इस जानकारी को छोड़ दें

विषय-सूची को छोड़ दें

जीवन कहानी

“मैं कभी अकेला नहीं था”

“मैं कभी अकेला नहीं था”

ज़िंदगी में कई बार ऐसा होता है जब हम अकेला महसूस करते हैं, जैसे जब हमारे अज़ीज़ हमसे बिछड़ जाते हैं, जब हम किसी अनजान जगह पर होते हैं या जब हमारे साथ कोई नहीं होता। मेरे साथ यह सब हुआ है। लेकिन आज जब मैं अपनी ज़िंदगी के उन पलों के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे एहसास होता है कि मैं कभी अकेला नहीं था। आइए मैं आपको बताता हूँ कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ।

मम्मी-पापा की अच्छी मिसाल

मम्मी-पापा कैथोलिक थे और परमेश्‍वर को बहुत मानते थे। लेकिन जब उन्होंने बाइबल से जाना कि परमेश्‍वर का नाम यहोवा है, तो वे यहोवा के साक्षी बन गए और जोश से उसकी सेवा करने लगे। पापा बढ़ई थे और यीशु की मूर्तियाँ और दूसरी चीज़ें बनाया करते थे। लेकिन सच्चाई सीखने के बाद उन्होंने मूर्तियाँ बनाना छोड़ दिया। फिर उन्होंने हमारे घर के नीचेवाले हिस्से को राज-घर में बदल दिया। वह सैन जुआन डेल मोंटे का पहला राज-घर था। यह शहर फिलीपींस की राजधानी मनीला के पास है।

मम्मी-पापा और परिवार के लोगों के साथ

मेरा जन्म 1952 में हुआ था। मेरे चार बड़े भाई और तीन बड़ी बहनें थीं। बचपन से ही मम्मी-पापा ने हम भाई-बहनों को यहोवा के बारे में सिखाया। जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ, तो पापा ने मुझसे कहा कि मैं रोज़ बाइबल का एक अध्याय पढ़ूँ। उन्होंने अलग-अलग प्रकाशनों से मुझे यहोवा के बारे में बहुत कुछ सिखाया। कभी-कभी मम्मी-पापा सफरी निगरानों और शाखा दफ्तर से आए भाइयों को घर पर रुकाते थे। उनके अनुभव सुनकर हमें बहुत खुशी होती थी और हमारा बहुत हौसला बढ़ता था। इससे हम सबको बढ़ावा मिला कि हम यहोवा की सेवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दें।

मम्मी-पापा ने यहोवा की वफादारी से सेवा की और वे मेरे लिए एक बढ़िया मिसाल थे। फिर एक बीमारी की वजह से मम्मी की मौत हो गयी। उसके बाद 1971 में, मैंने और पापा ने साथ में पायनियर सेवा शुरू कर दी। लेकिन 1973 में पापा की भी मौत हो गयी। उस वक्‍त मैं सिर्फ 20 साल का था। मम्मी-पापा को खोने के बाद, मैं बहुत दुखी और अकेला महसूस कर रहा था। लेकिन बाइबल से हमें जो “पक्की और मज़बूत” आशा मिलती है, उसकी वजह से मैं खुद को सँभाल पाया। मैं अच्छी बातों पर ध्यान लगा पाया और यहोवा के करीब बना रहा। (इब्रा. 6:19) पापा की मौत के कुछ ही समय बाद मुझे खास पायनियर सेवा करने का न्यौता मिला। मुझे पालावान प्रांत के कोरोन द्वीप जाना था।

मुश्‍किलें भी और अकेलापन भी

जब मैं कोरोन पहुँचा, तब मैं 21 साल का था। मैं शहर में पला-बढ़ा था और पहली बार कोई ऐसी जगह देख रहा था जहाँ बिजली-पानी की इतनी अच्छी व्यवस्था नहीं थी और गाड़ियाँ वगैरह भी बहुत कम थीं। वहाँ कुछ भाई-बहन तो थे, लेकिन मेरे साथ प्रचार करने के लिए कोई पायनियर भाई नहीं था, इसलिए मैं अकसर अकेले ही प्रचार करता था। पहला महीना काटना बहुत मुश्‍किल था। मुझे अपने घरवालों की और दोस्तों की बहुत याद आती थी। मैं रात को अकेला बैठकर तारों से भरे आसमान को देखता था और मुझे बहुत रोना आता था, मन करता था कि सब छोड़-छाड़कर घर चला जाऊँ।

जब मैं अकेला महसूस करता, तो यहोवा के सामने अपना दिल खोलकर रख देता। मैं उन हौसला बढ़ानेवाली बातों को याद करता जो मैंने बाइबल और प्रकाशनों में पढ़ी थीं। मैं अकसर भजन 19:14 के बारे में सोचा करता था। इससे मैं समझ पाया कि अगर मैं उन बातों के बारे में सोचूँ जिनसे यहोवा का दिल खुश होगा, जैसे उसके कामों और गुणों के बारे में, तो यहोवा ‘मेरी चट्टान और मेरा छुड़ानेवाला’ बन जाएगा। मुझे प्रहरीदुर्ग के एक लेख से भी बहुत मदद मिली। उसका विषय था, “आप कभी अकेले नहीं होते।” a मैंने उसे बार-बार पढ़ा। तब मुझे ऐसा लगता था कि यहोवा मेरे साथ है, मैं अकेला नहीं हूँ। वह लम्हें मेरे लिए बहुत खास थे। उस दौरान मैंने खूब प्रार्थना की और अध्ययन और मनन किया।

कोरोन पहुँचने के कुछ ही समय बाद मुझे एक प्राचीन नियुक्‍त किया गया। वहाँ मैं ही अकेला प्राचीन था, इसलिए मैं हर हफ्ते परमेश्‍वर की सेवा स्कूल, सेवा सभा, कलीसिया पुस्तक अध्ययन और प्रहरीदुर्ग अध्ययन चलाया करता था। मैं हर हफ्ते जन भाषण भी दिया करता था। अब मेरे पास अकेला महसूस करने की फुरसत ही नहीं थी!

कोरोन में प्रचार काम बहुत बढ़िया रहा। मैंने बहुत-से बाइबल अध्ययन शुरू किए, जिनमें से कुछ ने आगे चलकर बपतिस्मा लिया। लेकिन कुछ मुश्‍किलें भी आयीं। कई बार तो मैं सुबह निकलता था और प्रचार के इलाके तक चलकर जाने में दोपहर हो जाती थी। मुझे यह भी नहीं पता होता था कि वहाँ पहुँचकर मैं कहाँ रात गुज़ारूँगा। हमारी मंडली के प्रचार के इलाके में कुछ छोटे-छोटे द्वीप भी थे। उन द्वीपों पर मैं मोटर बोट से जाया करता था। कई बार मैं समुद्री तूफानों से गुज़रा, ऊपर से मुझे तैरना भी नहीं आता था! लेकिन इन सब मुश्‍किलों में यहोवा ने मेरी हिफाज़त की और मुझे सँभाले रखा। आगे चलकर मुझे एहसास हुआ कि असल में यहोवा मुझे तैयार कर रहा था कि मैं और भी मुश्‍किल हालात में उसकी सेवा कर पाऊँ।

पापुआ न्यू गिनी

1978 में मुझे सेवा करने के लिए पापुआ न्यू गिनी भेजा गया जो ऑस्ट्रेलिया के उत्तर में है। पापुआ न्यू गिनी में बहुत सारे पहाड़ हैं। वहाँ की आबादी करीब 30 लाख थी। और मुझे यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि वहाँ 800 से ज़्यादा भाषाएँ बोली जाती हैं। लेकिन शुक्र है कि ज़्यादातर लोग मेलानेशियन पिजिन भाषा बोलते थे, जिसे टॉक पिसिन भी कहा जाता है।

कुछ समय के लिए मुझे पापुआ न्यू गिनी की राजधानी, पोर्ट मोर्सबी में अँग्रेज़ी बोलनेवाली एक मंडली में भेजा गया। लेकिन कुछ समय बाद मैं टॉक पिसिन भाषा बोलनेवाली मंडली में जाने लगा। और यह भाषा सीखने के लिए मैंने एक कोर्स भी किया। मैं जो भी सीखता था, उसे प्रचार काम में इस्तेमाल करता था। इस तरह मैं यह भाषा जल्दी सीख पाया। थोड़े ही समय बाद मैंने टॉक पिसिन भाषा में अपना पहला जन भाषण दिया। फिर मुझे एक ऐसी खबर मिली जिसे सुनकर मैं दंग रह गया। मुझे पापुआ न्यू गिनी आए एक साल भी नहीं हुआ था कि मुझे टॉक पिसिन बोलनेवाली कुछ मंडलियों के लिए सर्किट निगरान नियुक्‍त किया गया। ये मंडलियाँ एक-दूसरे से बहुत दूर थीं और कई अलग-अलग प्रांतों में फैली थीं।

मंडलियाँ दूर-दूर होने की वजह से मुझे कई सारे सर्किट सम्मेलनों का इंतज़ाम करना होता था और काफी सफर करना पड़ता था। शुरू-शुरू में मेरे लिए सबकुछ नया था, देश, भाषा, लोगों के तौर-तरीके और उनका रहन-सहन भी। इसलिए मैं बहुत अकेला महसूस करता था। मेरे लिए एक मंडली से दूसरी मंडली जाना बहुत मुश्‍किल था, क्योंकि वह एक पहाड़ी इलाका था और ढंग की सड़कें भी नहीं थीं। इसलिए मैं लगभग हर हफ्ते हवाई जहाज़ से सफर किया करता था। कभी-कभी तो उस छोटे-से खस्ताहाल हवाई जहाज़ में मैं अकेला ही होता था। उसमें सफर करना उतना ही डरावना था, जितना फिलीपींस में नाव से सफर करना!

उस ज़माने में बहुत कम लोगों के पास टेलीफोन हुआ करते थे, इसलिए मैं मंडलियों को खत लिखता था। अकसर ऐसा होता था कि मेरी चिट्ठियाँ पहुँचने से पहले, मैं वहाँ पहुँच जाता था और भाई-बहनों का घर ढूँढ़ने के लिए मुझे लोगों से पूछना पड़ता था। लेकिन हर बार जब भाई मुझे मिल जाते थे, तो वे बहुत प्यार से मेरा स्वागत करते थे। मुझे खुशी होती थी कि मेरी मेहनत बेकार नहीं गयी! मैंने देखा कि यहोवा अलग-अलग तरीकों से मेरी मदद कर रहा है और उसके साथ मेरा रिश्‍ता और मज़बूत होता गया।

जब मैं पहली बार बोगनविल द्वीप पर सभा के लिए गया, तो एक पति-पत्नी मुस्कुराते हुए मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे पूछा, “आपने पहचाना हमें?” तब मुझे याद आया कि जब मैं पापुआ न्यू गिनी आया था, तो पोर्ट मोर्सबी में मैंने उन्हें गवाही दी थी और उनके साथ बाइबल अध्ययन भी शुरू किया था। लेकिन वहाँ से जाने से पहले मैंने एक भाई को उनके साथ अध्ययन करने के लिए कहा था। अब उन दोनों का बपतिस्मा हो चुका था! यह सच में एक बड़ी आशीष थी। मैंने तीन साल पापुआ न्यू गिनी में सेवा की और उस दौरान यहोवा ने मुझे और भी बहुत-सी आशीषें दीं।

हमारे छोटे-से परिवार ने की जोश से सेवा

मैं और अडेल

1978 में कोरोन छोड़ने से पहले, मेरी मुलाकात एक बहन से हुई थी। उसका नाम था अडेल। वह बहुत प्यारी थी और खुद से ज़्यादा दूसरों की फिक्र करती थी। वह पायनियर सेवा कर रही थी और उसके दो बच्चे थे, सैमुएल और शर्ली। वह अपनी बुज़ुर्ग माँ की भी देखभाल करती थी। मैं अडेल से शादी करने के लिए मई 1981 में फिलीपींस लौट आया। शादी के बाद हम दोनों साथ मिलकर पायनियर सेवा करने लगे और अपने परिवार की देखभाल करने लगे।

अडेल, सैमुएल और शर्ली के साथ पालावान में सेवा करते हुए

अब मेरा एक परिवार था, फिर भी 1983 में मुझे दोबारा खास पायनियर नियुक्‍त किया गया और पालावान प्रांत के लिनापाकन द्वीप भेजा गया। हमारा पूरा परिवार इस दूर-दराज़ द्वीप पर जाकर बस गया, जहाँ कोई साक्षी नहीं था। हमारे वहाँ जाने के करीब एक साल बाद अडेल की माँ गुज़र गयीं। लेकिन प्रचार काम में लगे रहने की वजह से हम इस दुख की घड़ी में खुद को सँभाल पाए। लिनापाकन में हम कई लोगों के साथ बाइबल अध्ययन करने लगे और वे सभाओं के लिए भी आना चाहते थे। इसलिए थोड़े ही समय बाद हमें एक छोटे राज-घर की ज़रूरत पड़ी। और हमने खुद ही एक राज-घर बना लिया। वहाँ सेवा शुरू करने के बस तीन साल बाद ही स्मारक में 110 लोग आए। यह देखकर हमें बहुत खुशी हुई। हमारे वहाँ से जाने के बाद उनमें से कई लोगों ने बपतिस्मा लिया।

1986 में हमें क्यूलियन द्वीप भेजा गया जहाँ एक इलाके में कोढ़ी लोग रहते थे। वहाँ पहुँचने के कुछ सालों बाद अडेल को भी खास पायनियर नियुक्‍त कर दिया गया। शुरू-शुरू में हम कोढ़ी लोगों को प्रचार करने से थोड़ा घबरा रहे थे। लेकिन फिर वहाँ के भाई-बहनों ने हमें यकीन दिलाया कि हमें इतना डरने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उनका इलाज हो चुका है। उनमें से कुछ लोग एक बहन के घर सभाओं के लिए भी जाया करते थे। फिर हम उन लोगों के साथ घुलने-मिलने लगे और उन्हें प्रचार करने लगे। उन लोगों को ऐसा लगता था कि किसी को उनकी परवाह नहीं है, ना ईश्‍वर को, ना इंसानों को। लेकिन जब हम उन्हें बाइबल से बताते थे कि एक ऐसा वक्‍त आएगा जब वे पूरी तरह ठीक हो जाएँगे, तो उनके चेहरे खुशी से खिल उठते थे। उनकी खुशी देखकर हमें भी बहुत खुशी होती थी।—लूका 5:12, 13.

और जानते हैं वहाँ बच्चों का अनुभव कैसा रहा? मैंने और अडेल ने कोरोन से दो जवान बहनों को वहाँ बुला लिया था ताकि वे सैमुएल और शर्ली के साथ अच्छा समय बिता सकें। उन चारों को साथ मिलकर प्रचार करने में बहुत मज़ा आता था। वे उन बच्चों का अध्ययन कराते थे, जिनके माता-पिता के साथ मैं और अडेल अध्ययन करते थे। एक वक्‍त तो ऐसा भी आया जब हम 11 परिवारों के साथ बाइबल अध्ययन कर रहे थे। देखते-ही-देखते इतने लोग अध्ययन करने लगे कि अब एक नयी मंडली बन सकती थी।

क्यूलियन में आठ प्रचारक थे और उसके पास ही मैरिली गाँव में नौ प्रचारक थे। उस पूरे इलाके में मैं अकेला प्राचीन था, इसलिए शाखा दफ्तर ने मुझसे कहा कि मैं इन दोनों जगहों पर सभाएँ चलाऊँ। क्यूलियन से मैरिली जाने के लिए हमें तीन घंटे नाव से सफर करना होता था। वहाँ सभाएँ चलाने के बाद हमारा परिवार कई घंटे पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलकर हैलसी गाँव जाता था। हम वहाँ कई बाइबल अध्ययन चलाते थे।

आगे चलकर मैरिली और हैलसी में इतने लोग सच्चाई में आए कि हमने दोनों जगहों पर राज-घर बनाए। जैसे लिनापाकन में हुआ था, वैसे ही यहाँ के भाइयों ने और दिलचस्पी रखनेवालों ने राज-घरों को बनाने में हाथ बँटाया और निर्माण काम के लिए सामान भी दिया। मैरिली के राज-घर में 200 लोग बैठ सकते थे और उसे और बड़ा भी किया जा सकता था। इस वजह से हम वहाँ सम्मेलन भी रख पाए।

दुख और अकेलेपन ने सताया, पर फिर से खुशी लौट आयी

जब बच्चे बड़े हो गए, तो 1993 में मैं और अडेल फिलीपींस में सर्किट काम करने लगे। फिर सन्‌ 2000 में मैं ‘मंडली सेवक प्रशिक्षण स्कूल’ में गया जहाँ मुझे उस स्कूल में सिखाने की ट्रेनिंग दी गयी। मुझे लग रहा था कि मैं यह ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाऊँगा, लेकिन अडेल ने मेरी हिम्मत बँधायी। उसने कहा कि इस नयी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए यहोवा मुझे ताकत देगा। (फिलि. 4:13) अडेल ने खुद इस बात का अनुभव किया था। कुछ समय से उसकी तबियत ठीक नहीं थी, लेकिन यहोवा की ताकत से ही वह उसकी सेवा कर पा रही थी।

2006 में हमें एक ऐसी खबर मिली जिसे सुनकर हमें बहुत बड़ा धक्का लगा। डॉक्टरों ने हमें बताया कि अडेल को पार्किन्सन बीमारी है। उस वक्‍त मैं संगठन के स्कूल में सिखाया करता था। मैंने अडेल से कहा कि मैं यह ज़िम्मेदारी छोड़ देता हूँ ताकि और अच्छी तरह उसकी देखभाल कर सकूँ। लेकिन अडेल ने कहा, “आप बस एक अच्छा डॉक्टर ढूँढ़ दीजिए जो मेरा इलाज कर सके। और यहोवा है ना! वह हमारी मदद करेगा ताकि हम उसकी सेवा में लगे रहें।” अगले छ: सालों तक अडेल बिना कोई शिकायत किए यहोवा की सेवा में लगी रही। जब उसके लिए चलना मुश्‍किल हो गया, तो वह व्हीलचेयर पर बैठकर प्रचार करती थी। और जब उसके लिए बोलना मुश्‍किल हो गया, तो वह सभाओं में एक या दो शब्दों में जवाब देती थी। अडेल ने सबकुछ हिम्मत से सहा। भाई-बहन अकसर उसे कार्ड और मैसेज भेजकर बताते थे कि वह उनके लिए एक बढ़िया मिसाल है। फिर 2013 में अडेल की मौत हो गयी। मैंने अपनी प्यारी पत्नी के साथ 30 साल बिताए थे। उसने हमेशा मेरा साथ दिया था। अब मुझे उसकी बहुत याद आती थी। मैं एक बार फिर अकेला पड़ गया था।

अडेल चाहती थी कि मैं अपनी सेवा जारी रखूँ और मैंने ऐसा ही किया। मैं जी-जान से यहोवा की सेवा करता रहा। इस वजह से मैं अकेलेपन से लड़ पाया। 2014 से 2017 के दौरान मुझे टागालोग बोलनेवाली कुछ मंडलियों का दौरा करने के लिए भेजा गया जो ऐसे देशों में थीं जहाँ हमारे काम पर रोक लगी थी। उसके बाद मैंने ताइवान, अमरीका और कनाडा में टागालोग बोलनेवाली मंडलियों का दौरा किया। 2019 में मैंने भारत और थाईलैंड में अँग्रेज़ी भाषा में राज प्रचारकों के लिए स्कूल की क्लास चलायी। इन सभी ज़िम्मेदारियों को निभाकर मुझे बहुत खुशी मिली है। मैंने देखा है कि जब मैं पूरी लगन से यहोवा की सेवा कर रहा होता हूँ, तो मुझे सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है।

मदद दूर नहीं

जब भी मुझे सेवा करने के लिए किसी नयी जगह भेजा जाता है, तो वहाँ के भाई-बहनों से मेरी अच्छी दोस्ती हो जाती है, इसलिए उन्हें छोड़कर जाना आसान नहीं होता। लेकिन मैंने सीखा है कि ऐसे वक्‍त में मुझे यहोवा पर भरोसा रखना चाहिए। जब भी मेरी ज़िंदगी में कोई बदलाव हुआ, तो यहोवा ने उसे अपनाने में मेरी मदद की और हर बार मेरा साथ दिया। आज मैं फिलीपींस में खास पायनियर सेवा कर रहा हूँ। मैं अपनी नयी मंडली में अच्छे-से ढल गया हूँ और यहाँ के भाई-बहन मेरा परिवार बन गए हैं। वे मेरा बहुत खयाल रखते हैं। सैमुएल और शर्ली भी अपनी माँ की तरह वफादारी से यहोवा की सेवा में लगे हुए हैं। मुझे उन पर बहुत नाज़ है!—3 यूह. 4.

मंडली के भाई-बहन मेरा परिवार बन गए हैं

मेरी ज़िंदगी में कई मुश्‍किलें आयी हैं। मैंने अपनी प्यारी पत्नी को एक दर्दनाक बीमारी से जूझते और दम तोड़ते देखा। मुझे कई बार नए हालात में खुद को ढालना पड़ा। लेकिन मैंने हमेशा यह महसूस किया कि यहोवा “हममें से किसी से भी दूर नहीं है।” (प्रेषि. 17:27) उसका हाथ “इतना छोटा नहीं” कि वह अपने सेवकों को सँभाल ना सके, उनमें दम ना भर सके, फिर चाहे वे किसी दूर-दराज़ इलाके में क्यों ना हों। (यशा. 59:1) मेरी पूरी ज़िंदगी यहोवा ने मेरा साथ दिया है, वह मेरी चट्टान है और मैं उसका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ। सच में, मैं कभी अकेला नहीं था!

a 1 सितंबर, 1972 की अँग्रेज़ी प्रहरीदुर्ग के पेज 521-527 पर दिया लेख पढ़ें।