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अध्ययन लेख 25

“इन छोटों में से किसी को भी” ठोकर मत खिलाइए

“इन छोटों में से किसी को भी” ठोकर मत खिलाइए

“इन छोटों में से किसी को भी तुच्छ न समझो।”​—मत्ती 18:10.

गीत 113 शांति, हमारी अमानत!

लेख की एक झलक *

1. यहोवा ने आपको अपनी तरफ क्यों खींचा?

दुनिया के अरबों-खरबों लोगों में जब यहोवा ने आपको देखा, तो उसने ध्यान दिया कि आपका दिल अच्छा है और एक दिन आप ज़रूर उससे प्यार करेंगे। (1 इति. 28:9) इसलिए उसने आपको अपनी तरफ खींचा। (यूह. 6:44) यह कितनी खुशी की बात है कि यहोवा आपको जानता है, आपको समझता है और आपसे प्यार करता है।

2. यीशु ने कैसे समझाया कि यहोवा को अपने हर सेवक की परवाह है?

2 जिस तरह यहोवा को आपकी परवाह है, उसे बाकी भाई-बहनों की भी परवाह है। इस बात को समझाने के लिए यीशु ने एक चरवाहे की मिसाल दी। जब 100 में से एक भेड़ भटक जाती है, तो चरवाहा “बाकी 99 को पहाड़ों पर छोड़कर उस एक भटकी हुई भेड़ को ढूँढ़ने” जाता है। और जब वह भेड़ मिल जाती है, तो वह उसे डाँटता नहीं बल्कि खुशियाँ मनाता है। यीशु ने यहोवा की तुलना एक चरवाहे से की। यहोवा अपनी हर भेड़ को अनमोल समझता है। यीशु ने कहा, “मेरा पिता जो स्वर्ग में है, नहीं चाहता कि इन छोटों में से एक भी  नाश हो।”​—मत्ती 18:12-14.

3. इस लेख से हम क्या सीखेंगे?

3 हम कभी नहीं चाहेंगे कि हमारी वजह से किसी भाई या बहन को चोट पहुँचे। इस लेख में हम जानेंगे कि हम क्या कर सकते हैं, ताकि हमारी वजह से किसी को ठोकर न लगे। और अगर किसी ने हमें ठेस पहुँचायी है, तो हमें क्या करना चाहिए? लेकिन सबसे पहले आइए जानें कि मत्ती 18 में यीशु ने जिन्हें ‘छोटे’ कहा, वे दरअसल कौन हैं।

जिन्हें ‘छोटे’ कहा गया है, वे कौन हैं?

4. यीशु ने जिन्हें ‘छोटे’ कहा, वे कौन हैं?

4 यीशु ने जिन्हें ‘छोटे’ कहा, दरअसल वे उसके चेले हैं। इनमें हर उम्र के लोग हैं। वे ‘छोटे बच्चों’ जैसे हैं क्योंकि वे यीशु से सीखने के लिए तैयार हैं। (मत्ती 18:3) भले ही ये अलग-अलग संस्कृति और जगह से हैं, पर यह सब यीशु पर विश्‍वास करते हैं और यीशु भी उनसे बहुत प्यार करता है।​—यूह. 1:12.

5. जब कोई यहोवा के सेवक को ठोकर खिलाता है, तो उसे कैसा लगता है?

5 ये सभी चेले यहोवा के लिए बहुत अनमोल हैं, ठीक जैसे बच्चे हमारे लिए अनमोल होते हैं। हम बच्चों को खतरों से बचाना चाहते हैं क्योंकि उनमें बड़ों जैसी ताकत, अनुभव और समझ नहीं होती। हालाँकि जब कोई किसी बड़े व्यक्‍ति को चोट पहुँचाता है, तो हमें बुरा लगता है। लेकिन जब कोई किसी बच्चे को चोट पहुँचाता है, तो हमें और भी बुरा लगता है। यहाँ तक कि गुस्सा भी आता है। यहोवा भी हमारी हिफाज़त करना चाहता है। जब वह देखता है कि कोई उसके सेवक को चोट पहुँचा रहा है या ठोकर खिला रहा है, तो उसे बहुत गुस्सा आता है।​—यशा. 63:9; मर. 9:42.

6. जैसा 1 कुरिंथियों 1:26-29 में लिखा है, दुनिया यीशु के चेलों के बारे में क्या सोचती है?

6 यीशु के चेले और किस मायने में ‘छोटे’ हैं? दुनिया ऐसे लोगों को इज़्ज़त देती है जिनके पास नाम, पैसा और ओहदा होता है। यीशु के चेलों के पास आम तौर पर यह सब नहीं होता। इसलिए दुनिया उन्हें तुच्छ और ‘छोटे’ लोग समझती है। (1 कुरिंथियों 1:26-29 पढ़िए।) लेकिन यहोवा उनके बारे में ऐसा नहीं सोचता।

7. हमें भाई-बहनों से किस तरह पेश आना चाहिए?

7 यहोवा अपने सभी सेवकों से प्यार करता है, फिर चाहे वे सच्चाई में नए हों या पुराने। इसलिए हमें “भाइयों की सारी  बिरादरी से प्यार” करना चाहिए, सिर्फ कुछ भाई-बहनों से नहीं। (1 पत. 2:17) हमें उन्हें ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए। अगर हमारी वजह से किसी को चोट पहुँची है, तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए, ‘वह छोटी-सी बात का बतंगड़ बना रहा है। उसे भूल जाना चाहिए और माफ कर देना चाहिए।’ यह मत भूलिए कि लोग कई वजहों से बुरा मान सकते हैं। कुछ लोग अपनी परवरिश की वजह से खुद को दूसरों से कम समझते हैं। या कुछ लोग सच्चाई में नए हैं और दूसरों को माफ करना सीख ही रहे हैं। वजह चाहे जो भी हो, हमें सुलह करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। अगर हम जल्दी बुरा मान जाते हैं तो यह अच्छी बात नहीं है और हमें खुद को बदलना होगा। ऐसा करने से ही हम खुश रहेंगे और भाई-बहनों के साथ हमारा रिश्‍ता अच्छा रहेगा।

दूसरों को खुद से बेहतर समझिए

8. यीशु के ज़माने में यहूदियों की क्या सोच थी?

8 यीशु ने इन “छोटों” के बारे में क्यों बात की? यीशु के चेलों ने उससे पूछा था, “स्वर्ग के राज में कौन सबसे बड़ा होगा?” (मत्ती 18:1) उन्होंने यह बात इसलिए पूछी क्योंकि यहूदी समाज में रुतबा या ओहदा होना, बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। एक विद्वान ने कहा, “लोग समाज में इज़्ज़त, नाम और शोहरत पाने के लिए ही जीते थे और ज़रूरत पड़ने पर इनकी खातिर जान तक दे देते थे।”

9. यीशु ने अपने चेलों से क्या करने के लिए कहा?

9 यीशु के चेलों में भी यह सोच थी। इसलिए यीशु जानता कि इस सोच को निकालने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी। उसने कहा, “जो तुममें सबसे बड़ा है वह सबसे छोटा बने और जो अगुवाई करता है, वह सेवक जैसा बने।” (लूका 22:26) हम ‘सबसे छोटे’ तभी बनेंगे, जब हम “दूसरों को खुद से बेहतर” समझेंगे। (फिलि. 2:3) अगर हम दूसरों को खुद से बेहतर समझेंगे तो शायद ही हम कभी दूसरों को ठेस पहुँचाएँगे।

10. हमें पौलुस की कौन-सी सलाह माननी चाहिए?

10 हमें दूसरों की अच्छाइयों पर ध्यान देना चाहिए। तभी हम समझ पाएँगे कि हर भाई या बहन किसी-न-किसी तरह से हमसे बेहतर है। पौलुस ने कुरिंथ की मंडली को सलाह दी, “तुझमें ऐसा क्या है जो तुझे दूसरों से बढ़कर समझा जाए? दरअसल, तेरे पास ऐसा क्या है जो तूने पाया न हो? अगर तूने इसे पाया है, तो तू इस तरह शेखी क्यों मारता है मानो तूने नहीं पाया?” (1 कुरिं. 4:7) हमें भी यह सलाह माननी चाहिए। हमें लोगों का ध्यान अपनी तरफ नहीं खींचना चाहिए, न ही यह सोचना चाहिए कि हम दूसरों से बेहतर हैं। उदाहरण के लिए अगर एक भाई अच्छे भाषण देता है या एक बहन अध्ययन शुरू करने में माहिर है, तो उसे इसका सारा श्रेय यहोवा को देना चाहिए।

“दिल से” माफ कीजिए

11. राजा और दास की मिसाल देकर यीशु क्या सिखा रहा था?

11 यीशु ने चेलों को पहले समझाया कि उन्हें दूसरों को ठोकर नहीं खिलाना चाहिए। इसके बाद उसने एक मिसाल दी। एक दास ने राजा से बहुत बड़ा कर्ज़ लिया था। जब वह उसे चुका नहीं पाया, तो राजा ने उसका कर्ज़ माफ कर दिया। लेकिन इसी दास ने अपने एक संगी दास को माफ नहीं किया, जिसने उससे बस छोटा-सा कर्ज़ लिया था। जब राजा को इस निर्दय दास की हरकत का पता चला, तो उसने उसे जेल में डलवा दिया। यीशु इस मिसाल से क्या सिखा रहा था? उसने कहा, “अगर तुममें से हरेक अपने भाई को दिल से माफ नहीं करेगा, तो स्वर्ग में रहनेवाला मेरा पिता भी तुम्हारे साथ इसी तरह पेश आएगा।”​—मत्ती 18:21-35.

12. जब हम दूसरों को माफ नहीं करते तो क्या होता है?

12 उस दास ने अपने संगी दास पर दया नहीं की। इससे खुद उसका तो नुकसान हुआ ही, दूसरों को भी तकलीफ हुई। किस तरह? सबसे पहले, उसने अपने संगी दास को “तब तक के लिए जेल में डलवा दिया, जब तक कि वह अपना उधार न चुका दे।” दूसरा, जब बाकी दासों ने यह सब देखा, “तो वे बहुत दुखी हुए।” हमारे कामों की वजह से भी दूसरों को ठेस पहुँच सकती है। उदाहरण के लिए, जब हम किसी को माफ नहीं करते, उससे प्यार से बरताव नहीं करते या उसे अनदेखा कर देते हैं तो उस व्यक्‍ति को बहुत बुरा लगता है। साथ ही जब दूसरे भाई-बहन देखते हैं कि हमारे बीच अनबन है, तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता।

क्या आप नाराज़ रहेंगे या दिल से माफ करेंगे? (पैराग्राफ 13-14 देखें) *

13. एक पायनियर बहन से हम क्या सीखते हैं?

13 लेकिन जब हम भाई-बहनों को माफ करते हैं, तो हमें अच्छा लगता है और दूसरों को भी खुशी होती है। क्रिस्टल * नाम की एक पायनियर बहन कहती है, “एक बहन की बातों से अकसर मुझे ठेस पहुँचती थी। उसकी बातें मेरे दिल को चुभ जाती थीं। एक वक्‍त ऐसा आया कि मैं उसके साथ प्रचार में नहीं जाना चाहती थी। प्रचार में मेरा जोश कम होने लगा और मैं दुखी रहने लगी।” क्रिस्टल को लगा कि उसका नाराज़ होना सही है। फिर भी वह नाराज़ नहीं रही और न ही उसने सिर्फ अपने बारे में सोचा। उसने 15 अक्टूबर, 1999 की प्रहरीदुर्ग  में एक लेख पढ़ा, जिसका विषय था “दिल से माफ कीजिए।” और उसने उस बहन को माफ कर दिया। वह कहती है, “अब मैं समझ गयी हूँ कि हम सब अच्छे मसीही बनने की कोशिश कर रहे हैं। और यहोवा हमें हर दिन माफ करता है। उस बहन को माफ करके मेरा मन हलका हो गया। मैं फिर से खुश रहने लगी।”

14. (क) मत्ती 18:21, 22 के मुताबिक प्रेषित पतरस को क्या करना मुश्‍किल लग रहा था? (ख) हम क्या कर सकते हैं ताकि हम दूसरों को माफ कर सकें?

14 यह सच है कि हमें दूसरों को माफ करना चाहिए। लेकिन ऐसा करना शायद आसान न हो। प्रेषित पतरस को भी हर बार माफ करना मुश्‍किल लगा होगा। (मत्ती 18:21, 22 पढ़िए।) हम क्या कर सकते हैं ताकि हम दूसरों को माफ कर सकें? एक, हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि यहोवा हमें बार-बार माफ करता है। (मत्ती 18:32, 33) हम उसके माफी के लायक नहीं हैं, फिर भी वह हमें दिल खोलकर माफ करता है। (भज. 103:8-10) वहीं दूसरी तरफ, ‘हमारा फर्ज़ बनता है कि हम एक-दूसरे से प्यार करें।’ यानी भाई-बहनों को माफ करना है या नहीं, यह हमारी मरज़ी पर नहीं छोड़ा गया है। (1 यूह. 4:11) दो, हमें सोचना चाहिए कि जब हम एक व्यक्‍ति को माफ करते हैं तो इसके क्या अच्छे नतीजे होते हैं। उसका भला होता है, मंडली में एकता रहती है, यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता बना रहता है और हमारे मन का बोझ हलका हो जाता है। (2 कुरिं. 2:7; कुलु. 3:14) तीन, हमें यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए जिसने हमें माफ करने की आज्ञा दी है। हमें शैतान को मौका नहीं देना चाहिए कि वह हमारे बीच फूट डाले। (इफि. 4:26, 27) हमें यहोवा से मदद लेनी चाहिए ताकि मंडली की शांति बनी रहे।

दूसरों की वजह से ठोकर मत खाइए

15. अगर हम किसी के बरताव से परेशान हैं, तो हमें कौन-सी सलाह माननी चाहिए? (कुलुस्सियों 3:13)

15 अगर किसी भाई या बहन का बरताव हमें परेशान कर रहा है, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें शांति बनाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। हमें यहोवा से प्रार्थना करके अपने दिल की बात बतानी चाहिए। हमें उस भाई या बहन के लिए भी प्रार्थना करनी चाहिए। और इस बारे में भी कि हम उसमें अच्छाइयाँ देख सकें, ऐसी अच्छाइयाँ जो यहोवा ने उसमें देखी हैं। (लूका 6:28) अगर हम उसकी गलती नहीं भुला पा रहे हैं, तो हमें उससे बात करनी चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि उसने जानबूझकर हमें ठेस पहुँचायी है। (मत्ती 5:23, 24; 1 कुरिं. 13:7) हमें उसकी बात सुननी चाहिए और उसका यकीन करना चाहिए। लेकिन अगर वह सुलह नहीं करना चाहता तो हमें सब्र रखना चाहिए और उसकी सहते रहना चाहिए। (कुलुस्सियों 3:13 पढ़िए।) सबसे बड़ी बात, हमें नाराज़ नहीं रहना चाहिए। नहीं तो यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता खराब हो जाएगा। हमें दूसरों की वजह से ठोकर नहीं खानी चाहिए। इस तरह हम साबित करेंगे कि सबसे बढ़कर हम यहोवा से प्यार करते हैं।​—भज. 119:165.

16. हम सबकी क्या ज़िम्मेदारी बनती है?

16 हम इस बात के लिए बहुत खुश हैं कि आज हम “एक झुंड” होकर और ‘एक चरवाहे’ के अधीन रहकर यहोवा की सेवा कर रहे हैं। (यूह. 10:16) यहोवा की मरज़ी पूरी करने के लिए संगठित  किताब के पेज 165 में लिखा है, “अब क्योंकि आप इस भाईचारे से फायदा पा रहे हैं, तो आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि आप इसे कायम रखें।” इसके लिए ‘हमें खुद को सिखाते रहना चाहिए कि हम अपने भाई-बहनों को यहोवा की नज़र से देखें।’ यहोवा की नज़रों में सभी भाई-बहन बहुत अनमोल हैं। हमें भी उन्हें अनमोल समझना चाहिए। उनका खयाल रखने के लिए, उनकी मदद करने के लिए हम जो कुछ करते हैं, उस पर यहोवा ध्यान देता है और उसकी कदर करता है।​—मत्ती 10:42.

17. हमने क्या करने की ठान ली है?

17 हम भाई-बहनों से बहुत प्यार करते हैं। इसलिए हमने ‘ठान लिया है कि हम किसी भी भाई को ठोकर नहीं खिलाएँगे, न ही उसे गिरने की वजह देंगे।’ (रोमि. 14:13) हम खुद को दूसरों से बेहतर नहीं समझेंगे। हम भाई-बहनों को दिल से माफ करेंगे और हम खुद भी उनकी वजह से ठोकर नहीं खाएँगे। इसके बजाय, हम ‘उन बातों में लगे रहेंगे जिनसे शांति कायम होती है और एक-दूसरे का हौसला मज़बूत होता है।’​—रोमि. 14:19.

गीत 130 माफ करना सीखें

^ पैरा. 5 हम सब अपरिपूर्ण हैं। कई बार हम कुछ ऐसा बोल देते हैं या कर देते हैं जिससे हमारे भाई-बहनों को बुरा लग सकता है। तब हम क्या करते हैं? क्या हम तुरंत माफी माँगते हैं? या यह सोचते हैं, ‘उन्हें बुरा लगा तो लगने दो, मैं क्या कर सकता हूँ?’ या हो सकता है कि हम खुद दूसरों की छोटी-छोटी बातों का बुरा मान जाते हैं। ऐसे में क्या हम यह सोचते हैं, ‘मैं तो ऐसा ही हूँ, मैं नहीं बदलूँगा।’ या यह सोचते हैं कि यह अच्छी बात नहीं है, मुझे खुद को बदलना चाहिए।

^ पैरा. 13 नाम बदल दिया गया है।

^ पैरा. 54 तसवीर के बारे में: मंडली में एक बहन दूसरी बहन से नाराज़ है। वे दोनों अकेले में बात करके सुलह करती हैं। फिर वे सारी बातें भुलाकर साथ में खुशी से यहोवा की सेवा करती हैं।