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अध्ययन लेख 49

गीत 147 हमेशा की ज़िंदगी का वादा

आपको हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है—पर कैसे?

आपको हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है—पर कैसे?

“जो कोई बेटे को स्वीकार करता है और उस पर विश्‍वास करता है, उसे हमेशा की ज़िंदगी [मिलेगी]।”यूह. 6:40.

क्या सीखेंगे?

अभिषिक्‍त मसीहियों और दूसरी भेड़ के लोगों को यीशु मसीह के फिरौती बलिदान से क्या आशीषें मिलती हैं?

1. कई लोग क्यों हमेशा जीने के बारे में नहीं सोचते?

 बहुत-से लोग अपने खान-पान का ध्यान रखते हैं और कसरत करते हैं ताकि उनकी सेहत अच्छी रहे। लेकिन वे कभी-भी यह नहीं सोचते कि वे हमेशा जी सकते हैं क्योंकि उन्हें लगता है ऐसा तो नामुमकिन है, एक-ना-एक दिन सबको मरना ही है। और बुढ़ापे में जो तकलीफें आती हैं, उसकी वजह से कई लोग हमेशा जीना भी नहीं चाहते। लेकिन जैसे यूहन्‍ना 3:16 और 5:24 से पता चलता है, यीशु ने कहा कि इंसानों के लिए हमेशा तक जीना मुमकिन है और यह परमेश्‍वर की तरफ से एक आशीष है।

2. यूहन्‍ना अध्याय 6 में हमेशा की ज़िंदगी के बारे में क्या बताया गया है? (यूहन्‍ना 6:39, 40)

2 एक मौके पर यीशु ने चमत्कार करके हज़ारों लोगों को रोटी और मछली खिलायी। a यह एक कमाल का चमत्कार था। पर अगले दिन जब लोगों की भीड़ उसके पीछे-पीछे गलील झील के पास कफरनहूम आयी, तो उसने उनसे जो कहा वह और भी लाजवाब था। उसने उन्हें बताया कि जिन लोगों की मौत हो गयी है, उन्हें वह ज़िंदा कर सकता है और उन्हें हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है। (यूहन्‍ना 6:39, 40 पढ़िए।) यीशु के शब्दों से पता चलता है कि शायद बहुत-से लोगों को ज़िंदा किया जाएगा। सोचिए, आपने जिन अपनों को खो दिया है, आप उनसे दोबारा मिल सकते हैं, अपने परिवारवालों और दोस्तों के साथ हमेशा तक जी सकते हैं! लेकिन यीशु ने यूहन्‍ना अध्याय 6 में इसके बाद जो बात कही, उसे समझना कई लोगों के लिए बहुत मुश्‍किल होता है। आइए उन शब्दों को करीब से जाँचें।

3. यूहन्‍ना 6:51 के मुताबिक यीशु ने अपने बारे में क्या कहा?

3 जब यीशु ने चमत्कार करके लोगों को रोटी खिलायी, तो उन्हें मन्‍ना की याद आयी होगी जो यहोवा ने इसराएलियों को वीराने में खिलाया था। बाइबल में मन्‍ना को “स्वर्ग से [मिली] रोटी” भी कहा गया है। (भज. 105:40; यूह. 6:31) इसलिए यीशु ने मन्‍ना का ज़िक्र करके लोगों को एक ज़रूरी बात सिखायी। उसने खुद के बारे में कहा कि वह “स्वर्ग से सच्ची रोटी,” “परमेश्‍वर की रोटी” और “जीवन देनेवाली रोटी” है। (यूह. 6:32, 33, 35) फिर उसने मन्‍ना और खुद के बीच एक बहुत बड़ा फर्क बताया। वैसे तो मन्‍ना परमेश्‍वर की तरफ से मिला एक तोहफा था, पर उसे खानेवालों की एक-न-एक दिन मौत हो गयी। (यूह. 6:49) लेकिन यीशु ने अपने बारे में कहा, “मैं वह जीवित रोटी हूँ जो स्वर्ग से उतरी है। अगर कोई इस रोटी में से खाता है तो वह हमेशा ज़िंदा रहेगा।” (यूहन्‍ना 6:51 पढ़िए।) यह सुनकर यहूदी लोग सोच में पड़ गए: ‘यीशु खुद को स्वर्ग से उतरी “रोटी” कैसे कह सकता है? और वह उस मन्‍ना से बेहतर कैसे हो सकता है जो परमेश्‍वर ने हमारे पुरखों को दिया था?’ फिर यीशु ने एक ऐसी बात कही जिसमें इस सवाल का जवाब छिपा था। उसने कहा, “जो रोटी मैं दूँगा, वह मेरा शरीर है।” उसके कहने का क्या मतलब था? यह हमारे लिए समझना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि इससे हमें पता चलेगा कि हमें और हमारे अपनों को हमेशा की ज़िंदगी कैसे मिल सकती है। आइए जानें कि यीशु क्या कहना चाहता था।

जीवन देनेवाली रोटी और यीशु के शरीर के मायने

4. यीशु की बात सुनकर कुछ यहूदी क्यों चौंक गए?

4 जब यीशु ने कहा कि वह अपना ‘शरीर इंसानों की खातिर देगा,’ तो कुछ यहूदी चौंक गए। शायद उन्हें लगा कि यीशु सचमुच उन्हें अपना माँस खाने को देगा। (यूहन्‍ना 6:52) पर इसके बाद यीशु ने जो कहा वह सुनकर यहूदी और भी हक्के-बक्के रह गए होंगे। उसने कहा, “जब तक तुम इंसान के बेटे का माँस न खाओ और उसका खून न पीओ, तुममें जीवन नहीं।”—यूह. 6:53.

5. हम क्यों कह सकते हैं कि यीशु ने लोगों को सचमुच में उसका खून पीने के लिए नहीं कहा था?

5 नूह के दिनों में यहोवा ने इंसानों को खून खाने से मना किया था। (उत्प. 9:3, 4) फिर आगे चलकर यहोवा ने यही कानून इसराएलियों को भी दिया। अगर कोई खून खाता, तो उसे “मौत की सज़ा” दी जाती। (लैव्य. 7:27) यीशु परमेश्‍वर का कानून मानता था और दूसरों को भी ऐसा करने का बढ़ावा देता था। (मत्ती 5:17-19) इसलिए ऐसा हो ही नहीं सकता था कि वह यहूदियों को सचमुच में उसका माँस खाने या उसका खून पीने के लिए कहता। पर यीशु यह बात कहकर लोगों को यह बताना चाहता था कि वे “हमेशा की ज़िंदगी” कैसे पा सकते हैं।—यूह. 6:54.

6. हम क्यों यह कह सकते हैं कि यूहन्‍ना 6:53 में यीशु बस मिसाल देकर एक ज़रूरी बात सिखा रहा था?

6 तो असल में यीशु बस मिसाल देकर एक ज़रूरी बात बताना चाहता था। ऐसा उसने पहले एक सामरी औरत से बात करते वक्‍त भी किया था। उसने कहा, “जो कोई वह पानी पीएगा, जो मैं उसे दूँगा वह फिर कभी प्यासा नहीं होगा। जो पानी मैं उसे दूँगा वह उसके अंदर पानी का एक सोता बन जाएगा और हमेशा की ज़िंदगी देने के लिए उमड़ता रहेगा।” (यूह. 4:7, 14) b यीशु उस औरत से यह नहीं कह रहा था कि वह सचमुच का कोई पानी पीकर हमेशा की ज़िंदगी पा सकती है। उसी तरह कफरनहूम में यीशु लोगों से यह नहीं कह रहा था कि हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए उन्हें सचमुच में उसका माँस खाना या उसका खून पीना होगा।

दो घटनाओं के बीच फर्क

7. यूहन्‍ना 6:53 में यीशु ने जो बात कही, उस बारे में कुछ लोग क्या मानते हैं?

7 कुछ लोगों का कहना है कि यूहन्‍ना 6:53 में यीशु यह समझा रहा था कि प्रभु का संध्या-भोज कैसे मनाया जाना चाहिए, क्योंकि आगे चलकर उसे मनाते वक्‍त यीशु ने मिलते-जुलते शब्द इस्तेमाल किए। (मत्ती 26:26-28) इसलिए वे मानते हैं कि प्रभु के संध्या-भोज में जो भी आते हैं, उनमें से हरेक को रोटी और दाख-मदिरा लेनी चाहिए। क्या उनका यह मानना सही है? इस सवाल का जवाब जानना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि हर साल पूरी दुनिया में लाखों लोग प्रभु के संध्या-भोज के लिए इकट्ठा होते हैं। हम देखेंगे कि यीशु ने यूहन्‍ना 6:53 में जो कहा और प्रभु के संध्या-भोज के दौरान जो कहा, उसमें क्या-क्या फर्क है।

8. दोनों घटनाओं के बीच क्या-क्या फर्क है? (तसवीरें भी देखें।)

8 अब आइए इन दोनों घटनाओं के बीच दो फर्क देखें। पहला, यूहन्‍ना 6:53-56 में लिखी बात यीशु ने कब और कहाँ कही? उसने यह बात ईसवी सन्‌ 32 में गलील में यहूदियों की एक भीड़ से कही थी। लेकिन प्रभु के संध्या-भोज की शुरूआत यीशु ने एक साल बाद यरूशलेम में की थी। दूसरा, उसने यह बात किससे कही? गलील में उसने जिन लोगों से बात की, उनका पूरा ध्यान खाने-पीने की ज़रूरतें पूरी करने पर लगा था, ना कि यहोवा और उसके राज के बारे में सीखने पर। (यूह. 6:26) असल में जब यीशु ने एक ऐसी बात कही, जिसे समझना उनके लिए मुश्‍किल था, तो उस पर से उनका विश्‍वास ही उठ गया। यहाँ तक कि यीशु के कुछ चेले भी उसे छोड़कर चले गए। (यूह. 6:14, 36, 42, 60, 64, 66) लेकिन ध्यान दीजिए इसके एक साल बाद ईसवी सन्‌ 33 में क्या हुआ। उस वक्‍त प्रभु के संध्या-भोज में यीशु के 11 वफादार प्रेषित उसके साथ थे। हालाँकि उन्हें भी यीशु की कुछ बातें समझ में नहीं आयीं, फिर भी उन्होंने उसका साथ नहीं छोड़ा। उन्हें पूरा यकीन था कि यीशु ही परमेश्‍वर का बेटा है जो स्वर्ग से नीचे उतरा है। (मत्ती 16:16) यीशु ने उनकी तारीफ की और उनसे कहा, “तुम वे हो जो मेरी परीक्षाओं के दौरान मेरा साथ देते रहे।” (लूका 22:28) तो हमने जो दो फर्क देखे, उनसे क्या पता चलता है? यही कि यह मानना गलत होगा कि यूहन्‍ना 6:53 में यीशु ने यह बताया कि प्रभु का संध्या-भोज कैसे मनाया जाना चाहिए। इस बात के और भी कई सबूत हैं।

यूहन्‍ना अध्याय 6 में बताया है कि यीशु ने गलील में यहूदियों की एक भीड़ से क्या कहा था (बायीं तरफ)। एक साल बाद उसने यरूशलेम में एक छोटे-से समूह से बात की, यानी अपने वफादार प्रेषितों से (दायीं तरफ) (पैराग्राफ 8)


यीशु की कही बात से आपको कैसे फायदा हो सकता है?

9. प्रभु के संध्या-भोज में यीशु ने जो बात कही, वह किन लोगों के लिए थी?

9 प्रभु के संध्या-भोज में यीशु ने बिन-खमीर की रोटी अपने प्रेषितों को दी और उनसे कहा कि यह उसके शरीर की निशानी है। फिर उसने उन्हें दाख-मदिरा से भरा प्याला दिया और कहा कि यह उस “खून की निशानी है जो करार को पक्का करता है।” (मर. 14:22-25; लूका 22:20; 1 कुरिं. 11:24) यह बहुत मायने रखता है। क्योंकि नया करार सभी इंसानों के साथ नहीं, बल्कि सिर्फ “इसराएल के घराने” के साथ किया गया था, यानी उन लोगों के साथ जो “परमेश्‍वर के राज” में यीशु के साथ होते। (इब्रा. 8:6, 10; 9:15) उस वक्‍त प्रेषितों को यह बात समझ में नहीं आयी। लेकिन जल्द ही पवित्र शक्‍ति से उनका अभिषेक किया जाता और वे नए करार में शामिल हो जाते। फिर उन्हें स्वर्ग में यीशु के साथ राज करने का मौका मिलता।—यूह. 14:2, 3.

10. यीशु ने गलील में जो कहा और प्रभु के संध्या-भोज में जो कहा, उसमें एक और फर्क क्या है? (तसवीर भी देखें।)

10 इस बात पर भी गौर कीजिए कि प्रभु के संध्या-भोज में यीशु ने “छोटे झुंड” को ध्यान में रखकर बात की। इस छोटे-से समूह के सबसे पहले सदस्य यीशु के 11 वफादार प्रेषित थे, जो उस समय उसके साथ मौजूद थे। (लूका 12:32) सिर्फ उन प्रेषितों को और बाद में जो इस समूह का हिस्सा बनते, उन्हीं को रोटी और दाख-मदिरा लेनी चाहिए। सिर्फ इन्हीं लोगों को यीशु के साथ स्वर्ग में राज करने का मौका मिलेगा। लेकिन गलील में यीशु ने भीड़ से जो बात कही थी, वह एक ऐसे समूह के लिए थी जिसे कोई गिन नहीं सकता। यह उन दोनों घटनाओं में एक और फर्क है।

रोटी और दाख-मदिरा सिर्फ कुछ लोग लेते हैं, लेकिन यीशु पर विश्‍वास कोई भी कर सकता है और हमेशा की ज़िंदगी पा सकता है (पैराग्राफ 10)


11. यीशु ने गलील में ऐसा क्या कहा जिससे पता चलता है कि वह सिर्फ गिने-चुने लोगों की बात नहीं कर रहा था?

11 ईसवी सन्‌ 32 में जब यीशु गलील में था, तो वह जिन लोगों से बात कर रहा था, उनमें से ज़्यादातर इस उम्मीद से उसके पास आए थे कि उन्हें खाना मिल जाए। लेकिन यीशु ने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि खाने से भी बढ़कर कुछ है। उसने उन्हें एक ऐसे इंतज़ाम के बारे में बताया जिससे वे हमेशा की ज़िंदगी पा सकते थे। यीशु ने यह भी कहा कि जिन लोगों की मौत हो गयी है, उन्हें आखिरी दिन ज़िंदा किया जा सकता है और वे हमेशा जी सकते हैं। तो यीशु ने एक ऐसी आशीष के बारे में बताया, जो सिर्फ गिने-चुने लोगों के लिए नहीं थी जैसा उसने प्रभु के संध्या-भोज में बताया था, बल्कि यह आशीष सभी लोगों को मिल सकती थी। असल में यीशु ने कहा, “अगर कोई इस रोटी में से खाता है तो वह हमेशा ज़िंदा रहेगा। . . . जो रोटी मैं दूँगा, वह मेरा शरीर है जो मैं इंसानों [या दुनिया] की खातिर दूँगा ताकि वे जीवन पाएँ।”—यूह. 6:51. c

12. हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए एक व्यक्‍ति को क्या करना होगा?

12 गलील में यीशु ने यहूदियों से यह नहीं कहा कि धरती पर जीनेवाले हरेक इंसान को हमेशा की ज़िंदगी मिलेगी। इसके बजाय उसने कहा कि यह आशीष उन्हें मिलेगी जो ‘इस रोटी में से खाते हैं,’ यानी उस पर विश्‍वास करते हैं। आज बहुत-से ईसाइयों को लगता है कि अगर वे यीशु को अपना उद्धारकर्ता मानेंगे, तो उनका उद्धार हो जाएगा। (यूह. 6:29) पर इतना काफी नहीं है। देखा जाए तो गलील में भीड़ के कुछ लोगों ने भी शुरू में यीशु पर विश्‍वास किया था, पर बाद में वे उसे छोड़कर चले गए। उन्होंने ऐसा क्यों किया?

13. अगर एक व्यक्‍ति सच में यीशु का चेला बनना चाहता है, तो उसे क्या करना होगा?

13 भीड़ के ज़्यादातर लोग तब तक यीशु के साथ रहे, जब तक उन्हें वह सब मिलता रहा जो उन्हें चाहिए था। वे चाहते थे कि यीशु चमत्कार करके उनकी बीमारियाँ ठीक कर दे, उन्हें मुफ्त में खाना खिलाए और उन्हें वे बातें सिखाए जो वे सुनना चाहते हैं। लेकिन यीशु ने उन्हें साफ-साफ बताया कि वह धरती पर उनकी इच्छाएँ पूरी करने के लिए नहीं आया है। इसके बजाय वह यह सिखाने आया है कि अगर वे सच में उसके चेले बनना चाहते हैं, तो उन्हें क्या करना होगा। उन्हें यीशु के ‘पास आना’ था यानी जो कुछ वह सिखा रहा था, उसे मानना था।—यूह. 5:40; 6:44.

14. यीशु की कुरबानी की वजह से जो आशीष मिलनेवाली है, उसे पाने के लिए हमें क्या करना होगा?

14 यीशु ने लोगों से कहा कि उन्हें विश्‍वास करने की ज़रूरत है। किस बात पर? उन्हें इस बात पर विश्‍वास करना था कि यीशु जो खून बहानेवाला था और अपना शरीर कुरबान करनेवाला था, उसी की वजह से उन्हें हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है। आज हमें भी इस बात पर विश्‍वास करने की ज़रूरत है। (यूह. 6:40) तो यूहन्‍ना 6:53 में यीशु ने जो कहा उसका मतलब है कि हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए लोगों को फिरौती बलिदान पर विश्‍वास करना होगा। और यह आशीष पाने का मौका सिर्फ थोड़े-बहुत लोगों के लिए नहीं, बल्कि सभी लोगों के लिए खुला है।—इफि. 1:7.

15-16. यूहन्‍ना अध्याय 6 से हमने क्या-क्या सीखा?

15 यूहन्‍ना अध्याय 6 में जो बातें बतायी गयी हैं, उनसे हमें और हमारे अपनों को कितना फायदा हो सकता है! हमने सीखा कि यीशु को लोगों की बहुत परवाह है। गलील में उसने बीमार लोगों को ठीक किया, परमेश्‍वर के राज के बारे में सिखाया और लोगों की खाने-पीने की ज़रूरतें पूरी कीं। (लूका 9:11; यूह. 6:2, 11, 12) लेकिन सबसे ज़रूरी बात, उसने यह सिखाया कि वही “जीवन देनेवाली रोटी” है।—यूह. 6:35, 48.

16 यीशु ने जिन लोगों को “दूसरी भेड़ें” कहा, वे प्रभु के संध्या-भोज में रोटी और दाख-मदिरा नहीं लेते और उन्हें ऐसा करना भी नहीं चाहिए। (यूह. 10:16) फिर भी वे यीशु मसीह के शरीर और खून से फायदा पाते हैं। क्योंकि वे यीशु के फिरौती बलिदान पर विश्‍वास करते हैं और मानते हैं कि उसकी वजह से इंसानों को बड़ी-बड़ी आशीषें मिलेंगी। (यूह. 6:53) इसके उलट, जो लोग रोटी और दाख-मदिरा लेते हैं वे यह ज़ाहिर करते हैं कि वे नए करार में शामिल हैं और उनके पास स्वर्ग में राजा बनकर राज करने की आशा है। तो चाहे हम अभिषिक्‍त मसीही हों या “दूसरी भेड़ें,” हम सब यूहन्‍ना अध्याय 6 से बहुत कुछ सीख सकते हैं, खासकर यह कि हमें फिरौती बलिदान पर विश्‍वास करना होगा, तभी हमें हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है।

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a पिछले लेख में यूहन्‍ना 6:5-35 पर चर्चा की गयी थी।

b यीशु ने जिस पानी का ज़िक्र किया उसका मतलब है, यहोवा के वे इंतज़ाम जिनसे हम हमेशा की ज़िंदगी पा सकते हैं।

c यूहन्‍ना अध्याय 6 में जहाँ-जहाँ उन लोगों की बात की गयी है जिन्हें हमेशा की ज़िंदगी मिल सकती है, वहाँ ऐसे यूनानी शब्द इस्तेमाल हुए हैं जिनका अनुवाद “जो कोई,” “जो भी” या “हर कोई” किया जा सकता है।—यूह. 6:35, 40, 47, 54, 56-58.