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जीवन कहानी

“मैंने दूसरों से बहुत कुछ सीखा है”

“मैंने दूसरों से बहुत कुछ सीखा है”

मैं सिर्फ 19-20 साल का था, जब मैं फ्रांस की सेना में सेवा कर रहा था। हमें लड़ाई के लिए अफ्रीका के अल्जीरिया के पहाड़ों में भेजा गया था। फ्रांस और अल्जीरिया के बीच घमासान युद्ध चल रहा था। एक रात वहाँ घुप अँधेरा था। रेत की बोरियों से बनी चौकी में मैं अकेला खड़ा था। मेरे हाथ में मशीन-गन थी। अचानक झाड़ियों के पीछे से किसी की आहट सुनायी दी। मैं बहुत डर गया! मैं मरना नहीं चाहता था और न ही किसी को मारना चाहता था। डर के मारे मैं ज़ोर से चिल्लाया, “हे ईश्‍वर! मेरी मदद कर!”

उस रात जो हुआ, उसने मुझे पूरी तरह हिलाकर रख दिया। तब से मैं परमेश्‍वर के बारे में और जानने की कोशिश करने लगा। लेकिन यह बताने से पहले कि उस रात आगे क्या हुआ, मैं आपको अपने बचपन के बारे में बताना चाहूँगा और यह भी कि मेरे अंदर परमेश्‍वर को जानने की इच्छा कैसे जगी।

मैंने पिताजी से बहुत कुछ सीखा

मेरा जन्म 1937 में उत्तरी फ्रांस में गैनन नाम के एक छोटे-से शहर में हुआ था। वहाँ के लोग कोयले की खदानों में काम करते थे। पिताजी भी खदान में काम करते थे। उन्होंने मुझे मेहनती बनना सिखाया और नाइंसाफी से लड़ना सिखाया। उन्होंने देखा कि खदान में काम करनेवाले मज़दूरों के साथ कितनी नाइंसाफी हो रही थी, वे कितने बुरे हालात में काम कर रहे थे। इसलिए वे उनके हक के लिए लड़ते थे और धरने भी देते थे। वे पादरियों के भी खिलाफ थे। ये पादरी ऐशो-आराम की ज़िंदगी जी रहे थे, फिर भी उन गरीब मज़दूरों से खाना और पैसा माँगते थे। पिताजी को इन पादरियों से इतनी घिन हो गयी थी कि उन्होंने घर पर कभी-भी ईश्‍वर की बात नहीं की।

मुझे दूसरे देश से आए बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था। मैं अकसर उनके साथ फुटबौल खेला करता था। लेकिन मैं देखता था कि फ्रांस के बहुत-से लोग दूसरे देश से आए लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे, उन्हें नीची नज़रों से देखते थे। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था और मैं इस नाइंसाफी के खिलाफ लड़ना चाहता था। मेरी माँ भी फ्रांस से नहीं थीं। वे पोलैंड से थीं। मैं सोचता था कि काश! एक ऐसा समय आए, जब सब देश के लोगों के बीच शांति हो, उनमें भेदभाव न हो।

मैं ज़िंदगी के बारे में गहराई से सोचने लगा

जब मैं सेना में था

सन्‌ 1957 में मुझे सेना में भरती होना पड़ा। इस तरह मैं अल्जीरिया के पहाड़ों में पहुँचा और मेरे साथ वह घटना हुई जिसका मैंने पहले ज़िक्र किया था। उस रात मुझे लगा कि कोई दुश्‍मन आ रहा है, इसलिए मैंने ज़ोर से ईश्‍वर को पुकारा। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि वह कोई दुश्‍मन नहीं, बल्कि एक जंगली गधा था। उसे देखकर मैंने राहत की साँस ली। उस युद्ध के बाद और खासकर उस रात के बाद, मैं ज़िंदगी के बारे में गहराई से सोचने लगा। मेरे मन में ये सवाल उठने लगे कि हमें क्यों बनाया गया है? क्या ईश्‍वर हमारी परवाह करता है? क्या दुनिया में कभी शांति होगी?

बाद में मैं छुट्टियों में अपने माता-पिता के यहाँ गया हुआ था। वहाँ मेरी मुलाकात एक यहोवा के साक्षी से हुई। उसने मुझे एक बाइबल दी। अल्जीरिया लौटने के बाद, मैं उसे पढ़ने लगा। प्रकाशितवाक्य 21:3, 4 पढ़कर मैं हैरान रह गया। वहाँ लिखा है, “परमेश्‍वर का डेरा इंसानों के बीच है। . . . और वह उनकी आँखों से हर आँसू पोंछ देगा और न मौत रहेगी, न मातम, न रोना-बिलखना, न ही दर्द रहेगा।” मैं सोचने लगा, ‘क्या सचमुच ऐसा होगा?’ उस वक्‍त मैं बाइबल और परमेश्‍वर के बारे में कुछ नहीं जानता था।

सन्‌ 1959 में, सेना में अपनी सेवा पूरी करने के बाद मेरी मुलाकात फ्रांस्वां नाम के एक साक्षी से हुई। उसने मुझे बाइबल से बहुत-सी बातें बतायीं। जैसे परमेश्‍वर का नाम है, यहोवा। (भज. 83:18) वह दुनिया से अन्याय मिटा देगा, धरती को फिरदौस बना देगा और वही प्रकाशितवाक्य 21:3, 4 में लिखी बात पूरी करेगा।

फ्रांस्वां ने मुझे जो बातें सिखायीं, वे मुझे सही लगीं और पसंद भी आयीं। लेकिन मैं समझ गया कि पादरी जो बातें सिखा रहे थे, वे बाइबल से नहीं थीं। इसलिए मुझे उन पर बहुत गुस्सा आ रहा था। मन कर रहा था कि जाकर सबको बता दूँ कि वे झूठ सिखा रहे हैं। मैं अपने पिताजी की तरह इस नाइंसाफी से लड़ना चाहता था।

फ्रांस्वां और दूसरे साक्षियों ने, जो अभी-अभी मेरे दोस्त बने थे, मुझे शांत किया। उन्होंने मुझे समझाया कि मसीहियों का काम दूसरों पर दोष लगाना नहीं है, बल्कि राज की खुशखबरी सुनाना है। यीशु ने भी यह किया और उसने अपने चेलों को भी यही काम करने के लिए कहा। (मत्ती 24:14; लूका 4:43) मुझे और भी बातें सीखनी थीं। जैसे, अगर कोई बाइबल की शिक्षाओं से सहमत नहीं होता, तो मैं प्यार से और सोच-समझकर कैसे बात करूँ। बाइबल बढ़ावा देती है, “प्रभु के दास को लड़ने की ज़रूरत नहीं बल्कि ज़रूरी है कि वह सब लोगों के साथ नरमी से पेश आए।”—2 तीमु. 2:24.

मैंने खुद को बदला और 1959 में एक सर्किट सम्मेलन में बपतिस्मा लिया। वहाँ मेरी मुलाकात एनजैल से हुई। मुझे वह बहुत पसंद आयी। तब से मैं उसकी मंडली की सभाओं में जाने लगा। फिर 1960 में हमने शादी कर ली। वह एक बहुत अच्छी पत्नी है और यहोवा का दिया एक अनमोल तोहफा है।—नीति. 19:14.

जब हमारी शादी हुई थी

मैंने अनुभवी भाइयों से बहुत कुछ सीखा

सालों के दौरान मैंने अनुभवी भाइयों से बहुत कुछ सीखा। सबसे बड़ी बात मैंने यह सीखी कि हम यहोवा का दिया कोई भी काम तभी अच्छे-से कर पाएँगे, जब हम नम्र रहेंगे और नीतिवचन 15:22 में दी बात मानेंगे। वहाँ लिखा है, “बहुतों की सलाह से कामयाबी मिलती है।”

सन्‌ 1965 में, जब हम फ्रांस में मंडलियों का दौरा करते थे

सन्‌ 1964 में मैंने सर्किट निगरान का काम शुरू किया। उस वक्‍त मैं 27 साल का था। मुझे अलग-अलग मंडलियों का दौरा करके भाई-बहनों का हौसला बढ़ाना था और यहोवा के करीब आने में उनकी मदद करनी थी। कम तजुरबे की वजह से मुझसे कई गलतियाँ हुईं, लेकिन मैंने उन गलतियों से सीखने की कोशिश की। मैंने नीतिवचन 15:22 में लिखी बात भी मानी। मैंने अनुभवी भाइयों से बहुत कुछ सीखा, उनकी “सलाह” से मुझे फायदा हुआ।

मुझे उस वक्‍त की बात याद है, जब मैं नया-नया सर्किट निगरान बना था। मैंने पैरिस की एक मंडली का दौरा पूरा किया था। एक अनुभवी भाई मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या मैं अकेले में आपसे कुछ बात कर सकता हूँ?” मैंने कहा, “हाँ ज़रूर।”

उन्होंने मुझसे पूछा, “भाई लुई, डॉक्टर किसे देखता है? बीमार को या जो ठीक-ठाक है?”

मैंने कहा, “बीमार को।”

उन्होंने कहा, “बिलकुल सही। लेकिन मैंने ध्यान दिया है कि आपने ऐसे भाई-बहनों के साथ ज़्यादा वक्‍त बिताया जो मंडली में पहले से अच्छा कर रहे हैं जैसे, मंडली निगरान। लेकिन हमारी मंडली में बहुत-से भाई-बहन हैं जो निराश हैं, नए-नए सच्चाई में आए हैं या शर्मीले स्वभाव के हैं। अगर आप उनके साथ समय बिताएँगे या उनके घर खाना खाने जाएँगे, तो उन्हें अच्छा लगेगा, उनका हौसला बढ़ेगा।”

मैं बहुत शुक्रगुज़ार था कि भाई ने मुझे इतनी अच्छी सलाह दी। मैं साफ देख सकता था कि यहोवा की भेड़ों से वे कितना प्यार करते हैं। हालाँकि मेरे लिए अपनी गलती मानना आसान नहीं था, लेकिन फिर भी मैंने उनकी सलाह मानी। मैं यहोवा का धन्यवाद करता हूँ कि उसके संगठन में ऐसे अनुभवी भाई हैं।

सन्‌ 1969 और 1973 में पैरिस के कोलंब में दो अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन हुए। उन अधिवेशनों में मुझे एक विभाग का निगरान बनाया गया था। उस विभाग का काम था, अधिवेशन में आए लोगों के लिए खाने का इंतज़ाम करना। सन्‌ 1973 में मुझे करीब 60,000 लोगों के लिए पाँच दिन तक खाने का इंतज़ाम करना था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं यह कैसे करूँगा। फिर मुझे नीतिवचन 15:22 की बात याद आयी: हमें दूसरों की सलाह लेनी चाहिए। मैंने ऐसे अनुभवी भाइयों की सलाह ली जो पहले किसान थे, बावर्ची थे, गोश्‍त बेचते थे और खरीदारी का काम करते थे। इनके साथ मिलकर मैं इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी निभा पाया।

सन्‌ 1973 में मुझे और मेरी पत्नी को फ्रांस के बेथेल में सेवा करने के लिए बुलाया गया। वहाँ सबसे पहला काम जो मुझे दिया गया वह बहुत मुश्‍किल था। मुझे अफ्रीका के कैमरून देश में किसी तरह भाई-बहनों तक किताबें-पत्रिकाएँ पहुँचानी थीं। वहाँ 1970 से हमारे काम पर रोक लगी थी जो 1993 तक चली। मुझे लग रहा था कि यह काम मुझसे नहीं हो पाएगा। शाखा निगरान ने शायद भाँप लिया कि मैं घबरा रहा हूँ। वे मेरे पास आए और उन्होंने कहा, “कैमरून के भाइयों को इन किताबों-पत्रिकाओं की बहुत ज़रूरत है। हमें उनकी मदद करनी होगी।” और हमने ऐसा ही किया।

सन्‌ 1973 में नाइजीरिया में एक खास सभा हुई और कैमरून से भाई-बहनों को बुलाया गया

कैमरून के प्राचीनों से मिलने के लिए मैं उसके आस-पास के देशों में कई बार गया। वहाँ के प्राचीन बहुत हिम्मतवाले थे और समझदार भी। उन्होंने कैमरून के भाई-बहनों तक प्रकाशन पहुँचाने के कई सुझाव दिए। यहोवा ने हमारी मेहनत पर आशीष दी। हमारे भाई-बहनों को 20 सालों तक प्रहरीदुर्ग  पत्रिका और हमारी राज-सेवा  मिलती रही।

सन्‌ 1977 में, कैमरून से कुछ सर्किट निगरान और उनकी पत्नियाँ नाइजीरिया आए। उनसे मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा

मैंने अपनी प्यारी पत्नी से बहुत कुछ सीखा

शादी के पहले से ही एनजैल का यहोवा के साथ गहरा रिश्‍ता था और शादी के बाद भी उसका रिश्‍ता ऐसा ही बना रहा। इसलिए जिस दिन हमारी शादी हुई, उस दिन एनजैल ने मुझसे कहा कि मैं यहोवा से प्रार्थना करूँ कि हम साथ मिलकर उसकी सेवा करना चाहते हैं। और यहोवा ने हमारी प्रार्थना सुनी।

एनजैल ने मुझे यहोवा पर भरोसा करते रहना सिखाया। सन्‌ 1973 में जब हमें बेथेल आने के लिए कहा गया तो मेरा मन नहीं था, क्योंकि मुझे सर्किट काम बहुत पसंद था। लेकिन तब एनजैल ने मुझे याद दिलाया कि हमने अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित की है। इसलिए यहोवा अपने संगठन के ज़रिए हमें जो भी काम देता है, हमें उसे करना चाहिए। (इब्रा. 13:17) उसकी बात बिलकुल सही थी। इसलिए हम खुशी-खुशी बेथेल आ गए। मेरी पत्नी बहुत समझदार है और यहोवा से बहुत प्यार करती है। उसके इन गुणों की वजह से सालों से हमारा रिश्‍ता मज़बूत रहा है और हम ज़िंदगी में सही फैसले ले पाए हैं।

एनजैल के साथ फ्रांस के बेथेल में

एनजैल अब भी एक अच्छी पत्नी की तरह मेरा साथ दे रही है। हम संगठन के स्कूलों में जाना चाहते थे, इसलिए 75 की उम्र में हम दोनों ने अँग्रेज़ी सीखनी शुरू कर दी। हम एक अँग्रेज़ी मंडली में जाने लगे। नयी भाषा सीखने के लिए वक्‍त निकालना मेरे लिए थोड़ा मुश्‍किल था, क्योंकि मैं फ्रांस की शाखा-समिति का सदस्य था। लेकिन हम दोनों ने एक-दूसरे की मदद की। आज हमारी उम्र 80 से ज़्यादा है। लेकिन हम अब भी अँग्रेज़ी और फ्रेंच भाषा में सभाओं की तैयारी करते हैं, प्रचार में और सभाओं में जाने की पूरी कोशिश करते हैं। और यहोवा ने हमारी मेहनत पर आशीष दी है।

सन्‌ 2017 में हमें एक बहुत बड़ी आशीष मिली। हमें शाखा-समिति के सदस्यों और उनकी पत्नियों के लिए स्कूल में बुलाया गया। यह स्कूल पैटरसन के वॉचटावर शिक्षा केंद्र में हुआ।

यहोवा एक महान उपदेशक है। (यशा. 30:20) इसलिए वह बूढ़े-जवान अपने सभी सेवकों को सबसे अच्छी शिक्षा देता है। (व्यव. 4:5-8) मैंने अकसर देखा है कि जब नौजवान यहोवा की सुनते हैं और अनुभवी भाई-बहनों की सलाह मानते हैं, तो वे अपनी ज़िंदगी में सही फैसले कर पाते हैं और यहोवा के अच्छे सेवक बनते हैं। नीतिवचन 9:9 में भी यही बात बतायी गयी है, “बुद्धिमान को समझा, वह और बुद्धिमान बनेगा, नेक इंसान को सिखा, वह सीखकर अपना ज्ञान बढ़ाएगा।”

कभी-कभार मैं 60 साल पहले की उस अँधेरी रात को याद करता हूँ, जब मैं अल्जीरिया के पहाड़ों में अकेला था और बहुत डरा हुआ था। उस वक्‍त मैंने सोचा नहीं था कि आगे जाकर मेरी ज़िंदगी इतनी अच्छी होगी। मैंने दूसरों से बहुत कुछ सीखा है। यहोवा ने मुझे और एनजैल को ज़िंदगी में बहुत खुशियाँ दी हैं। हमने फैसला कर लिया है कि हम यहोवा से और अनुभवी भाई-बहनों से सीखते रहेंगे।