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अध्ययन लेख 2

यीशु के छोटे भाई से सीखिए

यीशु के छोटे भाई से सीखिए

‘याकूब परमेश्‍वर का और प्रभु यीशु मसीह का दास है।’​—याकू. 1:1.

गीत 88 मुझे अपनी राहें सिखा

एक झलक *

1. याकूब कैसे परिवार में पला-बढ़ा था?

 याकूब, एक ऐसे परिवार में पला-बढ़ा था, जिसका यहोवा के साथ अच्छा रिश्‍ता था। उसके माता-पिता, यूसुफ और मरियम यहोवा से बहुत प्यार करते थे और दिलों-जान से उसकी सेवा करते थे। यही नहीं, उसका बड़ा भाई यीशु वादा किया गया मसीहा बना। * सच में, याकूब की परवरिश कितने अच्छे परिवार में हुई थी!

याकूब बचपन से यीशु के साथ रहा, इसलिए वह अपने बड़े भाई को अच्छी तरह जानता था (पैराग्राफ 2 पढ़ें)

2. याकूब के पास क्या करने का मौका था?

2 याकूब अपने बड़े भाई से बहुत कुछ सीख सकता था। (मत्ती 13:55) उदाहरण के लिए, जब यीशु सिर्फ 12 साल का था तो उसे शास्त्र का इतना ज्ञान था कि यरूशलेम के बड़े-बड़े शिक्षक भी उसकी बातें सुनकर दंग रह गए थे। (लूका 2:46, 47) याकूब ने शायद यीशु के साथ बढ़ई का काम भी किया होगा। उस दौरान वह यीशु को और अच्छी तरह जान पाया होगा। भाई नेथन एच. नॉर अकसर कहते थे, “जब आप किसी के साथ काम करते हैं, तब आप उसे और अच्छी तरह जान पाते हैं।” * याकूब ने यह भी ध्यान दिया होगा कि “यीशु डील-डौल और बुद्धि में बढ़ता गया और परमेश्‍वर और लोगों की कृपा उस पर बनी रही।” (लूका 2:52) इन सब कारणों से याकूब यीशु का पहला चेला बन सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

3. क्या यीशु के जीते-जी याकूब उसका चेला बना? समझाइए।

3 यीशु के जीते-जी याकूब उसका चेला नहीं बना। (यूह. 7:3-5) शायद वह यीशु के उन घरवालों में से एक था, जिन्होंने यीशु के बारे में कहा कि “उसका दिमाग फिर गया है।” (मर. 3:21) बाइबल में इस बारे में कहीं नहीं बताया है कि जब यीशु की मौत हुई, तब मरियम के साथ वह भी उसे देखने आया था।​—यूह. 19:25-27.

4. इस लेख से हम क्या सीखेंगे?

4 लेकिन बाद में याकूब ने यीशु पर विश्‍वास किया और वह मसीही मंडली का एक प्राचीन बना। इस लेख में हम याकूब से दो बातें सीखेंगे: (1) हमें नम्र क्यों रहना चाहिए और (2) हम अच्छे शिक्षक कैसे बन सकते हैं।

याकूब की तरह नम्र रहिए

जब यीशु याकूब के सामने प्रकट हुआ, तो याकूब ने नम्रता से माना कि यीशु ही मसीहा है। तब से वह यीशु का चेला बन गया (पैराग्राफ 5-7 पढ़ें)

5. जब यीशु ज़िंदा होने के बाद याकूब से मिला, तो याकूब ने क्या किया?

5 याकूब, यीशु का चेला कब बना? यीशु ज़िंदा होने के बाद “याकूब के सामने प्रकट हुआ, फिर सभी प्रेषितों के सामने।” (1 कुरिं. 15:7) इसके तुरंत बाद याकूब उसका चेला बन गया। जब यरूशलेम में ऊपर के एक कमरे में सभी प्रेषित पवित्र शक्‍ति पाने का इंतज़ार कर रहे थे, तो याकूब भी वहाँ था। (प्रेषि. 1:13, 14) बाद में, याकूब को शासी निकाय का सदस्य बनने का मौका मिला। (प्रेषि. 15:6, 13-22; गला. 2:9) फिर ईसवी सन्‌ 62 से कुछ समय पहले, यहोवा ने उसे अभिषिक्‍त मसीहियों को खत लिखने के लिए प्रेरित किया। उस खत से आज हम सभी मसीहियों को फायदा होता है, फिर चाहे हमारी आशा स्वर्ग में जीने की हो या धरती पर। (याकू. 1:1) पहली सदी के इतिहासकार जोसीफस के मुताबिक, यहूदी महायाजक हनन्याह ने, जो हन्‍ना का बेटा था, याकूब को मार डालने की सज़ा सुनायी। याकूब मरते दम तक यहोवा का वफादार रहा।

6. याकूब और धर्म गुरुओं में क्या फर्क था?

6 याकूब नम्र था।  ऐसा हम क्यों कह सकते हैं? जब याकूब को इस बात के सबूत मिले कि यीशु ही परमेश्‍वर का बेटा है, तो उसने तुरंत यीशु पर विश्‍वास किया। लेकिन जब धर्म गुरुओं को इस बात के सबूत मिले, तो उन्होंने उस पर यकीन नहीं किया। उदाहरण के लिए, यरूशलेम के प्रधान याजक इस बात को नकार नहीं सके कि यीशु ने ही लाज़र को ज़िंदा किया है। लेकिन यह मानने के बजाय कि यीशु को यहोवा ने भेजा है, वे यीशु और लाज़र को मारने की कोशिश करने लगे। (यूह. 11:53; 12:9-11) बाद में जब खुद यीशु ज़िंदा हुआ, तो उन्होंने इस बात को छिपाने की पूरी कोशिश की। (मत्ती 28:11-15) उन धर्म गुरुओं में इतना घमंड था कि उन्होंने मसीहा को ही ठुकरा दिया।

7. हमें घमंड क्यों नहीं करना चाहिए?

7 सीख: घमंड मत कीजिए, यहोवा से सीखने के लिए तैयार रहिए।  दिल की बीमारी की वजह से हमारी धमनियाँ सख्त हो सकती हैं और हमारा दिल ठीक से काम करना बंद कर सकता है। उसी तरह, घमंड की वजह से हमारा मन कठोर हो सकता है और हम यहोवा की आज्ञाएँ मानना बंद कर सकते हैं। फरीसियों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने अपना दिल इतना कठोर कर लिया कि वे इस बात को देख ही नहीं पाए कि यीशु, परमेश्‍वर का बेटा है और उस पर परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति है। (यूह. 12:37-40) घमंड की वजह से उन्होंने हमेशा की ज़िंदगी पाने का मौका गँवा दिया। (मत्ती 23:13, 33) सच में, यह कितना ज़रूरी है कि हम परमेश्‍वर के वचन और उसकी पवित्र शक्‍ति के मार्गदर्शन पर चलते रहें और खुद को और अपनी सोच को बदलते रहें। (याकू. 3:17) याकूब नम्र था इसलिए वह यहोवा से सीख पाया। यही नहीं, वह दूसरों को भी अच्छी तरह सिखा पाया।

याकूब की तरह अच्छे शिक्षक बनिए

8. हम अच्छे शिक्षक कैसे बन सकते हैं?

8 याकूब बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था। उस ज़माने के धर्म गुरुओं ने उसे भी ‘कम पढ़ा-लिखा और मामूली आदमी’ समझा होगा, ठीक जैसे उन्होंने प्रेषित पतरस और यूहन्‍ना को समझा था। (प्रेषि. 4:13) लेकिन अगर हम बाइबल में याकूब की किताब पढ़ें, तो हम समझ पाएँगे कि वह बहुत अच्छा शिक्षक था। याकूब की तरह शायद हम भी ज़्यादा पढ़े-लिखे न हों, लेकिन यहोवा की पवित्र शक्‍ति की मदद से और उसके संगठन से मिलनेवाले प्रशिक्षण से हम अच्छे शिक्षक बन सकते हैं। आइए अब हम चर्चा करें कि याकूब किस तरह सिखाता था।

9. याकूब कैसे सिखाता था?

9 याकूब ने मुश्‍किल शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, न ही घुमा-फिराकर बात की।  इस वजह से लोग समझ पाए कि उन्हें क्या करना है और कैसे करना है। उदाहरण के लिए, याकूब ने बहुत ही सरल शब्दों में और आसान तरीके से समझाया कि मसीहियों को अन्याय सहने के लिए तैयार रहना चाहिए और बदला नहीं लेना चाहिए। उसने लिखा, “हम मानते हैं कि जो धीरज धरते हैं वे सुखी हैं। तुमने सुना है कि अय्यूब ने कैसे धीरज धरा था और यहोवा ने उसे क्या इनाम दिया था, जिससे तुम समझ सकते हो कि यहोवा गहरा लगाव रखनेवाला और दयालु परमेश्‍वर है।” (याकू. 5:11) ध्यान दीजिए कि याकूब ने शास्त्र से ही अपनी बात समझायी। उसने समझाया कि परमेश्‍वर उन लोगों को इनाम देता है, जो अय्यूब की तरह उसके वफादार रहते हैं। इस तरह उसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ नहीं, बल्कि यहोवा की तरफ खींचा।

10. हम याकूब की तरह कैसे सिखा सकते हैं?

10 सीख: आसान शब्दों में और परमेश्‍वर के वचन से सिखाइए।  जब हम दूसरों को सिखाते हैं तो हमें अपने ज्ञान का दिखावा नहीं करना चाहिए। हमें लोगों का ध्यान इस बात पर दिलाना चाहिए कि परमेश्‍वर कितना बुद्धिमान है और उसे हमारी कितनी परवाह है। (रोमि. 11:33) लेकिन हम यह तभी कर पाएँगे जब हम उन्हें बाइबल से सिखाएँगे। उदाहरण के लिए, हमें अपने बाइबल विद्यार्थी से यह नहीं कहना चाहिए कि अगर हम  उसकी जगह होते तो क्या करते। इसके बजाय, हमें उसे  बाइबल की मदद से फैसला लेना सिखाना चाहिए। हम उसे बाइबल के कुछ उदाहरण बता सकते हैं और यह भी बता सकते हैं कि किसी विषय पर परमेश्‍वर की क्या सोच है। इस तरह वह जो भी फैसला लेगा, वह हमें खुश करने के लिए नहीं, बल्कि यहोवा को खुश करने के लिए लेगा।

11. (क) याकूब के दिनों में कुछ मसीहियों में कौन-सी कमज़ोरियाँ थीं? (ख) याकूब 5:13-15 के मुताबिक उसने उन्हें क्या सलाह दी?

11 याकूब लोगों के हालात जानता था।  वह जानता था कि कुछ मसीही भाई-बहनों की क्या कमज़ोरियाँ हैं। उदाहरण के लिए, कुछ मसीही बाइबल में दी सलाह नहीं मानते थे। (याकू. 1:22) कुछ अमीर-गरीब में फर्क करते थे। (याकू. 2:1-3) कुछ ऐसे भी थे जो बिना सोचे-समझे बात करते थे। (याकू. 3:8-10) हालाँकि ये सारी बड़ी-बड़ी कमज़ोरियाँ थीं, लेकिन याकूब ने यह नहीं सोचा कि वे कभी नहीं बदलेंगे। उसने उन्हें प्यार से, लेकिन सीधे-सीधे बताया कि उन्हें क्या करना चाहिए। उसने उन्हें इस बात का भी बढ़ावा दिया कि वे प्राचीनों की मदद लें।​—याकूब 5:13-15 पढ़िए।

12. अपने बाइबल विद्यार्थियों के हालात समझते हुए हम क्या करेंगे?

12 सीख: दूसरों के हालात समझिए और उम्मीद मत छोड़िए।  हो सकता है कि हमारे कुछ बाइबल विद्यार्थियों को बाइबल की सलाह मानने में मुश्‍किल हो। (याकू. 4:1-4) शायद उन्हें अपनी बुरी आदतें छोड़ने में या खुद में अच्छे गुण बढ़ाने में वक्‍त लगे। लेकिन याकूब की तरह, हमें हिम्मत करके उन्हें बताना चाहिए कि उन्हें खुद में क्या बदलाव करने हैं। हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। अगर विद्यार्थी नम्र होगा, तो यहोवा उसे अपनी तरफ खींचेगा और खुद में बदलाव करने के लिए उसे हिम्मत देगा।​—याकू. 4:10.

13. याकूब ने क्या कहा और इससे क्या पता चलता है? (याकूब 3:2)

13 याकूब खुद को दूसरों से अलग नहीं समझता था।  उसने ऐसा नहीं सोचा कि वह यीशु का भाई है और उसके पास कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं, तो वह खास है। उसने दूसरे भाई-बहनों को “मेरे प्यारे भाइयो” कहा। (याकू. 1:16, 19; 2:5) उसने कभी-भी ऐसा नहीं जताया कि वह परिपूर्ण है और उससे कभी गलती नहीं हो सकती। इसके बजाय उसने कहा, “हम  सब कई बार गलती करते हैं।”​याकूब 3:2 पढ़िए।

14. हमें क्यों मानना चाहिए कि हमसे भी गलतियाँ होती हैं?

14 सीख: याद रखिए कि हमसे भी गलतियाँ होती हैं।  अगर हम अपने बाइबल विद्यार्थियों को जताएँगे कि हमसे कभी कोई गलती नहीं होती, तो वे निराश हो सकते हैं। उन्हें लगेगा कि वे परमेश्‍वर की आज्ञाओं को अच्छे-से नहीं मान सकते। लेकिन अगर हम उन्हें सच-सच बताएँगे कि कभी-कभार हमारे लिए भी परमेश्‍वर की आज्ञाओं को मानना आसान नहीं होता, मगर तब यहोवा हमारी मदद करता है, तो उनका हौसला बढ़ेगा। उन्हें लगेगा कि वे भी यहोवा की सेवा कर सकते हैं।

याकूब के उदाहरण अच्छे और समझने में आसान थे (पैराग्राफ 15-16 पढ़ें) *

15. याकूब के उदाहरण कैसे होते थे? (याकूब 3:2-6, 10-12)

15 याकूब अच्छे उदाहरण देता था।  यह सच है कि पवित्र शक्‍ति ने उसकी मदद की, लेकिन उसने उदाहरण देने के बारे में अपने बड़े भाई यीशु से भी बहुत कुछ सीखा होगा। अपनी चिट्ठी में उसने जो उदाहरण दिए, वे बहुत आसान थे और लोग साफ समझ सकते थे कि उन्हें क्या करना है।​—याकूब 3:2-6, 10-12 पढ़िए।

16. हमें अच्छे उदाहरण क्यों देने चाहिए?

16 सीख: अच्छे उदाहरण दीजिए।  जब आप अच्छे उदाहरण देते हैं, तो लोग न सिर्फ आपकी बात सुनते हैं, बल्कि उसके बारे में कल्पना भी करते हैं। कल्पना करने से वे बाइबल की सच्चाइयाँ याद रख पाते हैं। यीशु उदाहरण देने में माहिर था और उसी की तरह याकूब ने भी अच्छे उदाहरण दिए। आइए उसके एक उदाहरण पर ध्यान देते हैं।

17. याकूब 1:22-25 में दिया उदाहरण क्यों अच्छा है?

17 याकूब लोगों को सिखाना चाहता था कि परमेश्‍वर का वचन पढ़ना काफी नहीं है। हम जो पढ़ते हैं, हमें उसके मुताबिक चलना भी चाहिए। यह बात समझाने के लिए उसने आईने का उदाहरण दिया। (याकूब 1:22-25 पढ़िए।) आईने के बारे में उस ज़माने के सब लोग जानते थे। उसने बताया कि अगर एक व्यक्‍ति अपना चेहरा आईने में देखता है और उसे पता चलता है कि उसके चेहरे पर कुछ लगा है, फिर भी वह कुछ नहीं करता तो उसका आईना देखने का कोई फायदा नहीं। उसी तरह, अगर एक व्यक्‍ति बाइबल पढ़ता है और उसे पता चलता है कि उसे खुद में कुछ बदलाव करने हैं, फिर भी वह कुछ नहीं करता, तो उसका बाइबल पढ़ने का कोई फायदा नहीं है।

18. उदाहरण देते वक्‍त हमें कौन-सी तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

18 उदाहरण देते वक्‍त हम याकूब की तरह तीन बातों का ध्यान रख सकते हैं। उदाहरण ऐसा होना चाहिए (1) जिससे खास मुद्दा उभरकर आए, (2) जो समझने में आसान हो और (3) जिससे यह साफ पता चले कि हम क्या सिखाना चाहते हैं। अगर आपको सही उदाहरण देने में मुश्‍किल होती है, तो आप वॉच टावर पब्लिकेशन्स इंडेक्स  में “उदाहरण” (Illustrations) शीर्षक के नीचे देख सकते हैं। लेकिन याद रखिए, उदाहरण लाउडस्पीकर की तरह है। जिस तरह लाउडस्पीकर से हमारी आवाज़ ज़ोर से निकलती है, उसी तरह उदाहरण खास मुद्दे को उभारता है। इसलिए हमें हद-से-ज़्यादा उदाहरण नहीं देने चाहिए, वरना लोग नहीं समझ पाएँगे कि हम कहना क्या चाह रहे हैं। हमें अपना सिखाने का यह हुनर इसलिए बढ़ाना चाहिए, ताकि हम ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को यहोवा के परिवार का हिस्सा बनने में मदद दें, न कि इसलिए कि लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचें।

19. अगर हमें अपने भाई-बहनों से प्यार होगा, तो हम क्या करेंगे?

19 याकूब को अपने बड़े भाई, यीशु से सीखने का सम्मान मिला था। हालाँकि हमें यह सम्मान नहीं मिला, लेकिन यहोवा ने हमें एक बहुत बड़े परिवार का हिस्सा बनने का सम्मान दिया है। हमें इस परिवार के सदस्यों से प्यार करना चाहिए। ऐसा हम तभी कर पाएँगे, जब हम उनके साथ वक्‍त बिताएँगे, उनसे सीखेंगे और उनके साथ मिलकर प्रचार और सिखाने का काम करेंगे। हमें हर मामले में याकूब की तरह बनने की कोशिश करनी चाहिए, जैसे अपनी सोच में, चालचलन में और दूसरों को सिखाने में। इससे यहोवा की तारीफ होगी और नेकदिल लोग उसकी तरफ खिंचे चले आएँगे।

गीत 114 “सब्र रखो”

^ याकूब, यीशु का भाई था, इसलिए वह उसे बहुत अच्छी तरह जानता था। याकूब उन भाइयों में से एक था, जिन्होंने पहली सदी की मसीही मंडली की अगुवाई की। इस लेख में हम उसकी ज़िंदगी और उसकी सिखायी बातों से सीखेंगे।

^ हालाँकि याकूब, यीशु का भाई था लेकिन उन दोनों के पिता अलग थे। याकूब का पिता यूसुफ था और यीशु का पिता, यहोवा। शायद उसी ने बाइबल में याकूब की किताब लिखी।

^ भाई नॉर अभिषिक्‍त मसीही थे और शासी निकाय के सदस्य थे। उनकी मौत 1977 में हुई।

^ तसवीर के बारे में: याकूब ने आग का उदाहरण देकर समझाया कि बिना सोचे-समझे बोलने का क्या अंजाम हो सकता है। यह उदाहरण समझने के लिए आसान था।