इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

जीवन कहानी

यहोवा की सेवा में आए नए मोड़, सीखीं नयी बातें

यहोवा की सेवा में आए नए मोड़, सीखीं नयी बातें

बचपन में जब मैं किसी हवाई जहाज़ को ऊपर से जाते हुए देखता था, तो मेरा बहुत मन करता था कि मैं भी हवाई जहाज़ में बैठकर किसी दूसरे देश जाऊँ। पर फिर लगता था कि ऐसा तो कभी नहीं हो पाएगा।

दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान मेरे मम्मी-पापा एस्टोनिया छोड़कर जर्मनी चले गए और वहीं पर मेरा जन्म हुआ। जब मेरा जन्म हुआ, तब मम्मी-पापा जर्मनी छोड़कर कनाडा जाने की तैयारी कर रहे थे। कुछ ही समय बाद हम कनाडा चले गए और वहाँ ओटावा शहर के पास जाकर बस गए। हमें रहने के लिए जो जगह मिली वह बहुत छोटी थी और वहाँ बहुत सारी मुर्गियों को भी रखा जाता था। हम बहुत गरीब थे, लेकिन कम-से-कम खाने के लिए हमें अंडे मिल जाते थे!

एक दिन यहोवा के साक्षी मम्मी से मिले और उन्हें प्रकाशितवाक्य 21:3, 4 पढ़कर सुनाया। वह बात उनके दिल को छू गयी और उनकी आँखों में आँसू आ गए। मम्मी-पापा ने बाइबल अध्ययन करना शुरू कर दिया और कुछ ही समय बाद उन्होंने बपतिस्मा ले लिया।

मम्मी-पापा को ज़्यादा अँग्रेज़ी नहीं आती थी, लेकिन वे यहोवा की सेवा बहुत जोश से करते थे। पापा ऑन्टेरीयो के सडबरी शहर के एक कारखाने में धातु पिघलाने का काम करते थे। वे पूरी रात काम करते थे, फिर भी हर शनिवार वे मुझे और मेरी छोटी बहन सिलवीया को प्रचार करने के लिए ले जाते थे। और हर हफ्ते हमारा परिवार मिलकर प्रहरीदुर्ग  का अध्ययन करता था। मम्मी-पापा ने मुझे यहोवा के बारे में सिखाने के लिए बहुत मेहनत की, इसलिए मैं भी यहोवा से प्यार करने लगा। फिर 1956 में जब मैं 10 साल का था, तब मैंने अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित कर दी। जब भी मैं इस बारे में सोचता हूँ कि मम्मी-पापा यहोवा से कितना प्यार करते थे, तो मुझे हिम्मत मिलती है कि मैं भी यहोवा की सेवा करता रहूँ।

स्कूल की पढ़ाई खत्म होते-होते, यहोवा की सेवा से मेरा ध्यान हटने लगा। मैंने सोचा कि अगर मैं पायनियर बन जाऊँगा, तो ज़्यादा पैसे नहीं कमा पाऊँगा। और फिर हवाई जहाज़ में बैठने का और पूरी दुनिया देखने का मेरा सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा। मुझे पास ही के एक रेडियो स्टेशन में गाना बजाने की नौकरी मिल गयी। मुझे यह काम बहुत पसंद था। लेकिन यह काम मुझे शाम को करना होता था, इस वजह से मैं सभाओं में नहीं जा पाता था। और मेरी दोस्ती ऐसे लोगों से हो गयी जो यहोवा से प्यार नहीं करते थे। कुछ समय बाद मेरा ज़मीर मुझे कचोटने लगा। मुझे एहसास हुआ कि जो बातें मैंने बाइबल से सीखी थीं, उनके मुताबिक मुझे कुछ बदलाव करने होंगे।

मैं ऑन्टेरीयो के ओशावा शहर चला गया और वहीं रहने लगा। वहाँ मेरी मुलाकात रे नौर्मन, उसकी बहन लेस्ली और दूसरे पायनियरों से हुई। उन सभी ने मेरा प्यार से स्वागत किया और हम अच्छे दोस्त बन गए। वह हमेशा खुश रहते थे, इसलिए मैं सोचने लगा कि मैं ज़िंदगी में क्या करना चाहता हूँ, मैं कौन-से लक्ष्य रख सकता हूँ। उन्होंने मुझे पायनियर सेवा करने का बढ़ावा दिया और सितंबर 1966 में मैंने पायनियर सेवा शुरू कर दी। मैं खुश था, सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था, पर मुझे नहीं पता था कि मेरी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेनेवाली है।

जब यहोवा कुछ करने को कहता है, तो उसे करके देखिए

जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था, तभी मैंने कनाडा के बेथेल में सेवा करने के लिए अर्ज़ी भर दी थी। पर इस बात को कुछ समय हो गया था। फिर जब मैं पायनियर सेवा कर रहा था, तब मुझे चार साल के लिए बेथेल में सेवा करने के लिए बुलाया गया। पर मैं लेस्ली को भी बहुत पसंद करता था और मुझे डर था कि अगर मैं बेथेल चला गया, तो मैं उससे फिर कभी मिल नहीं पाऊँगा। इसलिए मैंने यहोवा से बहुत प्रार्थना की। आखिरकार मैंने बेथेल जाने का फैसला किया और दुखी मन से लेस्ली को अलविदा कहा।

शुरू-शुरू में मुझे बेथेल के लॉन्ड्री विभाग में काम दिया गया, जहाँ कपड़े धोए जाते थे। बाद में मैंने एक सेक्रेट्री (सचिव) के तौर पर भी काम किया। इस दौरान लेस्ली को क्युबेक प्रांत के गैटिनो शहर में खास पायनियर के तौर पर भेजा गया। मैं अकसर उसके बारे में सोचता था कि वह कैसी होगी, क्या कर रही होगी और क्या बेथेल आकर मैंने सही किया। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी। लेस्ली के भाई रे को भी बेथेल बुला लिया गया और उसे मेरे साथ ही रहना था। इस वजह से लेस्ली के साथ मेरी बातचीत फिर से शुरू हो गयी। और मेरी बेथेल सेवा के आखिरी दिन, 27 फरवरी, 1971 को हमने शादी कर ली।

1975 में जब हमने सर्किट काम शुरू किया

लेस्ली और मुझे क्युबेक की फ्रेंच भाषा बोलनेवाली एक मंडली में सेवा करने के लिए भेजा गया। कुछ सालों बाद जब मैं सिर्फ 28 साल का था, मुझे सर्किट निगरान के तौर पर नियुक्‍त किया गया। यह जानकर मुझे बहुत हैरानी हुई, क्योंकि मुझे लगा कि इस ज़िम्मेदारी के लिए मैं अभी बहुत छोटा हूँ और मुझे ज़्यादा तजुरबा भी नहीं है। लेकिन यिर्मयाह 1:7, 8 पढ़कर मुझे बहुत हिम्मत मिली। अगर लेस्ली की बात करूँ, तो उसका कई बार कार ऐक्सिडेंट हो चुका था और वह ठीक से सो भी नहीं पाती थी, इसलिए हम सोच रहे थे कि क्या हम सर्किट काम कर पाएँगे। लेकिन फिर लेस्ली ने कहा, “अगर यहोवा हमें कुछ करने को कह रहा है, तो क्या हमें करके नहीं देखना चाहिए?” हमने न्यौता कबूल कर लिया और 17 साल खुशी-खुशी सर्किट काम किया।

मैं सर्किट काम में बहुत व्यस्त रहता था, इसलिए मैं लेस्ली को ज़्यादा समय नहीं दे पाता था। यह एक बात थी जो मुझे सीखने थी। एक दिन सोमवार को सुबह-सुबह हमारे घर की घंटी बजी। जब मैं बाहर गया तो वहाँ कोई नहीं था, सिर्फ एक टोकरी रखी हुई थी। उस टोकरी में बिछाने के लिए कपड़ा, कुछ फल, ब्रेड, चीज़, वाइन की बोतल और गिलास थे। उसमें एक कागज़ भी था जिस पर लिखा था, “अपनी पत्नी को पिकनिक पर ले जाओ।” उस दिन धूप निकली हुई थी, मौसम भी बहुत अच्छा था, पिकनिक पर जाने के लिए वह एक बढ़िया दिन था। पर मैंने लेस्ली से कहा कि आज बहुत काम है, कई भाषण तैयार करने हैं, इसलिए आज नहीं जा पाएँगे। यह सुनकर वह थोड़ी दुखी हुई, पर मान गयी। जब मैं काम करने बैठा, तो मुझे लगने लगा कि मैंने ठीक नहीं किया। मुझे इफिसियों 5:25, 28 में लिखी बात याद आयी। मैंने सोचा कि इस आयत के मुताबिक यहोवा मुझसे क्या चाहता है। क्या मैं अपनी पत्नी की भावनाओं का ध्यान रख रहा हूँ? मैंने प्रार्थना की और फिर लेस्ली से कहा, “चलो चलें!” यह सुनकर वह बहुत खुश हो गयी। हम नदी किनारे गए और साथ में वक्‍त बिताया। वह दिन हम कभी नहीं भूलेंगे। और हाँ, बाद में मैंने अपने भाषण भी तैयार कर लिए।

हमें ब्रिटिश कोलंबिया से लेकर न्यू-फाउंडलैंड तक कई अलग-अलग शहरों में सेवा करने का मौका मिला। सर्किट काम में हमें मज़ा आ रहा था। मुझे एहसास हुआ कि बचपन में अलग-अलग जगह घूमने का मेरा जो सपना था, अब वह पूरा हो रहा था। मैंने गिलियड स्कूल जाने के बारे में सोचा तो था, लेकिन किसी दूसरे देश में जाकर सेवा करने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। मैं यह भी सोचता था कि मिशनरी काम तो कुछ खास लोग ही कर सकते हैं, मैं इस काम के लायक नहीं हूँ। और मुझे यह भी डर था कि कहीं मुझे अफ्रीका के किसी ऐसे देश में ना भेज दें जहाँ पर बीमारियाँ फैली हुई हों या युद्ध चल रहे हों। मैं कनाडा में ही खुश था।

एस्टोनिया और उसके आस-पास के देशों में जाने का न्यौता

एस्टोनिया और उसके आस-पास के देशों में सफर करते हुए

1992 में यहोवा के साक्षी फिर से उन देशों में खुलकर प्रचार करने लगे, जो पहले सोवियत संघ का भाग थे। भाइयों ने हमसे पूछा कि क्या हम एस्टोनिया जाकर मिशनरी सेवा करना चाहेंगे। यह सुनकर हम सोच में पड़ गए, लेकिन फिर हमने इस बारे में प्रार्थना की। हमने फिर से खुद को याद दिलाया, ‘अगर यहोवा हमें कुछ करने को कह रहा है, तो क्या हमें करके नहीं देखना चाहिए?’ हमने मन-ही-मन कहा, ‘चलो कम-से-कम वे हमें अफ्रीका तो नहीं भेज रहे!’ और हम मान गए।

हमने बिना देर किए एस्टोनियन भाषा सीखनी शुरू कर दी। एस्टोनिया में रहते हुए अभी हमें कुछ ही महीने हुए थे कि हमें सर्किट काम करने के लिए कहा गया। हमें एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया जाना था और कालिनिनग्राद भी जाना था जो रूस का भाग था। हमें इन इलाकों में 46 मंडलियों और कुछ समूहों का दौरा करना था। इसका मतलब अब हमें लैटवियन, लिथुएनियन और रूसी भाषा भी सीखनी पड़ती। यह बहुत मुश्‍किल था, पर जब भाई-बहन देखते थे कि हम उनकी भाषा सीखने की कोशिश कर रहे हैं, तो वे बहुत खुश होते थे और हमारी मदद भी करते थे। फिर 1999 में एस्टोनिया में शाखा दफ्तर खोला गया और मुझे वहाँ की शाखा-समिति के सदस्य के तौर पर काम करने के लिए बुलाया गया। शाखा-समिति में मेरे साथ टोमास एडूर, लेंबिट राइले और टॉमी काउको भी थे।

बायीं तरफ: लिथुआनिया में एक अधिवेशन में भाषण देते हुए

दायीं तरफ: 1999 में एस्टोनिया की शाखा-समिति जब वहाँ शाखा दफ्तर खोला गया

हमें ऐसे कई भाई-बहनों को जानने का मौका मिला जो साइबेरिया में सज़ा काटकर आए थे। जेल में उन पर बहुत ज़ुल्म हुए और उन्हें अपने परिवार से दूर रखा गया। इस सबके बावजूद वे हताश नहीं हुए। वे खुश रहे और प्रचार सेवा के लिए उनका जोश ठंडा नहीं हुआ। उनसे हमने सीखा कि हम कैसे मुश्‍किल हालात में भी डटे रह सकते हैं और खुश रह सकते हैं।

हम काम में इतना डूबे रहते थे कि पता ही नहीं चला कैसे दिन सालों में बदल गए। हम दोनों को आराम करने का ज़्यादा मौका नहीं मिला। कुछ समय बाद लेस्ली बहुत थकी-थकी रहने लगी। शुरू-शुरू में हमें पता नहीं चला कि वह क्यों इतना थक जाती है। इसलिए हम वापस कनाडा जाने की सोचने लगे। पर तभी हमें अमरीका के पैटरसन शाखा दफ्तर में एक स्कूल में हाज़िर होने के लिए बुलाया गया। मुझे नहीं लग रहा था कि हम वहाँ जा पाएँगे, लेकिन इस बारे में काफी प्रार्थना करने के बाद हम तैयार हो गए। और यहोवा ने हमारे फैसले पर आशीष दी। वहाँ जाकर हमें पता चला कि लेस्ली को फाइब्रोमायेल्जिया नाम की बीमारी है। स्कूल के दौरान उसका सही से इलाज हो पाया। इस वजह से हम अपनी सेवा जारी रख पाए।

फिर एक नया मोड़, फिर एक नया देश

2008 में जब मैं एस्टोनिया में था, तो एक शाम मेरे पास विश्‍व मुख्यालय से फोन आया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या हम दोनों कांगो जाना चाहेंगे। एक बार के लिए तो मेरे होश ही उड़ गए। हमारे पास सोचने के लिए भी ज़्यादा वक्‍त नहीं था, क्योंकि हमें अगले ही दिन जवाब देना था। उस रात मैंने लेस्ली को कुछ नहीं बताया, क्योंकि मुझे डर था कि फिर वह सो नहीं पाएगी। उस रात वह तो सो गयी, लेकिन मैं नहीं सो पाया। अफ्रीका जाने को लेकर मेरे मन में जो डर था, उस बारे में मैंने पूरी रात यहोवा से प्रार्थना की।

अगले दिन मैंने लेस्ली को इस बारे में बताया। हमने एक-दूसरे को समझाया: “यहोवा हमें अफ्रीका बुला रहा है। वहाँ बिना जाए हम कैसे कह सकते हैं कि वहाँ सेवा करने से हमें खुशी नहीं मिलेगी या मज़ा नहीं आएगा।” 16 साल एस्टोनिया में रहने के बाद हम कांगो देश के किन्शासा शहर के लिए रवाना हो गए। वहाँ का शाखा दफ्तर बहुत सुंदर था। वहाँ खूब हरियाली थी और बहुत शांति थी। हमारे कमरे में लेस्ली ने जो सबसे पहली चीज़ लगायी, वह एक कार्ड था। वह उसके पास तब से था जब हम कनाडा छोड़कर आए थे। उस पर लिखा था, “तुम्हें एक फूल की तरह जहाँ भी लगाया जाए, वहीं खिल जाना।” जब हम वहाँ के भाई-बहनों से मिले, हमने बाइबल अध्ययन कराए और मिशनरी के तौर पर सेवा की, तो हमें एक अलग तरह की खुशी मिली। कुछ समय बाद, हमें अफ्रीका के 13 और शाखा दफ्तरों का दौरा करने का मौका मिला। इस वजह से हम अलग-अलग तरह के लोगों, उनके अलग-अलग तरह के रहन-सहन और उनकी संस्कृति के बारे में जान पाए। पहले मेरे मन में जो चिंताएँ थीं, अब वे खत्म हो चुकी थीं। अब हम यहोवा को शुक्रिया कह रहे थे कि उसने हमें अफ्रीका भेजा।

कांगो के भाई-बहन खाने में कीड़े भी खाते थे और उन्होंने वे हमें भी खाने के लिए दिए। पहले तो हमें लगा कि हम नहीं खा पाएँगे, लेकिन जब हमने उन्हें मज़े से कीड़े खाते हुए देखा, तो हमने भी उन्हें चखा। उन्हें खाकर हमें भी मज़ा आया।

पूर्वी कांगो में कुछ विद्रोही समूह वहाँ के गाँवों पर हमला कर रहे थे और औरतों और बच्चों पर ज़ुल्म कर रहे थे। उसी दौरान हमें वहाँ के भाई-बहनों के पास जाकर उनकी हिम्मत बँधाने और उन तक ज़रूरी चीज़ें पहुँचाने का मौका मिला। वहाँ के ज़्यादातर भाई-बहनों के पास गुज़ारा चलाने के लिए बहुत कम चीज़ें थीं। फिर भी वे यहोवा से बहुत प्यार करते थे, हर मामले में संगठन के वफादार रहना चाहते थे और उन्हें पूरा यकीन था कि मरे हुओं को दोबारा ज़िंदा किया जाएगा। उन्हें देखकर हम भी सोचने पर मजबूर हो गए कि हम यहोवा की सेवा क्यों कर रहे हैं और हमें अपने विश्‍वास को मज़बूत करने की ज़रूरत है। कुछ भाई-बहनों ने तो अपना घर, अपनी फसल, सबकुछ खो दिया था। इससे मुझे एहसास हुआ कि आज हमारे पास जो चीज़ें हैं, उनका कोई भरोसा नहीं, वे आज हैं तो कल नहीं। लेकिन यहोवा के साथ हमारा रिश्‍ता सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। वे भाई-बहन इतनी सारी तकलीफें झेल रहे थे, फिर भी वे दुखी और निराश नहीं रहते थे। उनसे हमने सीखा कि हम भी हिम्मत से अपनी मुश्‍किलों का और सेहत से जुड़ी समस्याओं का सामना कर सकते हैं।

बायीं तरफ: कुछ शरणार्थियों का हौसला बढ़ाते हुए

दायीं तरफ: कांगो के डंगु शहर के लोगों के लिए राहत का सामान और दवाइयाँ ले जाते हुए

चले एशिया की ओर

हमारी ज़िंदगी में फिर से एक नया मोड़ आया। हमें हांगकांग शाखा दफ्तर जाने के लिए कहा गया। हमने कभी नहीं सोचा था कि हम एशिया में जाकर रहेंगे। हमें नहीं पता था कि वहाँ क्या होगा। लेकिन बीते सालों के दौरान हमने देखा था कि कैसे यहोवा ने हर कदम पर हमारा साथ दिया है और हमारा खयाल रखा है। इसलिए हम वहाँ जाने के लिए राज़ी हो गए। 2013 में हमने दुखी मन से अफ्रीका के अपने प्यारे दोस्तों और वहाँ के सुंदर नज़ारों को अलविदा कहा।

हांगकांग एक भीड़-भाड़ वाला शहर था और वहाँ पूरी दुनिया से लोग आकर बसे हुए थे। वहाँ के ज़्यादातर लोग चीनी भाषा (कैंनटोनीस) बोलते थे और यह भाषा सीखना हमारे लिए बहुत मुश्‍किल था। सबकुछ हमारे लिए बहुत नया था। पर वहाँ के भाई-बहनों ने हमारा बहुत अच्छे-से स्वागत किया और हमें वहाँ का खाना भी बहुत पसंद आया। शाखा दफ्तर में काम बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा था और हमें और भी जगह की ज़रूरत थी। लेकिन हांगकांग में ज़मीन की कीमतें आसमान छू रही थीं। इसलिए शासी निकाय ने फैसला किया कि वहाँ का कुछ काम कहीं और किया जाए और शाखा दफ्तर की ज़्यादातर इमारतें बेच दी जाएँ। कुछ समय बाद, 2015 में हमें दक्षिण कोरिया भेज दिया गया जहाँ हम अभी-भी सेवा कर रहे हैं। यहाँ हमें एक और मुश्‍किल भाषा सीखनी थी, वह थी कोरियन। हम अभी-भी इस भाषा को पूरी तरह तो नहीं सीख पाए हैं, लेकिन जब यहाँ के भाई-बहन हमारी हिम्मत बँधाते हैं और कहते हैं कि हम धीरे-धीरे और सीखते जा रहे हैं, तो हमें बहुत अच्छा लगता है।

बायीं तरफ: हांगकांग में यहोवा की सेवा करने के लिए तैयार

दायीं तरफ: कोरिया का शाखा दफ्तर

बहुत-कुछ सीखा

नए दोस्त बनाना हमेशा आसान नहीं होता। लेकिन जब हम दूसरों को अपने घर बुलाते हैं, उनके साथ वक्‍त बिताते हैं, तो कुछ ही समय में उन्हें अच्छे-से जान पाते हैं। शायद एक नज़र में लगे कि हमारे भाई-बहन एक-दूसरे से कितने अलग हैं, लेकिन हमने देखा है कि उनमें बहुत सारी बातें एक-जैसी हैं। यहोवा ने हमें इतने खूबसूरत तरीके से बनाया है कि हम इतने सारे दोस्त बना पाते हैं और उनके लिए अपना प्यार ज़ाहिर कर पाते हैं।​—2 कुरिं. 6:11.

हमने सीखा कि दूसरों को यहोवा की नज़र से देखना बहुत ज़रूरी है। हमने यह भी सीखा कि इस बात पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है कि आज यहोवा कैसे हम पर अपना प्यार ज़ाहिर कर रहा है और कैसे हमें राह दिखा रहा है। जब कभी हम निराश होते थे या फिर सोचते थे कि क्या दूसरे हमें पसंद करते हैं, तब हम वे कार्ड और खत पढ़ते थे जो हमारे दोस्तों ने हमें दिए थे। उन्हें पढ़कर हमारा हौसला बढ़ जाता था। हमने महसूस किया कि यहोवा ने हमारी प्रार्थनाओं का जवाब दिया, हमें यकीन दिलाया कि वह हमसे प्यार करता है और हमें हिम्मत दी।

सालों के दौरान लेस्ली और मैंने यह बात सीखी है कि चाहे हम कितने भी व्यस्त हों, एक-दूसरे को समय देना बहुत ज़रूरी है। हमने एक और बात सीखी है: जब हमसे कोई गलती हो जाती है, जैसे अगर कोई नयी भाषा सीखते वक्‍त हम कुछ गड़बड़ कर दें, तो हमें उस बारे में हद-से-ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए, बल्कि खुद पर थोड़ा हँस लेना चाहिए। और हम हर रात एक ऐसी बात के बारे में सोचते हैं जिसके लिए हम यहोवा को शुक्रिया कह सकें।

सच कहूँ तो मुझे नहीं लगता था कि मैं कभी मिशनरी के तौर पर सेवा करूँगा या किसी दूसरे देश में जाकर रहूँगा। पर मैंने देखा है, परमेश्‍वर के लिए सबकुछ मुमकिन है। जब मैं इस बारे में सोचता हूँ, तो भविष्यवक्‍ता यिर्मयाह के ये शब्द मेरे मन में आते हैं, “हे यहोवा, तूने मुझे मूर्ख बनाया।” (यिर्म. 20:7) सच में, यहोवा ने हमें ऐसी आशीषें दीं जिनके बारे में हमने सोचा भी नहीं था। उसने हवाई जहाज़ से सफर करने का मेरा सपना भी पूरा कर दिया। बचपन में मैंने नहीं सोचा था कि मुझे हवाई जहाज़ से इतनी जगहों पर जाने का मौका मिलेगा। हमें कई देशों के शाखा दफ्तरों का दौरा करने का मौका मिला। हमें जहाँ कहीं भेजा गया, लेस्ली ने हर मौके पर मेरा साथ दिया और इसके लिए मैं उसकी बहुत कदर करता हूँ।

हम खुद को याद दिलाते रहते हैं कि हम जो भी करते हैं, वह यहोवा के लिए करते हैं और इसलिए करते हैं क्योंकि हम उससे बहुत प्यार करते हैं। आज हम जिन आशीषों का मज़ा ले रहे हैं, वे भविष्य में मिलनेवाली हमेशा की ज़िंदगी की बस एक झलक हैं, उस वक्‍त की जब यहोवा ‘अपनी मुट्ठी खोलकर हरेक जीव की इच्छा पूरी करेगा।’​—भज. 145:16.