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हम यहाँ क्यों हैं

हम यहाँ क्यों हैं

अध्याय ७

हम यहाँ क्यों हैं

१. सोच-विचार करने वाले व्यक्‍ति किस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं?

पृथ्वी पर जीवन का अर्थ क्या है इस विषय में लोग बहुत समय से सोच-विचार करते रहे हैं। वे इस विशाल तारामय आकाश को देखते रहते हैं। वे एक रंगीन सूर्यास्त और सुंदर देहात की प्रशंसा करते रहे हैं। विचारपूर्वक व्यक्‍तियों ने यह तर्क दिया कि इन तमाम वस्तुओं के पीछे किसी महान उद्देश्‍य का होना आवश्‍यक है। परन्तु बहुधा वे यही सोचते रहे हैं कि इनमें उनका उपयुक्‍त स्थान कहाँ है।—भजन संहिता ८:३, ४.

२. क्या प्रश्‍न हैं जो लोग पूछते रहे हैं?

जीवन में कभी न कभी अधिकतर लोग यह पूछते रहे हैं: क्या हमें केवल अल्प समय के लिये जीवित रहना है, और जीवन से जो हम प्राप्त कर सकते हैं उसे ग्रहण करके तब मर जाना है? हम वास्तव में कहाँ जा रहे हैं? इस जन्म, जीवन और मृत्यु के संक्षिप्त चक्र की अपेक्षा, क्या हम किसी अधिक बात की प्रत्याशा कर सकते हैं? (अय्यूब १४:१, २) इस विषय को समझने में हमारी सहायता, निम्न प्रश्‍न का उत्तर करेगा: हम यहाँ कैसे आये?

विकासवाद अथवा सृष्टिवाद?

३. विकासवाद की शिक्षा क्या है?

कुछ स्थानों में साधारणतया इस बात की शिक्षा दी जाती है कि प्रत्येक वस्तु जो हम देखते हैं, स्वयं अस्तित्व में आ गयी अर्थात्‌ वह संयोगमात्र से अथवा किसी घटना द्वारा अस्तित्व में आयी। यह कहा जाता है कि करोडों वर्षों के दौरान जीवन अपने आप से विकसित हुआ अथवा जीवन के निम्नतम रूप से यह जीवन इस प्रकार विकसित हुआ कि मनुष्य अस्तित्व में आ गया। पृथ्वी के अनेक भागों में विकासवाद का यह सिद्धान्त एक तथ्य के रूप में सिखाया जाता है। परन्तु क्या यह सच है कि हम एक बन्दर समान पशु से उत्पन्‍न हुए हैं जो करोड़ों वर्ष पहले रहता था? क्या यह विशाल विश्‍व किसी घटनामात्र से अस्तित्व में आया?

४. हम क्यों विश्‍वास कर सकते हैं कि “परमेश्‍वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की”?

बाइबल कहती है: “आदि में परमेश्‍वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।” (उत्पत्ति १:१) और इससे वैज्ञानिक तथ्य भी सहमत हैं, कि आकाश का अपने करोड़ों तारागणों सहित और हमारी पृथ्वी का प्रारंभ हुआ था। वे सृष्ट किये गये थे। इन तारों और ग्रहों की गति इतनी नियमित है कि बहुत वर्ष पहले उनकी स्थिति को पूर्ण यथार्थता से ज्ञात किया जा सकता है। तारे और ग्रह विश्‍व में गणितीय नियमों और सिद्धान्तों के अनुसार गतिशील हैं। केम्ब्रिज विश्‍वविद्यालय के गणित प्रोफेसर पी. डायरक ने सांइटिफिक अमेरिकन नामक पत्रिका में यह कहा: “कोई शायद स्थिति का वर्णन यह कहकर कर सकता है कि परमेश्‍वर सर्वोच्च कोटि का गणितज्ञ है और अपने विश्‍व के निर्माण में अत्यधिक अग्रवर्ती गणित का प्रयोग किया है।”

५. हमारा भौतिक शरीर कैसे प्रदर्शित करता है कि हम विकासवाद का उत्पाद होने की अपेक्षा सृष्ट किये गये थे?

बाइबल कहती है: “निश्‍चय जान कि यहोवा ही परमेश्‍वर है। और उसी ने हमको बनाया, न कि हमने अपने आपको।” (भजन संहिता १००:३) हमारा मानव शरीर ऐसा अद्‌भुत नमूना प्रदर्शित करता है जिससे एक बाइबल लेखक परमेश्‍वर से यह कहने के लिये प्रेरित हुआ: “मैं तेरी प्रशंसा करूंगा क्योंकि मैं भय-उत्पादक और अद्‌भुत रीति से रचा गया हूँ। . . . जब मैं गुप्त में रचा गया तो उस समय मेरी हड्डियाँ तुझसे छिपी न थीं . . . तेरी आंखों ने मेरे भ्रूण तक को देखा है और मेरे सब अंग . . . तेरी पुस्तक में लिखे हुए थे।” (भजन संहिता १३९:१४-१६) एक बालक अपनी माँ के गर्भ में अद्‌भुत रीति से वृद्धि पाता है। न्यूजवीक नामक पत्रिका ने इस विषय में यह कहा: “यह निश्‍चय ही एक चमत्कार है।” तब उसने यह भी कहा: “कोई विधि गर्भधारण के महत्वपूर्ण समय को निश्‍चित नहीं कर सकती है। कोई भी वैज्ञानिक यह नहीं बता सकता है कि वे आश्‍चर्यजनक शक्‍तियाँ क्या हैं जो मानव भ्रूण के अंगों और उसमें बिछे असंख्य नसों के जाल को वृद्धि करने के लिये प्रयुक्‍त होती हैं।”

६. हमारे लिए विकासवाद की अपेक्षा सृष्टिवाद में विश्‍वास करना क्यों एक अर्थपूर्ण बात है?

हमारे इस महान विश्‍व पर और हमारी अपनी देह के नमूने पर भी विचार कीजिए जिसकी रचना अद्‌भुत रीति से की गयी है। गंभीर तर्क द्वारा हमें यह सूचना मिलनी चाहिए कि इन सब वस्तुओं का विकास नहीं हुआ अथवा वे अपने आप से अस्तित्व में नहीं आयीं। उनके लिये एक रचयिता अथवा एक सृष्टिकर्त्ता का होना आवश्‍यक था। अन्य वस्तुओं पर विचार कीजिये जो हम अपने चारों ओर देखते हैं। जब आप अपने घर में होते हैं तो अपने आपसे यह पूछिये: क्या मेरा डेस्क, लैंप, पलंग, कुर्सी, मेज़, दीवारें अथवा स्वयं घर भी अपने आप से विकसित हुए? या क्या उनको एक कारीगर की आवश्‍यकता थी? निश्‍चय बुद्धिसंपन्‍न व्यक्‍तियों ने उनको बनाया! तब किस रीति से इस बात का दावा किया जा सकता है कि हमारे इससे भी जटिल विश्‍व और स्वयं हमें बनाने के लिये एक निर्माता की आवश्‍यकता नहीं थी? यदि परमेश्‍वर ने हमको यहाँ रखा है तो निश्‍चय ऐसा करने के लिए उसके पास एक कारण था।

७. (क) यीशु ने कैसे प्रदर्शित किया कि वह सृष्टिवाद में विश्‍वास करता था? (ख) इस बात का कि आदम एक वास्तविक व्यक्‍ति था, क्या अतिरिक्‍त प्रमाण है?

यीशु मसीह ने स्वयं प्रथम पुरुष और स्त्री के विषय में यह कहा: “वह जिसने उनको प्रारंभ में सृष्ट किया उनको नर और नारी बनाया और यह कहा, ‘इस कारण से मनुष्य अपने माता-पिता से अलग होकर अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे एक तन होंगे।” (मत्ती १९:४, ५) यहाँ यीशु ने आदम और हव्वा की सृष्टि के सम्बन्ध में उत्पत्ति १:२७ और २:२४ का हवाला दिया था। इस प्रकार वह बाइबल के इस विवरण को सत्य के रूप में निर्देश कर रहा था। (यूहन्‍ना १७:१७) इसके अतिरिक्‍त बाइबल हनोक को “आदम से सातवीं पीढ़ी में होता” बताती है। (यहूदा १४) यदि आदम एक वास्तविक व्यक्‍ति न हुआ होता तो बाइबल इस विशिष्ट रूप से उसकी पहचान नहीं बताती।—लूका ३:३७, ३८.

८. मनुष्य के प्रारंभ के विषय में किस दृष्टिकोण की शिक्षा बाइबल नहीं देती है?

कुछ व्यक्‍ति यह कहते हैं कि परमेश्‍वर ने मनुष्य को सृष्ट करने में विकास-प्रक्रिया का प्रयोग किया था। वे यह दावा करते हैं कि परमेश्‍वर ने मनुष्य को विकसित होने की अनुज्ञा दी और जब वह एक निश्‍चित बिन्दु पर पहुंचा तो उसने उसके अन्दर एक प्राण को रखा। परन्तु बाइबल में कहीं भी इस कल्पना दिखाई नहीं पड़ती है। इसकी अपेक्षा बाइबल यह कहती है कि पौधे और पशु “अपनी-अपनी जाति” के अनुसार सृष्ट किये गये थे। (उत्पत्ति १:११, २१, २४) और वास्तविकतायें यह प्रदर्शित करती हैं कि एक प्रकार की जाति का पौधा अथवा पशु समय गुज़रने पर दूसरे प्रकार की जाति में विकसित नहीं होता है। इस विषय में यह सिद्ध करने के लिये कि हम विकास प्रक्रिया द्वारा उत्पादित नहीं हुए हैं, अधिक सूचना जीवन—यह इधर कैसे आया? विकासप्रक्रिया द्वारा या सृष्ट द्वारा? नामक पुस्तक से मिलती है।

परमेश्‍वर ने मनुष्य को कैसे सृष्ट किया

९. (क) बाइबल मनुष्य की सृष्टि का वर्णन कैसे करती है? (ख) क्या घटित हुआ जब परमेश्‍वर ने मनुष्य के नथनों में “जीवन का श्‍वास” फूंका?

परमेश्‍वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर रहने के लिये भूमि से सृष्ट किया था, जैसा कि बाइबल कहती है: “यहोवा परमेश्‍वर ने मनुष्य को भूमि की मिट्टी से रचा और उसके नथनों में जीवन का श्‍वास फूंक दिया और मनुष्य जीवता प्राणी बन गया।” (उत्पत्ति २:७) इससे हम देख सकते हैं कि मनुष्य परमेश्‍वर की एक प्रत्यक्ष सृष्टि थी। एक विशिष्ट सृष्टि कार्य द्वारा परमेश्‍वर ने मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से, एक पूरा व्यक्‍ति बनाया। जब परमेश्‍वर ने मनुष्य के नथनों में “जीवन का श्‍वास” फूंका तब मनुष्य के फेफड़े हवा से भर गये। परन्तु इससे भी अधिक एक कार्य की पूर्ति हुई। इसके द्वारा परमेश्‍वर ने मनुष्य के शरीर को जीवन दिया। यह जीवन शक्‍ति (अंग्रेज़ी में ‘लैफ-फोर्स’) श्‍वास द्वारा कायम अथवा जारी रहती है।

१०. मानव प्राण (सोल) क्या है? और उसकी सृष्टि कैसे हुई?

१० तथापि इस बात पर ध्यान दीजिए कि बाइबल यह नहीं कहती है कि परमेश्‍वर ने मनुष्य को एक प्राण दिया। इसकी अपेक्षा वह यह कहती है कि जब परमेश्‍वर ने “मनुष्य को सांस लेना शुरू कराया तो उसके पश्‍चात्‌ “मनुष्य एक जीवता प्राणी [अंग्रेज़ी में ‘सोल’] बन गया।” इस प्रकार मनुष्य एक प्राण (सोल) था जिस प्रकार एक मनुष्य जो चिकित्सक बनता है, एक चिकित्सक ही है। (१ कुरिन्थियों १५:४५) “भूमि की मिट्टी” जिससे एक भौतिक देह बनती है, प्राण नहीं है। “जीवन का श्‍वास” यह प्राण है, ऐसा भी बाइबल नहीं कहती है। इसकी अपेक्षा बाइबल यह प्रदर्शित करती है कि इन दोनों वस्तुओं को मिलाने से परिणामस्वरूप ‘मनुष्य एक जीवता प्राणी बन गया।’

११. प्राण (सोल) के विषय में बाइबल तथ्य क्या प्रदर्शित करते हैं कि मानव प्राण (सोल) एक साया जैसी वस्तु नहीं हो सकती है जो मनुष्य से अलग होकर अस्तित्व में रह सकती है?

११ क्योंकि मानव प्राण स्वयं मनुष्य है तब वह एक साया जैसी वस्तु नहीं हो सकती है, जो देह के अन्दर रहती है अथवा शरीर में से निकल सकती है। साधारण रूप से बाइबल यह शिक्षा देती है कि आपका प्राण स्वयं आप हैं। उदाहरणतया, बाइबल प्राण के भौतिक भोजन करने की इच्छा के विषय में कहती है: “तेरा प्राण [सोल] मांस खाने की इच्छा करता है।” (व्यवस्थाविवरण १२:२०) वह यह भी कहती है कि प्राणों में रक्‍त होता है जो उनकी नसों में दौडता है क्योंकि वह “निर्दोष दरिद्र व्यक्‍तियों के प्राणों [सोल्स्‌] के लहू चिन्ह” के बारे में बताती है।—यिर्मयाह २:३४.

परमेश्‍वर ने मनुष्य को यहाँ क्यों रखा

१२. पृथ्वी पर मनुष्यों के लिए परमेश्‍वर का क्या उद्देश्‍य था?

१२ आदम और हव्वा के लिये परमेश्‍वर का यह उद्देश्‍य नहीं था, कि वे कुछ समय पश्‍चात्‌ मर जायें और किसी अन्य स्थान पर जाकर रहें। पृथ्वी और उसकी सारी जीवित वस्तुओं की देखभाल करने के लिये, उनको यहाँ ही रहना था। जैसा कि बाइबल कहती है: “परमेश्‍वर ने उनको आशीष दी और परमेश्‍वर ने उनसे कहा: ‘फूलो फलो और पृथ्वी में भर जाओ, और उसे अपने वश में कर लो, और समुद्र की मछलियों, तथा आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर रेंगनेवाले सब जन्तुओं पर अधिकार रखो।’” (उत्पत्ति १:२८; २:१५) आदम और हव्वा और उनकी सारी सन्तान भी जो उनकी होगी, पृथ्वी पर सदा खुश रह सकते थे और वही कार्य करते जो परमेश्‍वर उनसे चाहता था।

१३. (क) हम कैसे खुश रह सकते हैं? (ख) वह क्या है जो हमारे जीवन को वास्तविक अर्थ देगा?

१३ ध्यान दीजिये कि “परमेश्‍वर ने उनको आशीष दी।” वह वास्तव में अपने पार्थिव बच्चों की परवाह करता था। अतः एक स्नेही पिता होने के कारण उसने उनकी भलाई के लिये उनको कुछ आदेश दिये। उनका पालन करने से उनको अवश्‍य प्रसन्‍नता प्राप्त होती। यीशु यह बात जानता था, अतः बाद में उसने यह कहा: “धन्य हैं वे लोग जो परमेश्‍वर के वचन को सुनते हैं और उसका पालन करते हैं!” (लूका ११:२८) यीशु परमेश्‍वर के वचन का पालन करता था। उसने कहा: “मैं हमेशा वही कार्य करता हूँ जिससे वह प्रसन्‍न होता है।” (यूहन्‍ना ८:२९) जिसके निमित हम यहाँ है, उस कारण की कुंजी यही है, कि हम परमेश्‍वर की इच्छा के सामंजस्य में रहकर पूर्ण और सुखी जीवन व्यतीत करें। यहोवा की सेवा करने के लिये वह हमारे जीवन को अभी वास्तविक अर्थ देगा। ऐसा करके हम अपने आपको पृथ्वी पर सर्वदा जीवित रहनेवालों की पंक्‍ति में रखेंगे।—भजन संहिता ३७:११, २९.

हम क्यों बूढ़े होते और मर जाते हैं

१४. परमेश्‍वर की आज्ञा का उल्लंघन करके आदम और हव्वा ने क्या किया?

१४ परन्तु अभी हम सब बूढ़े होते और मर जाते हैं। क्यों? जैसा कि हम पिछले अध्याय में देख चुके हैं, उसका कारण आदम और हव्वा का विद्रोह है। यहोवा ने उनके सम्मुख एक परीक्षा रखी थी, जिसने परमेश्‍वर के प्रति उनकी आज्ञाकारिता की आवश्‍यकता को प्रदर्शित किया था। उसने आदम से कहा: “तू बाटिका के सब वृक्षों में से निश्‍चय खा सकता है, पर भले और बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है उससे तू कभी न खाना, क्योंकि जिस दिन तू उसमें से खायेगा, तू अवश्‍य मर जायेगा।” (उत्पत्ति २:१६, १७) इस वृक्ष में से खाकर आदम और हव्वा ने अपने स्वर्गीय पिता से मुंह फेर लिया, और उसके मार्ग-प्रदर्शन को अस्वीकार किया। उन्होंने उसकी अवज्ञा की और वह वस्तु ले ली जो उनकी नहीं थी। वे गरीबी अथवा दुःखों के बिना परादीस में सर्वदा प्रसन्‍नतापूर्वक जीवित रह सकते थे, परन्तु अब वे पाप की सज़ा के भागी बन गये। वह सज़ा अपूर्णता और मृत्यु है।—रोमियों ६:२३.

१५. हमने आदम से पाप कैसे प्राप्त किया?

१५ क्या आप जानते हैं कि हमने आदम से पाप कैसे प्राप्त किया? आदम के अपूर्ण बन जाने के पश्‍चात्‌ उसने अपनी सन्तान को अपूर्णता और मृत्यु विरासत में दे दी। (अय्यूब १४:४; रोमियों ५:१२) इस स्थिति को समझने में आप इस बात पर गौर कीजिये, कि जिस समय कोई व्यक्‍ति किसी ऐसे बर्तन में रोटी पकाता है जिसमें गड्ढा है तो क्या होता है। उस बर्तन में पकाई गई सब रोटियों पर उस गड्ढे का चिन्ह प्रकट होगा। और आदम उस बर्तन के समान बना और हम उस रोटी के समान हो गये। जब उसने परमेश्‍वर के नियम को तोड़ा तो वह अपूर्ण बन गया। यह ऐसा था जैसे कि उसने वह गड्ढा या बुरा चिन्ह प्राप्त कर लिया है। अतः जब उसकी सन्तान हुई तब उन सब ने पाप अथवा अपूर्णता का वह चिन्ह प्राप्त किया।

१६, १७. यीशु के चमत्कारों में से एक चमत्कार ने कैसे प्रदर्शित किया कि पाप के कारण मानव परिवार पर बीमारी आयी?

१६ अब हम उस पाप के कारण बीमार होते और बूढे हो जाते हैं, जो हम सब ने आदम से प्राप्त किया है। एक चमत्कार जो यीशु ने संपन्‍न किया था, वह यही प्रदर्शित करता है। जब यीशु उस घर में जहाँ वह ठहरा हुआ था, शिक्षा दे रहा था तो एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी जिससे कि कोई भी उस कमरे में नहीं आ सकता था। जब चार पुरुष एक लकवायुक्‍त पुरुष को चारपाई पर लाये तो उन्होंने देखा कि वे अन्दर नहीं जा सकते थे। अतः वे छत पर गये और उसमें एक छेद किया और लकवायुक्‍त पुरुष को चारपाई सहित ठीक यीशु मसीह के निकट नीचे उतार दिया।

१७ जब यीशु ने देखा कि उनका विश्‍वास कितना अधिक था, तो उसने उस लकवायुक्‍त पुरुष से कहा: “तेरे पाप क्षमा हुए।” परन्तु कुछेक लोग जो वहाँ मौजूद थे यह नहीं सोचते थे कि यीशु पापों की क्षमा कर सकता था। अतः यीशु ने कहा: “‘इसलिये कि तुम पुरुषों को मालूम हो कि पृथ्वी पर मनुष्य के पुत्र को पाप क्षमा करने का अधिकार है,’—उसने उस लकवायुक्‍त पुरुष से यह कहा: ‘मैं तुझसे कहता हूँ, उठ, अपनी चारपाई उठाकर अपने घर चला जा।’ और इसपर अवश्‍य वह उठ बैठा और तुरन्त अपनी चारपाई उठाकर सबके सामने से निकलकर चला गया।”—मरकुस २:१-१२.

१८. किस प्रकार के भविष्य के लिए परमेश्‍वर के सेवक प्रत्याशा कर सकते हैं?

१८ ज़रा सोचिये कि यीशु की यह शक्‍ति हमारे लिये क्या अर्थ रखती है! परमेश्‍वर के राज्य के शासन के अधीन, मसीह उन सब व्यक्‍तियों के पापों को क्षमा करने के योग्य होगा, जो परमेश्‍वर से प्यार करते हैं और उसकी सेवा करते हैं। इसका यह अर्थ है कि सब पीड़ाएं, दुःख और बीमारियाँ दूर कर दी जायेंगी। फिर कभी कोई बूढ़ा नहीं होगा और न ही मरेगा! भविष्य के लिये यह क्या ही अद्‌भुत आशा है! हाँ, वस्तुतः हम पैदा होने, अल्प समय जीवित रहने और तब मर जाने की अपेक्षा, इससे कहीं अत्यधिक प्रत्याशा कर सकते हैं। परमेश्‍वर के विषय में निरन्तर ज्ञान हासिल करते रहने और उसकी सेवा करते रहने से हम वास्तव में परादीस रूपी पृथ्वी पर सर्वदा जीवित रह सकते हैं।

[अध्ययन के लिए सवाल]

[पेज ६९ पर तसवीरें]

अनेक लोग सोचते हैं कि जीवन का अर्थ क्या है

[पेज ७० पर तसवीरें]

क्या ये वस्तुएं विकसित हुईं या उन्हें बनाया गया?

[पेज ७५ पर तसवीरें]

यीशु द्वारा लकवायुक्‍त पुरुष के शिफा पाने का बाइबल वृत्तांत यह प्रदर्शित करता है कि लोग आदम के पाप के कारण बीमार हो जाते हैं