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यहोवा के करीबी दोस्तों की मिसाल पर चलिए

यहोवा के करीबी दोस्तों की मिसाल पर चलिए

“यहोवा के भेद को वही जानते हैं [“से गहरी दोस्ती वही कर सकते हैं,” एन.डब्ल्यू.] जो उस से डरते हैं।”—भज. 25:14.

गीत: 27, 21

1-3. (क) हम क्यों यकीन रख सकते हैं कि हम परमेश्वर के दोस्त बन सकते हैं? (ख) इस लेख में हम किन लोगों के बारे में गौर करेंगे?

बाइबल में अब्राहम को तीन बार परमेश्वर का दोस्त कहा गया है। (2 इति. 20:7; यशा. 41:8; याकू. 2:23) दरअसल सिर्फ उसी को बाइबल सीधे-सीधे परमेश्वर का दोस्त कहती है। तो क्या इसका मतलब इंसानों में सिर्फ वही एक ऐसा था जो यहोवा का दोस्त बन पाया? नहीं। बाइबल बताती है कि यह सम्मान हम सबको मिल सकता है।

2 परमेश्वर के वचन में ऐसे बहुत-से वफादार स्त्री-पुरुषों के बारे में बताया गया है जो यहोवा का भय मानते थे, उस पर विश्वास करते थे और उसके करीबी दोस्त थे। (भजन 25:14 पढ़िए।) वे ‘गवाहों के घने बादल’ का हिस्सा थे, जिसका प्रेषित पौलुस ने ज़िक्र किया था। अलग-अलग समय में जीए और अलग-अलग संस्कृति के ये सभी लोग परमेश्वर के दोस्त थे।—इब्रा. 12:1.

3 आइए अब हम बाइबल में बताए परमेश्वर के तीन दोस्तों के बारे में नज़दीकी से गौर करें: (1) रूत, मोआब देश की एक वफादार विधवा, (2) हिजकियाह, यहूदा का वफादार राजा और (3) मरियम, एक नम्र स्त्री, यीशु की माँ। ये जिस तरह परमेश्वर के दोस्त बने, उससे हम क्या सीख सकते हैं?

उसने अटल प्यार दिखाया

4, 5. (क) रूत को कौन-सा मुश्किल फैसला लेना था? (ख) वह फैसला लेना इतना मुश्किल क्यों था? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)

4 सोचिए कि नाओमी अपनी बहुओं, रूत और ओर्पा के साथ मोआब से इसराएल जा रही है। यह काफी लंबा सफर है। रास्ते में ओर्पा फैसला करती है कि वह अपने घर मोआब वापस चली जाएगी। लेकिन नाओमी ने ठान लिया है कि वह इसराएल वापस जाएगी जहाँ की वह रहनेवाली है। मगर रूत क्या करेगी? उसे अपनी ज़िंदगी का सबसे अहम फैसला लेना है। क्या वह अपने घर मोआब वापस जाएगी और अपने परिवार के साथ रहेगी या अपनी सास नाओमी के साथ बेतलेहेम का सफर तय करेगी?—रूत 1:1-8, 14.

5 रूत सोच सकती है कि मोआब में उसका परिवार है, वहाँ उसकी माँ है, उसके रिश्तेदार हैं। वह उनके पास लौट सकती है और वे उसकी देखभाल करेंगे। वह वहाँ के लोगों, वहाँ की भाषा और वहाँ के रहन-सहन से वाकिफ है। नाओमी उसे बेतलेहेम में यह सब देने का वादा नहीं कर सकती। उसे डर था कि वह रूत का न तो घर बसा पाएगी, न ही उसके लिए सिर छिपाने की जगह का इंतज़ाम कर पाएगी। इसलिए वह रूत को वापस मोआब जाने के लिए कहती है। जैसा कि हमने देखा, ओर्पा “अपने लोगों और अपने देवता के पास लौट” जाती है। (रूत 1:9-15) लेकिन रूत फैसला करती है कि वह अपने लोगों और उनके झूठे देवताओं के पास नहीं जाएगी।

6. (क) रूत ने क्या बुद्धि-भरा फैसला लिया? (ख) बोअज़ ने रूत के बारे में यह क्यों कहा कि उसने यहोवा के पंखों तले शरण ली है?

6 ऐसा लगता है कि रूत ने अपने पति से या नाओमी से यहोवा के बारे में सीखा था। उसने सीखा कि यहोवा, मोआब के देवताओं जैसा नहीं है। रूत यहोवा से प्यार करती थी और जानती थी कि यहोवा इस बात का हकदार है कि वह यहोवा से प्यार करे और उसकी उपासना करे। लेकिन यह ज्ञान होना ही काफी नहीं था। उसे फैसला लेना था कि क्या वह यहोवा को अपना परमेश्वर मानेगी। रूत ने बुद्धि-भरा फैसला लिया। उसने नाओमी से कहा, “तेरे लोग मेरे लोग होंगे, और तेरा परमेश्वर मेरा परमेश्वर होगा।” (रूत 1:16) रूत को नाओमी से जो प्यार था, उस बारे में जब हम सोचते हैं तो यह हमारे दिल को छू जाता है। लेकिन यहोवा के लिए उसका प्यार इससे भी ज़्यादा गौरतलब है। यह बात बोअज़ को भी अच्छी लगी, जिसने बाद में यह कहकर रूत की तारीफ की कि उसने ‘यहोवा के पंखों तले शरण ली’ है। (रूत 2:12 पढ़िए।) बोअज़ ने यहाँ जो शब्द इस्तेमाल किए, उनसे हमें शायद याद आए कि कैसे एक चिड़िया का बच्चा हिफाज़त के लिए अपने पिता के पंखों तले जाता है। (भज. 36:7; 91:1-4) उसी तरह यहोवा ने रूत की प्यार से हिफाज़त की और उसके विश्वास के लिए उसे इनाम दिया। रूत ने जो फैसला लिया था उस पर उसे कभी पछतावा नहीं हुआ।

7. जो लोग यहोवा की सेवा करने से हिचकिचाते हैं, क्या बात उनकी मदद कर सकती है?

7 बहुत-से लोग ऐसे हैं जो यहोवा के बारे में सीखते तो हैं, लेकिन उसकी शरण में आने का फैसला नहीं लेते। वे यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित करने और बपतिस्मा लेने से हिचकिचाते हैं। अगर आपको भी ऐसा लगता है तो ज़रा सोचिए, आप ऐसा करने से क्यों हिचकिचाते हैं। आज हर कोई किसी-न-किसी ईश्वर को मानता है। (यहो. 24:15) तो क्यों न अक्लमंदी दिखाते हुए आप सच्चे परमेश्वर की उपासना करें? जब आप यहोवा को अपनी ज़िंदगी समर्पित करते हैं, तो आप उस पर विश्वास दिखा रहे होते हैं कि वह आपको पनाह देगा। यकीन मानिए, उस समर्पण के मुताबिक ज़िंदगी जीने में यहोवा आपकी मदद करेगा, फिर चाहे आप पर कैसी भी मुश्किलें आएँ। ऐसा ही उसने रूत के साथ किया था।

“वह यहोवा से लिपटा रहा”

8. समझाइए कि हिजकियाह कैसे माहौल में पला-बढ़ा था।

8 हिजकियाह, रूत के जैसे माहौल में नहीं पला-बढ़ा था। वह एक ऐसे राष्ट्र में पैदा हुआ था जो पहले से परमेश्वर को समर्पित था। लेकिन सभी इसराएली वफादार नहीं रहे। हिजकियाह का पिता राजा आहाज बड़ा दुष्ट था। उसने परमेश्वर के मंदिर का अनादर किया था। उसने लोगों से दूसरे देवताओं की उपासना करवायी। आहाज ने अपने कुछ बेटों यानी हिजकियाह के भाइयों को झूठे देवता को बलि चढ़ाने के लिए आग में ज़िंदा ही जला दिया था। कितना बुरा बचपन रहा उसका!—2 राजा 16:2-4, 10-17; 2 इति. 28:1-3.

9, 10. (क) हिजकियाह क्यों कड़वाहट से भर सकता था? (ख) हमें परमेश्वर के खिलाफ क्यों कड़वाहट से नहीं भरना चाहिए? (ग) हमें यह क्यों नहीं सोचना चाहिए कि हमारी परवरिश जिस माहौल में हुई है उससे तय होता है कि हम कैसे इंसान बनेंगे?

9 आहाज जिस बुरी राह पर चल रहा था, उसकी वजह से हिजकियाह, यहोवा के खिलाफ कड़वाहट से भर सकता था या उससे चिढ़ने लग सकता था। आज कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने हिजकियाह के जितनी तो नहीं, पर थोड़ी-बहुत मुश्किलों का सामना किया है, फिर भी वे सोचते हैं कि उनके पास ‘यहोवा से चिढ़ने’ या उसके संगठन के खिलाफ कड़वाहट से भर जाने का वाजिब कारण है। (नीति. 19:3) कुछ लोगों को लगता है कि उनकी जिस माहौल में परवरिश हुई, शायद उसी वजह से वे मजबूरन बुरी राह पर चल पड़े हैं या वही गलतियाँ करते हैं जो उनके माँ-बाप ने की थीं। (यहे. 18:2, 3) लेकिन क्या ऐसा सोचना सही है?

10 हिजकियाह की ज़िंदगी से पता चलता है कि इस सवाल का जवाब है, नहीं! यहोवा से चिढ़ने का कभी कोई वाजिब कारण नहीं हो सकता। वह किसी के साथ बुरा नहीं करता। (अय्यू. 34:10) और हाँ, यह सच है कि माता-पिता से बच्चे या तो अच्छे काम करना सीख सकते हैं या बुरे। (नीति. 22:6; कुलु. 3:21) लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारी परवरिश जिस माहौल में हुई है उससे तय होगा कि हम अच्छे बनेंगे या बुरे। वह क्यों? क्योंकि यहोवा ने हमें आज़ाद मरज़ी दी है, यानी ऐसी काबिलीयत जिससे हम खुद चुन सकते हैं कि हम अच्छे काम करेंगे या बुरे। (व्यव. 30:19) हिजकियाह ने इस अनमोल तोहफे का कैसे इस्तेमाल किया?

बहुत-से जवान सच्चाई कबूल कर रहे हैं, चाहे उनकी परवरिश कैसे भी माहौल में हुई हो (पैराग्राफ 9, 10 देखिए)

11. किस वजह से हिजकियाह यहूदा का बहुत ही अच्छा राजा बना?

11 हिजकियाह का पिता आहाज यहूदा देश का बहुत ही बुरा राजा था, मगर हिजकियाह बहुत ही अच्छा राजा बना। (2 राजा 18:5, 6 पढ़िए।) उसने फैसला कर लिया था कि वह अपने पिता की बुरी मिसाल पर नहीं चलेगा। इसके बजाय उसने यहोवा के वफादार सेवकों पर गौर किया, जैसे यशायाह, मीका और होशे। इन भविष्यवक्ताओं ने यहोवा की तरफ से उसे जो सलाह या हिदायतें दीं, उन पर उसने पूरा ध्यान दिया। इसलिए उसने वे सारे बिगड़े काम सही करने की ठान ली, जो उसके पिता के किए-कराए थे। उसने मंदिर को शुद्ध करवाया, लोगों के पापों के लिए परमेश्वर से माफी माँगी और पूरे देश से मूर्तियों का नामो-निशान मिटा दिया। (2 इति. 29:1-11, 18-24; 31:1) जब अश्शूर का राजा सन्हेरीब यरूशलेम पर हमला करनेवाला था, तब हिजकियाह ने बड़ी हिम्मत से काम लिया और ज़बरदस्त विश्वास दिखाया। उसने बचाव के लिए यहोवा पर भरोसा रखा और अपने लोगों का हौसला मज़बूत किया। (2 इति. 32:7, 8) बाद में हिजकियाह घमंडी हो गया, लेकिन जब यहोवा ने उसको सुधारा तो उसने खुद को नम्र किया। (2 इति. 32:24-26) सचमुच हिजकियाह हमारे लिए क्या ही बढ़िया मिसाल है! वह जिस परिवार में पला-बढ़ा था, उसकी वजह से उसने अपनी ज़िंदगी बरबाद नहीं होने दी, बल्कि उसने दिखाया कि वह यहोवा का दोस्त है।

12. हिजकियाह की तरह, आज बहुत-से मसीहियों ने कैसे दिखाया है कि वे यहोवा के दोस्त हैं?

12 आज की दुनिया बड़ी बेरहम और प्यार से खाली है। इसलिए बहुत-से बच्चों की परवरिश प्यार-भरे माहौल में नहीं होती। (2 तीमु. 3:1-5) आज ऐसे बहुत-से मसीही हैं जिनकी परवरिश अच्छे माहौल में तो नहीं हुई, फिर भी उन्होंने यहोवा को अपना दोस्त बनाने का फैसला किया। हिजकियाह की तरह उन्होंने दिखाया कि वे जिस परिवार में पले-बढ़े हैं उससे यह तय नहीं होता कि वे आगे चलकर कैसे इंसान बनेंगे। परमेश्वर ने हमें आज़ाद मरज़ी दी है, इसलिए हिजकियाह की तरह हम खुद परमेश्वर की सेवा करने और उसकी महिमा करने का चुनाव कर सकते हैं।

“देख! मैं यहोवा की दासी हूँ!”

13, 14. (क) मरियम को जो ज़िम्मेदारी मिली वह उसे क्यों बहुत मुश्किल लगी होगी? (ख) फिर भी जिब्राईल की कही बात पर उसने कैसा रवैया दिखाया?

13 हिजकियाह के सदियों बाद, नासरत शहर में मरियम नाम की एक स्त्री रहती थी। वह बहुत नम्र थी और यहोवा के साथ उसकी खास दोस्ती थी। उसे यहोवा से ऐसी ज़िम्मेदारी मिली थी, जैसी आज तक किसी और इंसान को नहीं मिली। उसे अपने गर्भ में परमेश्वर के बेटे को पालना था, उसे जन्म देना था और उसकी परवरिश करनी थी। सोचिए यहोवा को एली की बेटी मरियम पर कितना भरोसा होगा कि उसने उसे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दी! लेकिन जब मरियम ने इस ज़िम्मेदारी के बारे में पहली बार सुना तो उसने कैसा रवैया दिखाया?

“देख! मैं यहोवा की दासी हूँ!” (पैराग्राफ 13, 14 देखिए)

14 हम अकसर बात करते हैं कि मरियम को कितना बड़ा सम्मान मिला था। लेकिन शायद हम उन चिंताओं पर ध्यान देने से चूक जाएँ, जिनसे वह उस वक्‍त घिरी हुई थी। उदाहरण के लिए, स्वर्गदूत जिब्राईल ने उससे कहा कि वह बिना किसी पुरुष से संबंध रखे, चमत्कार से गर्भवती होगी। लेकिन जिब्राईल ने यह सब उसके परिवारवालों और पड़ोसियों को नहीं समझाया था। तो फिर वे लोग क्या सोचेंगे? वह यूसुफ को कैसे यकीन दिलाएगी कि उसने उसके साथ बेवफाई नहीं की? यही नहीं, अब उसे परमेश्वर के इकलौते बेटे की परवरिश करनी थी! हम यह तो नहीं जानते कि मरियम की क्या-क्या चिंताएँ रही होंगी, लेकिन इतना ज़रूर जानते हैं कि जिब्राईल से हुई बातचीत के बाद उसने क्या किया। उसने कहा, “देख! मैं यहोवा की दासी हूँ! तू ने जैसा कहा है, वैसा ही मेरे साथ हो।”—लूका 1:26-38.

15. मरियम का विश्वास क्यों गौर करने लायक है?

15 सच में मरियम का विश्वास गौर करने लायक है। एक दासी की तरह, मरियम अपने मालिक यहोवा की हर बात मानने को तैयार थी। उसे भरोसा था कि यहोवा उसका खयाल रखेगा और उसकी हिफाज़त करेगा। मरियम इतना मज़बूत विश्वास कैसे रख पायी? विश्वास हममें पैदाइश से नहीं होता। यह हममें तब होगा जब हम इसके लिए मेहनत करेंगे और यहोवा से मदद माँगेंगे। (गला. 5:22; इफि. 2:8) मरियम ने अपना विश्वास मज़बूत करने के लिए मेहनत की थी। यह हम कैसे जानते हैं? आइए गौर करें कि वह कैसे बातें सुनती थी और वह किस बारे में बात करती थी।

16. कैसे पता चलता है कि मरियम बड़े ध्यान से सुनती थी?

16 मरियम कैसे सुनती थी। बाइबल कहती है कि हमें ‘सुनने में फुर्ती करनी चाहिए, बोलने में सब्र करना चाहिए।’ (याकू. 1:19) तो क्या मरियम बातों को ध्यान से सुनती थी? हाँ, बाइबल से पता चलता है कि वह जो भी सुनती थी बड़े ध्यान से सुनती थी, खासकर वे बातें जो यहोवा के बारे में होती थीं। फिर वह वक्‍त निकालकर उन ज़रूरी बातों के बारे में सोचती थी। इसका एक उदाहरण है यीशु के जन्म के वक्‍त का, जब चरवाहों ने मरियम को बताया कि एक स्वर्गदूत ने उन्हें क्या संदेश दिया है। बाद में, जब यीशु 12 साल का था तब उसने कुछ ऐसा कहा जिससे मरियम हैरान रह गयी। इन दोनों मौकों पर मरियम ने ध्यान से बातें सुनीं, उन्हें याद रखा और उनके बारे में गहराई से सोचा।—लूका 2:16-19, 49, 51 पढ़िए।

17. मरियम की बातचीत से हम उसके बारे में क्या सीख सकते हैं?

17 मरियम किस बारे में बात करती थी। मरियम ने क्या बातें कीं इस बारे में बाइबल ज़्यादा कुछ नहीं बताती। उसकी कही सबसे लंबी बात लूका 1:46-55 में दी गयी है। यहाँ दर्ज़ उसकी बातों से पता चलता है कि मरियम परमेश्वर के वचन से अच्छी तरह वाकिफ थी। वह कैसे? मरियम के कहे शब्द, शमूएल की माँ हन्ना की प्रार्थना में कहे शब्दों से मिलते-जुलते हैं। (1 शमू. 2:1-10) ऐसा मालूम पड़ता है कि मरियम ने करीब 20 बार परमेश्वर के वचन से बातें बतायीं। इससे साफ पता चलता है कि उसने अपने सबसे अच्छे दोस्त यहोवा से और उसके वचन से जो अनमोल सच्चाइयाँ सीखी थीं, उनके बारे में बात करना उसे अच्छा लगता था।

18. हम मरियम की तरह कैसे विश्वास दिखा सकते हैं?

18 मरियम की तरह, हमें भी शायद यहोवा की तरफ से कुछ ऐसी ज़िम्मेदारियाँ मिलें जिन्हें निभाना हमें बहुत मुश्किल लगे। अगर ऐसा है तो आइए हम उसकी मिसाल पर चलें यानी नम्र होकर ज़िम्मेदारी कबूल करें और यहोवा पर भरोसा रखें कि वह हमारी मदद ज़रूर करेगा। हम मरियम के जैसा विश्वास भी दिखा सकते हैं। कैसे? हम ध्यान से यहोवा की बातें सुन सकते हैं, उसके बारे में और उसके मकसदों के बारे में सीखी बातों पर गहराई से सोच सकते हैं और सीखी हुई बातें खुशी-खुशी दूसरों को बता सकते हैं।—भज. 77:11, 12; लूका 8:18; रोमि. 10:15.

19. जब हम बाइबल में दर्ज़ विश्वास की उम्दा मिसालों पर चलेंगे, तो हम किस बात का यकीन रख सकते हैं?

19 इसमें कोई शक नहीं कि अब्राहम की तरह रूत, हिजकियाह और मरियम भी यहोवा के दोस्त थे। इनके अलावा, जो ‘गवाहों के घने बादल’ का हिस्सा थे, उन्हें और दूसरे बहुत-से वफादार सेवकों को परमेश्वर के दोस्त होने का अनोखा सम्मान मिला था। उन्होंने विश्वास की जो उम्दा मिसाल कायम की आइए हम उस पर लगातार चलते रहें। (इब्रा. 6:11, 12) अगर हम ऐसा करें तो हम यकीन रख सकते हैं कि हमें हमेशा-हमेशा के लिए यहोवा के दोस्त बनने का सम्मान मिलेगा!