इब्रानियों १०:४) जिस क़ीमत की ज़रूरत है वह है एक परिपूर्ण मानव जीवन,  जो उसके बिलकुल बराबर है जिसे हमारे प्रथम पूर्वज आदम ने अपने अवज्ञाकारी जीवन के लिए खोया। यही एकमात्र छुड़ौती मूल्य है जो परमेश्‍वर के परिपूर्ण न्याय को संतुष्ट करेगा। लेकिन क्या हम मनुष्य इतनी महँगी क़ीमत चुकाने की स्थिति में हैं? ईमानदारी हमें यह स्वीकार करने को बाध्य करती है कि हम ऐसे छुड़ौती मूल्य प्रदान करने में अयोग्य हैं जिससे पाप और मृत्यु से हम अपनी छुड़ौती स्वयं ख़रीद सकें। जैसे एक ईमानदार बाइबल लेखक ने स्वीकार किया: “उन में से कोई अपने भाई को किसी भांति छुड़ा नहीं सकता है; और न परमेश्‍वर को उसकी सन्ती प्रायश्‍चित्त में कुछ दे सकता है।”—भजन ४९:७.

परमेश्‍वर का प्रेम मदद करता है

३०. (क) परमेश्‍वर ने मनुष्यों को निःसहायता से कैसे बचाया? (ख) परमेश्‍वर के एक आत्मिक पुत्र को उचित क़ीमत के लिए कैसे तैयार किया गया था?

३० मानवजाति की निःसहायता को पहचानते हुए, परमेश्‍वर ने, अपने महान प्रेम में, हमारी मदद की। ज़रूरी क़ीमत को परमेश्‍वर ने स्वर्ग में अपने परिपूर्ण पुत्रों में से तैयार किया। बाइबल कहती है: “क्योंकि परमेश्‍वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्‍वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए।” (यूहन्‍ना ३:१६) हमारे प्रथम परिपूर्ण मानव पूर्वज के समतुल्य क़ीमत होने के लिए, इस आत्मिक पुत्र को मनुष्य बनना पड़ा। एक आत्मिक अवतार  हमारे प्रथम मानव पूर्वज के बिलकुल बराबर नहीं होता। सो परमेश्‍वर के एकलौते आत्मिक पुत्र को अपना आत्मिक रूप त्यागना था और चमत्कारिक रूप से हमारी मानवजाति में जन्म लेना था ताकि वह परिपूर्ण देह और लहू बने—उसी जाति का एक सदस्य—उससे न तो ज़्यादा और न ही कम। बाइबल इसे इस प्रकार व्यक्‍त करती है: “जब समय पूरा हुआ, तो परमेश्‍वर ने अपने पुत्र को भेजा, जो स्त्री से जन्मा, और व्यवस्था के आधीन उत्पन्‍न हुआ। ताकि व्यवस्था के आधीनों को मोल लेकर छुड़ा ले, और हम को लेपालक होने का पद मिले।”—गलतियों ४:४, ५.

३१. (क) इतिहास के धार्मिक अगुवों ने मृत्यु पर वास्तविक विजय को क्यों नज़रंदाज़ किया है? (ख) क्या हम मनुष्यों को बिना किसी छुड़ौतीदाता के पूरी तरह छोड़ दिया गया है, और आपका जवाब ऐसा क्यों है?

३१ परमेश्‍वर का यह आत्मिक पुत्र कौन था जो स्त्री से एक परिपूर्ण व्यक्‍ति के तौर पर जन्मा ताकि वह छुड़ौती मूल्य दे सके, या पाप और मृत्यु से मानवजाति का छुटकारा ख़रीद सके? इतिहास के दौरान, असंख्य मनुष्य रहे हैं जिन्होंने संत, ऋषि, स्वामी, विश्‍व-गुरू, पवित्र लोग, ईश-मानव और सुधारक होने का दावा किया है। लेकिन उनमें से किसी ने भी कभी भी एक छुड़ानेवाला या छुड़ौतीदाता होने का दावा नहीं किया! ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें से किसी ने भी छुड़ौती के धार्मिक धर्म-सिद्धांत को स्वीकारा या समझा नहीं। धर्म के पूरे इतिहास में मात्र एक ही धार्मिक गुरू रहा है जिसने पाप और मृत्यु से मानवजाति का छुड़ानेवाला होने का दावा किया है। यही वह व्यक्‍ति था जिसने कहा: “जैसे कि मनुष्य का पुत्र, वह इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल किई जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे: और बहुतों की छुड़ौती के लिये अपने प्राण दे।”—मत्ती २०:२८.

३२, ३३. (क) मसीह की मृत्यु एक साधारण मृत्यु क्यों नहीं थी? (ख) छुड़ौती के धर्म-सिद्धांत को सचित्रित कीजिए, और समझाइए कि एक व्यक्‍ति का कार्य कैसे लाखों मनुष्यों को पाप और मृत्यु से बचा सकता है।

३२ इस व्यक्‍ति की पहचान कराते हुए, परमेश्‍वर का वचन कहता है: “हम यीशु को जो स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुख उठाने के कारण महिमा और आदर का मुकुट पहिने हुए देखते हैं; ताकि परमेश्‍वर के अनुग्रह से हर एक मनुष्य के लिये मृत्यु का स्वाद चखे।” (इब्रानियों २:९) परिणामस्वरूप, यीशु मसीह की मृत्यु कोई साधारण मृत्यु नहीं थी—वह एक बलिदान था। मसीह ने हमारी अपनी मानवजाति के जीवन अधिकार ख़रीदने के लिए स्वयं अपना परिपूर्ण मानव जीवन और पार्थिव प्रत्याशाएँ छोड़ दीं। अतः, अपनी पार्थिव सेवकाई और बलिदान-रूपी मृत्यु के आधार पर यीशु मसीह मनुष्यजाति का छुड़ानेवाला बना। इसीलिए, लिखा है: “पर जैसा अपराध की दशा है, वैसी अनुग्रह के बरदान की नहीं, क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध [आदम के पाप] से बहुत लोग मरे, तो परमेश्‍वर का अनुग्रह और उसका जो दान एक मनुष्य के, अर्थात्‌ यीशु मसीह के अनुग्रह से हुआ बहुतेरे लोगों पर अवश्‍य ही अधिकाई से हुआ। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम [मसीह का बलिदान] भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित्त धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ।”—रोमियों ५:१५, १८.

३३ जिस प्रकार हैज़ा महामारी एक ही बीमार मरीज़ से बड़ी तेज़ी से पूरे गाँव में फैल सकती है, और जिस प्रकार केवल एक डॉक्टर की दवाई से उसी गाँव में अनेक लोगों को चंगाई प्राप्त हो सकती है, वैसे ही परमेश्‍वर का परिपूर्ण न्याय केवल एक अनुरूप  छुड़ौती मूल्य की अनुमति देता है जिससे लाखों पापियों की, जो एक प्रथम पुरुष के वंशज हैं, छुड़ौती निष्पन्‍न हो।—१ तीमुथियुस २:५, ६ से तुलना कीजिए।

३४. (क) मानव जीवन अधिकार परमेश्‍वर को कैसे प्रस्तुत किए गए थे, और किस उद्देश्‍य के लिए? (ख) छुड़ौती प्रबन्ध परमेश्‍वर के लिए क्या करता है?

३४ प्रतिफल के तौर पर, परमेश्‍वर ने अपने पुत्र को आत्मिक जीवन पुनःप्रदान किया जिससे वह हमारी जाति के जीवन अधिकार के लिए ख़रीदारी मूल्य के तौर पर स्वर्ग में परमेश्‍वर को अपने बलिदान किए हुए मानव जीवन का मूल्य प्रस्तुत कर सका। इसके द्वारा आदम की संतान को जीवन का अधिकार लौटाने के लिए परमेश्‍वर के पास एक क़ानूनी आधार था। बाइबल बताती है: “इसलिये कि मसीह ने भी, अर्थात्‌ अधर्मियों के लिये धर्मी ने पापों के कारण एक बार दुख उठाया, ताकि हमें परमेश्‍वर के पास पहुंचाए: वह शरीर के भाव से तो घात किया गया, पर आत्मा के भाव से जिलाया गया।” (१ पतरस ३:१८) सबसे महत्त्वपूर्ण, यह महान उपलब्धि परमेश्‍वर के आदि सृजनात्मक कार्य, उसके वचन और उसकी धार्मिकता को दोषमुक्‍त करती है।

मृत्यु पर विजय प्राप्त करना

३५. मसीह द्वारा ख़रीदे गए इन जीवन अधिकारों से फ़ायदा उठाने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

३५ क्या हम इन जीवन अधिकारों से फ़ायदा उठाना चाहते हैं? ऐसा करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? हमें दोनों, परमेश्‍वर और उसके एकलौते पुत्र के प्रति उनके आत्मत्यागी प्रेम और अपात्र अनुग्रह के लिए कृतज्ञ स्वीकृति प्रकट करनी चाहिए, जैसे हमारी ही २०वीं शताब्दी में एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय भीड़ अब कर रही है। बाइबल उनका वर्णन करती है: “इस के बाद मैं ने दृष्टि की, और देखो, हर एक जाति, और कुल, और लोग और भाषा में से एक ऐसी बड़ी भीड़, जिसे कोई गिन नहीं सकता था श्‍वेत वस्त्र पहिने, और अपने हाथों में खजूर की डालियां लिए हुए सिंहासन के साम्हने और मेम्ने के साम्हने खड़ी है। और बड़े शब्द से पुकारकर कहती है, कि उद्धार के लिये हमारे परमेश्‍वर का जो सिंहासन पर बैठा है, और मेम्ने का जय-जय-कार हो।” (प्रकाशितवाक्य ७:९, १०) हमारी २०वीं शताब्दी के ऐतिहासिक तथ्य, विशेषतः वर्ष १९३५ से, साबित करते हैं कि यह कृतज्ञ अंतरराष्ट्रीय भीड़ अब पृथ्वी के सभी महाद्वीपों में अस्तित्त्व में है। लेकिन हम यह आभार कैसे प्रकट करते हैं?

३६. (क) हम परमेश्‍वर के प्रति कृतज्ञ स्वीकृति कैसे प्रकट कर सकते हैं? (ख) यहोवा किस प्रकार का परमेश्‍वर है?

३६ हमें स्वर्ग के परमेश्‍वर को पहचानना चाहिए और उसकी उपासना करना सीखना चाहिए। मसीह के जन्म के क़रीब १,५०० साल पहले, प्राचीन भविष्यद्वक्‍ता मूसा ने मूर्खता से परमेश्‍वर को देखने की बिनती की। परिणाम क्या था? हम पढ़ते हैं: “मुझे अपना तेज दिखा दे। उस ने कहा, मैं तेरे सम्मुख होकर चलते हुए तुझे अपनी सारी भलाई दिखाऊंगा, और तेरे सम्मुख यहोवा नाम का प्रचार करूंगा, . . . फिर उस ने कहा, तू मेरे मुख का दर्शन नहीं कर सकता; क्योंकि मनुष्य मेरे मुख का दर्शन करके जीवित नहीं रह सकता।” “तब यहोवा ने बादल में उतरके उसके संग वहां खड़ा होकर यहोवा नाम का प्रचार किया। और यहोवा उसके साम्हने होकर यों प्रचार करता हुआ चला, कि यहोवा, यहोवा, ईश्‍वर दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त और अति करुणामय और सत्य, हज़ारों पीढ़ियों तक निरन्तर करुणा करनेवाला, अधर्म और अपराध और पाप का क्षमा करनेवाला है, परन्तु दोषी को वह किसी प्रकार निर्दोष न ठहराएगा।”—निर्गमन ३३:१८-२०; ३४:५-७.

३७. (क) एक व्यक्‍ति परमेश्‍वर की उपासना “आत्मा से” कैसे करता है? (ख) एक व्यक्‍ति पिता की उपासना “सच्चाई से” कैसे करता है?

३७ क्या यह सुन्दर वर्णन एक ऐसे परमेश्‍वर का नहीं जैसे हम अदृश्‍य परमेश्‍वर के होने की उम्मीद करते हैं? यह एक ऐसा परमेश्‍वर है जिसकी हम प्रशंसा और उपासना कर सकते हैं। लेकिन हमें यहोवा की उपासना कैसे करनी चाहिए? परमेश्‍वर चाहता है कि हम उसकी उपासना आत्मा और सच्चाई से करें। बाइबल कहती है: “परन्तु वह समय आता है, बरन अब भी है जिस में सच्चे भक्‍त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढ़ता है। परमेश्‍वर आत्मा है, और अवश्‍य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।” (यूहन्‍ना ४:२३, २४) आत्मा से पिता की उपासना करने का अर्थ है कि भौतिक स्थानों, वस्तुओं, इमारतों और परमेश्‍वर की भौतिक मूर्तियों की उपासना वर्जित है। सत्य ही वास्तव में महत्त्वपूर्ण है। पिता, यहोवा की सच्चाई से उपासना करने का अर्थ है कि हमारे धार्मिक अभ्यासों, विश्‍वासों, और शिक्षाओं को परमेश्‍वर के लिखित वचन में बताई गई वास्तविकता, अर्थात्‌ यथार्थ सत्य से संगत होना चाहिए। परमेश्‍वर के मुख्य प्रवक्‍ता ने अपने पिता से प्रार्थना में कहा: “तेरा वचन सत्य है।”—यूहन्‍ना १७:१७. प्रेरितों १७:२४, २५ से तुलना कीजिए।

३८. मसीह यीशु के बारे में कौन-सी ग़लतफहमियाँ हैं और क्यों?

३८ सो यदि यहोवा सच्चा परमेश्‍वर है, तो यीशु मसीह कौन है? यहूदियों के लिए मसीह ठोकर का कारण था। ग़ैर-यहूदियों के लिए, मसीह की बात मूर्खता थी। बाइबल बताती है: “परन्तु हम तो उस क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह का प्रचार करते हैं जो यहूदियों के निकट ठोकर का कारण, और अन्यजातियों के निकट मूर्खता है।” (१ कुरिन्थियों १:२३) यहूदियों ने मसीह को अपने उद्धारक के तौर पर ठुकरा दिया क्योंकि उसके जीवन और मृत्यु का ढंग उनकी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं तक नहीं पहुँच पाया। ग़ैर-यहूदी जातियों के लिए, जो परमेश्‍वर को मानव अटकलों से ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं, मसीह के जीवन और मृत्यु का ढंग बिलकुल अबोधगम्य था। उसकी मृत्यु बिलकुल व्यर्थ प्रतीत हुई—अनावश्‍यक। यहोवा परमेश्‍वर की इच्छा और उद्देश्‍य, जैसे मसीह ने प्रकट और निष्पन्‍न किया, मानव कल्पनाओं और मूल्यों के आश्‍चर्यजनक उलटाव के कारण मूर्खता थी।

३९. (क) लाखों लोगों ने मसीह यीशु के बारे में अपने आपको कैसे संतुष्ट किया है? (ख) वे उसके बारे में क्या स्वीकार करते हैं?

३९ आज भी, लाखों लोग मसीह यीशु के कारण ठोकर खाते हैं। उनके अनुमानानुसार मसीह की बात मूर्खता है। क्या मसीह के बारे में आप ऐसा महसूस करते हैं? इसके विपरीत, आज लाखों लोग हैं जिन्होंने मसीह यीशु के वास्तविक मूल्य के बारे में अपने आपको संतुष्ट किया है। वे स्वीकार करते हैं कि मसीह सर्वशक्‍तिमान परमेश्‍वर नहीं, परन्तु यहोवा का एक पुत्र है। यहोवा की सारी सृष्टि में मसीह पहलौठा था, और परमेश्‍वर ने उसे बाक़ी सृष्टि के लिए वचन या प्रवक्‍ता बनाया। सो हम पढ़ते हैं: “आदि में वचन था, और वचन परमेश्‍वर के साथ था, और वचन परमेश्‍वर था। यही आदि में परमेश्‍वर के साथ था। सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्‍न हुआ और जो कुछ उत्पन्‍न हुआ है, उस में से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्‍न न हुई।” (यूहन्‍ना १:१-३) अतः, अपने मानवपूर्व अस्तित्त्व में यीशु मसीह ने परमेश्‍वर के “कुशल कारीगर” होने की और परमेश्‍वर की वाणी, या वक्‍ता होने की दोहरी भूमिका निभाई।—नीतिवचन ८:२२, ३०, NHT; कुलुसियों १:१५, १६ से तुलना कीजिए।

४०. (क) मसीह परमेश्‍वर के सामने मानवजाति का महायाजक होने के लिए कैसे योग्य होता है? (ख) मसीह यहोवा के उपासकों के प्रति कौन-सी भूमिका अदा करता है?

४० अपने ही मानव बलिदान और उसके जीवन-पुनःस्थापित करनेवाले फ़ायदों को निर्देशित करने से, मसीह स्वर्ग के परमेश्‍वर, यहोवा के सम्मुख मानवजाति का महायाजक बनता है। हम पढ़ते हैं: “परन्तु जब मसीह आनेवाली अच्छी अच्छी वस्तुओं का महायाजक होकर आया, तो उस ने और भी बड़े और सिद्ध तम्बू से होकर जो हाथ का बनाया हुआ नहीं, अर्थात इस सृष्टि का नहीं। और बकरों और बछड़ों के लोहू के द्वारा नहीं, पर अपने ही लोहू के द्वारा एक ही बार पवित्र स्थान में प्रवेश किया, और अनन्त छुटकारा प्राप्त किया।” साथ ही वह इस प्रकार परमेश्‍वर का जीवन का मुख्य कर्ता बनता है। शिक्षक की अपनी भूमिका में, यीशु यहोवा परमेश्‍वर के सभी उपासकों का गुरू  है: “परन्तु, तुम रब्बी न कहलाना; क्योंकि तुम्हारा एक ही गुरू है: और तुम सब भाई हो।”—इब्रानियों ९:११, १२; मत्ती २३:८. प्रेरितों ३:१५ से तुलना कीजिए।

४१. (क) मसीह ने विश्‍व सुधार का प्रचार क्यों नहीं किया? (ख) क्या “भारी क्लेश” के उत्तरजीवी होंगे? (ग) यीशु मसीह किस प्रकार का व्यक्‍ति है?

४१ अतः, यीशु मसीह महज़ एक धार्मिक सुधारक से कहीं ज़्यादा है। अधिकांशतः, वह जानता था कि यह दुष्ट रीति-व्यवस्था असुधार्य है। इसलिए यीशु ने विश्‍व धर्म-परिवर्तन का नहीं, परन्तु “भारी क्लेश” का प्रचार किया। उसने कहा: “क्योंकि उस समय ऐसा भारी क्लेश होगा, जैसा जगत के आरम्भ से न अब तक हुआ, और न कभी होगा। और यदि वे दिन घटाए न जाते, तो कोई प्राणी न बचता; परन्तु चुने हुओं के कारण वे दिन घटाए जाएंगे।” (मत्ती २४:२१, २२) वह “भारी क्लेश” दुष्टों का नाश करेगा और सारी सृष्टि के सामने यहोवा की धार्मिकता को ऊँचा उठाएगा। लेकिन, यीशु के शब्द सूचित करते हैं कि ‘कुछ प्राणी बचाए जाएँगे।’ यह इसलिए है क्योंकि मसीह सत्हृदयी लोगों से प्रेम करता है। इसीलिए वह उनके लिए मरा। इन शब्दों में हम यीशु के व्यक्‍तित्व की एक झलक पाते हैं: “और यीशु सब नगरों और गांवों में फिरता रहा और उन की सभाओं में उपदेश करता, और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता को दूर करता रहा। जब उस ने भीड़ को देखा तो उस को लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे उन भेडों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से थे।”—मत्ती ९:३५, ३६.

४२. आज दुःखित लोग कैसे शीघ्र ही राहत प्राप्त कर सकते हैं?

४२ हमारी २०वीं शताब्दी में भी, अनेक लोग ‘उन भेडों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से’ हैं। और हम निश्‍चित हो सकते हैं कि यीशु को उन पर उसी तरह तरस आया। इसीलिए परमेश्‍वर के आत्म-त्यागी पुत्र के ज़रिए उसका राज्य “भारी क्लेश” के वफ़ादार उत्तरजीवियों पर जल्द ही अपना हितकारी शासन विस्तृत करेगा। परमेश्‍वर के वचन ने भविष्यवाणी की: “देखो, एक राजा धर्म से राज्य करेगा।”—यशायाह ३२:१.

४३. (क) परमेश्‍वर का राज्य क्या है? (ख) मानव सरकारों ने अपनी प्रजा के फ़ायदे के लिए क्या करने की कोशिश की है, और उन्हें कौन-सी सफलता प्राप्त हुई है?

४३ परमेश्‍वर का राज्य जाँचे और परखे गए, वफ़ादार, खराई बनाए रखनेवाले व्यक्‍तियों के एक निकाय से बना है जो स्वर्ग में एक सरकार बनाते हैं, जिसका मुखियापन यीशु मसीह संभालता है। यह परमेश्‍वर का स्वर्गीय राज्य  है जो अपनी सर्वसत्ता सारी पृथ्वी पर चलाएगा। (प्रकाशितवाक्य ५:१०) आज, लोग रोज़गार सेवाओं, आवास प्रबन्धों, और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अपनी मानवी सरकारों की ओर देखते हैं। और अपनी प्रजा के लिए इन सेवाओं को विकसित करने के उद्देश्‍य से कई सरकारें पंच-वर्षीय योजनाओं की एक श्रंखला आयोजित करती हैं। लेकिन वे अपने मृतजनों के लिए कोई आशा नहीं पेश कर सकती हैं। और सभी पूर्वकालिक सरकारों के ऐतिहासिक अनुभव जीवित व्यक्‍तियों के लिए उनकी योजनाओं में पूर्ण सफलता की उनकी संभावनाओं के विरुद्ध पलड़ा भारी करते हैं।

४४. (क) परमेश्‍वर १,००० वर्षों की अवधि के दौरान क्या निष्पन्‍न करेगा? (ख) मनुष्यों को मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए परमेश्‍वर किस ज़रिए का प्रबन्ध करेगा?

४४ फिर भी, परमेश्‍वर का राज्य, पंच-वर्षीय योजनाओं की एक श्रंखला के द्वारा नहीं, परन्तु १,०००-वर्षीय कार्यक्रम के ज़रिए “हमारी बिनती और समझ से कहीं अधिक काम” करेगा। अतः हम पढ़ते हैं: “फिर मैं ने सिंहासन देखे, और उन पर लोग बैठ गए, और उन को न्याय करने का अधिकार दिया गया . . . वे जीवित होकर मसीह के साथ हजार वर्ष तक राज्य करते रहे।” (इफिसियों ३:२०; प्रकाशितवाक्य २०:४) उस हज़ार साल के शासन के दौरान, परमेश्‍वर का राजा-याजक अपने छुड़ौती बलिदान के फ़ायदे पृथ्वी के ख़ुश लोगों पर लागू करेगा। धीरे-धीरे पाप तथा बीमारी, अपरिपूर्णता और बुढ़ापे के हानिकारक प्रभावों को उनकी शारीरिक देह से हटाया जाएगा। अतः, मनुष्यों का मृत्यु पर विजय पाने का परमेश्‍वर का तरीक़ा उसका राज्य है।

४५, ४६. (क) पाप, बीमारी, और जीवन के बारे में परमेश्‍वर क्या गारंटी देता है? (ख) मनुष्यजाति के लिए धार्मिकता और अनन्त यौवन पुनःस्थापित करने के बारे में परमेश्‍वर क्या गारंटी देता है?

४५ आइए हम एक साथ कुछ आश्‍वासनों को देखें जो स्वयं परमेश्‍वर इन प्रतिज्ञाओं के लिए देता है: “क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढांपा गया हो। क्या ही धन्य है वह मनुष्य जिसके अधर्म का यहोवा लेखा न ले, और जिसकी आत्मा में कपट न हो।” “हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और उसके किसी उपकार को न भूलना। वही तो तेरे सब अधर्म को क्षमा करता, और तेरे सब रोगों को चंगा करता है, वही तो तेरे प्राण को नाश होने से बचा लेता है, और तेरे सिर पर करुणा और दया का मुकुट बान्धता है, वही तो तेरी लालसा को उत्तम पदार्थों से तृप्त करता है, जिस से तेरी जवानी उकाब की नाईं नई हो जाती है।”—भजन ३२:१, २; १०३:२-५.

४६ “तब उस मनुष्य की देह बालक की देह से अधिक स्वस्थ और कोमल हो जाएगी; उसकी जवानी के दिन फिर लौट आएंगे। वह ईश्‍वर से बिनती करेगा, और वह उस से प्रसन्‍न होगा, वह आनन्द से ईश्‍वर का दर्शन करेगा, और ईश्‍वर मनुष्य को ज्यों का त्यों धर्मी कर देगा।” (अय्यूब ३३:२५, २६) उससे भी अधिक, सब प्रमाण सूचित करते हैं कि मसीह का हज़ार साल का शासन हमारी वर्तमान पीढ़ी के जीवनकाल में शुरू होगा! *

४७. (क) स्मारक क़ब्रों में मृतजनों पर मसीह के छुड़ौती का मूल्य कैसे लागू किया जा सकता है? (ख) यहोवा मृत मानव प्राणों को कैसे पुनरुत्थित करेगा? (ग) कब तक परमेश्‍वर का पुत्र राजा के तौर पर शासन करेगा?

४७ मसीह की छुड़ौती को मानवजाति के इस संसार पर लागू करने के लिए स्मारक क़ब्रों में से मृत मानव प्राणों के पुनःजीवित होने की ज़रूरत है। अतः मसीह द्वारा परमेश्‍वर का राज्य करोड़ों मृत मनुष्यों का पुनरुत्थान निष्पन्‍न करेगा जैसे परमेश्‍वर का वचन हमें आश्‍वासन देता है: “और समुद्र ने उन मरे हुओं को जो उस में थे दे दिया, और मृत्यु और अधोलोक ने उन मरे हुओं को जो उन में थे दे दिया; और उन में से हर एक के कामों के अनुसार उन का न्याय किया गया।” (प्रकाशितवाक्य २०:१३) यह कैसे किया जा सकता है? सृष्टिकर्ता मात्र पृथ्वी की मिट्टी से नए मानव शारीरिक जीवों को पुनःसृष्ट करेगा और अपनी परिपूर्ण याददाश्‍त से पूर्वकालिक जीवन रीतियाँ याद करेगा, उन्हें नए मस्तिष्क के पटलों पर अध्यारोपित करेगा, और फिर प्रत्येक प्राणी में जीवन-शक्‍ति, अथवा आत्मा  डालेगा। फिर ये पुनःसृष्ट जीवित प्राण, या जीवत्प्राणी  पृथ्वी पर फिर जीएँगे। क्या ही विस्मयकारी चमत्कार! केवल यहोवा अपने वैधिक छुड़ौती प्रबन्ध के ज़रिए ऐसा कर सकता है। और यही कारण है कि मृत प्रियजनों का भावी जीवन, किसी काल्पनिक अमर प्राण पर नहीं परन्तु, यहोवा परमेश्‍वर के अचूक प्रेम और याददाश्‍त पर निर्भर करता है। वास्तव में, “क्योंकि जब तक कि वह अपने बैरियों को अपने पांवों तले न ले आए, तब तक उसका [मसीह का] राज्य करना अवश्‍य है। सब से अन्तिम बैरी जो नाश किया जाएगा वह मृत्यु है।” (१ कुरिन्थियों १५:२५, २६) भविष्य में कभी भी मृत्यु को परमेश्‍वर की मानव सृष्टि पर अधिकार जताने नहीं दिया जाएगा।

४८. (क) क्या मृत्यु पर विजय आपके लिए संभव है? (ख) भविष्य के लिए आप कौन-सी विजयोल्लासित पुकार चुन सकते हैं?

४८ क्या ही महान आशा! कितना सुखदायक! मात्र यह विचार मानवजाति के दिल को ख़ुश कर देता है। निश्‍चित ही मृत्यु पर विजय आपके लिए संभव है! क्या आप इसे चुनेंगे? परमेश्‍वर आपकी स्वतंत्र इच्छा की इज़्ज़त करता है जैसे उसने हमारे प्रथम पूर्वपिता की स्वतंत्र इच्छा का आदर किया। लेकिन हम प्रार्थना करते हैं कि आप बुद्धिमत्तापूर्ण चुनाव करेंगे। ऐसा हो कि आप उन ख़ुश लोगों में से हों जो विजयोल्लासित होकर चिल्लाएँगे: “हे मृत्यु तेरी जय कहां रही? हे मृत्यु तेरा डंक कहां रहा?”—१ कुरिन्थियों १५:५५, ५६.

ग्रंथ-सूची

१. रैल्फ टी. एच. ग्रिफ़्फ़ित द्वारा लिखित, द हिमस्‌ ऑफ द ऋगवेदा  (अंग्रेज़ी), १८९६. जे. एल. शास्त्री द्वारा संशोधित, १९७३. मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, १९७६ का पुनर्मुद्रण। (पूरी पुस्तिका में ऋगवेद के इस संस्करण का इस्तेमाल किया गया है।)

२. मारग्रॆट तथा जेम्स स्टट्‌ली द्वारा लिखित, अ डिक्शनरी ऑफ हिन्दूइज़म्‌  (अंग्रेज़ी), पृष्ठ ३४६. संश्रित प्रकाशक, १९७७.

३. वही पुस्तक,  पृष्ठ ३२४.

४. वही पुस्तक,  पृष्ठ १९४.

५. रोहित मेहता द्वारा लिखित, द जर्नी विद डॆथ (अंग्रेज़ी), पृष्ठ ७. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९७७.

६. अ डिक्शनरी ऑफ हिन्दूइज़म्‌,  पृष्ठ २०९ बताती है: “निमित्तज्ञान  ‘शकुनों का ज्ञान।’”

७. पी. थॉमस द्वारा लिखित, हिन्दू रिलिजियन, कस्टमस्‌ एण्ड मैनर्स  (अंग्रेज़ी), पृष्ठ ७६, ७७, डी. बी. तारापोरवाला सन्स एण्ड कं., बम्बई, १९५६, बताती है: “गौली शास्त्र या छिपकली का शास्त्र।”

८. सर एम. मोनिये-विलियमस्‌ द्वारा लिखित, अ संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी  (अंग्रेज़ी), पृष्ठ १३५, पहला संस्करण, ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १८९९. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९७६ पुनर्मुद्रण। अ डिक्शनरी ऑफ हिन्दूइज़म्‌,  पृष्ठ ३१.

९. एड टू बाइबल अंडरस्टैडिंग  (अंग्रेज़ी), वॉच टावर सोसाइटी, १९७१, पृष्ठ १५४२.

१०. अ संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी,  पृष्ठ १२००.

११. वही पुस्तक,  पृष्ठ १३५.

१२. वही पुस्तक,  पृष्ठ ७०५.

१३. वही पुस्तक,  पृष्ठ ७०६.

१४. एड टू बाइबल अंडरस्टैडिंग,  पृष्ठ १५३३.

१५. अ संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी,  पृष्ठ ४२२.

१६. भारतीय भाषाओं की बाइबलों में “प्राण” (अंग्रेज़ी में, सोल) और “आत्मा” (अंग्रेज़ी में, स्पिरिट) के प्रयोग से उत्पन्‍न गड़बड़ी निम्नलिखित चार्टों में दिए उदाहरणों से चित्रित है:

वचन मूल सं हि बंग मर गुज मल

उत्प. १:२ रूआख़ आत्म आत्मा आत्मा आत्मा आत्मा आत्माव

उत्प. २:७ नेफ़ेश प्राणी प्राणी प्राणी प्राणी प्राणी देही

मत्ती २:२० साइखी प्राण प्राण प्राण जीव जीव प्राणन

यूह. ४:२४ नूमा आत्म आत्मा आत्मा आत्मा आत्मा आत्माव

१ थिस्स. ५:२३ नूमा आत्मन्‌ आत्मा आत्मा आत्मा आत्मा आत्माव

१ थिस्स. ५:२३ साइखी प्राणी प्राण प्राण जीव प्राण प्राणन

इब्रा. ४:१२ साइखी प्राणी जीव प्राण जीव जीव प्राणन

इब्रा. ४:१२ नूʹमा आत्म आत्मा आत्मा आत्मा आत्मा आत्माव

ऊपर्युक्‍त चार्ट में भाषाओं के संक्षेपण का स्पष्टीकरण:

मूल = मूल भाषा बंग = बंगाली गुज = गुजराती

सं = संस्कृत मर = मराठी मल = मलयालम

हि = हिन्दी

तमिल भाषा की बाइबल में साइखी  शब्द का अनुवाद कम से कम सात अलग-अलग शब्दों का इस्तेमाल करता है, जिन में से पाँच शब्द संस्कृत गृहीत-शब्द हैं। साइखी  शब्द की १०२ उपस्थितियों में से, तमिल बाइबल निम्नलिखित शब्द इस्तेमाल करती है:

अत्तयूमा  (संस्कृत: “आत्मा, सत्त्व”) ३६ बार

जीवन  (संस्कृत: “जीवन, जीवित”) ३२ बार

मनम  (संस्कृत: “सोचना, विचार, मन, हृदय”) ९ बार

मनुषन  (संस्कृत: “मानव, मनुष्य”) रोम. १३:१

प्राणन  (संस्कृत: “प्राण, जैवश्‍वास, जीवधारी”) ५ बार

ऊयिर  (तमिल: “जीवन, अस्तित्त्व, जीवधारी”) १० बार

पेएर  (तमिल: “नाम, नेकनामी, व्यक्‍ति”) ४ बार

५ बार सूचिबद्ध नहीं किया गया

जे. एस. एम. हूपर द्वारा लिखित, ग्रीक न्यू टेस्टामेन्ट टर्मस्‌ इन इंडियन लैंग्वेजॆस्‌  (अंग्रेज़ी) देखिए। द बाइबल सोसाइटी ऑफ इंडिया, १९५७, पृष्ठ १७६, १७७, २४०, २४१.

नेफ़ेश और साइखी  शब्दों के लिए तमिल बाइबल में जहाँ संस्कृत शब्द प्राण  का उपयोग किया गया है, उन वचनों के नमूने ये हैं: उत्पत्ति १९:१९, २०; २५:८; ३५:२९; ४७:२५; १ शमूएल १९:५, ११; २२:२३; २३:१५; २४:११; २ शमूएल १:९; २३:१७; १ राजा १:१२; २:२३; ३:११; १९:२, ३, १०, १४; ७:७; १ इतिहास ११:१९; २ इतिहास १:११; मत्ती २:२०; प्रेरितों के काम १५:२५-२६; २०:१४; रोमियों १६:४; फिलिप्पियों २:३०; प्रकाशितवाक्य १६:३.—डी. ए. थ्रोअर द्वारा लिखित, द कॉनकॉर्डन्स टू द तमिल बाइबल  (अंग्रेज़ी), १९४३. द क्रिस्चियन लिट्‌रेचर सोसाइटी, मद्रास, १९७६ पुनर्मुद्रण।

“प्राण” (अंग्रेज़ी में, सोल) के लिए साधारणतः इस्तेमाल किया जानेवाला मलयालम शब्द देही  है, जो या तो संस्कृत शब्द धेय,  जिसका अर्थ है, “जो सृष्ट किया गया है,” या देह, जो “शरीर” को सूचित करता है, या देहिन  जिसका अर्थ है “एक शरीर होना,” इन शब्दों से आता है।

१७. सर एम. मोनिये-विलियमस्‌ द्वारा लिखित, इंडियन विस्डम्‌  (अंग्रेज़ी), १८९३, पृष्ठ ४१. कॉस्मो प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७८ पुनर्मुद्रण।

१८. एस. ई. फ्रॉस्ट, जूनियर, द्वारा लिखित, द सेक्रॆड राइटिंगस्‌ ऑफ द वर्ल्डस्‌ ग्रेट रिलिजियनस्‌  (अंग्रेज़ी), १९४३, पृष्ठ ३३. द न्यू होम लाइब्रेरी, द ब्लेकिस्टन कं., फिलाडॆल्फिया, १९४७ पुनर्मुद्रण।

१९. द जर्नी विद डॆथ,  पृष्ठ ११.

२०. नीरद सी. चौधरी द्वारा लिखित, हिन्दूइज़म्‌  (अंग्रेज़ी), पृष्ठ ३१२. बी. आइ. प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७९.

२१. द जर्नी विद डॆथ,  पृष्ठ १४.

२२. ए. एल. बेशॅम द्वारा लिखित, द वंडर दैट वॉज़ इंडिया  (अंग्रेज़ी), पृष्ठ २७१. ग्रोव प्रेस, न्यू यॉर्क, १९५४, १९७७.

२३. अ डिक्शनरी ऑफ हिन्दूइज़म्‌,  पृष्ठ २६४.

२४. द वंडर दैट वॉज़ इंडिया,  पृष्ठ ३२३.

२५. अ डिक्शनरी ऑफ हिन्दूइज़म्‌,  पृष्ठ ३१, २१९.

२६. इंडियन विस्डम्‌, पृष्ठ २८.

[फुटनोट]

^ पैरा. 16 पृष्ठ २९ पर ग्रन्थ-सूची के १६वें मुद्दे को देखिए।

^ पैरा. 46 प्रमाण के लिए, वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पुस्तिका कुरुक्षेत्र से अरमगिदोन तक—और आपकी उत्तरजीविता  देखिए।

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज ५ पर तसवीर]

प्रथम मानव दंपत्ति मनुष्यजाति पर मृत्यु लाया

[पेज ७ पर तसवीर]

मृत्यु अभाव और निःसहायता की दुःखद भावनाएँ लाती है

[पेज ११ पर तसवीर]

ये सब प्राण हैं

[पेज १३ पर तसवीर]

देह + जीवन-शक्‍ति = जीवित प्राण

[पेज १८ पर तसवीर]

परमेश्‍वर ने मनुष्यजाति को पाप से बचाने के लिए न्याय से संतुलित प्रेम लागू किया

[पेज २० पर तसवीर]

परिपूर्ण यीशु आदम की बिलकुल बराबरी में था

[पेज २२ पर तसवीर]

हमें परमेश्‍वर की उपासना करने के लिए बड़ी इमारतों की या मूर्तियों की ज़रूरत नहीं है

[पेज २३ पर तसवीर]

आदम के पाप ने यीशु के बलिदान को ज़रूरी बनाया

[पेज २७ पर तसवीर]

मृत्यु पर विजय प्राप्त करना!