न्याय और दया करने में यहोवा की मिसाल पर चलिए
“सच्चाई से न्याय करो, एक-दूसरे पर दया करो और अटल प्यार रखो।”—जक. 7:9.
गीत: 21, 11
1, 2. (क) यीशु, परमेश्वर के कानून के बारे में कैसा महसूस करता था? (ख) शास्त्री और फरीसी किस कदर कानून को तोड़-मरोड़ रहे थे?
यीशु को मूसा के कानून से बहुत लगाव था। और क्यों न हो, आखिर वह कानून उसके पिता यहोवा ने दिया था, जो उसकी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। भजन 40:8 में पहले से बताया गया था कि यीशु को परमेश्वर के कानून से प्यार होगा। वहाँ लिखा है, “हे मेरे परमेश्वर, तेरी मरज़ी पूरी करने में ही मेरी खुशी है, तेरा कानून मेरे दिल की गहराई में बसा है।” यीशु ने अपनी बातों और कामों से साबित किया कि परमेश्वर का कानून परिपूर्ण है, फायदेमंद है और इसकी हर बात पूरी होती है।—मत्ती 5:17-19.
2 लेकिन शास्त्री और फरीसी कानून को इस कदर तोड़-मरोड़ रहे थे कि यह लोगों को बोझ लगने लगा था। यह देखकर यीशु को बहुत दुख हुआ। उसने उनसे कहा, “तुम पुदीने, सोए और जीरे का दसवाँ हिस्सा . . . देते हो।” दूसरे शब्दों में कहें तो वे कानून की हर बारीकी को मान रहे थे। इसमें गलत क्या था? यीशु ने उनसे कहा, “मगर [तुम] कानून की बड़ी-बड़ी बातों को यानी न्याय, दया और वफादारी को कोई अहमियत नहीं देते।” (मत्ती 23:23) फरीसी कानून का मतलब नहीं समझते थे और सोचते थे कि वे दूसरों से बेहतर हैं। लेकिन यीशु कानून के पीछे दिए सिद्धांत समझता था और जानता था कि हर नियम से हम यहोवा के बारे में क्या सीखते हैं।
3. इस लेख में हम क्या चर्चा करेंगे?
रोमि. 7:6) तो फिर यहोवा ने इसे बाइबल में क्यों शामिल किया? वह चाहता है कि हम कानून की “बड़ी-बड़ी बातों” को समझें और उन्हें लागू करें। दूसरे शब्दों में कहें तो वह चाहता है कि हम उन सिद्धांतों को समझें जिन पर मूसा का कानून आधारित था। मिसाल के लिए, शरण नगर के इंतज़ाम से हम कौन-से सिद्धांत सीखते हैं? पिछले लेख में हमने सीखा था कि अनजाने में खून करनेवाले को क्या करना होता था। इस लेख में हम देखेंगे कि शरण नगर के इंतज़ाम से हम यहोवा के बारे में क्या सीखते हैं और उसके जैसे गुण कैसे ज़ाहिर कर सकते हैं? हमें इन तीन सवालों के जवाब भी मिलेंगे: शरण नगर के इंतज़ाम से कैसे पता चलता है कि यहोवा दयालु है? उसकी नज़र में जीवन कितना अनमोल है? इससे कैसे पता चलता है कि वह सच्चा न्याय करता है? हर सवाल पर चर्चा करते वक्त गौर कीजिए कि आप किस तरह अपने पिता यहोवा की मिसाल पर चल सकते हैं।—इफिसियों 5:1 पढ़िए।
3 मसीही होने के नाते हमें मूसा का कानून मानने की ज़रूरत नहीं। (शरण नगर जहाँ थे, उनसे यहोवा की दया ज़ाहिर हुई
4, 5. (क) शरण नगर में भागकर जाना क्यों आसान था और ऐसा किस वजह से किया गया? (ख) इससे हम यहोवा के बारे में क्या सीखते हैं?
4 यहोवा ने छ: शरण नगर ठहराए थे जहाँ भागकर जाना आसान था। उसने इसराएलियों को यरदन के दोनों तरफ तीन-तीन नगर चुनने के लिए कहे थे। क्यों? वह इसलिए कि भागनेवाला जल्द-से-जल्द और आसानी से शरण नगर तक पहुँच सके। (गिन. 35:11-14) शरण नगर तक जानेवाली सड़कों को भी अच्छी हालत में रखा जाता था। (व्यव. 19:3) प्राचीन यहूदी किताबें बताती हैं कि सड़क के किनारे चिन्ह हुआ करते थे जिससे भागनेवाले को शरण नगर ढूँढ़ने में कोई दिक्कत न हो। इसराएल में शरण नगर इसलिए थे ताकि अनजाने में खून करनेवाला किसी पराए देश में हिफाज़त न ढूँढ़े, जहाँ वह झूठे देवताओं को पूजने के लिए लुभाया जा सकता था।
5 हालाँकि यहोवा ने आज्ञा दी थी कि खूनी को मौत की सज़ा दी जाए, लेकिन उसने इस बात का भी ध्यान रखा कि अनजाने में खून करनेवाले पर दया और करुणा की जाए और उसे हिफाज़त मिले। इस इंतज़ाम के बारे में एक बाइबल विद्वान कहता है, “सबकुछ बहुत ही साफ तरीके से बताया गया था और इसे मानना आसान था।” यहोवा एक क्रूर न्यायी नहीं जो अपने सेवकों को सज़ा देने की ताक में रहता है। इसके बजाय वह “दया का धनी है।”—इफि. 2:4.
6. समझाइए कि फरीसियों में यहोवा जैसी दया क्यों नहीं थी।
6 फरीसियों में यहोवा जैसी दया नहीं थी। मिसाल के लिए, प्राचीन यहूदी किताबें बताती हैं कि अगर कोई इंसान एक ही गलती तीन से ज़्यादा बार दोहराता था, तो फरीसी उसे माफ नहीं करते थे। उनकी सोच कितनी गलत थी इसे समझाने के लिए यीशु ने एक फरीसी और कर-वसूलनेवाले की मिसाल दी जो मंदिर में प्रार्थना कर रहे थे। फरीसी ने कहा, “हे परमेश्वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि मैं दूसरों की तरह नहीं हूँ जो लुटेरे, बेईमान लूका 18:9-14.
और व्यभिचारी हैं, न ही इस कर-वसूलनेवाले जैसा हूँ।” फरीसी क्यों दया नहीं करते थे? क्योंकि वे “दूसरों को कुछ नहीं समझते थे” और सोचते थे कि वे दया के लायक नहीं।—7, 8. (क) आप दया करने में यहोवा की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? (ख) माफ करने के लिए नम्र होना क्यों ज़रूरी है?
7 आपके बारे में क्या? दया करने में यहोवा की मिसाल पर चलिए, न कि फरीसियों की। दूसरों पर करुणा कीजिए। (कुलुस्सियों 3:13 पढ़िए।) इस तरह पेश आइए कि उन्हें आपसे माफी माँगने में झिझक महसूस न हो। (लूका 17:3, 4) खुद से पूछिए, ‘क्या मैं दूसरों को तुरंत माफ कर देता हूँ फिर चाहे उन्होंने मुझे कई बार ठेस पहुँचायी हो? क्या मैं उनके साथ शांति कायम करने के लिए तैयार रहता हूँ?’
8 माफ करने के लिए नम्र होना ज़रूरी है। फरीसी सोचते थे कि वे दूसरों से बेहतर हैं इसलिए वे माफ करने को तैयार नहीं थे। लेकिन मसीहियों को नम्र होना चाहिए, “दूसरों को खुद से बेहतर” समझना चाहिए और दिल खोलकर माफ करना चाहिए। (फिलि. 2:3) हम खुद से पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं यहोवा की मिसाल पर चलता हूँ और नम्रता से पेश आता हूँ?’ अगर हम नम्र होंगे तो दूसरों के लिए हमसे माफी माँगना आसान होगा और हमारे लिए उन्हें माफ करना भी आसान होगा। दया करने के लिए हमेशा तैयार रहिए और किसी बात का जल्दी बुरा मत मानिए।—सभो. 7:8, 9.
जीवन का आदर कीजिए, तब आप पर “खून का दोष नहीं लगेगा”
9. इसराएली किस तरह समझ पाए कि जीवन अनमोल है?
9 शरण नगर का इंतज़ाम करने की एक खास वजह यह थी कि इसराएली खून के दोषी न बनें। (व्यव. 19:10) यहोवा के लिए जीवन अनमोल है और वह कत्ल जैसे घिनौने काम से नफरत करता है। (नीति. 6:16, 17) यहोवा सच्चा न्यायी और पवित्र परमेश्वर है, इसलिए वह अनजाने में हुए कत्ल को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। यह सच है कि अनजाने में खून करनेवाले पर दया की जा सकती थी मगर उसे पहले मुखियाओं को सारी बात बतानी होती थीं। अगर मुखिया इस नतीजे पर पहुँचते थे कि वह कत्ल अनजाने में हुआ है, तो खून करनेवाले को तब तक शरण नगर में रहना होता था जब तक महायाजक की मौत नहीं हो जाती। इसका मतलब था कि उसे बाकी की ज़िंदगी शायद शरण नगर में ही बितानी पड़े। इस इंतज़ाम से इसराएली समझ पाए कि यहोवा जीवन को कितना अनमोल समझता है। जीवन देनेवाले का आदर करने के लिए उन्हें ऐसे हर काम से दूर रहना था जिससे एक इंसान की जान को खतरा हो।
10. यीशु ने किस तरह बताया कि शास्त्री और फरीसी जीवन की कदर नहीं करते थे?
10 वहीं दूसरी तरफ, शास्त्री और फरीसी दूसरों के जीवन की कोई कदर नहीं करते थे। यीशु ने उनसे कहा, “तुमने वह चाबी लेकर रख ली है, जो परमेश्वर के बारे में ज्ञान का दरवाज़ा खोलती है। तुम खुद उस दरवाज़े के अंदर नहीं गए और जो जा रहे हैं उन्हें भी तुम रोक देते हो!” (लूका 11:52) यीशु के कहने का क्या मतलब था? शास्त्रियों और फरीसियों का यह फर्ज़ था कि वे लोगों को परमेश्वर का वचन समझाएँ और हमेशा की ज़िंदगी पाने में उनकी मदद करें। लेकिन वे लोगों को यीशु के पीछे जाने से रोक रहे थे, जो ‘जीवन दिलानेवाला खास अगुवा’ है। (प्रेषि. 3:15) इस तरह वे लोगों को नाश की तरफ ले जा रहे थे। शास्त्री और फरीसी घमंडी और मतलबी थे। उन्हें लोगों की जान की कोई फिक्र नहीं थी। सच, वे कितने बेरहम थे!
11. (क) प्रेषित पौलुस ने कैसे दिखाया कि वह जीवन को अनमोल समझता था? (ख) पौलुस की तरह जोश से प्रचार करने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
प्रेषितों 20:26, 27 पढ़िए।) लेकिन क्या पौलुस ने सिर्फ इसलिए प्रचार किया कि यह उसका फर्ज़ था और वह खून का दोषी नहीं बनना चाहता था? नहीं। पौलुस को लोगों से प्यार था। उसकी नज़र में लोगों की जान अनमोल थी और वह चाहता था कि लोग हमेशा की ज़िंदगी पाएँ। (1 कुरिं. 9:19-23) हमें भी लोगों से प्यार करना चाहिए और जीवन के बारे में यहोवा के जैसा नज़रिया रखना चाहिए। वह चाहता है कि “सबको पश्चाताप करने का मौका मिले” और वे जीवन पाएँ। (2 पत. 3:9) अगर हममें प्यार और दया का गुण होगा, तो हम जोश के साथ प्रचार करेंगे और इस काम से हमें खुशी मिलेगी।
11 हम कैसे शास्त्रियों और फरीसियों के रवैए से दूर रह सकते हैं और यहोवा की मिसाल पर चल सकते हैं? जीवन को अनमोल समझिए और इसका आदर कीजिए। प्रेषित पौलुस ने यही किया। उसने ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को राज की खुशखबरी सुनायी। इसलिए वह कह सका, “मैं सब लोगों के खून से निर्दोष हूँ।” (12. परमेश्वर के सेवक सुरक्षा का क्यों इतना ध्यान रखते हैं?
12 जीवन को अनमोल समझने के लिए यह भी ज़रूरी है कि हम सुरक्षा के बारे में सही नज़रिया रखें। हमें गाड़ी चलाते वक्त और कोई काम करते वक्त सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए। यह बात तब भी सच है जब हम उपासना की जगहों का निर्माण या मरम्मत करते हैं या जब हम गाड़ी में सभाओं या सम्मेलनों के लिए जाते हैं। पैसे और समय से ज़्यादा ज़रूरी है लोगों की जान, उनकी सुरक्षा और सेहत। हमारा परमेश्वर यहोवा हमेशा वही करता है जो सही है और हमें भी उसकी तरह बनना चाहिए। प्राचीनों को खासकर अपनी और दूसरों की सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए। (नीति. 22:3) अगर कोई प्राचीन आपको सुरक्षा का कोई नियम याद दिलाता है, तो उसकी सुनिए। (गला. 6:1) यहोवा की मिसाल पर चलते हुए जीवन को अनमोल समझिए तब आप पर “खून का दोष नहीं लगेगा।”
“इन नियमों के मुताबिक” न्याय कीजिए
13, 14. इसराएल के मुखिया कैसे यहोवा जैसा न्याय कर सकते थे?
13 यहोवा ने इसराएल के मुखियाओं को आज्ञा दी थी कि वे न्याय करने में उसकी मिसाल पर चलें। सबसे पहले मुखियाओं को सबूतों की जाँच करनी थी। फिर उन्हें बड़ी सावधानी से खूनी के इरादों, रवैए और पिछले कामों को जाँचना था ताकि यह तय कर सकें कि उस पर दया की जानी है या नहीं। मुखियाओं को पता लगाना था कि कहीं उसने नफरत की वजह से उस आदमी का खून तो नहीं किया। (गिनती 35:20-24 पढ़िए।) अगर गवाहों को पेश किया जाता था, तो मुखियाओं को ध्यान देना था कि कम-से-कम दो गवाह हों, तभी उसे दोषी ठहराया जा सकता था।—गिन. 35:30.
14 सबूतों को जाँचने के बाद, मुखियाओं को सिर्फ इस बात पर ध्यान नहीं देना था कि उसने क्या किया है बल्कि इस बारे में भी सोचना था कि वह कैसा इंसान है। उन्हें अंदरूनी समझ की ज़रूरत थी ताकि वे यह समझ सकें कि उसने किन हालात में पाप किया और उसके पीछे क्या वजह थीं। सबसे बढ़कर उन्हें यहोवा की पवित्र शक्ति की ज़रूरत थी ताकि वे यहोवा की तरह अंदरूनी समझ, दया और न्याय से पेश आ सकें।—निर्ग. 34:6, 7.
15. पापियों के बारे में यीशु का नज़रिया फरीसियों से कैसे अलग था?
15 फरीसी न्याय करते वक्त दया नहीं करते थे। वे सिर्फ यह देखते थे कि पापी ने क्या किया है मगर इस बात पर कोई ध्यान नहीं देते थे कि वह कैसा इंसान है। जब कुछ फरीसियों ने देखा कि यीशु मत्ती के घर पर खाने के लिए आया है तो उन्होंने उसके चेलों से पूछा, “तुम्हारा गुरु कर-वसूलनेवालों और पापियों के साथ क्यों खाता है?” यीशु ने कहा, “जो भले-चंगे हैं उन्हें वैद्य की ज़रूरत नहीं होती, मगर बीमारों को होती है। इसलिए जाओ और इस बात का मतलब सीखो, ‘मैं बलिदान नहीं चाहता बल्कि यह चाहता हूँ कि तुम दूसरों पर दया करो।’ क्योंकि मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को बुलाने आया हूँ।” (मत्ती 9:9-13) क्या यीशु पापियों की तरफदारी कर रहा था? नहीं। वह चाहता था कि वे अपने पापों से पश्चाताप करें। दरअसल लोगों को प्रचार करते वक्त वह उन्हें पश्चाताप करने का बढ़ावा भी देता था। (मत्ती 4:17) यीशु देख सकता था कि कुछ “कर-वसूलनेवाले और उनके जैसे दूसरे पापी” वाकई बदलना चाहते थे। वे मत्ती के घर पर सिर्फ दावत उड़ाने नहीं आए थे। दरअसल “उनमें से कई ऐसे थे जो यीशु के चेले बन गए थे।” (मर. 2:15) अफसोस की बात है कि ज़्यादातर फरीसी, पापियों को उस नज़र से नहीं देखते थे जिस नज़र से यीशु देखता था। फरीसियों का मानना था कि वे लोग गए-गुज़रे हैं और कभी नहीं बदल सकते। फरीसी यहोवा से कितने अलग थे, जो दयालु है और न्याय का परमेश्वर है!
16. न्याय-समिति क्या पता करने की कोशिश करती है?
16 आज प्राचीनों को भी यहोवा की मिसाल पर चलना चाहिए, जो “न्याय से प्यार करता है।” (भज. 37:28) सबसे पहले उन्हें मामले की “अच्छी तरह छानबीन” करनी चाहिए ताकि यह जान सकें कि एक व्यक्ति ने वाकई पाप किया है या नहीं। अगर उसने पाप किया है, तो प्राचीनों को बाइबल में दिए निर्देश के मुताबिक तय करना चाहिए कि आगे क्या किया जाए। (व्यव. 13:12-14) जब न्याय-समिति बैठती है, तो प्राचीनों को बड़े ध्यान से यह देखना चाहिए कि गंभीर पाप करनेवाले को अपने किए पर सच्चा पछतावा है या नहीं। यह पता करना हमेशा आसान नहीं होता क्योंकि उन्हें यह समझना होता है कि एक पापी अपने पाप को किस नज़र से देखता है और उस बारे में कैसा महसूस करता है। (प्रका. 3:3) एक पापी के लिए सच्चा पश्चाताप करना ज़रूरी है, तभी उस पर दया की जाएगी। *
17, 18. प्राचीन कैसे जान सकते हैं कि एक व्यक्ति का पश्चाताप सच्चा है या नहीं? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)
17 यहोवा और यीशु इंसान का दिल पढ़ सकते हैं, इसलिए वे ठीक-ठीक जानते हैं कि एक इंसान क्या सोच रहा है और उसके अंदर क्या चल रहा है। लेकिन प्राचीन दिल नहीं पढ़ सकते। अगर आप एक प्राचीन हैं, तो आप कैसे जान सकते हैं कि एक व्यक्ति का पश्चाताप सच्चा है या नहीं? एक तरीका है, बुद्धि और समझ के लिए प्रार्थना कीजिए। (1 राजा 3:9) दूसरा तरीका है, बाइबल और विश्वासयोग्य दास के दिए प्रकाशनों में खोजबीन कीजिए। इससे आप तय कर पाएँगे कि एक पापी “दुनिया के लोगों जैसी उदासी” दिखा रहा है या “परमेश्वर को खुश करनेवाली उदासी” यानी सच्चा पश्चाताप कर रहा है। (2 कुरिं. 7:10, 11) गौर कीजिए कि बाइबल में उन लोगों के बारे में क्या बताया गया है जिन्होंने सच्चा पश्चाताप किया था और जिन्होंने ऐसा नहीं किया था। यह भी गौर कीजिए कि उनकी सोच, उनके रवैए और चालचलन के बारे में क्या बताया गया है।
18 तीसरा तरीका है, पाप करनेवाले के बारे में सोचिए। सिर्फ यह मत देखिए कि उसने क्या किया है बल्कि यह सोचिए कि उसने वह पाप क्यों किया? वह कैसा इंसान है? उसका इरादा क्या था? वह किन मुश्किलों का सामना कर रहा है और उसकी सीमाएँ क्या हैं? मसीही मंडली के मुखिया यीशु के बारे में बाइबल में पहले से बताया गया था कि “वह मुँह देखा न्याय नहीं करेगा और न सुनी-सुनायी बातों के आधार पर डाँट लगाएगा। वह सच्चाई से गरीबों का न्याय करेगा, सीधाई से डाँट लगाएगा कि पृथ्वी के दीन लोगों का भला हो।” (यशा. 11:3, 4) प्राचीनो, यीशु ने आपको मंडली की देखभाल करने के लिए ठहराया है और वह न्याय करने और दया से पेश आने में आपकी मदद करेगा। (मत्ती 18:18-20) हम कितने एहसानमंद हैं कि प्राचीन सच्चे दिल से हमारी परवाह करते हैं! उनसे हम सीखते हैं कि हमें भी एक-दूसरे के साथ न्याय और दया से पेश आना चाहिए।
19. शरण नगर के इंतज़ाम से मिलनेवाली कौन-सी सीख पर आप चलना चाहेंगे?
19 मूसा का कानून “ज्ञान और सच्चाई के बुनियादी ढाँचे की समझ” देता था। इससे हम यहोवा और उसके सिद्धांतों के बारे में सीखते हैं। (रोमि. 2:20) कानून में बताए शरण नगर के इंतज़ाम से प्राचीन सीखते हैं कि उन्हें कैसे “सच्चाई से न्याय” करना चाहिए और हम सीखते हैं कि हमें कैसे ‘एक-दूसरे पर दया करनी चाहिए और अटल प्यार रखना चाहिए।’ (जक. 7:9) हालाँकि हम मूसा के कानून के अधीन नहीं हैं लेकिन यहोवा बदला नहीं है। न्याय और दया का गुण आज भी उसके लिए बहुत अहमियत रखते हैं। हमारे लिए ऐसे परमेश्वर की सेवा करना कितना बड़ा सम्मान है! आइए हम यहोवा की मिसाल पर चलें और इन बढ़िया गुणों को अपने अंदर बढ़ाएँ। फिर हमें यहोवा की तरफ से हिफाज़त मिलेगी।
^ पैरा. 16 15 सितंबर, 2006 की अँग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग के पेज 30 पर दिया “पाठकों के प्रश्न” देखिए।