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एक दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार रखना

एक दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार रखना

अध्याय २८

एक दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार रखना

१. (क) आप कैसे परमेश्‍वर के संगठन का भाग बन सकते हैं? (ख) तब आपको किस आदेश का पालन करना चाहिये?

यहोवा परमेश्‍वर और उसके उद्देश्‍यों के ज्ञान और उसके मूल्यांकन में जैसे-जैसे आप बढ़ते जायेंगे, आप नियमित रूप से उन व्यक्‍तियों की संगति में रहने की इच्छुक होंगे जो यही समान विश्‍वास और आशा रखते हैं। ऐसा करने से आप परमेश्‍वर के दृश्‍य संगठन अर्थात्‌, एक सच्चे मसीही बन्धुता के भाग हो जायेंगे। तब “भाइयों के संपूर्ण संघ के लिये प्रेम रखो” वह आदेश होगा जिसका पालन करना आपके लिये आवश्‍यक है।—१ पतरस २:१७; ५:८, ९.

२. (क) यीशु ने अपने अनुयायियों को क्या नया आदेश दिया था? (ख) ये वाक्यांश “एक दूसरे से” और “तुम आपस में” स्पष्टतया क्या प्रदर्शित करते हैं? (ग) प्रेम रखना क्यों महत्वपूर्ण है?

यीशु मसीह ने इस बात पर जोर दिया था कि उसके अनुयायियों का एक दूसरे से प्रेम रखना कितना महत्वपूर्ण है। उसने उनसे कहा: “मैं तुम्हें एक नयी आज्ञा देता हूँ कि तुम एक दूसरे से प्रेम रखो . . . यदि तुम आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो।” (यूहन्‍ना १३:३४, ३५) ये अभिव्यक्‍तियाँ “एक दूसरे से” और “तुम आपस में” स्पष्टतया यह प्रदर्शित करती हैं कि सब सच्चे मसीही एक समूह अथवा संगठन में इकट्ठे होंगे। (रोमियों १२:५; इफिसियों ४:२५) और इस संगठन की पहचान यह होगी कि उसके सदस्य एक दूसरे से प्रेम रखेंगे। यदि एक व्यक्‍ति प्रेम नहीं रखता है तो अन्य हर बात व्यर्थ है।—१ कुरिन्थियों १३:१-३.

३. संगी मसीहियों का ख्याल रखने और उनसे प्रेम रखने के महत्व पर बाइबल कैसे जोर देती है?

इसलिये प्रारंभिक मसीहियों को अक्सर इस प्रकार की स्मरण आज्ञाएं दी जाती थीं: “एक दूसरे के लिये स्नेह रखो।” “एक दूसरे का स्वागत करो।” “एक दूसरे की सेवा करते रहो।” “एक दूसरे के प्रति कृपालु और कोमलतापूर्वक सहानुभूतिशील रहो।” “एक दूसरे की बरदाश्‍त करते रहो और यदि किसी के पास किसी दूसरे के विरुद्ध शिकायत का कारण हो तो एक दूसरे को पूर्ण रूप से क्षमा करते रहो।” “एक दूसरे को तसल्ली देते रहो और एक दूसरे को प्रोत्साहित करते रहो।” “एक दूसरे के साथ शांतिमय रहो।” “एक दूसरे के लिये अत्यधिक प्रेम रखो।”—रोमियों १२:१०; १५:७; गलतियों ५:१३; इफिसियों ४:३२; कुलुस्सियों ३:१३, १४; १ थिस्सलुनीकियों ५:११, १३; १ पतरस ४:८; १ यूहन्‍ना ३:२३; ४:७, ११.

४. (क) किस बात से प्रदर्शित होता है कि मसीहियों को एक दूसरे से प्रेम रखने के अतिरिक्‍त औरों से भी प्रेम रखना चाहिये? (ख) मसीहियों को विशेष रूप से किनसे प्रेम रखना चाहिये?

तथापि इसका यह अर्थ नहीं है कि सच्चे मसीही केवल परमेश्‍वर के संगठन के संगी सदस्यों से प्रेम रखें। उनका दूसरों से भी प्रेम रखना आवश्‍यक है। बाइबल वास्तव में उनको “एक दूसरे के साथ और सबके साथ प्रेम बढ़ाने के लिये उत्तेजित करती है।” (१ थिस्सलुनीकियों ३:१२; ५:१५) प्रेरित पौलुस ने एक उपयुक्‍त संतुलित दृष्टिकोण देते हुए यह लिखा: “हम सबके साथ भलाई करें परन्तु विशेष रूप से उनके साथ जो विश्‍वास में हमारे साथ संबंधित हैं।” (गलतियों ६:१०) अतः जबकि मसीहियों के लिये सबसे प्रेम रखना आवश्‍यक है जिनमें उनके शत्रु भी सम्मिलित हैं उनका विशेष रूप से परमेश्‍वर के संगठन के उन संगी सदस्यों से प्रम रखना आवश्‍यक है जो उनके आध्यात्मिक भाई और बहन हैं।—मत्ती ५:४४.

५. किस बात से प्रदर्शित होता है कि सच्चे मसीही प्रारंभिक समय में और आज भी अपने प्रेम के लिए सुप्रसिद्ध हैं?

प्रारंभिक मसीही इस प्रेम के लिये जो वे एक दूसरे से रखते थे, सुप्रसिद्ध थे। दूसरी शताब्दी के तरतुलियन नामक लेखक के अनुसार लोग उनके विषय में यह कहते थे: ‘देखो वे एक दूसरे से कितना प्रेम रखते हैं आज कैसे एक दूसरे के लिये मरने को तैयार रहते हैं!’ आज भी सच्चे मसीहियों के मध्य इस प्रकार का प्रेम देखा जाता है। परन्तु क्या इसका यह अर्थ है कि सच्चे मसीहियों के मध्य कभी समस्याएं अथवा कठिनाइयाँ उत्पन्‍न नहीं होती हैं?

अपूर्णता के परिणाम

६. सच्चे मसीही भी कभी-कभी एक दूसरे के विरुद्ध क्यों पाप करते हैं?

आपने अपने बाइबल अध्ययन से यह समझ लिया होगा कि हम सबने अपने प्रारंभिक पिता और माता आदम और हव्वा से अपूर्णता उत्तराधिकार में प्राप्त की है। (रोमियों ५:१२) इसलिये हम अनुचित कार्य करने के प्रति प्रवृत्त होते हैं। बाइबल कहती है: “हम सब कई बार चूक जाते हैं।” (याकूब ३:२; रोमियों ३:२३) और आपको मालूम होना चाहिये कि परमेश्‍वर के संगठन के सदस्य भी अपूर्ण हैं और कभी-कभी वे वही कार्य करते हैं जो सही नहीं है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि सच्चे मसीहियों के मध्य भी समस्याएं और कठिनाइयाँ उत्पन्‍न होती हैं।

७. (क) यूओदिया और सुन्तुखे को क्यों यह बताने की आवश्‍यकता हुई कि वे “एक मन रखें”? (ख) किस बात से प्रदर्शित होता है कि वे आधारभूत रूप से उत्तम मसीही स्त्रियाँ थीं?

प्रारंभिक फिलिप्पियों सभा की यूओदिया और सुन्तुखे नामक दो स्त्रियों की स्थिति पर गौर कीजिये। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “मैं यूओदिया को भी समझाता हूँ और सुन्तुखे को भी समझाता हूँ कि वे प्रभु में एक मन रखें।” क्यों पौलुस ने इन दो स्रियों को “एक मन रखने का” प्रोत्साहन दिया था? स्पष्ट है कि इन दोनों के बीच कोई समस्या थी। बाइबल यह नहीं बताती है कि वह क्या समस्या थी। शायद वे किसी प्रकार से एक दूसरे से ईर्ष्या करती थीं। फिर भी आधारभूत रूप से वे नेक स्त्रियाँ थीं। वे कुछ समय से इस मसीही धर्म में थीं और कई वर्ष पहले वे पौलुस के साथ प्रचार कार्य में भाग ले चुकी थीं। अतः उसने इस सभा को लिखा: “इन स्रियों की सहायता करते रहो क्योंकि उन्होंने मेरे साथ सुसमाचार के कार्य में . . . परिश्रम किया है।”—फिलिप्पियों ४:१-३.

८. (क) पौलुस और बरनबास के मध्य क्या समस्या उत्पन्‍न हुई थी? (ख) यदि आप वहाँ होते और इस झगड़े को देखते तो आप किस निष्कर्ष पर पहुंचते?

एक समय प्रेरित पौलुस और उसके बरनबास नामक यात्री साथी के मध्य भी एक समस्या उठी थी। जबकि वे अपनी दूसरी धर्म प्रचार यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे थे तो बरनबास अपने संबंधी भाई मरकुस को भी साथ ले जाना चाहता था। तथापि पौलुस मरकुस को साथ नहीं ले जाना चाहता था क्योंकि मरकुस उनकी पहली धर्म प्रचार यात्रा के दौरान उनका साथ छोड़कर अपने घर चला गया था। (प्रेरितों के काम १३:१३) बाइबल कहती है: “इस पर दोनों के मध्य क्रोध का तीव्र विस्फोट हुआ और वे दोनों एक दूसरे से अलग हो गये।” (प्रेरितों के काम १५:३७-४०) क्या आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं! यदि आप वहाँ होते और उस “क्रोध के तीव्र विस्फोट” को देखते तो क्या आप इस निष्कर्ष पर पहुंचते क्योंकि जिस तरह का व्यवहार पौलुस और बरनबास ने प्रदर्शित किया, तो वे परमेश्‍वर के संगठन का भाग नहीं थे?

९. (क) पतरस से क्या पाप हुआ था और वह क्या बात थी जिसके कारण उसने इस प्रकार का व्यवहार किया? (ख) जब पौलुस ने इस प्रकार का व्यवहार होते देखा तो उसने क्या किया?

एक दूसरे अवसर पर प्रेरित पतरस ने एक अनुचित बात की। उसने इस डर से गैर इस्राएली मसीहियों के साथ नज़दीकी संबंध रखना छोड़ दिया कि कहीं यहूदी मसीहियों में कुछेक व्यक्‍ति अपने गैर इस्राएली मसीही भाइयों को अनुचित रीति से तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे, पतरस को भी नापसंदगी की दृष्टि से न देखने लगे। (गलतियों २:११-१४) जब प्रेरित पौलुस ने देखा कि पतरस क्या कर रहा था तो उसने पतरस के अनुचित आचरण की उन सबके सामने जो वहाँ उपस्थित थे, निन्दा की। यदि आप पतरस होते तो आपको कैसा महसूस होता?—इब्रानियों १२:११.

प्रेम से समस्याओं का समाधान करना

१०. (क) जब पतरस को ताड़ना मिली तब उसकी प्रतिक्रिया क्या हुई? (ख) हम पतरस के साथ हुई इस घटना से क्या सीख सकते हैं?

१० पतरस पौलुस पर क्रोधित हो सकता था। जिस दंग से पौलुस ने उसको सबके सामने ताड़ना दी तो वह इस पर नाराज़ हो सकता था। परन्तु वह नाराज़ नहीं हुआ। (सभोपदेशक ७:९) पतरस नम्र स्वभाव रखता था। उसने इस ताड़ना को स्वीकार किया और उसने इस बात के कारण पौलुस के प्रति अपने प्रेम को कम नहीं होने दिया। (१ पतरस ३:८, ९) यहाँ ध्यान दीजिए कि बाद में पतरस ने संगी मसीहियों को प्रोत्साहन के एक पत्र में पौलुस का प्रसंग किस तरीके से दिया है: “हमारे प्रभु के धैर्य को उद्धार समझो जैसा कि हमारे प्रिय भाई पौलुस ने भी उस ज्ञान के अनुसार जो मिला, तुम्हें भी लिखा है।” (२ पतरस ३:१५) हाँ, पतरस ने प्रेम द्वारा उस समस्या को ढका जो इस मामले में उसके अनुचित आचरण के परिणामस्वरूप उत्पन्‍न हुई थी।—नीतिवचन १०:१२.

११. (क) पौलुस और बरनबास के मध्य क्रोध का तीव्र विस्फोट हो जाने के बावजूद उन्होंने कैसे प्रदर्शित किया कि वे सच्चे मसीही हैं? (ख) हम उनके इस नमूने से कैसे लाभान्वित हो सकते हैं?

११ पौलुस और बरनबास के मध्य जो समस्या उत्पन्‍न हुई थी उसका क्या हुआ? वह भी प्रेम द्वारा हल की गयी। क्योंकि जब बाद में पौलुस ने कुरिन्थियों की सभा को लिखा तो उसने बरनबास को अपना निकटतम संगी कार्यकर्त्ता बताया। (१ कुरिन्थियों ९:५, ६) यद्यपि पौलुस के पास एक यात्रा साथी के रूप में मरकुस की योग्यता पर सन्देह करने का उचित कारण था, फिर भी यह युवा पुरुष बाद में परिपक्वता के उस बिन्दु तक पहुंच गया था कि जिससे पौलुस तीमुथियुस को लिख सकता था: “मरकुस को अपने साथ लेकर आ जा क्योंकि वह सेवा कार्य में मेरे लिये उपयोगी है।” (२ तीमुथियुस ४:११) हम मतभेद दूर करने के इस उदाहरण से लाभान्वित हो सकते हैं।

१२. (क) हम यह क्यों मानें कि यूओदिया और सुन्तुखे ने आपस के मतभेद को दूर कर दिया होगा? (ख) गलतियों ५:१३-१५ के अनुसार यह बात क्यों अनिवार्य है कि मसीही आपस के मतभेद को प्रेम से दूर करें?

१२ अच्छा, अब यूओदिया और सुन्तुखे के साथ क्या हुआ? क्या उन्होंने आपस के मतभेद को दूर किया और जो भी पाप उन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध किये होंगे उन्हें प्रेम से ढाया? बाइबल हमें नहीं बताती है कि अन्ततः उनके साथ क्या हुआ। परन्तु नेक स्त्रियाँ होने के नाते जिन्होंने मसीही सेवा में पौलुस के साथ-साथ काम किया था, हम तर्कपूर्वक मान सकते हैं कि उन्होंने नम्रतापूर्वक दिये हुए परामर्श को अवश्‍य स्वीकार किया होगा। जब पौलुस का पत्र मिला होगा तब हम कल्पना कर सकते हैं कि वे दोनों एक दूसरे के पास गयी होंगी और प्रेम की भावना में अपनी समस्या को सुलझाया होगा।—गलतियों ५:१३-१५.

१३. प्रेम का प्रदर्शन करने में यहोवा परमेश्‍वर क्या नमूना प्रस्तुत करता है?

१३ आपको भी शायद सभा में किसी व्यक्‍ति और व्यक्‍तियों के साथ प्रेम का व्यवहार रखना मुश्‍किल लगता होगा। यद्यपि उन्हें सच्चे मसीही गुणों को विकसित करने में काफी समय लगे, इस बात पर विचार कीजिए: क्या यहोवा परमेश्‍वर लोगों से प्रेम करने से पहले उस समय तक इंतजार करता है जब तक कि वे अपने तमाम बुरे तरीकों से छुटकारा न पा लें? नहीं, बाइबल कहती है: “परमेश्‍वर हमारे प्रति अपने प्रेम को इस रीति से प्रकट करता है कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा।” (रोमियों ५:८) हमारे लिये परमेश्‍वर के उदाहरण का अनुसरण करने और उनके प्रति जो बुरे और मूर्ख कार्य करते हैं, प्रेम प्रदर्शित करने की आवश्‍यकता है।—इफिसियों ५:१, २; १ यूहन्‍ना ४:९-११; भजन संहिता १०३:१०.

१४. दूसरों की नुक्‍ताचीनी नहीं करने के लिए यीशु ने क्या परामर्श दिया?

१४ क्योंकि हम सब अति अपूर्ण हैं इसलिये यीशु ने शिक्षा दी कि हमें दूसरों की नुक्‍ताचीनी नहीं करनी चाहिये। यह सच है कि दूसरों में कमियाँ हैं परन्तु हममें भी कमियाँ हैं। यीशु ने पूछा: “तू क्यों अपने भाई की आँख में पड़े तिनके को देखता है परन्तु अपनी आँख की शहतीर तुझे नहीं समझती?” (मत्ती ७:१-५) यदि हम इस प्रकार के विवेकपूर्ण परामर्श को ध्यान में रखें तो हमें अपने भाइयों और बहिनों के साथ प्रेममय व्यवहार रखने में सहायता मिलेगी।

१५. (क) यह क्यों अनिवार्य है कि हम उन लोगों को जिनके विरुद्ध हमारे पास शिकायत का कारण भी है, हम क्षमा करें? (ख) मत्ती अध्याय १८ में यीशु के इस दृष्टांत में उसने क्षमाशील होने की शिक्षा कैसा दी?

१५ यह सर्वथा अति आवश्‍यक है कि हम करुणामय और क्षमाशील बनें। यह सच है कि शायद आपके पास किसी भाई या बहिन के विरुद्ध शिकायत का वास्तविक कारण हो। परन्तु बाइबल के इस परामर्श को याद रखिये: “यदि किसी के पास किसी के विरुद्ध शिकायत का कोई कारण है तो एक दूसरे की बरदाश्‍त करते रहो और एक दूसरे को पूर्ण रूप से क्षमा करते रहो।” परन्तु आपको क्यों एक दूसरे के अपराधों को क्षमा करना चाहिये जबकि आपके पास उनके विरुद्ध शिकायत का एक प्रामाणिक कारण है? इसलिये कि बाइबल उत्तर देती है: “यहोवा ने आपके अपराधों को पूर्ण रूप से क्षमा किया है।” (कुलुस्सियों ३:१३) और यीशु ने कहा यदि हम परमेश्‍वर की क्षमा प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारे लिये दूसरों को क्षमा करना आवश्‍यक है। (मत्ती ६:९-१२, १४, १५) यहोवा ने उस राजा के समान जिसका वर्णन यीशु के एक दृष्टांत में हुआ है, हज़ारों बार हमारे अपराध क्षमा किये हैं तो क्या हम अपने भाइयों के अपराधों को कुछेक बार क्षमा नहीं कर सकते हैं?—मत्ती १८:२१-३५; नीतिवचन १९:११.

१६. (क) १ यूहन्‍ना ४:२०, २१ के अनुसार परमेश्‍वर के प्रति प्रेम, अपने संगी मसीहियों के प्रति प्रेम से कैसे संबंधित है? (ख) यदि आपके भाई को आप से कोई शिकायत है तो क्या करना अति आवश्‍यक है?

१६ हम सच को बिल्कुल व्यवहार में नहीं ला रहे हैं जबकि हम उसी समय अपने भाइयों और बहिनों के साथ अप्रिय रीति से और निष्ठुरता से सलूक करते हैं। (१ यूहन्‍ना ४:२०, २१; ३:१४-१६) अतः यदि तब आपको अपने संगी मसीही के साथ कोई समस्या हो तो उसके साथ बात करना बंद मत कीजिए। मन में विद्वेष भाव न रखिये बल्कि प्रेम की भावना में उस विषय को सुलझाइये। यदि आपने अपने भाई को नाराज़ किया है तो अपना दोष स्वीकार करने के लिये और उससे क्षमा मांगने के लिये तैयार रहिये—मत्ती ५:२३, २४.

१७. यदि कोई आपको नुक्सान पहुंचाता है तो उचित मार्ग क्या है जो लेना है?

१७ परन्तु क्या हो यदि कोई आपका अपमान करता है और आपको किसी तरीके से नुक्सान पहुंचाता है? बाइबल यह परामर्श देती है: “ऐसा मत कहो: ‘जैसा उसने मेरे साथ किया वैसा ही मैं भी उसके साथ करूंगा।” (नीतिवचन २४:२९; रोमियों १२:१७, १८) यीशु मसीह ने सलाह दी: “जो कोई तेरे दहिने गाल पर थप्पड़ मारे उसकी ओर दूसरा भी फेर दे।” (मत्ती ५:३९) थप्पड़ मारने का यह अभिप्राय नहीं कि किसी को शारीरिक रूप से चोट लगे बल्कि इसका यह अर्थ है कि उसका अपमान किया जाय या उसे गुस्सा दिलाया जाय। यीशु इस प्रकार अपने शिष्यों को किसी संघर्ष और किसी वाद-विवाद में उलझने से बचे रहने की शिक्षा दे रहा था। “बुराई के बदले बुराई” या “गाली के बदले गाली” देने की अपेक्षा आपको “मेल-मिलाप ढूंढना और उसका यत्न करते रहना चाहिये।’—१ पतरस ३:९, ११; रोमियों १२:१४.

१८. परमेश्‍वर के सब लोगों से प्रेम रखने के दृष्टांत से हमें क्या सीखना चाहिये?

१८ याद कीजिए कि हमें “भाइयों के संपूर्ण संघ के लिए प्रेम रखना” चाहिये। (१ पतरस २:१७) यहोवा परमेश्‍वर इसका उदाहरण प्रस्तुत करता है। वह पक्षपात नहीं करता है। उसकी दृष्टि में सब प्रजातियाँ बराबर हैं। (प्रेरितों के काम १०:३४, ३५; १७:२६) वे लोग जो आने वाले “बड़े क्लेश” में सुरक्षित रहेंगे “सब राष्ट्रों, सब कुलों, सब जातियों और सभी भाषाओं से लिये गये हैं। (प्रकाशितवाक्य ७:९, १४-१७) अतः परमेश्‍वर का अनुकरण करते हुए हमें दूसरों से इसलिए कम प्रेम नहीं करना चाहिये क्योंकि वे भिन्‍न प्रजाति, राष्ट्रीयता अथवा सामाजिक स्थिति अथवा भिन्‍न रंग की त्वचा रखते हैं।

१९. (क) हमें अपने संगी मसीहियों के साथ कैसे सम्मान और व्यवहार करना चाहिये? (ख) वह क्या महान विशेषाधिकार हमारा हो सकता है?

१९ मसीही सभा में सबको जानने की कोशिश कीजिए और आप उनकी कद्र और उनसे प्रेम करने लगेंगे। प्रौढ़ जनों से पिता और माता के समान और छोटों से भाइयों और बहिनों के समान व्यवहार कीजिए। (१ तीमुथियुस ५:१, २) परमेश्‍वर के परिवार समान दृश्‍य संगठन का भाग होना वास्तव में एक विशेषाधिकार है जिसके सब सदस्य मिलकर एक दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं। इस प्रकार के प्रिय परिवार के साथ परादीस में सर्वदा जीवित रहना कितनी उत्तम बात होगी!—१ कुरिन्थियों १३:४-८.

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज २३३ पर तसवीरें]

उस घटना से जो यूओदिया और सुन्तुखे के मध्य हुई, हम क्या सीख सकते हैं?

[पेज २३५ पर तसवीरें]

क्या उस तर्क-वितर्क का जो पौलुस और बरनबास के मध्य हुआ, यह अर्थ था कि वे परमेश्‍वर के संगठन के सदस्य नहीं थे?

[पेज २३६ पर तसवीरें]

सच्चे मसीही प्रेम द्वारा शिकायत के कारणों को ढांप देते हैं

[पेज २३७ पर तसवीरें]

परमेश्‍वर के संगठन में मसीही प्रेम द्वारा प्रेरित होते हैं कि वे बराबर हैं और साथ रह सकते हैं