इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

इतना ज़्यादा दुःख और अन्याय क्यों?

इतना ज़्यादा दुःख और अन्याय क्यों?

भाग ६

इतना ज़्यादा दुःख और अन्याय क्यों?

१, २. मानव अनुभव को ध्यान में रखते हुए, क्या प्रश्‍न पूछे जा सकते हैं?

फिर भी, यदि उस सर्वोच्च व्यक्‍ति का उद्देश्‍य था कि परिपूर्ण लोग पृथ्वी पर परादीस परिस्थितियों में सर्वदा जीवित रहें और यदि यह अभी भी उसका उद्देश्‍य है, तो अब परादीस क्यों नहीं है? उसके बजाय, मानवजाति ने क्यों इतनी सारी शताब्दियों से दुःख और अन्याय का अनुभव किया है?

निःसंदेह, युद्ध, साम्राज्यवादी विजय, शोषण, अन्याय, ग़रीबी, विपत्ति, बीमारी, और मृत्यु के कारण हुई दुर्दशा से मानव इतिहास भरा हुआ है। क्यों इतने सारे निर्दोष लोगों पर इतनी सारी बुरी बातें हुई हैं? यदि परमेश्‍वर सर्वशक्‍तिमान है, तो उसने हज़ारों सालों से इतने सारे दुःख को अनुमति क्यों दी है? जबकि परमेश्‍वर ने विश्‍व-मंडल को इतनी भली-भांति अभिकल्पित और व्यवस्थित किया, वह पृथ्वी पर अव्यवस्था और विनाश की अनुमति क्यों देगा?

एक उदाहरण

३-५. (क) कौनसा उदाहरण यह समझने में हमारी मदद कर सकता है कि एक व्यवस्था का परमेश्‍वर पृथ्वी पर अव्यवस्था की अनुमति क्यों देगा? (ख) पृथ्वी के विषय में स्थिति पर कई विकल्पों में से कौनसा विकल्प ठीक बैठता है?

यह सुचित्रित करने के लिए कि एक व्यवस्था का परमेश्‍वर पृथ्वी पर अव्यवस्था की अनुमति क्यों देगा, आइए एक उदाहरण का प्रयोग करें। कृपया, कल्पना कीजिए, आप एक जंगल में चल रहे हैं और आपको एक घर मिलता है। जैसे आप घर का निरीक्षण करते हैं, आप देखते हैं कि घर अव्यवस्थित है। खिड़कियाँ टूटी हुई हैं, छत काफ़ी टूटी-फूटी हालत में है, लकड़ी का बरामदा छेदों से भरा है, दरवाज़ा एक कब्ज़े पर लटक रहा है, और नलकारी काम नहीं करती।

इन सब त्रुटियों को देखते हुए, क्या आप यह निष्कर्ष निकालेंगे कि यह संभव नहीं कि किसी बुद्धिमान अभिकल्पक ने उस घर की अभिकल्पना की हो? क्या अव्यवस्था आपको क़ायल कर देगी कि वह घर केवल संयोग से ही बना होगा? या यदि आपने यह निष्कर्ष निकाला कि किसी व्यक्‍ति ने उसकी अभिकल्पना करके निर्माण किया, तो क्या आप यह महसूस करेंगे कि वह व्यक्‍ति कुशल और विचारशील नहीं था?

जब आप ढाँचे की ज़्यादा अच्छी तरह जाँच करते हैं, तब आप देखते हैं कि शुरू में उसे ठीक तरह बनाया गया था और वह काफ़ी विचारशील ध्यान का प्रमाण देता है। लेकिन अब वह टूट-फूट गया है और विध्वस्त होनेवाला है। ये त्रुटियाँ और समस्याएँ किन बातों को सूचित कर सकती हैं? ये सूचित कर सकती हैं कि (१) मालिक मर गया; (२) वह एक योग्य निर्माता है लेकिन घर में अब रुचि नहीं रखता; या (३) उसने तात्कालिक समय के लिए अपनी सम्पत्ति उपेक्षा करनेवाले किरायेदारों को दी। यह अंतिम विकल्प इस पृथ्वी के विषय में स्थिति के समान है।

क्या ग़लत हो गया

६, ७. जब आदम और हव्वा ने परमेश्‍वर का नियम तोड़ा तब उनका क्या हुआ?

प्रारंभिक बाइबल अभिलेख से, हम सीखते हैं कि परमेश्‍वर का उद्देश्‍य यह नहीं था कि लोग दुःख उठाएँ या मरें। हमारे प्रथम माता-पिता, आदम और हव्वा, केवल इसलिए मरे क्योंकि उन्होंने परमेश्‍वर की अवज्ञा की। (उत्पत्ति, अध्याय २ और) जब उन्होंने अवज्ञा की, उन्होंने परमेश्‍वर की इच्छा करनी छोड़ दी। वे परमेश्‍वर की देखरेख से दूर हो गए। वस्तुतः, उन्होंने परमेश्‍वर, ‘जीवन के सोते’ से अपने आप को वियोजित कर लिया।—भजन ३६:९.

जैसे कि एक मशीन जो उसके शक्‍ति स्रोत से वियोजित किए जाने पर धीमी होकर रुक जाती है, उनके शरीर और मन विकृत हो गए। परिणामस्वरूप, आदम और हव्वा अवनत हुए, बूढ़े हुए, और अन्त में मर गए। फिर क्या हुआ? वे वापस वहाँ चले गए जहाँ से वे आए थे: “तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।” परमेश्‍वर ने उन्हें चेतावनी दी थी कि उसके नियमों की अवज्ञा का परिणाम मृत्यु होगा: “तू . . . अवश्‍य मर जाएगा।”—उत्पत्ति २:१७; ३:१९.

८. किस प्रकार हमारे प्रथम माता-पिता के पाप ने मानव परिवार पर प्रभाव डाला?

न सिर्फ़ हमारे प्रथम माता-पिता मरे बल्कि उनके सभी वंशज, पूरी मानवजाति भी मृत्यु के अधीन हो गई है। क्यों? क्योंकि आनुवंशिकी के नियमों के अनुसार, बच्चे अपने माता-पिता के अभिलक्षण प्राप्त करते हैं। और हमारे प्रथम माता-पिता के सभी बच्चों ने अपरिपूर्णता और मृत्यु ही प्राप्त की। रोमियों ५:१२ हमें बताता है: “एक मनुष्य [मानवजाति के पूर्वपुरुष, आदम] के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने [अपरिपूर्णता, अर्थात्‌, पापमय प्रवृत्तियाँ वंशागत प्राप्त करने के द्वारा] पाप किया।” और क्योंकि पाप, अपरिपूर्णता, और मृत्यु ही केवल ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लोग जानते हैं, कुछ लोग उन्हें स्वाभाविक और अनिवार्य समझते हैं। फिर भी, आरंभिक मनुष्यों की सृष्टि सर्वदा जीवित रहने की क्षमता और अभिलाषा के साथ की गई थी। इसी कारण अधिकांश लोगों को यह प्रत्याशा इतनी निराशाजनक लगती है कि मृत्यु के द्वारा उनका जीवन समाप्त हो जाएगा।

इतनी देर क्यों?

९. परमेश्‍वर ने इतनी देर तक दुःख को क्यों रहने दिया?

परमेश्‍वर ने मनुष्यों को इतनी देर तक अपनी मनमानी करने की अनुमति क्यों दी है? उसने इतनी शताब्दियों से दुःख को क्यों रहने दिया है? एक अत्यावश्‍यक कारण यह है कि एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण वादविषय उठाया गया था: शासन करने का अधिकार किसका है? क्या परमेश्‍वर को मनुष्यों का शासक होना चाहिए, या क्या वे उससे अलग स्वयं अपना शासन सफलतापूर्वक कर सकते हैं?

१०. मनुष्यों को क्या योग्यता दी गई थी, और किस ज़िम्मेदारी के साथ?

१० मनुष्यों को स्वतंत्र इच्छा, अर्थात्‌, चयन करने की योग्यता के साथ सृजा गया था। उन्हें यंत्रमानव या जानवरों के समान नहीं बनाया गया था, जो मुख्यता सहज-वृत्ति द्वारा मार्गदर्शित होते हैं। इसलिए मनुष्य चुन सकते हैं कि वे किसकी सेवा करेंगे। (व्यवस्थाविवरण ३०:१९; २ कुरिन्थियों ३:१७) अतः, परमेश्‍वर का वचन सलाह देता है: “अपने आप को स्वतंत्र जानो पर अपनी इस स्वतंत्रता को बुराई के लिये आड़ न बनाओ, परन्तु अपने आप को परमेश्‍वर के दास समझकर चलो।” (१ पतरस २:१६) फिर भी, जबकि मनुष्यों के पास स्वतंत्र चयन की अद्‌भुत देन है, उन्हें अपने कार्यों के चुनाव के परिणामों को स्वीकार करना है।

११. परमेश्‍वर से स्वतंत्र मार्ग सफल हो सकता है या नहीं यह पता करने का एकमात्र तरीक़ा क्या होगा?

११ हमारे प्रथम माता-पिता ने ग़लत चुनाव किया। उन्होंने परमेश्‍वर से स्वतंत्र मार्ग चुना। यह सच है कि, जब प्रथम विद्रोही जोड़े ने अपनी स्वतंत्र इच्छा का दुरुपयोग किया, तब परमेश्‍वर उन्हें तुरंत मार सकता था। लेकिन उससे मनुष्यों पर शासन करने के परमेश्‍वर के अधिकार के विषय में प्रश्‍न नहीं सुलझता। क्योंकि पहला जोड़ा परमेश्‍वर से स्वतंत्रता चाहता था, इस प्रश्‍न का उत्तर देना ज़रूरी है: क्या वह मार्ग एक सुखी, सफल जीवन में परिणित हो सकता था? पता करने का एकमात्र तरीक़ा था कि हमारे प्रथम माता-पिता और उनकी संतानों को उनके अपने मार्ग में जाने दिया जाए, क्योंकि यही उनका चुनाव था। समय प्रदर्शित करता कि मनुष्यों को अपने सृष्टिकर्ता से स्वतंत्र, स्वयं अपना शासन करने में सफल होने के लिए सृजा गया था या नहीं।

१२. यिर्मयाह ने मानव शासन को कैसे आँका, और यह ऐसा क्यों है?

१२ बाइबल लेखक यिर्मयाह जानता था कि परिणाम क्या होगा। परमेश्‍वर की शक्‍तिशाली पवित्र आत्मा, या सक्रिय शक्‍ति से निर्देशित, उसने सत्यनिष्ठा से लिखा: “हे यहोवा, मैं जान गया हूं, कि मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं है, मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं। हे यहोवा, मेरी ताड़ना कर।” (यिर्मयाह १०:२३, २४) वह जानता था कि मनुष्यों को परमेश्‍वर की स्वर्गीय बुद्धि के मार्गदर्शन की ज़रूरत है। क्यों? मात्र इसलिए कि परमेश्‍वर ने मनुष्यों को उसके मार्गदर्शन से अलग, सफल होने के लिए नहीं सृजा।

१३. हज़ारों साल के मानव शासन के परिणामों ने हर संदेह से परे क्या दिखाया है?

१३ हज़ारों सालों के मानव शासन के परिणाम हर संदेह से परे दिखाते हैं कि मनुष्यों में यह क्षमता नहीं कि वे अपने सृष्टिकर्ता से अलग होकर स्वयं अपने कार्य निर्देशित कर सकें। कोशिश करने के बाद, अनर्थकर परिणामों के लिए वे सिर्फ़ अपने आपको ही दोषी ठहरा सकते हैं। बाइबल इसे स्पष्ट करती है: “वह [परमेश्‍वर] चट्टान है, उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्‍वर है, उस में कुटिलता नहीं, वह धर्मी और सीधा है। . . . ये बिगड़ गए, ये उसके पुत्र नहीं; यह उनका कलंक है।”—व्यवस्थाविवरण ३२:४, ५.

परमेश्‍वर जल्द ही हस्तक्षेप करेगा

१४. क्यों परमेश्‍वर मानव मामलों में हस्तक्षेप करने में अब और विलम्ब नहीं करेगा?

१४ शताब्दियों के दौरान मानव शासन की असफलता के पर्याप्त प्रदर्शन की अनुमति देने के बाद, परमेश्‍वर अब मानव मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए आगे बढ़ सकता है और दुःख, शोक, बीमारी, और मृत्यु का अन्त कर सकता है। मनुष्यों को विज्ञान, उद्योग, औषधि, और अन्य क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों के शिखर तक आने की अनुमति देने के बाद, परमेश्‍वर को अब यह प्रदर्शित करने के लिए और शताब्दियों का समय देने की कोई ज़रूरत नहीं है कि अपने सृष्टिकर्ता से स्वतंत्र मनुष्य एक शान्तिपूर्ण, परादीसीय संसार ला सकते हैं या नहीं। मनुष्य ऐसा संसार न लाए हैं और न ला सकते हैं। परमेश्‍वर से स्वतंत्रता एक अति अप्रिय, घृणित, प्राण-घातक संसार में परिणित हुई है।

१५. हमें बाइबल की कौनसी सलाह पर ध्यान देने की ज़रूरत है?

१५ जबकि कुछ निष्कपट शासक रहे हैं जिन्होंने मानवजाति की मदद करनी चाही है, उनके प्रयास सफल नहीं हुए हैं। हर जगह आज मानव शासकत्व की विफलता का प्रमाण है। इसीलिए बाइबल सलाह देती है: “तुम प्रधानों पर भरोसा न रखना, न किसी आदमी पर, क्योंकि उस में उद्धार करने की भी शक्‍ति नहीं।”—भजन १४६:३.

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज २४, २५ पर तसवीर]

यहाँ तक कि निष्कपट विश्‍व शासक भी एक शान्तिपूर्ण, परादीसीय संसार लाने में समर्थ नहीं हुए हैं